मूर्खके साथ स्थापित किया गया सम्पर्क विषसे भी अधिक अनिष्टकर होता है और इसके विपरीत विद्वानोंका सम्पर्क पीयूषरसके तुल्य माना गया है ॥ ५ ॥
जीवन्ति पशवः सर्वे खादन्ति मेहयन्ति च । जानन्ति विषयाकारं व्यवायसुखमद्भुतम् ॥ ६ ॥ न तेषां सदसज्ज्ञानं विवेको न च मोक्षदः । पशुभिस्ते समा ज्ञेया येषां न श्रवणादरः ॥ ७ ॥
पशु भी जीवनयापन करते हैं, वे भी आहार ग्रहण करते हैं, मल-मूत्रादिका विसर्जन करते हैं और विषयासक्त होकर इन्द्रियजन्य सुखकी अनुभूति करते हैं; किंतु उनमें अच्छे-बुरेका लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता तथा वे मोक्षकी प्राप्ति करानेवाले विवेकसे भी रहित होते हैं । अतएव उत्तम बातोंको सुननेमें जो लोग श्रद्धा-भाव नहीं रखते, उन्हें पशु-तुल्य ही समझना चाहिये ॥ ६-७ ॥
मृग आदि बहुत-से पशु श्रवण-सुखका अनुभव करते हैं और कानविहीन सर्प भी ध्वनि सुनकर मुग्ध हो जाते हैं ॥ ८ ॥
पञ्चानामिन्द्रियाणां वै शुभे श्रवणदर्शने । श्रवणाद्वस्तुविज्ञानं दर्शनाच्चित्तरञ्जनम् ॥ ९ ॥
पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंमें श्रवणेन्द्रिय तथा दर्शनेन्द्रियदोनों ही शुभ होती हैं; क्योंकि सुननेसे वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त होता है और देखनेसे मनोरंजन होता है ॥ ९ ॥
श्रवणं त्रिविधं प्रोक्तं सात्त्विकं राजसं तथा । तामसं च महाभाग सुज्ञोक्तं निश्चयान्वितम् ॥ १० ॥
हे महाभाग ! विद्वानोंने निर्धारित करके कहा है कि सात्त्विक, राजस तथा तामस भेदानुसार श्रवण तीन प्रकारका होता है ॥ १० ॥
सात्त्विकं वेदशास्त्रादि साहित्यं चैव राजसम् । तामसं युद्धवार्ता च परदोषप्रकाशनम् ॥ ११ ॥
वेद-शास्त्रादिका श्रवण सात्त्विक, साहित्यका श्रवण राजस तथा युद्धसम्बन्धी बातों एवं दूसरोंकी निन्दाका श्रवण तामस कहा गया है ॥ ११ ॥
प्रज्ञावान् पण्डितोंद्वारा सात्त्विक श्रवणके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम-ये तीन प्रकार बताये गये हैं ॥ १२ ॥
उत्तमं मोक्षफलदं स्वर्गदं मध्यमं तथा । अधमं भोगदं प्रोक्तं निर्णीय विदितं बुधैः ॥ १३ ॥
उत्तम श्रवण मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला, मध्यम श्रवण स्वर्ग देनेवाला तथा अधम श्रवण भोगोंकी उपलब्धि करानेवाला कहा गया है । विद्वानोंने अच्छी तरह सोच-समझकर ऐसा निर्धारण किया है ॥ १३ ॥
साहित्य भी तीन प्रकारका होता है । जिस साहित्यमें स्वकीया नायिकाका वर्णन हो वह उत्तम, जिस साहित्यमें वेश्याओंका वर्णन हो वह मध्यम तथा जिस साहित्यमें परस्त्रीवर्णन हो, वह अधम साहित्य कहा गया है । १४ ॥
तामसं त्रिविधं ज्ञेयं विद्वद्भिः शास्त्रदर्शिभिः । आततायिनियुद्धं यत्तदुत्तममुदाहृतम् ॥ १५ ॥ मध्यमं चापि विद्वेषात्पाण्डवानां तथारिभिः । अधमं निर्निमित्तं तु विवादे कलहे तथा ॥ १६ ॥
शास्त्रोंके परम निष्णात विद्वानोंने तामस श्रवणके तीन भेद बतलाये हैं । किसी पापाचारीके संहारसे सम्बन्धित युद्धवर्णनका श्रवण उत्तम, कौरव-पाण्डवोंकी तरह द्वेषके कारण शत्रुतामें युद्धवर्णनका श्रवण मध्यम तथा अकारण विवाद एवं कलहसे हुए युद्धके वर्णनका श्रवण अधम कहा गया है ॥ १५-१६ ॥
हे महामते ! इनमें पुराणोंके श्रवणकी ही प्रधानता मानी गयी है । क्योंकि इनके श्रवणसे बुद्धिका विकास होता है, पुण्य प्राप्त होता है और समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १७ ॥
सूतजी बोले-हे महाभाग ! इस पृथ्वीलोकमें आप-लोग धन्य हैं और मैं भी धन्य हूँ: क्योंकि आपलोगोंमें कथा-श्रवणके प्रति और मुझमें कथावाचनके प्रति विवेक जाग्रत् हुआ है ॥ १९ ॥
पुरा चैकार्णवे जाते विलीने भुवनत्रये । शेषपर्यङ्कसुप्ते च देवदेवे जनार्दने ॥ २० ॥ विष्णुकर्णमलोद्भूतौ दानवौ मधुकैटभौ । महाबलौ च तौ दैत्यौ विवृद्धौ सागरे जले ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें प्रलयावस्थामें जब तीनों लोक महाजलराशिमें विलीन हो गये और देवाधिदेव भगवान् विष्णु शेष शय्यापर सो गये तब विष्णुके कानोंकी मैलसे मधु-कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए और वे महाबली दैत्य उस महासागरमें बढ़ने लगे ॥ २०-२१ ॥
कीडमानौ स्थितौ तत्र विचरन्तावितस्ततः । तावेकदा महाकायौ क्रीडासक्तौ महार्णवे ॥ २२ ॥ चिन्तामवापतुश्चित्ते भ्रातराविव संस्थितौ । नाकारणं भवेत्कार्यं सर्वत्रैषा परम्परा ॥ २३ ॥
वे दोनों दैत्य क्रीडा करते हुए उसी सागरमें इधर-उधर भ्रमण करते रहे । एक बार क्रीडापरायण विशाल शरीरवाले उन दोनों भाइयोंने विचार किया कि बिना किसी कारणके कोई भी कार्य नहीं होता; यह एक सार्वत्रिक परम्परा है ॥ २२-२३ ॥
आधेयं तु विनाधारं न तिष्ठति कथञ्चन । आधाराधेयभावस्तु भाति नो चित्तगोचरः ॥ २४ ॥
बिना किसी आधारके आधेयकी सत्ता कदापि सम्भव नहीं है; अतः आधार-आधेयका भाव हमारे मनमें बार-बार आता रहता है ॥ २४ ॥
क्व तिष्ठति जलं चेदं सुखरूपं सुविस्तरम् । केन सृष्टं कथं जातं मग्नावावाञ्जले स्थितौ ॥ २५ ॥
अति विस्तारवाला तथा सुखद यह जल किस आधारपर स्थित है ? किसने इसका सृजन किया ? यह किस प्रकार उत्पन्न हुआ और इस जलमें निमग्न हमलोग कैसे स्थित हैं ? ॥ २५ ॥
आवां वा कथमुत्पन्नौ केन वोत्पादितावुभौ । पितरौ क्वेति विज्ञानं नास्ति कामं तथावयोः ॥ २६ ॥
हम दोनों कैसे पैदा हुए और किसने हम दोनोंको उत्पन्न किया ? हमारे माता-पिता कौन हैं ?-इस बातका भी कोई ज्ञान हम दोनोंको नहीं है ॥ २६ ॥
सूत उवाच एवं कामयमानौ तौ जग्मतुर्न विनिश्चयम् । उवाच कैटभस्तत्र मधुं पार्श्वे स्थितं जले ॥ २७ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार चिन्तन करते हुए वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँचे, तब कैटभने जलके भीतर अपने पास स्थित मधुसे कहा ॥ २७ ॥
कैटभ उवाच मधो वामत्र सलिले स्थातुं शक्तिर्महाबला । वर्तते भ्रातरचला कारणं सा हि मे मता ॥ २८ ॥
कैटभ बोला-हे भाई मधु ! हम दोनोंके इस जलमें स्थित रहनेका कारण कोई अचल महाबली शक्ति है, ऐसा ही मैं मानता हूँ ॥ २८ ॥
तया ततमिदं तोयं तदाधारं च तिष्ठति । सा एव परमा देवी कारणञ्च तथावयोः ॥ २९ ॥
उसीसे समुद्रका सम्पूर्ण जल व्याप्त है और उसी शक्तिके आधारपर यह जल टिका हुआ है तथा वे ही परात्परा देवी हम दोनोंकी भी स्थितिका कारण हैं ॥ २९ ॥
एवं विबुध्यमानौ तौ चिन्ताविष्टौ यदासुरौ । तदाकाशे श्रुतं ताभ्यां वाग्बीजं सुमनोहरम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार विविध चिन्तन करते हुए वे दोनों दानव जब सचेत हुए तब उन्हें आकाशमें अत्यन्त मनोहारी वाग्बीजस्वरूप (एँ) वाणी सुनायी पड़ी ॥ ३० ॥
गृहीतं च ततस्ताभ्यां तस्याभ्यासो दृढः कृतः । तदा सौदामनी दृष्टा ताभ्यां खे चोत्थिता शुभा ॥ ३१ ॥
उसे सुनकर उन दोनोंने सम्यक् रूपसे हृदयंगम कर लिया और वे उसका दृढ़ अभ्यास करने लगे । तदनन्तर उन्हें आकाशमें कौंधती हुई सुन्दर विद्युत् दिखलायी पड़ी ॥ ३१ ॥
तदनन्तर वे दोनों दैत्य आहारका परित्यागकर इन्द्रियोंको आत्मनियन्त्रित करके उसी विद्युज्ज्योतिमें मन केन्द्रित किये हुए समाधिस्थ भावसे जप-ध्यान करनेमें लीन हो गये ॥ ३३ ॥
वाणीने कहा-हे दैत्यो ! मेरी कृपासे अब तुम दोनों अपनी इच्छासे ही मृत्युको प्राप्त होओगे । दानव और देवता कोई भी तुम दोनों भाइयोंको पराजित नहीं कर सकेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३८ ॥
उन्हें देखकर युद्धकी लालसासे वे दोनों महाबली दैत्य प्रसन्न हो उठे और ब्रह्माजीसे बोले-हे सुव्रत ! आप हमलोगोंके साथ युद्ध कीजिये; अन्यथा यह पद्मासन छोड़कर आप अविलम्ब जहाँ जाना चाहें, वहाँ चले जाइये । यदि आप दुर्बल हैं तो इस शुभ आसनपर बैठनेका आपका अधिकार कहाँ ! कोई वीर ही इस आसनका उपभोग कर सकता है । आप कायर हैं, अत: अतिशीघ्र इस आसनको छोड़ दीजिये । उन दोनों दैत्योंकी यह बात सुनकर प्रजापति ब्रह्मा चिन्तामें पड़ गये । तब उन दोनों बलशाली वीरोंको देखकर ब्रह्माजी चिन्ताकुल हो उठे और मन-ही-मन सोचने लगे कि मुझ-जैसा तपस्वी इनका क्या कर सकता है ? ॥ ४१-४४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे मधुकैटभयोर्युद्धोद्योगवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥