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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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शिववरदानवर्णनम् -
व्यासजीकी तपस्या और वर-प्राप्ति


ऋषय ऊचुः
सूत पूर्वं त्वया प्रोक्तं व्यासेनामिततेजसा ।
कृत्वा पुराणमखिलं शुकायाध्यापितं शुभम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! आपने हमें पहले ही बतला दिया है कि असीम तेजवाले व्यासजीने कल्याणकारी समस्त पुराणोंकी रचना करके उन्हें शुकदेवजीको पढ़ाया ॥ १ ॥

व्यासेन तु तपस्तप्त्वा कथमुत्पादितः शुकः ।
विस्तरं ब्रूहि सकलं यच्छ्रुतं कृष्णतस्त्वया ॥ २ ॥
व्यासजीने घोर तप करके शुकदेवजीको किस प्रकार पुत्ररूपमें प्राप्त किया ? व्यासजीके मुखसे आपने जो कुछ सुना है, वह सब हमसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ २ ॥

सूत उवाच
प्रवक्ष्यामि शुकोत्पत्तिं व्यासात्सत्यवतीसुतात् ।
यथोत्पन्नः शुकः साक्षाद्योगिनां प्रवरो मुनिः ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-सत्यवतीपुत्र व्यासजीसे जिस प्रकार योगिजनोंमें श्रेष्ठ साक्षात् मुनिस्वरूप शुकदेवजी उत्पन्न हुए, उत्पत्तिके उस इतिहासको मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ ३ ॥

मेरुशृङ्गे महारम्ये व्यासः सत्यवतीसुतः ।
तपश्चचार सोऽत्युग्रं पुत्रार्थं कृतनिश्चयः ॥ ४ ॥
सत्यवतीके पुत्र महर्षि व्यास पुत्र-प्राप्तिके लिये दृढ संकल्पकर अत्यन्त मनोहर सुमेरुपर्वतके शिखरपर कठोर तपस्या करने लगे ॥ ४ ॥

जपन्नेकाक्षरं मन्त्रं वाग्बीजं नारदाच्छ्रुतम् ।
ध्यायन्परां महामायां पुत्रकामस्तपोनिधिः ॥ ५ ॥
अग्नेर्भूमेस्तथा वायोरन्तरिक्षस्य चाप्ययम् ।
वीर्येण सम्मितः पुत्रो मम भूयादिति स्म ह ॥ ६ ॥
नारदजीसे सुने गये एकाक्षर वाग्बीज मन्त्रका जप करते हुए तपोनिधि व्यासजी पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे परात्परा महामाया अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए मन-ही-मन सोच रहे थे कि अग्नि, भूमि, वायु एवं आकाश-इनकी शक्तिसे सम्पन्न पुत्रकी मुझे प्राप्ति हो ॥ ५-६ ॥

अतिष्ठत्स गताहारः शतसंवत्सरं प्रभुः ।
आराधयन्महादेवं तथैव च सदाशिवाम् ॥ ७ ॥
इस प्रकार प्रभुतासम्पन्न वे व्यासजी निराहार रहते हुए सौ वर्षोंतक शंकर एवं सदाशिवा भगवतीको आराधनामें लीन रहे ॥ ७ ॥

शक्तिः सर्वत्र पूज्येति विचार्य च पुनः पुनः ।
अशक्तो निन्द्यते लोके शक्तस्तु परिपूज्यते ॥ ८ ॥
अनेकशः विचार करते हुए महर्षि व्यास इस निष्कर्षपर पहुँचे कि शक्ति ही सर्वत्र पूजनीया है । निर्बल प्राणी लोकमें निन्दाका पात्र होता है और शक्तिशालीकी पूजा की जाती है ॥ ८ ॥

यत्र पर्वतशृङ्गे वै कर्णिकारवनाद्‌भुते ।
क्रीडन्ति देवताः सर्वे मुनयश्च तपोऽधिकाः ॥ ९ ॥
आदित्या वसवो रुद्रा मरुतश्चाश्विनौ तथा ।
वसन्ति मुनयो यत्र ये चान्ये ब्रह्मवित्तमाः ॥ १० ॥
तत्र हेमगिरेः शृङ्गे संगीतध्वनिनादिते ।
तपश्चचार धर्मात्मा व्यासः सत्यवतीसुतः ॥ ११ ॥
जहाँ पर्वत-शिखरपर कर्णिकार पुष्पके अद्भुत बनमें देवता एवं महातपस्वी मुनिवृन्द विहार करते हैं; जहाँ सूर्य, वसु, रुद्र, पवन, अश्विनीकुमारद्वय एवं ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अन्य मुनिजन निवास करते हैं; मधुर संगीतकी ध्वनिसे मुखरित उसी समेरुपर्वतकी चोटीपर सत्यवतीनन्दन धर्मात्मा व्यासजीने तपस्या की ॥ ९-११ ॥

ततोऽस्य तेजसा व्याप्तं विश्वं सर्वं चराचरम् ।
अग्निवर्णा जटा जाता पाराशर्यस्य धीमतः ॥ १२ ॥
उनके इस तपश्चरणके प्रभावसे समग्र चराचर जगत् व्याप्त हो गया और महामेधासम्पन्न पराशरपुत्र व्यासजीकी जटा अग्निवर्ण हो गयी ॥ १२ ॥

ततोऽस्य तेज आलक्ष्य भयमाप शचीपतिः ।
तुरासाहं तदा दृष्ट्वा भयत्रस्तं श्रमातुरम् ॥ १३ ॥
उवाच भगवान् रुद्रो मघवन्तं तथास्थितम् ।
तदनन्तर व्यासजीका यह तेज देखकर इन्द्र भयभीत हो गये । तब इन्द्रको भयाक्रान्त तथा व्याकुल देखकर भगवान् शंकरजी उनसे कहने लगे- ॥ १३.५ ॥

शङ्कर उवाच
कथमिन्द्राद्य भीतोऽसि किं दुःखं ते सुरेश्वर ॥ १४ ॥
अमर्षो नैव कर्तव्यस्तापसेषु कदाचन ।
तपश्चरन्ति मुनयो ज्ञात्वा मां शक्तिसंयुतम् ॥ १५ ॥
न त्वेतेऽहितमिच्छन्ति तापसाः सर्वथैव हि ।
इत्युक्तवचनः शक्रस्तमुवाच वृषध्वजम् ॥ १६ ॥
कस्मात्तपस्यति व्यासः कोऽर्थस्तस्य मनोगतः ।
शंकरजी बोले-हे सुरेश्वर ! आपको क्या दुःख है ? हे इन्द्र ! आज आप इस तरह भयग्रस्त क्यों हैं ? तपस्वियोंसे कभी भी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मुनिगण मुझे शक्तिसम्पन्न जानकर ही तपस्या करते हैं । ये तपस्वी मुनिलोग कभी भी किसीका अपकार नहीं चाहते हैं । शंकरजीके ऐसा कहनेपर इन्द्र उनसे बोले-व्यासजी ऐसा तप किसलिये कर रहे हैं, उनकी क्या मनोकामना है ? ॥ १४-१६.५ ॥

शिव उवाच
पाराशर्यस्तु पुत्रार्थी तपश्चरति दुश्चरम् ॥ १७ ॥
शिवजी बोले-व्यासजी पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे यह कठोर तप कर रहे हैं । इन्हें तपस्या करते हुए पूरे एक सौ वर्ष हो चुके हैं, अतः मैं इन्हें कल्याणकारी पुत्र प्रदान करूंगा ॥ १७ ॥

पूर्णवर्षशतं जातं ददाम्यद्य सुतं शुभम् ।
सूत उवाच
इत्युक्त्या वासवं रुद्रो दयया मुदिताननः ॥ १८ ॥
गत्वा ऋषिसमीपं तु तमुवाच जगद्‌गुरुः ।
उत्तिष्ठ वासवीपुत्र पुत्रस्ते भविता शुभः ॥ १९ ॥
सर्वतेजोमयो ज्ञानी कीर्तिकर्ता तवानघ ।
अखिलस्य जनस्यात्र वल्लभस्ते सुतः सदा ॥ २० ॥
सूतजी बोले-दयाभावसे युक्त प्रसन्न मुखवाले जगद्गुरु भगवान् शंकर इन्द्रसे ऐसा कहकर मुनि व्यासजीके पास जाकर बोले-हे वासवीपुत्र ! उठो, तुम्हें कल्याणकारी पुत्र अवश्य प्राप्त होगा । हे निष्पाप ! तुम्हारा वह पुत्र सभी प्रकारके तेजोंसे सम्पन्न, ज्ञानवान्, यशस्वी और सभी लोगोंका सदा अतिशय प्रिय, समस्त सात्त्विक गुणोंसे सम्पन्न तथा सत्यरूपी पराक्रमसे युक्त होगा ॥ १८-२० ॥

भविष्यति गुणैः पूर्णः सात्त्विकैः सत्यविक्रमः ।
सूत उवाच
तदाकर्ण्य वचः श्लक्ष्णं कृष्णद्वैपायनस्तदा ॥ २१ ॥
शूलपाणिं नमस्कृत्य जगामाश्रममात्मनः ।
स गत्वाश्रममेवाशु बहुवर्षश्रमातुरः ॥ २२ ॥
अरणीसहितं गुह्यं ममन्थाग्निं चिकीर्षया ।
मन्थनं कुर्वतस्तस्य चित्ते चिन्ताभरस्तदा ॥ २३ ॥
सूतजी बोले-तब शूलपाणि शंकरजीका मधुर वचन सुनकर उन्हें प्रणामकर द्वैपायन व्यासजीने अपने आश्रमके लिये प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर कई वर्षोंतक घोर तप करनेके कारण अतिशय श्रान्त महर्षि व्यास अरणीमें समाहित अग्निको प्रकट करनेकी कामनासे अरणि-मन्थन करने लगे । मन्थन कर रहे व्यासजीके मनमें उस समय महान् चिन्ता हो रही थी ॥ २१-२३ ॥

प्रादुर्बभूव सहसा सुतोत्पत्तौ महात्मनः ।
मन्थानारणिसंयोगान्मन्थनाच्च समुद्‌भवः ॥ २४ ॥
पावकस्य यथा तद्वत्कथं मे स्यात्सुतोद्‌भवः ।
पुत्रारणिस्तु या ख्याता सा ममाद्य न विद्यते ॥ २५ ॥
तरुणी रूपसम्पन्ना कुलोत्पन्ता पतिव्रता ।
कथं करोमि कान्तां च पादयोः शृङ्खलासमाम् ॥ २६ ॥
पुत्रोत्पादनदक्षां च पातिव्रत्ये सदा स्थिताम् ।
पतिव्रतापि दक्षापि रूपवत्यपि कामिनी ॥ २७ ॥
सदा बन्धनरूपा च स्वेच्छासुखविधायिनी ।
शिवोऽपि वर्तते नित्यं कामिनीपाशसंयुतः ॥ २८ ॥
कथं करोम्यहं चात्र दुर्घटं च गृहाश्रमम् ।
मन्थन तथा अरणिके पारस्परिक संयोगसे प्रकटित अग्निको देखकर व्यासजीके मनमें अचानक पुत्रोत्पत्तिका विचार आया कि अरणि-मन्थनजनित अग्निकी भाँति मुझे पुत्र कैसे उत्पन्न हो ? क्योंकि पुत्र प्रदान करनेवाली अरणी-रूपी वह रूपवती, उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा पतिव्रता युवती स्त्री मेरे पास है नहीं, साथ ही पैरोंकी श्रृंखलाके समान स्त्रीको मैं कैसे अंगीकार करूँ ? पुत्र उत्पन्न करने में कुशल और पातिव्रत्य धर्ममें सदा तत्पर रहनेवाली पत्नी मुझे कैसे मिले ? पतिपरायणा, निपुण, रूपवती-कैसी भी स्त्री हो; वह सदा बन्धनकी कारण ही बनी रहती है । स्त्री सदा अपनी इच्छाके अनुसार सुख प्राप्त करना चाहती है । शंकरजी भी नित्य स्त्रीके मोहपाशमें फंसे हुए रहते हैं । अतः अब मैं अत्यन्त विषम गृहस्थाश्रम-धर्मको किस प्रकार अंगीकार करूँ ? ॥ २४-२८.५ ॥

एवं चिन्तयतस्तस्य घृताची दिव्यरूपिणी ॥ २९ ॥
प्राप्ता दृष्टिपथं तत्र समीपे गगने स्थिता ।
तां दृष्ट्वा चञ्चलापाङ्गीं समीपस्थां वराप्सराम् ॥ ३० ॥
पञ्चबाणपरीताङ्गस्तूर्णमासीद्‌धृतव्रतः ।
चिन्तयामास च तदा किं करोम्यद्य संकटे ॥ ३१ ॥
व्यासजी ऐसा विचार कर ही रहे थे कि आकाशमें समीपमें ही स्थित घृताची नामक अप्सरा उन्हें दृष्टिगोचर हुई । चंचल कटाक्षोंवाली उस श्रेष्ठ अप्सराको पासमें ही स्थित देखकर कठोर नियम-संयम धारण करनेवाले व्यासजी शीघ्र ही कामबाणसे आहत अंगोंवाले हो गये और सोचने लगे कि अब इस विषम संकटके समय मैं क्या करूं ? ॥ २९-३१ ॥

धर्मस्य पुरतः प्राप्ते कामभावे दुरासदे ।
अङ्गीकरोमि यद्येनां वञ्चनार्थमिहागताम् ॥ ३२ ॥
हसिष्यन्ति महात्मानस्तापसा मां तु विह्वलम् ।
तपस्तप्त्वा महाघोरं पूर्णवर्षशतं त्विह ॥ ३३ ॥
दृष्ट्वाप्सरां च विवशः कथं जातो महातपाः ।
कामं निन्दापि भवतु यदि स्यादतुलं सुखम् ॥ ३४ ॥
धर्मके समक्ष इस दुर्जय कामवासनाके वशीभूत होकर यदि मैं छलनेके लिये यहाँ उपस्थित हुई इस अप्सराको स्वीकार करता हूँ, तब ऐसी स्थितिमें महात्मा तथा तपस्वीगण मुझ कामासक्तिसे विहलका यह उपहास करेंगे कि सौ वर्षातक कठिन तपस्या करनेके पश्चात् भी एक अप्सराको देखकर महातपस्वी व्यास इतने विवश कैसे हो गये ? और फिर यदि इसमें अतुलनीय सुख हो तो ऐसी निन्दा भी होती रहे । अर्थात् उसकी उपेक्षा भी की जा सकती है ॥ ३२-३४ ॥

गहस्थाश्रमसम्भूतं सुखदं पुत्रकामदम् ।
स्वर्गदं च तथा प्रोक्तं ज्ञानिनां मोक्षदं तथा ॥ ३५ ॥
न भविष्यति तन्नूनमया देवकन्यया ।
नारदाच्च मया पूर्वं श्रुतमस्ति कथानकम् ।
यथोर्वशीवशो राजा पराभूतः पुरूरवाः ॥ ३६ ॥
गृहस्थाश्रम पुत्र-प्राप्तिकी कामना पूर्ण करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा ज्ञानियोंको मोक्ष देनेवाला कहा गया है । किंतु वैसा सुख इस देवकन्यासे नहीं प्राप्त होगा । पूर्वकालमें मैंने नारदजीसे एक कथा सुनी थी जिसमें राजा पुरूरवा उर्वशीके वशीभूत होकर अत्यन्त संकटमें पड़ गये थे ॥ ३५-३६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महायुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे शिववरदानवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
दसवाँ अध्याय समाप्त


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