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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

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हरिकृतमधुकैटभवधवर्णनम् -
भगवान् विष्णुका मधु-कैटभसे पाँच हजार वर्षांतक युद्ध करना, विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीद्वारा मोहित मधु-कैटभका विष्णुद्वारा वध


सूत उवाच
यदा विनिर्गता निद्रा देहात्तस्य जगद्‌गुरोः ।
नेत्रास्यनासिकाबाहुहृदयेभ्यस्तथोरसः ॥ १ ॥
निःसृत्य गगने तस्थौ तामसी शक्तिरुत्तमा ।
उदतिष्ठज्जगन्नाथो जृम्भमाणः पुनः पुनः ॥ २ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनिजनो !] जब जगद्गुरु भगवान् विष्णुके शरीरसे निद्रादेवी निकलीं; उस समय उनके नेत्र, मुख, नासिका, भुजा, हृदय तथा वक्षःस्थलसे निकलकर वे श्रेष्ठ तामसी शक्ति आकाशमें स्थित हो गयीं, तब भगवान् विष्णु भी बार-बार जम्हाई लेते हुए उठ खड़े हुए । १-२ ॥

तदापश्यत् स्थितं तत्र भयत्रस्तं प्रजापतिम् ।
उवाच च महातेजा मेघगम्भीरया गिरा ॥ ३ ॥
तब वहाँ भगवान् विष्णुने भयसे काँपते हुए ब्रह्माको देखा और उन महातेजस्वी विष्णुने मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ३ ॥

विष्णुरुवाच
किमागतोऽसि भगवंस्तपस्त्यक्त्वात्र पद्मज ।
कस्माच्चिन्तातुरोऽसि त्वं भयाकुलितमानसः ॥ ४ ॥
विष्ण बोले-हे कमलोद्भव ब्रह्माजी ! आप तपस्या छोड़कर यहाँ कैसे आ गये हैं ? आप इतने चिन्तित एवं भयभीत क्यों हो रहे हैं ? ॥ ४ ॥

ब्रह्मोवाच
त्वत्कर्णमलजौ देव दैत्यौ च मधुकैटभौ ।
हन्तुं मां समुपायातौ घोररूपौ महाबलौ ॥ ५ ॥
भयात्तयोः समायातस्त्वत्समीपं जगत्पते ।
त्राहि मां वासुदेवाद्य भयत्रस्तं विचेतनम् ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देव ! आपके कानोंके मैलसे दो महादानव पैदा हो गये हैं, जो महाभयंकर एवं महाबली हैं, जिनका नाम मधु और कैटभ है । उन्हीं दोनोंके भयसे मैं आपके पास आया हूँ । हे जगत्पते ! हे वासुदेव ! आप मुझ भयभीत तथा किंकर्तव्यविमूढ़की रक्षा कीजिये ॥ ५-६ ॥

विष्णुरुवाच
तिष्ठाद्य निर्भयो जातस्तौ हनिष्याम्यहं किल ।
युद्धायाजग्मतुर्मूढौ मत्समीपं गतायुषौ ॥ ७ ॥
विष्णु बोले-ब्रह्मन् ! अब आप निर्भय हो जाइये । उनकी मृत्यु निकट है. इसीलिये वे यहाँ युद्ध करनेके लिये आयेंगे और मैं उन दोनों दैत्योंका वध करूंगा ॥ ७ ॥

सूत उवाच
एवं वदति देवेशे दानवौ तौ महाबलौ ।
विचिन्वानावजं चोभौ संप्राप्तौ मदगर्वितौ ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार भगवान् विष्णु ब्रह्मासे कह ही रहे थे कि वे दोनों मतवाले महाबली दैत्य ब्रह्माजीको ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुंचे ॥ ८ ॥

निराधारौ जले तत्र संस्थितौ विगतज्वरौ ।
तावूचतुर्मदोन्मत्तौ ब्रह्माणं मुनिसत्तमाः ॥ ९ ॥
पलायित्वा समायातः सन्निधावस्य किं ततः ।
युद्धं कुरु हनिष्यावः पश्यतोऽस्यैव सन्निधौ ॥ १० ॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! वे दैत्य उस महासागरके जलमें बिना किसी अवलम्बके निश्चिन्त होकर खड़े थे । उन अहंकारी राक्षसोंने ब्रह्माजीसे कहा'तुम भागकर इनके पास क्यों आये ? अब तुम युद्ध करो । इनके देखते-देखते ही हमलोग तुम्हें मार डालेंगे' ॥ ९-१० ॥

पश्चादेनं हनिष्यावः सर्पभोगोपरिस्थितम् ।
त्वमद्य कुरु संग्रामं दासोऽस्मीति च वा वद ॥ ११ ॥
तत्पश्चात् शेषशव्यापर सोनेवाले इस पुरुषको भी मार डालेंगे । इसलिये तुम हम दोनों भाइयोंसे या तो युद्ध करो अथवा यह कहो कि 'मैं तुम्हारा सेवक हूँ' ॥ ११ ॥

सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णुस्तावुवाच जनार्दनः ।
कुरुतं समरं कामं मया दानवपुङ्गवौ ॥ १२ ॥
हरिष्यामि मदं चाहं युवयोर्मत्तयोः किल ।
आगच्छतं महाभागौ श्रद्धा चेद्वां महाबलौ ॥ १३ ॥
सूतजी बोले-उन दैत्योंका वचन सुनकर भगवान् विष्णुने कहा-अरे दानवेन्द्रो ! तुम दोनों मेरे साथ यथेच्छ युद्ध करो । मैं तुम दोनों दैत्योंका घमण्ड चूर-चूर कर डालूंगा । हे महाभागो ! तुम दोनोंकी लड़नेकी इच्छा है और अपनेको महायोद्धा समझ रहे हो तो आ जाओ ॥ १२-१३ ॥

सूत उवाच
श्रुत्वा तद्वचनं चोभौ क्रोधव्याकुललोचनौ ।
निराधारौ जलस्थौ च युद्धोद्युक्तौ बभूवतुः ॥ १४ ॥
सूतजी बोले-भगवान्का यह वचन सुनते ही उन दैत्योंके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और जलमें खड़े निराधार वे दोनों भयंकर दानव युद्ध करनेको तैयार हो गये ॥ १४ ॥

मधुश्च कुपितस्तत्र हरिणा सह संयुगम् ।
कर्तुं प्रचलितस्तूर्णं कैटभस्तु तथा स्थितः ॥ १५ ॥
इनमें मधुदैत्य कुपित होकर विष्णुसे युद्ध करनेके लिये शीघ्र ही चल पड़ा और कैटभ वहीं खड़ा रहा ॥ १५ ॥

बाहुयुद्धं तयोरासीन्मल्लयोरिव मत्तयोः ।
श्रान्ते मधौ कैटभस्तु संग्राममकरोत्तदा ॥ १६ ॥
दो मतवाले वीरोंके समान मधु और विष्णुमें बाहुयुद्ध होने लगा । जब मधु थक गया तब कैटभ उनसे लड़ने लगा ॥ १६ ॥

पुनर्मधुः कैटभश्च युयुधाते पुनः पुनः ।
बाहुयुद्धेन रागान्धौ विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १७ ॥
इस प्रकार क्रमशः कुपित एवं मदान्ध दोनों दैत्य परम प्रतापी भगवान् विष्णुके साथ बारी-बारीसे बाहुयुद्ध करते रहे ॥ १७ ॥

प्रेक्षकस्तु तदा ब्रह्मा देवी चैवान्तरिक्षगा ।
न मम्लतुस्तदा तौ तु विष्णुस्तु ग्लानिमाप्तवान् ॥ १८ ॥
पञ्चवर्षसहस्राणि यदा जातानि युद्ध्यता ।
हरिणा चिन्तितं तत्र कारणं मरणे तयोः ॥ १९ ॥
उस समय वहाँ उस युद्धके द्रष्टा ब्रह्मा और आकाशमें स्थित आदिशक्ति देवी थीं । बहुत दिनोंतक युद्ध करते-करते भी वे दैत्य नहीं थके तब भगवान् विष्णुको ग्लानि होने लगी । इस प्रकार जब युद्ध करते हुए पाँच हजार वर्ष बीत गये तब भगवान् विष्णु उन दैत्योंकी मृत्युका उपाय सोचने लगे ॥ १८-१९ ॥

पञ्चवर्षसहस्राणि मया युद्धं कृतं किल ।
न श्रान्तौ दानवौ घोरौ श्रान्तोऽहं चैतदद्‌भुतम् ॥ २० ॥
उनके विचारमें आया कि मैंने पाँच हजार वर्षतक इनके साथ युद्ध किया, किंतु ये भयानक दानव थके नहीं और मैं थक गया; यह बड़े आश्चर्यकी बात है ॥ २० ॥

क्व गतं मे बलं शौर्यं कस्माच्चेमावनामयौ ।
किमत्र कारणं चिन्त्यं विचार्य मनसा त्विह ॥ २१ ॥
मेरा वह पराक्रम और बल कहाँ चला गया ? ये दोनों मुझसे लड़ते हुए भी स्वस्थ हैं । इसका कारण क्या है ? अब मुझे अच्छी तरह विचार करना चाहिये ॥ २१ ॥

इति चिन्तापरं दृष्ट्वा हरिं हर्षपरावुभौ ।
ऊचतुस्तौ मदोन्मत्तौ मेघमम्भीरनिःस्वनौ ॥ २२ ॥
तव नोचेद्‌बलं विष्णो यदि श्रान्तोऽसि युद्धतः ।
ब्रूहि दासोऽस्मि वां नूनं कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम् ॥ २३ ॥
न चेद्युद्धं कुरुष्वाद्य समर्थोऽसि महामते ।
हत्वा त्वां निहनिष्यावः पुरुषं च चतुर्मुखम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार चिन्तामें पड़े हुए विष्णुको देखकर ये दोनों मतवाले दैत्य अत्यन्त हर्षित हुए और मेषके समान गम्भीर वाणीमें बोले हे विष्णो ! यदि तुझमें अब बल न हो अथवा युद्धसे थक गये हो तो सिरपर हाथ जोड़कर कह दो कि मैं तुम दोनोंका सेवक हूँ अथवा यदि सामर्थ्य हो तो हे महामते ! आओ, हमारे साथ युद्ध करो । आज हमलोग तुम्हें मारकर इस चार मुखवाले पुरुष (ब्रह्मा)-को भी मार डालेंगे ॥ २२-२४ ॥

सूत उवाच
श्रुत्वा तद्‌भाषितं विष्णुस्तयोस्तस्मिन्महोदधौ ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णं सामपूर्वं महामनाः ॥ २५ ॥
सूतजी बोले-उस महासागरमें उपस्थित महामना विष्णुने उनके वचन सुनकर सामनीतिके अनुसार मधुर शब्दोंमें कहा- ॥ २५ ॥

हरिरुवाच
श्रान्ते भीते त्यक्तशस्त्रे पतिते बालके तथा ।
प्रहरन्ति न वीरास्ते धर्म एष सनातनः ॥ २६ ॥
विष्णु बोले-यह सनातनधर्म है कि थके हुए, डरे हुए, शस्त्र त्यागे हुए, गिरे हुए एवं बालकपर वीर लोग प्रहार नहीं करते ॥ २६ ॥

पञ्चवर्षसहस्राणि कृतं युद्धं मया त्विह ।
एकोऽहं भ्रातरौ वां च बलिनौ सदृशौ तथा ॥ २७ ॥
कृतं विश्रमणं मध्ये युवाभ्यां च पुनः पुनः ।
तथा विश्रमणं कृत्वा युध्येऽहं नात्र संशयः ॥ २८ ॥
मैंने तो यहाँ पाँच हजार वर्षांतक युद्ध किया । मैं अकेला हूँ और तुम दोनों भाई समान बलवाले वीर हो और दोनों बीच-बीचमें बारी-बारीसे विश्राम भी करते रहे हो । अब मुझे भी थोड़ा विश्राम कर लेने दो । तत्पश्चात् मैं पुन: लड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २७-२८ ॥

तिष्ठतं हि युवां तावद्‌बलवन्तौ मदोत्कटौ ।
विश्रम्याहं करिष्यामि युद्धं वा न्यायमार्गतः ॥ २९ ॥
बली एवं मदोन्मत्त तुम दोनों भी कुछ विश्राम कर लो, तब मैं विश्राम करके न्यायधर्मानुसार युद्ध करूँगा ॥ २९ ॥

सूत उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य विश्रब्धौ दानवोत्तमौ ।
संस्थितौ दूरतस्तत्र संग्रामे कृतनिश्चयौ ॥ ३० ॥
अतिदूरे च तौ दृष्ट्वा वासुदेवश्चतुर्भुजः ।
दध्यौ च मनसा तत्र कारणं मरणे तयोः ॥ ३१ ॥
सूतजी बोले-भगवान् विष्णुकी बात सुनकर दोनों दानव भी युद्ध करनेकी इच्छासे कुछ दूर जाकर विश्राम करने लगे । उन्हें बहुत दूर बैठे देखकर चतुर्भुज भगवान् विष्णु उनके मरनेका उपाय सोचने लगे ॥ ३०-३१ ॥

चिन्तनाज्ज्ञानमुत्पन्नं देवीदत्तवरावुभौ ।
कामं वाञ्छितमरणौ न मम्लतुरतस्त्विमौ ॥ ३२ ॥
ध्यानकी अवस्थामें होकर विचार करनेपर उन्हें ज्ञात हो गया कि इन दोनोंको देवीके द्वारा इच्छामृत्युका वरदान प्राप्त है, इसी कारण ये थकते नहीं ॥ ३२ ॥

वृथा मया कृतं युद्धं श्रमोऽयं मे वृथा गतः ।
करोमि च कथं युद्धमेवं ज्ञात्वा विनिश्चयम् ॥ ३३ ॥
वे सोचने लगे कि मैंने व्यर्थ ही युद्ध किया, मेरा सब परिश्रम व्यर्थ गया । इस (वरदानकी) बातको जानकर भी अब मैं कैसे युद्ध करूँ ? ॥ ३३ ॥

अकृते च तथा युद्धे कथमेतौ गमिष्यतः ।
विनाशं दुःखदौ नित्यं दानवौ वरदर्पितौ ॥ ३४ ॥
यदि युद्ध न भी करूं तो भी ये दैत्य यहाँसे हटेंगे कैसे ? यदि इनका विनाश न होगा तो वरप्राप्त दोनों दुर्धर्ष दैत्य सबको दुःख देते रहेंगे ॥ ३४ ॥

भगवत्या वरो दत्तस्तया सोऽपि च दुर्घटः ।
मरणं चेच्छया कामं दुःखितोऽपि न वाञ्छति ॥ ३५ ॥
रोगग्रस्तोऽपि दीनोऽपि न मुमूर्षति कश्चन ।
कथं चेमौ मदोन्मत्तौ मर्तुकामौ भविष्यतः ॥ ३६ ॥
देवीने जो वरदान इन्हें दिया है, वह भी अत्यन्त कठिन है । अत्यन्त दु:खी, रोगी और दीन-हीन प्राणी भी स्वेच्छया कभी नहीं मरना चाहता, तब भला वे दोनों मदोन्मत्त दैत्य क्यों मरना चाहेंगे ? ॥ ३५-३६ ॥

नन्वद्य शरणं यामि विद्यां शक्तिं सुकामदाम् ।
विना तया न सिध्यन्ति कामाः सम्यक्प्रसन्नया ॥ ३७ ॥
अतएव अब मैं सब चिन्ता छोड़कर उन आदिशक्ति भगवती विद्यादेवीकी शरणमें जाऊँ, जो सबकी मनोकामनाएँ सिद्ध करनेवाली हैं । क्योंकि बिना उनके प्रसन्न हुए कोई कामनाएँ पूर्ण नहीं होतीं ॥ ३७ ॥

एवं सञ्चिन्त्यमानस्तु गगने संस्थितां शिवाम् ।
अपश्यद्‌भगवान्विष्णुर्योगनिद्रां मनोहराम् ॥ ३८ ॥
कृताज्जलिरमेयात्मा तां च तुष्टाव योगवित् ।
विनाशार्थं तयोस्तत्र वरदां भुवनेश्वरीम् ॥ ३९ ॥
ऐसा मनमें विचार करते ही भगवान् विष्णुने आकाशमें स्थित परम सुन्दर स्वरूपवाली योगनिद्रा भगवती 'शिवा' को देखा । उन्हें देखते ही योगेश्वर अनन्त भगवान् विष्णु उन दोनों दैत्योंके विनाशके लिये हाथ जोड़कर वरप्रदायिनी भगवती भुवनेश्वरी' की स्तुति करने लगे । ३८-३९ ॥

विष्णुरुवाच
नमो देवि महामाये सृष्टिसंहारकारिणि ।
अनादिनिधने चण्डि भुक्तिमुक्तिप्रदे शिवे ॥ ४० ॥
विष्णु बोले-हे देवि ! हे महामाये ! हे सृष्टिसंहारकारिणि ! हे आदि-अन्तरहित ! हे चण्डि ! हे भुक्तिमुक्ति प्रदायिनी शिवे ! आपको नमस्कार है ॥ ४० ॥

न ते रूपं विजानामि सगुणं निर्गुणं तथा ।
चरित्राणि कुतो देवि संख्यातीतानि यानि ते ॥ ४१ ॥
अनुभूतो मया तेऽद्य प्रभावश्चातिदुर्घटः ।
यदहं निद्रया लीनः सञ्जातोऽस्मि विचेतनः ॥ ४२ ॥
हे देवि ! मैं आपके सगुण तथा निर्गुण रूपको नहीं जानता, फिर आपके जो असंख्य अद्भुत चरित्र हैं, उन्हें कैसे जान पाऊँगा ? मैंने आपके अत्यन्त दुर्घट प्रभावको आज जाना है जबकि मैं आपके द्वारा प्रेरित योगनिद्रामें विलीन होकर अचेत हो गया था ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्मणा चातियत्‍नेन बोधितोऽपि पुनः पुनः ।
न प्रबुद्धः सर्वथाहं सङ्कोचितषडिन्द्रियः ॥ ४३ ॥
ब्रह्माने मुझे बड़े यत्नसे बार-बार जगाया था, किंतु मैं अपनी छहों इन्द्रियोंके संकुचित होनेके कारण जाग न सका ॥ ४३ ॥

अचेतनत्वं सम्प्राप्तः प्रभावात्तव चाम्बिके ।
त्वया मुक्तः प्रबुद्धोऽहं युद्धं च बहुधा कृतम् ॥ ४४ ॥
श्रान्तोऽहं न च तौ श्रान्तौ त्वया दत्तवरौ वरौ ।
ब्रह्माणं हन्तुमायातौ दानवौ मदगर्वितौ ॥ ४५ ॥
आहूतौ च मया कामं द्वन्द्वयुद्धाय मानदे ।
कृतं युद्धं महाघोरं मया ताभ्यां महार्णवे ॥ ४६ ॥
हे अम्बिके ! उस समय मैं आपके प्रभावसे अचेत हो गया था । जब आपने अपना वह प्रभाव हटा लिया तब मैं जगा और मैंने उन दानवोंके साथ अनेक प्रकारसे युद्ध किया । उस युद्ध में मैं तो थक गया, किंतु वे नहीं थके; क्योंकि उन्हें आपका वरदान प्राप्त था । जब वे मदोन्मत्त दानव ब्रह्माजीको मारने दौड़े, तब मैंने भी पुनः द्वन्द्व युद्धके लिये उनका आह्वान किया । हे मानप्रदायिनि ! उस समय मैंने उनके साथ महासागरमें घोर युद्ध किया ॥ ४४-४६ ॥

मरणे वरदानं ते ततो ज्ञातं महाद्‌भुतम् ।
ज्ञात्वाहं शरणं प्राप्तस्त्वामद्य शरणप्रदाम् ॥ ४७ ॥
बादमें मुझे ज्ञात हुआ कि आपने उन्हें इच्छामरणका अद्भुत वरदान दिया है । यह जानकर आज मैं शरणदायिनी आपकी शरणमें आया हूँ ॥ ४७ ॥

साहाय्यं कुरु मे मातः खिन्नोऽहं युद्धकर्मणा ।
दृप्तौ तौ वरदानेन तव देवार्तिनाशने ॥ ४८ ॥
अतएव हे माता ! अब मेरी सहायता आप ही करें; क्योंकि मैं युद्ध करते-करते बहुत ही खिन्न हो गया हैं । हे देवताओंकी पीड़ा हरनेवाली ! आपके वरदानसे दोनों दानव मदोन्मत्त हो गये हैं ॥ ४८ ॥

हन्तुं मामुद्यतौ पापौ किं करोमि क्व यामि च ।
इत्युक्ता सा तदा देवी स्मितपूर्वमुवाच ह ॥ ४९ ॥
प्रणमन्तं जगन्नाथं वासुदेवं सनातनम् ।
देवदेव हरे विष्णो कुरु युद्धं पुनः स्वयम् ॥ ५० ॥
वे दोनों पापी दैत्य मुझे मार डालना चाहते हैं । अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? प्रणाम करते हुए उन जगन्नाथ सनातन वासुदेव विष्णुके ऐसा कहनेपर मुसकराती हुई उन देवीने उनसे कहाहे देवदेव ! हे हरे ! हे विष्णो ! आप पुनः उनसे युद्ध कीजिये ॥ ४९-५० ॥

वञ्चयित्वा त्विमौ शूरौ हन्तव्यौ च विमोहितौ ।
मोहयिष्याम्यहं नूनं दानवौ वक्रया दृशा ॥ ५१ ॥
इन दोनों वीरोंको छलपूर्वक मोहित करके ही मारा जा सकता है । मैं अपनी वक्रदृष्टिसे उन्हें मोहित कर दूंगी । हे नारायण ! अपनी मायासे जब मैं इन्हें मोहित कर दूँगी तब आप शीघ्र ही इन दोनोंका वध कर डालियेगा ॥ ५१ ॥

जहि नारायणाशु त्वं मम मायाविमोहितौ ।
सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णुस्तस्याः प्रीतिरसान्वितम् ॥ ५२ ॥
संग्रामस्थलमासाद्य तस्थौ तत्र महार्णवे ।
तदायातौ च तौ वीरौ युद्धकामौ महाबलौ ॥ ५३ ॥
सूतजी बोले-देवीके प्रीतिरससे पूर्ण वचनोंको सुनकर भगवान् विष्णु उस सागरमें युद्धस्थलमें आकर खड़े हो गये । तब विष्णुको आते देख वे दोनों युद्धके अभिलाषी महाबली दैत्य भी वहाँ आ डटे ॥ ५२-५३ ॥

वीक्ष्य विष्णुं स्थितं तत्र हर्षयुक्तौ बभूवतुः ।
तिष्ठ तिष्ठ महाकाम कुरु युद्धं चतुर्भुज ॥ ५४ ॥
दैवाधीनौ विदित्वाद्य नूनं जयपराजयौ ।
सबलो जयमाप्नोति दैवाज्जयति दुर्बलः ॥ ५५ ॥
भगवान् विष्णुको अपने सामने देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे-हे महाकाम ! हे चतुर्भुज ! ठहरो-ठहरो; हार और जीतको प्रारब्धके अधीन समझकर अब तुम हमारे साथ युद्ध करो । बलवान् व्यक्ति विजय प्राप्त करता है, किंतु कभी-कभी भाग्यवश दुर्बल व्यक्ति भी जीत जाता है ॥ ५४-५५ ॥

सर्वथैव न कर्तव्यौ हर्षशोकौ महात्मना ।
पुरा वै बहवो दैत्या जिता दानववैरिणा ॥ ५६ ॥
आप जैसे महापुरुषको जय या पराजयमें हर्ष या शोक कभी नहीं करना चाहिये । आपने दानवशत्रु होकर पूर्वकालमें बहुत-से दैत्योंको अनेक बार हराया है, परंतु इस समय तो हम दोनोंके साथ लड़ते हुए आप पराजित हो गये हैं ॥ ५६ ॥

अधुना चावयोः सार्धं युध्यमानः पराजितः ।
सूत उवाच
इत्युक्त्वा तौ महाबाहू युद्धाय समुपस्थितौ ॥ ५७ ॥
वीक्ष्य विष्णुर्जघानाशु मुष्टिनाद्‌भुतकर्मणा ।
तावप्यतिबलोन्मत्तौ जध्नतुर्मुष्टिना हरिम् ॥ ५८ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर वे दोनों महाबाहु दैत्य युद्ध करनेको तत्पर हो गये । तब वहाँ अवसर देखकर ज्यों ही विचित्रकर्मा विष्णुने उन दोनोंपर मुष्टिसे प्रहार किया, त्यों ही उन दोनों बलोन्मत्त दैत्योंने भी विष्णुपर मुष्टिप्रहार किया ॥ ५७-५८ ॥

एवं परस्परं जातं युद्धं परमदारुणम् ।
युध्यमानौ महावीर्यौ दृष्ट्वा नारायणस्तदा ॥ ५९ ॥
इस प्रकार उनमें परस्पर महाभयंकर युद्ध होने लगा । उन दोनों महाबलशाली दानवोंको युद्धरत देखकर नारायण श्रीहरिने दीन दृष्टिसे भगवतीकी ओर देखा ॥ ५९ ॥

अपश्यत्सम्मुखं देव्याः कृत्वा दीनां दृशं हरिः ।
सूत उवाच
तं वीक्ष्य तादृशं विष्णुं करुणारससंयुतम् ॥ ६० ॥
जहासातीव ताम्राक्षी वीक्षमाणा तदासुरौ ।
तौ जघान कटाक्षैश्च कामबाणैरिवापरैः ॥ ६१ ॥
मन्दस्मितयुतैः कामं प्रेमभावयुतैरनु ।
दृष्ट्वा मुमुहतुः पापौ देव्या वक्रविलोकनम् ॥ ६२ ॥
विशेषमिति मन्वानौ कामबाणातिपीडितौ ।
वीक्षमाणौ स्थितौ तत्र तां देवीं विशदप्रभाम् ॥ ६३ ॥
सूतजी बोले-विष्णुकी ऐसी करुणाजनक दीन दशा देखकर अरुण नेत्रोंवाली भगवती उन दोनों दैत्योंकी ओर देखकर हँसने लगीं और उन्होंने दूसरे कामबाणोंके समान, मन्द मुसकानयुक्त तथा प्रेमभावसे भरे अपने कटाक्षोंसे उनपर प्रहार किया । इस प्रकार देवीके कटाक्षको देखकर वे पापी मधुकैटभ अत्यन्त मोहित हो गये । वे कामान्ध दानव अपने ऊपर भगवतीको विशेष अनुकम्पा जानकर कामबाणसे अत्यन्त पीड़ित होने लगे और अपूर्व शोभाशालिनी भगवतीको देखते हुए वे वहीं खड़े हो गये ॥ ६०-६३ ॥

हरिणापि च तद्‌दृष्टं देव्यास्तत्र चिकीर्षितम् ।
मोहितौ तौ परिज्ञाय भगवान्कार्यवित्तमः ॥ ६४ ॥
उवाच तौ हसन् श्लक्ष्णं मेघगम्भीरया गिरा ।
वरं वरयतां वीरौ युवयोर्योऽभिवाच्छितः ॥ ६५ ॥
भगवान् विष्णु भी देवीके उस प्रयत्नको समझ गये । दोनों कामी दानवोंको देवीकी मायासे विमोहित जानकर स्वकार्यसाधक भगवान् विष्णुने वहाँ मेधके समान गम्भीर एवं मधुर वचनोंके द्वारा उन दोनोंका उपहास करते हुए कहा-हे वीरो ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँगो ॥ ६४-६५ ॥

ददामि परमप्रीतो युद्धेन युवयोः किल ।
दानवा बहवो दृष्टा युध्यमाना मया पुरा ॥ ६६ ॥
युवयोः सदृशः कोऽपि न दृष्टो न च वै श्रुतः ।
तस्मात्तुष्टोऽस्मि कामं वै निस्तुलेन बलेन च ॥ ६७ ॥
भ्रात्रोश्च वाञ्छितं कामं प्रयच्छामि महाबलौ ।
तुम दोनोंके युद्धसे मैं अत्यन्त हर्षित है, अत: मैं तुम्हें मनोभिलषित वर दूंगा । यद्यपि पूर्वकालमें भी मेरेद्वारा अनेक दानव युद्ध करते हुए देखे गये हैं, किंतु तुम दोनों भाइयोंके समान मैंने किसीको देखा-सुना नहीं । तुम दोनोंके अतुलनीय बलको देखकर मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ । हे महाबली दानवो ! मैं तुम दोनों भाइयोंकी वांछित कामनाएँ पूर्ण करूँगा ॥ ६६-६७.५ ॥

सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णोः साभिमानौ स्मरातुरौ ॥ ६८ ॥
वीक्षमाणौ महामायां जगदानन्दकारिणीम् ।
तमूचतुश्च कामार्तौ विष्णुं कमललोचनौ ॥ ६९ ॥
सूतजी बोले-विष्णुका यह वचन सुनकर कमलके समान नेत्रवाले कामपीडित वे दोनों दैत्य जगदानन्ददायिनी भगवती महामायाको देखते हुए विष्णुसे अभिमानपूर्वक बोले ॥ ६८-६९ ॥

हरे न याचकावावां त्वं किं दातुमिहेच्छसि ।
ददाव तुल्यं देवेश दातारौ नौ न याचकौ ॥ ७० ॥
प्रार्थय त्वं हृषीकेश मनोऽभिलषितं वरम् ।
तुष्टौ स्वस्तव युद्धेन वासुदेवाद्‌भुतेन च ॥ ७१ ॥
हे विष्णो ! हमलोग याचक नहीं हैं, अत: आप हमलोगोंको देना क्यों चाहते हैं ? हे देवेश ! यदि आप लेना चाहें तो आप जो माँगिये हम दे सकते हैं; क्योंकि हमलोग भिक्षुक नहीं हैं, दाता हैं । हे हृषीकेश ! आप अपना मनोभिलषित वरदान माँगिये । हे वासुदेव ! आपके अद्भुत युद्धसे हमलोग आपपर अत्यन्त प्रसन्न हैं । ७०-७१ ॥

तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच जनार्दनः ।
भवेतामद्य मे तुष्टौ मम वध्यावुभावपि ॥ ७२ ॥
उन दोनोंका वचन सुनकर भगवान् विष्णुने उत्तर दिया-'यदि तुम दोनों मेरे ऊपर प्रसन्न हो तो यही वरदान दो कि तुम दोनों भाई अब मेरे ही हाथों मारे जाओ' ॥ ७२ ॥

सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णोर्दानवौ चातिविस्मितौ ।
वञ्चिताविति मन्वानौ तस्थतुः शोकसंयुतौ ॥ ७३ ॥
सूतजी बोले-विष्णुका वचन सुनकर दोनों भाई चकित हो गये और अपनेको उनके द्वारा ठगा हुआ समझकर शोकसे चिन्तित हो गये ॥ ७३ ॥

विचार्य मनसा तौ तु दानवौ विष्णुमूचतुः ।
प्रेक्ष्य सर्वं जलमयं भूमिं स्थलविवर्जिताम् ॥ ७४ ॥
हरे योऽयं वरो दत्तस्त्वया पूर्वं जनार्दन ।
सत्यवागसि देवेश देहि तं वाञ्छितं वरम् ॥ ७५ ॥
कुछ देरके बाद मनमें विचारकर सम्पूर्ण भूमिको स्थलरहित तथा वहाँ सर्वत्र जल-ही-जल देखकर उन्होंने विष्णुसे कहा-हे जनार्दन विष्णो ! आपने हम-लोगोंको पहले जो वरदान देनेको कहा था, यदि आप सत्यवादी हैं तो पहले उस वांछित वरको प्रदान कीजिये ॥ ७४-७५ ॥

निर्जले विपुले देशे हनस्व मधुसूदन ।
वध्यावावां तु भवतः सत्यवाग्भव माधव ॥ ७६ ॥
हे मधुसूदन ! आप हमें किसी निर्जल प्रदेशकी सुविस्तृत भूमिपर मारिये तभी हम आपसे मारे जा सकेंगे, अन्यथा नहीं । अतः हे माधव अब आप सत्यवादी बनिये ॥ ७६ ॥

स्मृत्वा चक्रं तदा विष्णुस्तावुवाच हसन्हरिः ।
हन्म्यद्य वां महाभागौ निर्जले विपुले स्थले ॥ ७७ ॥
तब भगवान् विष्णुने अपने सुदर्शन चक्रका स्मरण करके उन दानवोंसे हँसते हुए कहा-'हे महाभागो ! [तुम्हारे कथनानुसार] निर्जल तथा सुविस्तृत भूमिपर ही मैं आज तुम दोनोंको मारूंगा' ॥ ७७ ॥

इत्युक्त्या देवदेवेश ऊरू कृत्वातिविस्तरौ ।
दर्शयामास तौ तत्र निर्जलं च जलोपरि ॥ ७८ ॥
नास्त्यत्र दानवौ वारि शिरसी मुञ्चतामिह ।
सत्यवागहमद्यैव भविष्यामि च वां तथा ॥ ७९ ॥
ऐसा कहकर देवताओंके आराध्य भगवान् विष्णुने अपनी दोनों जाँघोंको सुविस्तृत करके जलके ऊपर ही स्थल दिखा दिया और उनसे कहा-'दैत्यो ! [देखो, यहाँ जल नहीं है, पृथ्वी है । अतः यहींपर तुम दोनों अपना सिर रखो । ऐसा करनेसे ही आज हम और तुम दोनों सत्यवादी सिद्ध होंगे' ॥ ७८-७९ ॥

तदाकर्ण्य वचस्तथ्यं विचिन्त्य मनसा च तौ ।
वर्धयामासतुर्देहं योजनानां सहस्रकम् ॥ ८० ॥
उस समय विष्णुका तथ्यपूर्ण वचन सुनकर तथा अपने मनमें विचार करके उन दोनों दैत्योंने अपना शरीर बड़ाकर हजारों योजन लम्बा-चौड़ा कर लिया || ८० ॥

भगवान्द्विगुणं चक्रे जघनं विस्मितौ तदा ।
शीर्षे सन्दधतां तत्र जघने परमाद्‌भुते ॥ ८१ ॥
रथांगेन तदा छिन्ने विष्णुना प्रभविष्णुना ।
जघनोपरि वेगेन प्रकृष्टे शिरसी तयोः ॥ ८२ ॥
तब भगवान् विष्णुने भी अपनी दोनों जाँघोंको बढ़ाकर उससे भी द्विगुणित कर दिया । यह देखकर वे दोनों दैत्य बड़े विस्मयमें पड़ गये, [परंतु अपनी बात सत्य प्रमाणित करनेके लिये] उन्होंने अपनेअपने मस्तक उस अत्यन्त अद्भुत जंघेपर रख दिये । उसी समय प्रतापी भगवान् विष्णुने अपने सुदर्शन चक्रसे जंघेपर स्थित उनके विशाल सिरोंको वेगपूर्वक धड़से अलग कर दिया ॥ ८१-८२ ॥

गतप्राणौ तदा जातौ दानवौ मधुकैटभौ ।
सागरः सकलो व्याप्तस्तदा वै मेदसा तयोः ॥ ८३ ॥
मेदिनीति ततो जातं नाम पृथ्व्याः समन्ततः ।
अभक्ष्या मृत्तिका तेन कारणेन मुनीश्वराः ॥ ८४ ॥
जब दोनों दैत्य मधु और कैटभ मर गये, तब उन्हींकी मेद (चर्बी)-से सम्पूर्ण सागर पट गया । हे मुनीश्वरो ! तभीसे पृथ्वीका नाम 'मेदिनी' पड़ गया और इसीलिये मृत्तिका भी अभक्ष्य मानी जाने लगी ॥ ८३-८४ ॥

इति वः कथितं सर्वं यत्पृष्टोऽस्मि सुनिश्चितम् ।
महाविद्या महामाया सेवनीया सदा बुधैः ॥ ८५ ॥
आराध्या परमा शक्तिः सर्वैरपि सुरासुरैः ।
नातः परतरं किञ्चिदधिकं भुवनत्रये ॥ ८६ ॥
आपलोगोंने जो प्रश्न किया था, उसका ठीकठीक उत्तर मैंने दे दिया । बुद्धिमान् मनुष्योंको चाहिये कि वे महामाया महाविद्याकी सर्वदा उपासना करते रहें; क्योंकि वे पराशक्ति ही समस्त देव-दानवोद्वारा आराध्य हैं । उनसे बढ़कर कोई दूसरा देवता तीनों लोकों में नहीं है ॥ ८५-८६ ॥

सत्यं सत्यं पुनः सत्यं वेदशास्त्रार्थनिर्णयः ।
पूजनीया परा शक्तिर्निर्गुणा सगुणाथवा ॥ ८७ ॥
यह बात सर्वदा सत्य है एवं वेदों तथा शास्त्रोंका निष्कर्ष है कि सगुण अथवा निर्गुणरूपमें सर्वदा उस पराशक्तिका ही पूजन करते रहना चाहिये ॥ ८७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे हरिकृतमधुकैटभवधवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
नववाँ अध्याय समाप्त


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