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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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मधुकैटभयोर्युद्धोद्योगवर्णनम् -
शेषशायी भगवान् विष्णुके कर्णमलसे मधु-कैटभकी उत्पत्ति तथा उन दोनोंका ब्रह्माजीसे युद्धके लिये तत्पर होना


ऋषय ऊचुः
सौम्य यच्च त्वया प्रोक्तं शौरेर्युद्धं महार्णवे ।
मधुकैटभयोः सार्धं पञ्चवर्षसहस्रकम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे सौम्य ! आपने मधु और कैटभके साथ भगवान् विष्णुद्वारा महासिन्धुमें पाँच हजार वर्षांतक युद्ध किये जानेकी पहले चर्चा की थी ॥ १ ॥

कस्मात्तौ दानवौ जातौ तस्मिन्नेकार्णवे जले ।
महावीर्यो दुराधर्षौ देवैरपि सुदुर्जयौ ॥ २ ॥
महावीर्यसम्पन्न, किसीसे भी पराभूत न होनेवाले तथा देवताओंसे भी अपराजेय वे दोनों दानव उस एकार्णवके जलमें किससे प्रादुर्भूत हुए ? ॥ २ ॥

कथं तावसुरौ जातौ कथं च हरिणा हतौ ।
तदाचक्ष्व महाप्राज्ञ चरितं परमाद्‌भुतम् ॥ ३ ॥
वे असुर क्यों उत्पन्न हुए तथा भगवान्के द्वारा उनका वध क्यों किया गया ? हे महामते ! आप यह परम अद्भुत आख्यान हमको सुनाइये ॥ ३ ॥

श्रोतुकामा वयं सर्वे त्वं वक्ता च बहुश्रुतः ।
दैवाच्चात्रैव संजातः संयोगश्च तथावयोः ॥ ४ ॥
हमलोग यह कथा सुननेको इच्छुक हैं और आप अति प्रसिद्ध वक्ता हैं । हमारा और आपका यह सम्पर्क दैवयोगसे ही हुआ है ॥ ४ ॥

मूर्खेण सह संयोगो विषादपि सुदुर्जरः ।
विज्ञेन सह संयोगः सुधारससमः स्मृतः ॥ ५ ॥
मूर्खके साथ स्थापित किया गया सम्पर्क विषसे भी अधिक अनिष्टकर होता है और इसके विपरीत विद्वानोंका सम्पर्क पीयूषरसके तुल्य माना गया है ॥ ५ ॥

जीवन्ति पशवः सर्वे खादन्ति मेहयन्ति च ।
जानन्ति विषयाकारं व्यवायसुखमद्‌भुतम् ॥ ६ ॥
न तेषां सदसज्ज्ञानं विवेको न च मोक्षदः ।
पशुभिस्ते समा ज्ञेया येषां न श्रवणादरः ॥ ७ ॥
पशु भी जीवनयापन करते हैं, वे भी आहार ग्रहण करते हैं, मल-मूत्रादिका विसर्जन करते हैं और विषयासक्त होकर इन्द्रियजन्य सुखकी अनुभूति करते हैं; किंतु उनमें अच्छे-बुरेका लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता तथा वे मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले विवेकसे भी रहित होते हैं । अतएव उत्तम बातोंको सुननेमें जो लोग श्रद्धा-भाव नहीं रखते, उन्हें पशु-तुल्य ही समझना चाहिये ॥ ६-७ ॥

मृगाद्याः पशवः केचिज्जानन्ति श्रावणं सुखम् ।
अश्रोत्राः फणिनश्चैव मुमुहुर्नादपानतः ॥ ८ ॥
मृग आदि बहुत-से पशु श्रवण-सुखका अनुभव करते हैं और कानविहीन सर्प भी ध्वनि सुनकर मुग्ध हो जाते हैं ॥ ८ ॥

पञ्चानामिन्द्रियाणां वै शुभे श्रवणदर्शने ।
श्रवणाद्वस्तुविज्ञानं दर्शनाच्चित्तरञ्जनम् ॥ ९ ॥
पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंमें श्रवणेन्द्रिय तथा दर्शनेन्द्रियदोनों ही शुभ होती हैं; क्योंकि सुननेसे वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त होता है और देखनेसे मनोरंजन होता है ॥ ९ ॥

श्रवणं त्रिविधं प्रोक्तं सात्त्विकं राजसं तथा ।
तामसं च महाभाग सुज्ञोक्तं निश्चयान्वितम् ॥ १० ॥
हे महाभाग ! विद्वानोंने निर्धारित करके कहा है कि सात्त्विक, राजस तथा तामस भेदानुसार श्रवण तीन प्रकारका होता है ॥ १० ॥

सात्त्विकं वेदशास्त्रादि साहित्यं चैव राजसम् ।
तामसं युद्धवार्ता च परदोषप्रकाशनम् ॥ ११ ॥
वेद-शास्त्रादिका श्रवण सात्त्विक, साहित्यका श्रवण राजस तथा युद्धसम्बन्धी बातों एवं दूसरोंकी निन्दाका श्रवण तामस कहा गया है ॥ ११ ॥

सात्त्विकं त्रिविधं प्रोक्तं प्रज्ञावद्‌भिश्च पण्डितैः ।
उत्तमं मध्यमं चैव तथैवाधममित्युत ॥ १२ ॥
प्रज्ञावान् पण्डितोंद्वारा सात्त्विक श्रवणके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम-ये तीन प्रकार बताये गये हैं ॥ १२ ॥

उत्तमं मोक्षफलदं स्वर्गदं मध्यमं तथा ।
अधमं भोगदं प्रोक्तं निर्णीय विदितं बुधैः ॥ १३ ॥
उत्तम श्रवण मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला, मध्यम श्रवण स्वर्ग देनेवाला तथा अधम श्रवण भोगोंकी उपलब्धि करानेवाला कहा गया है । विद्वानोंने अच्छी तरह सोच-समझकर ऐसा निर्धारण किया है ॥ १३ ॥

साहित्यं चैव त्रिविधं स्वीयायां चोत्तमं स्मृतम् ।
मध्यमं वारयोषायां परोढायां तथाधमम् ॥ १४ ॥
साहित्य भी तीन प्रकारका होता है । जिस साहित्यमें स्वकीया नायिकाका वर्णन हो वह उत्तम, जिस साहित्यमें वेश्याओंका वर्णन हो वह मध्यम तथा जिस साहित्यमें परस्त्रीवर्णन हो, वह अधम साहित्य कहा गया है । १४ ॥

तामसं त्रिविधं ज्ञेयं विद्वद्‌भिः शास्त्रदर्शिभिः ।
आततायिनियुद्धं यत्तदुत्तममुदाहृतम् ॥ १५ ॥
मध्यमं चापि विद्वेषात्पाण्डवानां तथारिभिः ।
अधमं निर्निमित्तं तु विवादे कलहे तथा ॥ १६ ॥
शास्त्रोंके परम निष्णात विद्वानोंने तामस श्रवणके तीन भेद बतलाये हैं । किसी पापाचारीके संहारसे सम्बन्धित युद्धवर्णनका श्रवण उत्तम, कौरव-पाण्डवोंकी तरह द्वेषके कारण शत्रुतामें युद्धवर्णनका श्रवण मध्यम तथा अकारण विवाद एवं कलहसे हुए युद्धके वर्णनका श्रवण अधम कहा गया है ॥ १५-१६ ॥

तदत्र श्रवणं मुख्यं पुराणस्य महामते ।
बुद्धिप्रवर्धनं पुण्यं ततः पापप्रणाशनम् ॥ १७ ॥
हे महामते ! इनमें पुराणोंके श्रवणकी ही प्रधानता मानी गयी है । क्योंकि इनके श्रवणसे बुद्धिका विकास होता है, पुण्य प्राप्त होता है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १७ ॥

तदाख्याहि महाबुद्धे कथां पौराणिकीं शुभाम् ।
श्रुतां द्वैपायनात्पूर्वं सर्वार्थस्य प्रसाधिनीम् ॥ १८ ॥
अतएव हे महामते ! पूर्वकालमें द्वैपायन महर्षि व्याससे सुनी हुई समस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाली परम पवित्र पौराणिक कथा कहिये ॥ १८ ॥

सूत उवाच
यूयं धन्या महाभागा धन्योऽहं पृथिवीतले ।
येषां श्रवणबुद्धिश्च ममापि कथने किल ॥ १९ ॥
सूतजी बोले-हे महाभाग ! इस पृथ्वीलोकमें आप-लोग धन्य हैं और मैं भी धन्य हूँ: क्योंकि आपलोगोंमें कथा-श्रवणके प्रति और मुझमें कथावाचनके प्रति विवेक जाग्रत् हुआ है ॥ १९ ॥

पुरा चैकार्णवे जाते विलीने भुवनत्रये ।
शेषपर्यङ्कसुप्ते च देवदेवे जनार्दने ॥ २० ॥
विष्णुकर्णमलोद्‍भूतौ दानवौ मधुकैटभौ ।
महाबलौ च तौ दैत्यौ विवृद्धौ सागरे जले ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें प्रलयावस्थामें जब तीनों लोक महाजलराशिमें विलीन हो गये और देवाधिदेव भगवान् विष्णु शेष शय्यापर सो गये तब विष्णुके कानोंकी मैलसे मधु-कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए और वे महाबली दैत्य उस महासागरमें बढ़ने लगे ॥ २०-२१ ॥

कीडमानौ स्थितौ तत्र विचरन्तावितस्ततः ।
तावेकदा महाकायौ क्रीडासक्तौ महार्णवे ॥ २२ ॥
चिन्तामवापतुश्चित्ते भ्रातराविव संस्थितौ ।
नाकारणं भवेत्कार्यं सर्वत्रैषा परम्परा ॥ २३ ॥
वे दोनों दैत्य क्रीडा करते हुए उसी सागरमें इधर-उधर भ्रमण करते रहे । एक बार क्रीडापरायण विशाल शरीरवाले उन दोनों भाइयोंने विचार किया कि बिना किसी कारणके कोई भी कार्य नहीं होता; यह एक सार्वत्रिक परम्परा है ॥ २२-२३ ॥

आधेयं तु विनाधारं न तिष्ठति कथञ्चन ।
आधाराधेयभावस्तु भाति नो चित्तगोचरः ॥ २४ ॥
बिना किसी आधारके आधेयकी सत्ता कदापि सम्भव नहीं है; अतः आधार-आधेयका भाव हमारे मनमें बार-बार आता रहता है ॥ २४ ॥

क्व तिष्ठति जलं चेदं सुखरूपं सुविस्तरम् ।
केन सृष्टं कथं जातं मग्नावावाञ्जले स्थितौ ॥ २५ ॥
अति विस्तारवाला तथा सुखद यह जल किस आधारपर स्थित है ? किसने इसका सृजन किया ? यह किस प्रकार उत्पन्न हुआ और इस जलमें निमग्न हमलोग कैसे स्थित हैं ? ॥ २५ ॥

आवां वा कथमुत्पन्नौ केन वोत्पादितावुभौ ।
पितरौ क्वेति विज्ञानं नास्ति कामं तथावयोः ॥ २६ ॥
हम दोनों कैसे पैदा हुए और किसने हम दोनोंको उत्पन्न किया ? हमारे माता-पिता कौन हैं ?-इस बातका भी कोई ज्ञान हम दोनोंको नहीं है ॥ २६ ॥

सूत उवाच
एवं कामयमानौ तौ जग्मतुर्न विनिश्चयम् ।
उवाच कैटभस्तत्र मधुं पार्श्वे स्थितं जले ॥ २७ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार चिन्तन करते हुए वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँचे, तब कैटभने जलके भीतर अपने पास स्थित मधुसे कहा ॥ २७ ॥

कैटभ उवाच
मधो वामत्र सलिले स्थातुं शक्तिर्महाबला ।
वर्तते भ्रातरचला कारणं सा हि मे मता ॥ २८ ॥
कैटभ बोला-हे भाई मधु ! हम दोनोंके इस जलमें स्थित रहनेका कारण कोई अचल महाबली शक्ति है, ऐसा ही मैं मानता हूँ ॥ २८ ॥

तया ततमिदं तोयं तदाधारं च तिष्ठति ।
सा एव परमा देवी कारणञ्च तथावयोः ॥ २९ ॥
उसीसे समुद्रका सम्पूर्ण जल व्याप्त है और उसी शक्तिके आधारपर यह जल टिका हुआ है तथा वे ही परात्परा देवी हम दोनोंकी भी स्थितिका कारण हैं ॥ २९ ॥

एवं विबुध्यमानौ तौ चिन्ताविष्टौ यदासुरौ ।
तदाकाशे श्रुतं ताभ्यां वाग्बीजं सुमनोहरम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार विविध चिन्तन करते हुए वे दोनों दानव जब सचेत हुए तब उन्हें आकाशमें अत्यन्त मनोहारी वाग्बीजस्वरूप (एँ) वाणी सुनायी पड़ी ॥ ३० ॥

गृहीतं च ततस्ताभ्यां तस्याभ्यासो दृढः कृतः ।
तदा सौदामनी दृष्टा ताभ्यां खे चोत्थिता शुभा ॥ ३१ ॥
उसे सुनकर उन दोनोंने सम्यक् रूपसे हृदयंगम कर लिया और वे उसका दृढ़ अभ्यास करने लगे । तदनन्तर उन्हें आकाशमें कौंधती हुई सुन्दर विद्युत् दिखलायी पड़ी ॥ ३१ ॥

ताभ्यां विचारितं तत्र मन्त्रोऽयं नात्र संशयः ।
तथा ध्यानमिदं दृष्टं गगने सगुणं किल ॥ ३२ ॥
तब उन्होंने सोचा कि निःसन्देह यह मन्त्र ही है और यह सगुण ध्यान ही आकाशमें प्रत्यक्ष दृष्टिगत हुआ है ॥ ३२ ॥

निराहारौ जितात्मानौ तन्मनस्कौ समाहितौ ।
बभूवतुर्विचिन्त्यैवं जपध्यानपरायणौ ॥ ३३ ॥
तदनन्तर वे दोनों दैत्य आहारका परित्यागकर इन्द्रियोंको आत्मनियन्त्रित करके उसी विद्युज्ज्योतिमें मन केन्द्रित किये हुए समाधिस्थ भावसे जप-ध्यान करनेमें लीन हो गये ॥ ३३ ॥

एवं वर्षसहस्रं तु ताभ्यां तप्तं महत्तपः ।
प्रसन्ना परमा शक्तिर्जाता सा परमा तयोः ॥ ३४ ॥
इस प्रकार उन दोनोंने एक हजार वर्षांतक कठोर तपस्या की, जिससे वे परात्परा शक्ति उन दोनोंपर अतिशय प्रसन्न हो गयीं ॥ ३४ ॥

खिन्नौ तौ दानवौ दृष्ट्वा तपसे कृतनिश्चयौ ।
तयोरनुग्रहार्थाय वागुवाचाशरीरिणी ॥ ३५ ॥
घोर तपस्याके लिये अपने निश्चयपर दृढ़ रहनेवाले उन दोनों दानवोंको अत्यन्त परिश्रान्त देखकर उनपर कृपाके निमित्त यह आकाशवाणी हुई ॥ ३५ ॥

वरं वां वाञ्छितं दैत्यौ ब्रूतं परमसम्मतम् ।
ददामि परितुष्टास्मि युवयोस्तपसा किल ॥ ३६ ॥

हे दैत्यो ! तुम दोनोंकी कठोर तपश्चर्यासे मैं परम प्रसन्न हूँ । अतएव तुम दोनों अपना मनोवांछित वरदान माँगो; मैं अवश्य दूंगी ॥ ३६ ॥

सूत उवाच
इति श्रुत्वा तु तां वाणीं दानवावूचतुस्तदा ।
स्वेच्छया मरणं देवि वरं नौ देहि सुव्रते ॥ ३७ ॥
सूतजी बोले-तदनन्तर उस आकाशवाणीको सुनकर उन दानवोंने कहा-हे देवि ! हमारी मृत्यु हमारे इच्छानुसार हो; हे सुव्रते ! हमें आप यही वरदान दीजिये ॥ ३७ ॥

वागुवाच
वाञ्छितं मरणं दैत्यौ भवेद्वा मत्प्रसादतः ।
अजेयौ देवदैत्यैश्च भ्रातरौ नात्र संशयः ॥ ३८ ॥
वाणीने कहा-हे दैत्यो ! मेरी कृपासे अब तुम दोनों अपनी इच्छासे ही मृत्युको प्राप्त होओगे । दानव और देवता कोई भी तुम दोनों भाइयोंको पराजित नहीं कर सकेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३८ ॥

सूत उवाच
इति दत्तवरौ देव्या दानवौ मददर्पितौ ।
चक्रतुः सागरे क्रीडां यादोगणसमन्वितौ ॥ ३९ ॥
सूतजी बोले-भगवतीसे ऐसा वरदान प्राप्तकर वे दोनों दैत्य मदोन्मत्त होकर उस महासागरमें जलचर जीवोंके साथ क्रीड़ातत्पर हो गये ॥ ३९ ॥

कालेन कियता विप्रा दानवाभ्यां यदृच्छया ।
दृष्टः प्रजापतिर्ब्रह्मा पद्मासनगतः प्रभुः ॥ ४० ॥
हे विप्रो ! कुछ समय व्यतीत होनेपर उन दानवोंने संयोगवश जगत्लष्टा ब्रह्माजीको कमलके आसनपर बैठे हुए देखा ॥ ४० ॥

दृष्ट्वा तु मुदितावास्तां युद्धकामौ महाबलौ ।
तमूचतुस्तदा तत्र युद्धं नौ देहि सुव्रत ॥ ४१ ॥
नोचेत्पद्मं परित्यज्य यथेष्टं गच्छ माचिरम् ।
यदि त्वं निर्बलश्चासि क्व योग्यं शुभमासनम् ॥ ४२ ॥
वीरभोग्यमिदं स्थानं कातरोऽसि त्यजाशु वै ।
तयोरिति वचः श्रुत्वा चिन्तामाप प्रजापतिः ॥ ४३ ॥
दृष्ट्वा च बलिनौ वीरौ किं करोमीति तापसः ।
चिन्ताविष्टस्तदा तस्थौ चिन्तयन्मनसा तदा ॥ ४४ ॥
उन्हें देखकर युद्धकी लालसासे वे दोनों महाबली दैत्य प्रसन्न हो उठे और ब्रह्माजीसे बोले-हे सुव्रत ! आप हमलोगोंके साथ युद्ध कीजिये; अन्यथा यह पद्मासन छोड़कर आप अविलम्ब जहाँ जाना चाहें, वहाँ चले जाइये । यदि आप दुर्बल हैं तो इस शुभ आसनपर बैठनेका आपका अधिकार कहाँ ! कोई वीर ही इस आसनका उपभोग कर सकता है । आप कायर हैं, अत: अतिशीघ्र इस आसनको छोड़ दीजिये । उन दोनों दैत्योंकी यह बात सुनकर प्रजापति ब्रह्मा चिन्तामें पड़ गये । तब उन दोनों बलशाली वीरोंको देखकर ब्रह्माजी चिन्ताकुल हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे कि मुझ-जैसा तपस्वी इनका क्या कर सकता है ? ॥ ४१-४४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां
प्रथमस्कन्धे मधुकैटभयोर्युद्धोद्योगवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
छठा अध्याय समाप्त


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