ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हमारा चित्त सन्देहरूपी सागरमें पूर्णतः डूबता जा रहा है । क्योंकि आपने महान् आश्चर्यजनक तथा संसारको विस्मित कर देनेवाली यह बात कह दी कि विष्णुके शरीरसे उनका सिर अलग हो गया था और वे सर्वपालक जनार्दन पुन: हयग्रीव हो गये थे ॥ १-२ ॥
वेद भी जिन भगवान् विष्णुका स्तवन करते हैं, समस्त देवता जिनका आश्रय ग्रहण करते हैं, जो आदिदेव हैं, जगत्के स्वामी हैं और सभी कारणोंके भी कारण हैं; दैवयोगसे उनका भी मस्तक कैसे कट गया ? हे महामते ! वह सब आप हमसे विस्तारपूर्वक शीघ्र कहिये ॥ ३-४ ॥
तदनन्तर एक समतल तथा शुभ स्थानपर पद्मासन लगाकर पृथ्वीपर स्थित प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुषपर कण्ठप्रदेश (गर्दन) टिकाये हुए उस धनुषकी नोंकपर भार देकर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु सो गये और थकावटके कारण दैवयोगसे उन्हें गहरी नींद आ गयी ॥ ७-८ ॥
कुछ समय बीतनेके बाद ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्रसहित सभी देवता यज्ञ करनेको उद्यत हुए । वे सब देवकार्यकी सिद्धिहेतु यज्ञोंके अधिपति जनार्दन भगवान् विष्णुके दर्शनार्थ वैकुण्ठलोक गये ॥ ९-१० ॥
अदृष्ट्वा तं तदा तत्र ज्ञानदृष्ट्या विलोक्य ते । यत्रास्ते भगवान् विष्णुर्जग्मुस्तत्र तदा सुराः ॥ ११ ॥
उस समय उन्हें वहाँ न देखकर वे देवतागण ज्ञान-दृष्टिसे देख करके वहाँ पहुँचे, जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान थे ॥ ११ ॥
सभी देवताओंके वहाँ रुक जानेके बाद जगत्पति विष्णुको निद्रामग्न देखकर ब्रह्मा-रुद्र आदि प्रमुख देवता अत्यन्त चिन्तित हुए ॥ १३ ॥
तानुवाच ततः शक्रः किं कर्तव्यं सुरोत्तमाः । निद्राभङ्गः कथं कार्यश्चिन्तयन्तु सुरोत्तमाः ॥ १४ ॥
तदनन्तर इन्द्रने देवताओंसे कहा-हे श्रेष्ठ देवगण ! अब क्या किया जाय ? हे श्रेष्ठ देवताओ ! अब आप सभी यह विचार करें कि इनकी निद्रा किस प्रकार भंग की जाय ? ॥ १४ ॥
तब शिवजीने इन्द्रसे कहा कि इनकी निद्राका भंग करनेसे महान् दोष लगेगा, किंतु हे श्रेष्ठ देवगण ! यज्ञकार्य भी अवश्यकरणीय है ॥ १५ ॥
उत्पादिता तदा वम्री ब्रह्मणा परमेष्ठिना । तया भक्षयितुं तत्र धनुषोऽग्रं धरास्थितम् ॥ १६ ॥
इसके बाद परमेष्ठी ब्रह्माजीने पृथ्वीपर स्थित धनुषके अग्रभागको खा जानेके लिये दीमकका सृजन किया ॥ १६ ॥
भक्षितेऽग्रे तदा निम्नं गमिष्यति शरासनम् । तदा निद्राविमुक्तोऽसौ देवदेवो भविष्यति ॥ १७ ॥ देवकार्यं तदा सर्वं भविष्यति न संशयः । स वम्रीं संदिदेशाथ देवदेवः सनातनः ॥ १८ ॥
[उन्होंने यह सोचा कि] दीमकके द्वारा धनुषका अग्रभाग खा लिये जानेपर धनुष नीचा हो जायगा । तब वे देवाधिदेव विष्णु निद्रामुक्त हो जायँगे । ऐसा होनेपर निस्सन्देह देवताओंका सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायगा । अतः सनातन ब्रह्माजीने दीमकको इस कार्यके लिये आदेश दिया ॥ १७-१८ ॥
तमुवाच तदा वम्री देवदेवस्य मापतेः । निद्राभङ्गः कथं कार्यो देवस्य जगतां गुरोः ॥ १९ ॥ निद्राभङ्गः कथाच्छेदो दम्पत्योः प्रीतिभेदनम् । शिशुमातृविभेदश्च ब्रह्महत्यासमं स्मृतम् ॥ २० ॥ तत्कथं देवदेवस्य करोमि सुखनाशनम् । किं फलं भक्षणाद्देव येन पापं करोम्यहम् ॥ २१ ॥
तब दीमकने ब्रह्माजीसे कहा कि देवाधिदेव जगद्गुरु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुका निद्रा-भंग मैं कैसे करूँ ? क्योंकि नींदमें बाधा डालना, कथामें विघ्न पैदा करना, पति-पत्नीके बीच भेद उत्पन्न करना एवं माँ पुत्रके बीच वैरभाव पैदा करनेके लिये करना ब्रह्महत्याके समान कहा गया है । अतः मैं देवाधिदेव भगवान् विष्णुका सुख क्यों नष्ट करूं ? हे देव ! उस धनुषका अग्रभाग खानेसे मेरा क्या लाभ है, जिसके लिये मैं ऐसा पाप करूँ ? ॥ १९-२१ ॥
प्रत्यंचाके खुल जानेपर धनुषका वह ऊपरी कोना मुक्त हो गया । इस प्रकार एक भीषण ध्वनि पैदा हुई जिससे वहाँ सभी देवगण भयभीत हो गये, ब्रह्माण्ड क्षुब्ध हो उठा, पृथ्वीमें कम्पन होने लगा, सभी समुद्र उद्विग्न हो गये, जलचर जन्तु व्याकुल हो उठे । प्रचण्ड हवाएँ प्रवाहित होने लगीं, पर्वत प्रकम्पित हो उठे, किसी दारुण आपदाके सूचक उल्कापात आदि महान् उपद्रव होने लगे, सूर्य तिरोहित हो गये तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त भयावह हो गयीं । यह सब देखकर देवतालोग चिन्तित होकर सोचने लगे कि इस दुर्दिनमें अब क्या होगा ? ॥ २६-२९ ॥
एवं चिन्तयतां तेषां मूर्धा विष्णोः सकुण्डलः । गतः समुकुटः क्वापि देवदेवस्य तापसाः ॥ ३० ॥
हे तपस्वियो ! वे देवतागण ऐसा सोच ही रहे थे कि किरीट-कुण्डलसहित देवाधिदेव भगवान् विष्णुका सिर [कटकर] कहीं चला गया ॥ ३० ॥
यह किस देवताकी माया है, जिसके द्वारा आपके सिरका हरण कर लिया गया । आप तो सर्वदा अच्छेद्य, अभेद्य और अदाह्य हैं ॥ ३४ ॥
एवं गते त्वयि विभो मरिष्यन्ति च देवताः । कीदृशस्त्वयि नः स्नेहः स्वार्थेनैव रुदामहे ॥ ३५ ॥
हे विभो ! इस प्रकार आपके चले जानेपर हम देवता तो मृत्युको प्राप्त हो जायेंगे । हमलोगोंके प्रति आपका कैसा स्नेह था । हमलोग स्वार्थके कारण ही रुदन कर रहे हैं ॥ ३५ ॥
नायं विघ्नः कृतो दैत्यैर्न यक्षैर्न च राक्षसैः । देवैरेव कृतः कस्य दूषणं च रमापते ॥ ३६ ॥
संकटकी यह स्थिति न तो दैत्योंने, न यक्षोंने और न राक्षसोंने ही पैदा की है, अपितु हम देवताओंने ही यह विघ्न उत्पन्न किया है; तथापि हे रमापते ! इसमें किसका दोष समझा जाय ? ॥ ३६ ॥
तब शिवसहित समस्त देवताओंको करुण क्रन्दन करते हुए देखकर वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ देवगुरु बृहस्पतिने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा-हे महाभागो ! अब इस प्रकार क्रन्दनसे क्या लाभ है ? इस समय तो विवेकका आश्रय लेकर कोई उपाय करना चाहिये । हे देवेन्द्र ! भाग्य एवं पुरुषार्थ-दोनों ही समान श्रेणीके हैं फिर भी उपाय करना ही चाहिये और वह दैवयोगसे ही सफल होता है ॥ ३९-४१ ॥
प्रत्येक प्राणी काल-क्रमके अनुसार सुख-दुःख भोगता ही है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । जिस प्रकार पूर्वकालमें कालकी प्रेरणासे शंकरजीने मेरा मस्तक काट दिया था, उसी प्रकार शापके कारण शिवजीका लिंग कटकर गिर गया था और उसी प्रकार आज विष्णुका सिर [कटकर] लवणसागरमें जा गिरा है ॥ ४४-४५ ॥
इस संसारमें जब इन महाभाग देवताओंको भी दुःखका भोग करनेके लिये विवश होना पड़ा तो फिर दुःख भोगनेसे भला कौन वंचित रह सकता है ? अतएव आपलोग शोकका परित्याग कर दें और उन महामाया, विद्यारूपा, सनातनी, ब्रह्मविद्या तथा जगत्को धारण करनेवाली देवीका ध्यान कीजिये, जिनके द्वारा यह चराचर सम्पूर्ण त्रिलोक व्याप्त है । वे निर्गुणा परा प्रकृति हमलोगोंका समस्त कार्य सिद्ध कर देंगी ॥ ४७-४९ ॥
वेदोंने कहा-हे देवि ! हे महामाये ! हे विश्वोत्पत्तिकारिणि ! हे शिवे ! हे निर्गुणे ! हे सर्वभूतेशि ! हे शिवकामार्थ-प्रदायिनि माता ! आपको नमस्कार है ॥ ५३ ॥
आप सभी प्राणियोंको आश्रय देनेके लिये पृथ्वीस्वरूपा हैं तथा प्राणधारियों की प्राण भी है । बुद्धि, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, एवं स्मृति सब कुछ आप ही हैं ॥ ५४ ॥
ॐकारमें अर्धमात्राके रूपमें आप ही विराजमान हैं । आप गायत्री, भूः, भुवः, स्वः आदि व्याहृति, जया, विजया, धात्री, लज्जा, कीर्ति, स्पृहा एवं दया सभी कुछ हैं ॥ ५५ ॥
हे अम्ब ! आप तीनों लोकोंके रचना-तन्त्रमें दक्ष, करुणरससे युक्त, सभी प्राणियोंकी माँ, विद्या, कल्याणी, सभी प्राणियोंकी हितसाधिका, सर्वश्रेष्ठ, वाग्बीजमन्त्रमें वास करनेमें निपुण तथा संसारका क्लेश दूर करनेवाली हैं; आपकी हम स्तुति करते हैं ॥ ५६ ॥
ब्रह्मा हरः शौरिसहस्रनेत्र- वाग्वह्निसूर्या भुवनाधिनाथाः । ते त्वत्कृताः सन्ति ततो न मुख्या माता यतस्त्वं स्थिरजङ्गमानाम् ॥ ५७ ॥
ब्रह्मा, शंकर, विष्णु, इन्द्र, सरस्वती, अग्नि, सूर्य तथा सभी भुवनोंके स्वामी आपके द्वारा ही निर्मित किये गये हैं । अत: उनकी अपनी कोई विशेषता नहीं है; आप ही सभी चराचर जगत्की माता हैं ॥ ५७ ॥
हे जननि ! जब आप जगत्की रचनाकी कामना करती हैं, तब आप सर्वप्रथम ब्रह्मा, विष्णु, महेशइन प्रमुख देवोंका सृजन करती हैं । उन्हींके माध्यमसे एकमात्र आप ही जगत्का सृजन, पालन एवं संहारकार्य पूर्ण कराती हैं । हे देवि ! आपमें संसारका लेशमात्र भी नहीं रहता ॥ ५८ ॥
न ते रूपं वेत्तुं सकलभुवने कोऽपि निपुणो न नाम्नां संख्यां ते कथितुमिह योग्योऽस्ति पुरुषः । यदल्पं कीलालं कलयितुमशक्तः स तु नरः कथं पारावाराकलनचतुरः स्यादृतमतिः ॥ ५९ ॥
हे देवि ! सम्पूर्ण संसारमें ऐसा कोई भी निपुण प्राणी नहीं है, जो आपके रूपको जान सके और न तो ऐसा कोई योग्य मनुष्य है, जो आपके नामोंकी संख्याकी गणना करनेमें समर्थ हो । जो थोड़ेसे जलका सन्तरण करनेमें असमर्थ हो, वह बुद्धिसम्पन्न मनुष्य भला महासागरको पार करने में कुशल कैसे होगा ? ॥ ५९ ॥
न देवानां मध्ये भगवति तवानन्तविभवं विजानात्येकोऽपि त्वमिह भुवनैकासि जननी । कथं मिथ्या विश्वं सकलमपि चैका रचयसि प्रमाणं त्वेतस्मिन्निगमवचनं देवि विहितम् ॥ ६० ॥
हे भगवति ! आपके अन्तहीन वैभवको जान सकनेमें देवताओंमें कोई भी समर्थ नहीं है । एकमात्र आप समस्त विश्वकी माता हैं । आप अकेले ही इस सम्पूर्ण मिथ्या जगत्की रचना कैसे करती हैं ? हे देवि ! एकमात्र वेदवाक्य ही आपके इस सृष्टिकार्यकी प्रामाणिकता सिद्ध करते हैं ॥ ६० ॥
हे भगवति ! समग्र जगत्की परम कारणस्वरूपा होती हुई भी आप इच्छारहित हैं । अहो ! आपका अद्भुत चरित्र हमारे मनको विस्मित कर देता है । समस्त वेदोंसे भी अज्ञेय आपके गुणों एवं प्रभावोंका वर्णन हमलोग भला किस प्रकार कर सकते हैं । क्योंकि स्वयं आप भी अपने परमतत्त्वको नहीं जानतीं ॥ ६१ ॥
न किं जानासि त्वं जननि मधुजिन्मौलिपतनं ॥ शिवे किं वा ज्ञात्वा विविदिषसि शक्तिं मधुजितः । हरेः किं वा मातर्दुरितततिरेषा बलवती ॥ भवत्याः पादाब्जे भजननिपुणे क्वास्ति दुरितम् ॥ ६२ ॥
हे जननि ! क्या आप भगवान् विष्णुके शिरोच्छेदनकी घटना नहीं जानती हैं ? हे शिवे ! अथवा क्या यह जानकर भी आप मधुजित् विष्णुकी शक्तिकी परीक्षा करना चाहती हैं ? हे माता ! अथवा क्या यह विष्णुके महान् पापसमूहका फल है ? किंतु आपके चरणकमलोंका भजन करनेमें निपुण प्राणीसे तो पाप हो ही नहीं सकता ॥ ६२ ॥
हे माता ! आप इस देवसमूहकी भारी उपेक्षा क्यों कर रही हैं ? भगवान् विष्णुके मस्तक कटनेकी घटना हमारे लिये अत्यन्त आश्चर्यजनक तथा महान् कष्टदायक बात है । हे माता ! आप जननरूपी दुःखका नाश करनेमें कुशल हैं, अब हम यह नहीं जान पा रहे हैं कि विष्णुके सिर-संयोजनमें विलम्ब क्यों हो रहा है ? ॥ ६३ ॥
हे देवि ! सभी देवताओंके देवत्वाभिमानरूपी दोषको अपने मनमें समझकर आपने ही ऐसा किया है, अथवा देवजन्य दुष्कृतको विष्णुमें स्थापित किया है, अथवा विष्णुको संग्राम-विजय करनेका अहंकार हो गया था, जिसे अतिशीघ्र दूर करनेके लिये आपने यह लीला रची है । हे माता ! हम आपके मनोभावोंको समझने में पूर्णतया असमर्थ हैं ॥ ६४ ॥
हे भगवति ! अथवा युद्धमें पराभूत किये गये दैत्योंने किसी मनोहर तीर्थमें घोर तपस्या करके आपसे वरदान प्राप्त कर लिया है, जो विष्णुके सिर कटनेका कारण बना । हे भवानि ! अथवा विष्णुको सिरविहीनरूपमें देखनेके लिये आप इस समय कोई विनोद कर रही हैं ॥ ६५ ॥
हे आद्ये ! आप सिंधुसुता लक्ष्मीपर किसी कारणसे आक्रोशित तो नहीं हैं । आप उन्हें स्वामीविहीन किसलिये देखना चाह रही हैं ? आप अपने ही अंशसे प्रादुर्भूत लक्ष्मीका अपराध क्षमा करें और भगवान् विष्णुको जीवनदान देकर रमाको प्रसन्न कर दें ॥ ६६ ॥
जगत्के समस्त कार्योको सम्पादित करनेमें प्रमुख भूमिकावाले अतिशय प्रभावशाली ये देवता आपको निरन्तर नमस्कार करते हैं । हे देवि ! सर्वलोकाधिपति विष्णुको जीवित करके आप देवताओंको शोकसागरसे पार कीजिये ॥ ६७ ॥
हे अम्ब ! भगवान् विष्णुका सिर छिन्न होकर कहाँ चला गया-यह हम नहीं जानते हैं और इस समय इन्हें जीवित करनेके लिये अन्य कोई युक्ति भी नहीं सूझ रही है । हे देवि ! मृत प्राणीको जीवित करनेमें जिस प्रकार अमृत समर्थ है, उसी प्रकार समग्र संसारकी आप जीवनदात्री हैं । ६८ ॥
सूत उवाच एवं स्तुता तदा देवी गुणातीता महेश्वरी । प्रसन्ना परमा माया वेदैः साङ्गैश्च सामगैः ॥ ६९ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! इस प्रकार सामगाननिपुण सांगवेदोंद्वारा स्तुति किये जानेसे गुणातीता, महेश्वरी, परात्परा महामाया भगवती प्रसन्न हो गयीं ॥ ६९ ॥
उसी समय देवताओंको सुख प्रदान करनेवाले शब्दोंसे युक्त और भक्तजनोंको आनन्दित करनेवाली आकाशस्थित अशरीरिणी शुभ वाणीने उनसे कहा ॥ ७० ॥
मा कुरुध्वं सुराश्चिन्तां स्वस्थास्तिष्ठन्तु चामराः । स्तुताहं निगमैः कामं सन्तुष्टास्मि न संशयः ॥ ७१ ॥
हे देवताओ ! आप लोग किसी प्रकारकी चिन्ता न करें और स्वस्थचित्त रहें । हे अमरगण ! इन वेदोंके भावपूर्ण स्तवनसे मैं परम प्रसन्न हो गयी हूँ, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ॥ ७१ ॥
मनुष्यलोकमें जो प्राणी इस स्तुतिसे मेरी आराधना करेगा अथवा भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेगा, उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जायेंगी ॥ ७२ ॥
शृणोति वा स्तोत्रमिदं मदीयं भक्त्या त्रिकालं सततं नरो यः । विमुक्तदुःखः स भवेत्सुखी च वेदोक्तमेतन्ननु वेदतुल्यम् ॥ ७३ ॥
जो मनुष्य त्रिकाल (प्रातः, मध्याहू सायं) मेरी स्तुतिको नित्य भक्तिपूर्वक सुनेगा, वह सभी दुःखोंसे विमुक्त होकर परम सुखी हो जायगा । वेदोंद्वारा उच्चारित किये जानेके कारण यह स्तुति वेदोंके समान ही है ॥ ७३ ॥
एक बार अपने समीप बैठी हुई अपनी प्रियतमा सागरपुत्री लक्ष्मीका चित्ताकर्षक मुख देखकर भगवान् विष्णु हंस पड़े ॥ ७५ ॥
तया ज्ञातं हरिर्नूनं कथं मां हसति प्रभुः । विरूपं हरिणा दृष्टं मुखं मे केन हेतुना ॥ ७६ ॥ विनापि कारणेनाद्य कथं हास्यस्य सम्भवः । सपत्नीव कृता तेन मन्येऽन्या वरवर्णिनी ॥ ७७ ॥
उन्होंने सोचा कि भगवान् विष्णु मुझे देखकर क्यों हँस पड़े ? मेरे मुखमें विष्णुजीद्वारा दोष देखे जानेका आखिर क्या कारण हो सकता है ? और फिर बिना किसी कारणके उनका हँसना सम्भव नहीं हो सकता । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी अन्य सुन्दर स्त्रीको मेरी सौत बना लिया है । ७६-७७ ॥
तब लक्ष्मीजीके शरीरमें तामसी शक्तिका समावेश हो जानेके कारण वे अत्यन्त क्रोधित हो उठीं और उन्होंने मन्द स्वरमें यह कहा-'तुम्हारा यह सिर कटकर गिर जाय' ॥ ८० ॥
स्त्रीस्वभावके कारण, भावीवश तथा संयोगसे बिना सोचे-समझे ही लक्ष्मीजीने अपने ही सुखको विनष्ट करनेवाला शाप दे दिया । सौतके व्यवहारादिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख वैधव्यसे भी बढ़कर होता है । मनमें ऐसा सोचकर तथा शरीरपर तामसी शक्तिका प्रभाव रहनेके कारण उन्होंने ऐसा कह दिया था ॥ ८१-८२ ॥
अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभता । अशौचं निर्दयत्वं च स्त्रीणां दोषाः स्वभावजाः ॥ ८३ ॥
मिथ्याचरण, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, अपवित्रता तथा दयाहीनता-ये स्त्रियोंके स्वाभाविक दोष हैं । ८३ ॥
वह दैत्य आहारका त्यागकर समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके तथा सभी प्रकारके भोगैश्वर्यसे दूर रहते हुए मेरे मायाबीजात्मक एकाक्षर मन्त्र (ही)का जप करता रहा । ८७ ॥
ध्यायन्मां तामसीं शक्तिं सर्वभूषणभूषिताम् । एवं वर्षसहस्रं च तपश्चक्रेऽतिदारुणम् ॥ ८८ ॥
इस प्रकार समस्त आभूषणोंसे विभूषित मेरी तामसी शक्तिका सतत ध्यान करता हुआ वह एक हजार वर्षांतक कठोर तप करता रहा ॥ ८८ ॥
उस समय सिंहपर आरूढ़ हुई मैंने दयापूर्वक उससे कहा-हे महाभाग ! तुम वरदान माँगो; हे सुव्रत ! मैं तुम्हें यथेच्छ वरदान दूंगी ॥ ९० ॥
इति श्रुत्वा वचो देव्या दानवः प्रेमपूरितः । प्रदक्षिणां प्रणामं च चकार त्वरितस्तदा ॥ ९१ ॥ दृष्ट्वा रूपं मदीयं स प्रेमोस्फुल्लविलोचनः । हर्षाश्रुपूर्णनयनस्तुष्टाव स च मां तदा ॥ ९२ ॥
वह दानव देवीका यह वचन सुनकर प्रेमविह्वल हो उठा और उसने तत्काल प्रणाम और प्रदक्षिणा की । मेरा रूप देखते ही प्रेमभावनाके कारण प्रफुल्लित नेत्रोंवाला तथा हर्षातिरेकके कारण अश्रुपूरित नयनोंवाला वह दानव मेरी स्तुति करने लगा ॥ ९१-९२ ॥
हयग्रीव बोला-हे महामाये ! हे जगत्का सृजन-पालन-संहार करनेवाली ! हे भक्तोंपर कृपा करनेमें निपुण ! हे सकल कामनाप्रदायिनि ! हे मोक्षदायिनि ! हे शिवे ! आप देवीको नमस्कार है ॥ ९३ ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश-इन पाँच महाभूतोंका कारण आप ही हैं तथा गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-इन तत्त्वोंका कारण भी आप ही हैं ॥ ९४ ॥
घ्राणं च रसना चक्षुस्त्वक्श्रोत्रमिन्द्रियाणि च । कर्मेन्द्रियाणि चान्यानि त्वत्तः सर्वं महेश्वरि ॥ ९५ ॥
हे महेश्वरि ! नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कान-ये ज्ञानेन्द्रियाँ तथा हाथ, पैर, वाक्, लिंग, गुदा-ये कर्मेन्द्रियाँ आपसे ही उत्पन्न हैं ॥ १५ ॥
देव्युवाच किं तेऽभीष्टं वरं ब्रूहि वाञ्छितं यद्ददामि तत् । परितुष्टास्मि भक्त्या ते तपसा चाद्भुतेन च ॥ ९६ ॥
देवी बोलीं-तुम्हारा क्या अभीष्ट है ? जो कुछ भी तुम्हारा अभिलषित वर हो, माँग लो । मैं उसे अवश्य पूर्ण करूँगी; क्योंकि मैं तुम्हारी अनन्य भक्ति तथा अद्भुत तपस्यासे अतिशय प्रसन्न हूँ ॥ ९६ ॥
सूतजी बोले-देवताओंका यह वचन सुनकर विश्वकर्माने अतिशीघ्रतापूर्वक अपने खड्गसे देवताओंक सामने ही घोड़ेका सिर काटा । तत्पश्चात् उन्होंने घोड़ेका वह सिर अविलम्ब विष्णुभगवान्के शरीरमें संयोजित कर दिया और इस प्रकार महामाया भगवतीकी कृपासे वे भगवान् विष्णु हयग्रीव हो गये ॥ १०८-१०९ ॥
महामाया भगवतीका चरित्र अति पावन है तथा पापोंका नाश कर देता है । इस चरित्रका पाठ तथा श्रवण करनेवाले प्राणियोंको सभी प्रकारकी सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं ॥ ११२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे हयग्रीवावतारकथनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥