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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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बुधोत्पत्तिः -
बुधके जन्मकी कथा


ऋषय ऊचुः
कोऽसौ पुरूरवा राजा कोर्वशी देवकन्यका ।
कथं कष्टं च सम्प्राप्तं तेन राज्ञा महात्मना ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! वे राजा पुरूरवा कौन थे तथा वह देवकन्या उर्वशी कौन थी ? उस मनस्वी राजाने किस प्रकार संकट प्राप्त किया ? ॥ १ ॥

सर्वं कथानकं ब्रूहि लोमहर्षणजाधुना ।
श्रोतुकामा वयं सर्वे त्वन्मुखाब्जच्युतं रसम् ॥ २ ॥
हे लोमहर्षणतनय ! आप इस समय पूरा कथानक विस्तारपूर्वक कहें । हम सभी लोग आपके मुखारविन्दसे निःसृत रसमयी वाणीको सुननेके इच्छुक हैं ॥ २ ॥

अमृतादपि मिष्टा ते वाणी सूत रसात्मिका ।
न तृप्यामो वयं सर्वे सुधया च यथामराः ॥ ३ ॥
हे सूतजी ! आपकी वाणी अमृतसे भी बढ़कर मधुर एवं रसमयी है । जिस प्रकार देवगण अमृतपानसे कभी तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार आपके कथा-श्रवणसे हम तृप्त नहीं होते ॥ ३ ॥

सूत उवाच
शृणुध्वं मुनयः सर्वे कथां दिव्यां मनोरमाम् ।
वक्ष्याम्यहं यथाबुद्ध्या श्रुतां व्यासवरोत्तमात् ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! अब आपलोग उस दिव्य तथा मनोहर कथाको सुनिये, जिसे मैंने परम श्रेष्ठ व्यासजीके मुखसे सुना है । मैं उसे अपनी बुद्धिके अनुसार वैसा ही कहूँगा ॥ ४ ॥

गुरोस्तु दयिता भार्या तारा नामेति विश्रुता ।
रूपयौवनयुक्ता सा चार्वङ्गी मदविह्वला ॥ ५ ॥
सुरगुरु बृहस्पतिकी पत्नीका नाम 'तारा' था । वह रूप-यौवनसे सम्पन्न तथा सुन्दर अंगोंवाली थी ॥ ५ ॥

गतैकदा विधोर्धाम यजमानस्य भामिनी ।
दृष्टा च शशिनात्यर्थं रूपयौवनशालिनी ॥ ६ ॥
कामातुरस्तदा जातः शशी शशिमुखीं प्रति ।
सापि वीक्ष्य विधुं कामं जाता मदनपीडिता ॥ ७ ॥
तावन्योन्यं प्रेमयुक्तौ स्मरार्तौ च बभूवतुः ।
तारा शशी मदोन्मत्तौ कामबाणप्रपीडितौ ॥ ८ ॥
एक बार वह सुन्दरी अपने यजमान चन्द्रमाके घर गयी । उस रूप तथा यौवनसे सम्पन्न चन्द्रमुखी कामिनीको देखते ही चन्द्रमा उसपर आसक्त हो गये । तारा भी चन्द्रमाको देखकर आसक्त हो गयी । इस प्रकार वे दोनों तारा तथा चन्द्रमा एक-दूसरेको देखकर प्रेमविभोर हो गये ॥ ६-८ ॥

रेमाते मदमत्तौ तौ परस्परस्पृहान्वितौ ।
दिनानि कतिचित्तत्र जातानि रममाणयोः ॥ ९ ॥
बृहस्पतिस्तु दुःखार्तस्तारामानयितुं गृहम् ।
प्रेषयामास शिष्यं तु नायाता सा वशीकृता ॥ १० ॥
वे दोनों प्रेमोन्मत्त एक-दूसरेको चाहनेकी इच्छासे युक्त हो विहार करने लगे । इस प्रकार उनके कुछ दिन व्यतीत हुए । तब बृहस्पतिने ताराको घर लानेके लिये अपना एक शिष्य भेजा; परंतु वह न आ सकी ॥ ९-१० ॥

पुनः पुनर्यदा शिष्यं परावर्तत चन्द्रमाः ।
बृहस्पतिस्तदा क्रुद्धो जगाम स्वयमेव हि ॥ ११ ॥
जब चन्द्रमाने बृहस्पतिके शिष्यको कई बार लौटाया, तो वे क्रोधित होकर चन्द्रमाके पास स्वयं गये ॥ ११ ॥

गत्वा सोमगृहं तत्र वाचस्पतिरुदारधीः ।
उवाच शशिनं क्रुद्धः स्मयमानं मदान्वितम् ॥ १२ ॥
किं कृतं किल शीतांशो कर्म धर्मविगर्हितम् ।
रक्षिता मम भार्येयं सुन्दरी केन हेतुना ॥ १३ ॥
चन्द्रमाके घर जाकर उदारचित्त बृहस्पतिने अभिमानके साथ मुसकराते हुए उस चन्द्रमासे कहाहे चन्द्रमा ! तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य क्यों किया और मेरी इस परम सुन्दरी पत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १२-१३ ॥

तव देव गुरुश्चाहं यजमानोऽसि सर्वथा ।
गुरुभार्या कथं मूढ भुक्ता किं रक्षिताथवा ॥ १४ ॥
हे देव ! मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम मेरे यजमान हो । तब हे मूर्ख ! तुमने गुरुपत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १४ ॥

ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः ।
महापातकिनो ह्येते तत्संसर्गी च पञ्चमः ॥ १५ ॥
महापातकयुक्तस्त्वं दुराचारोऽतिगर्हितः ।
न देवसदनार्होऽसि यदि भुक्तेयमङ्गना ॥ १६ ॥
ब्रह्महत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, मदिरापान करनेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा पाँचवाँ इन पापियोंके साथ संसर्ग रखनेवाला-ये 'महापातकी' हैं । तुम महापापी, दुराचारी एवं अत्यन्त निन्दनीय हो । यदि तुमने मेरी पत्नीके साथ अनाचार किया है तो तुम देवलोकमें रहनेयोग्य नहीं हो ॥ १५-१६ ॥

मुञ्चेमामसितापाङ्गीं नयामि सदनं मम ।
नोचेद्वक्ष्यामि दुष्टात्मन् गुरुदारापहारिणम् ॥ १७ ॥
हे दुष्टात्मन् ! असितापांगी मेरी इस पत्नीको छोड़ दो जिससे मैं इसे अपने घर ले जाऊँ, अन्यथा गुरुपत्नीका अपहरण करनेवाले तुझको मैं शाप दे दूंगा ॥ १७ ॥

इत्येवं भाषमाणं तमुवाच रोहिणीपतिः ।
गुरुं क्रोधसमायुक्तं कान्ताविरहदुःखितम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार बोलते हुए स्त्रीविरहसे कातर तथा क्रोधाकुल देवगुरु बृहस्पतिसे रोहिणीपति चन्द्रमाने कहा ॥ १८ ॥

इन्दुरुवाच
क्रोधात्ते तु दुराराध्या ब्राह्मणाः क्रोधवर्जिताः ।
पूजार्हा धर्मशास्त्रज्ञा वर्जनीयास्ततोऽन्यथा ॥ १९ ॥
चन्द्रमा बोले-क्रोधके कारण ब्राह्मण अपूजनीय होते हैं । क्रोधरहित तथा धर्मशास्त्रज्ञ विप्र पूजाके योग्य हैं और इन गुणोंसे होन ब्राह्मण त्याज्य होते हैं ॥ १९ ॥

आगमिष्यति सा कामं गृहं ते वरवर्णिनी ।
अत्रैव संस्थिता बाला का ते हानिरिहानघ ॥ २० ॥
इच्छया संस्थिता चात्र सुखकामार्थिनी हि सा ।
दिनानि कतिचित्स्थित्वा स्वेच्छया चागमिष्यति ॥ २१ ॥
हे अनघ ! वह सुन्दर स्त्री अपनी इच्छासे आपके घर चली जायगी और यदि कुछ दिन यहाँ ठहर भी गयी तो इससे आपकी क्या हानि है ? अपनी इच्छासे ही वह यहाँ रहती है । सुखकी इच्छा रखनेवाली वह कुछ दिन यहाँ रहकर अपनी इच्छासे चली जायगी ॥ २०-२१ ॥

त्वयैवोदाहृतं पूर्वं धर्मशास्त्रमतं तथा ।
न स्त्री दुष्यति चारेण न विप्रो वेदकर्मणा ॥ २२ ॥
आपने ही तो पूर्वमें धर्मशास्त्रके इस मतका उल्लेख किया है कि संसर्गसे स्त्री और वेदकमसे ब्राह्मण कभी दूषित नहीं होते ॥ २२ ॥

इत्युक्तः शशिना तत्र गुरुरत्यन्तदुःखितः ।
जगाम स्वगृहं तूर्णं चिन्ताविष्टः स्मरातुरः ॥ २३ ॥
चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर बृहस्पति अत्यन्त दुखी हुए एवं चिन्तामग्न होकर शीघ्र ही अपने घर चले गये ॥ २३ ॥

दिनानि कतिचित्तत्र स्थित्वा चिन्तातुरो गुरुः ।
ययावथ गृहं तस्य त्वरितश्चौषधीपतेः ॥ २४ ॥
स्थितः क्षत्रा निषिद्धोऽसौ द्वारदेशे रुषान्वितः ।
नाजगाम शशी तत्र चुकोपाति बृहस्पतिः ॥ २५ ॥
कुछ दिन अपने घर रहकर चिन्तासे व्याकुल गुरु बृहस्पति पुनः उन औषधिपति चन्द्रमाके यहाँ शीघ्र जा पहुँचे । वहाँ द्वारपालने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब वे क्रुद्ध होकर द्वारपर ही रुक गये । [कुछ देरतक प्रतीक्षा करनेपर] जब चन्द्रमा वहाँ नहीं आये, तब बृहस्पति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे ॥ २४-२५ ॥

अयं मे शिष्यतां यातो गुरुपत्‍नीं तु मातरम् ।
जग्राह बलतोऽधर्मी शिक्षणीयो मयाधुना ॥ २६ ॥
[वे विचार करने लगे] मेरा शिष्य होते हुए भी इसने माताके समान आदरणीया गुरुपत्नीको बलपूर्वक हर लिया है । इसलिये अब मुझे इस अधर्मीको दण्डित करना चाहिये ॥ २६ ॥

उवाच वाचं कोपात्तु द्वारदेशस्थितो बहिः ।
किं शेषे भवने मन्द पापाचार सुराधम ॥ २७ ॥
देहि मे कामिनीं शीघ्रं नोचेच्छापं ददाम्यहम् ।
करोमि भस्मसान्नूनं न ददासि प्रियां मम ॥ २८ ॥
तब बाहर द्वारपर खड़े बृहस्पतिने क्रोधके साथ चन्द्रमासे कहा-अरे नीच ! पापी ! देवाधम ! तुम अपने घरमें निश्चिन्त होकर क्यों पड़े हो ? मेरी स्त्री | शीघ्र मुझे लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हें शाप दे ,गा । यदि तुम मेरी पत्नी नहीं दोगे तो मैं तुझे अभी अवश्य भस्म कर दूंगा ॥ २७-२८ ॥

सूत उवाच
क्रूराणि चैवमादीनि भाषणानि बृहस्पतेः ।
श्रुत्वा द्विजपतिः शीघ्रं निर्गतः सदनाद्‌बहिः ॥ २९ ॥
तमुवाच हसन्सोमः किमिदं बहु भाषसे ।
न ते योग्यासितापाङ्गी सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३० ॥
सूतजी बोले-बृहस्पतिके इस प्रकारके क्रोधभरे वचन सुनकर द्विजराज चन्द्रमा शीघ्र घरसे बाहर निकले और हँसते हुए उनसे बोले-आप इतना अधिक क्यों बोल रहे हैं ? सर्वलक्षणसम्पन्न वह असितापांगी आपके योग्य नहीं है ॥ २९-३० ॥

कुरूपां च स्वसदृशीं गृहाणान्यां स्त्रियं द्विज ।
भिक्षुकस्य गृहे योग्या नेदृशी वरवर्णिनी ॥ ३१ ॥
रतिः स्वसदृशे कान्ते नार्याः किल निगद्यते ।
त्वं न जानासि मन्दात्मन् कामशास्त्रविनिर्णयम् ॥ ३२ ॥
यथेष्टं गच्छ दुर्बुद्धे नाहं दास्यामि कामिनीम् ।
यच्छक्यं कुरु तत्कामं न देया वरवर्णिनी ॥ ३३ ॥
कामार्तस्य च ते शापो न मां बाधितुमर्हति ।
नाहं ददे गुरो कान्तां यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३४ ॥
हे विप्र ! आप अपने समान किसी अन्य स्त्रीको ग्रहण कर लीजिये; ऐसी सुन्दरी भिक्षुकके घरमें रहनेयोग्य नहीं है । यह प्रायः कहा जाता है कि अपने समान गुणसम्पन्न पतिपर ही पत्नीका प्रेम स्थिर रहता है । अपने इच्छानुसार अब आप चाहे जहाँ चले जायें । मैं इसे नहीं दूंगा । आपका शाप मेरे ऊपर नहीं लग सकता । हे गुरो ! मैं यह रमणी आपको नहीं दूंगा, अब आप जैसा चाहें वैसा करें ॥ ३१-३४ ॥

सूत उवाच
इत्युक्तः शशिना चेज्यश्चिन्तामाप रुषान्वितः ।
जगाम तरसा सद्म क्रोधयुक्तः शचीपतेः ॥ ३५ ॥
सूतजी बोले-चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर देवगुरु बृहस्पति रुष्ट होकर चिन्तामें पड़ गये और वे कुपित हो शीघ्रतासे इन्द्रके भवन चले गये ॥ ३५ ॥

दृष्ट्वा शतक्रतुस्तत्र गुरुं दुःखातुरं स्थितम् ।
पाद्यार्घ्याचमनीयाद्यैः पूजयित्वा सुसंस्थितः ॥ ३६ ॥
वहाँ स्थित देवगुरु बृहस्पतिको दुःखसे व्याकुल देखकर इन्द्रने पाद्य, अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उनकी विधिवत् पूजा करके बैठाया ॥ ३६ ॥

पप्रच्छ परमोदारस्तं तथावस्थितं गुरुम् ।
का चिन्ता ते महाभाग शोकार्तोऽसि महामुने ॥ ३७ ॥
जब बृहस्पति आसनपर बैठकर स्वस्थ हो गये, तब परम उदार इन्द्रने उनसे पूछा-'हे महाभाग ! आपको कौन-सी चिन्ता है ? हे मुनिवर ! आप इतने शोकाकुल किसलिये हैं ? ॥ ३७ ॥

केनापमानितोऽसि त्वं मम राज्ये गुरुश्च मे ।
त्वदधीनमिदं सर्वं सैन्यं लोकाधिपैः सह ॥ ३८ ॥
बह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्ये चान्ये देवसत्तमाः ।
करिष्यन्ति च साहाय्यं का चिन्ता वद साम्प्रतम् ॥ ३९ ॥
मेरे राज्यमें आपका अपमान किसने किया है ? आप मेरे गुरु हैं, अतः हमारी सारी सेना एवं लोकपाल सभी आपके अधीन हैं । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता भी आपकी सहायता करेंगे । आपको कौन-सी चिन्ता है । इस समय उसे बताइये ॥ ३८-३९ ॥

गुरुरुवाच
शशिनापहृता भार्या तारा मम सुलोचना ।
न ददाति स दुष्टात्मा प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः ॥ ४० ॥
किं करोमि सुरेशान त्वमेव शरणं मम ।
साहाय्यं कुरु देवेश दुःखितोऽस्मि शतक्रतो ॥ ४१ ॥
बृहस्पति बोले-चन्द्रमाने मेरी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी ताराका हरण कर लिया और वह दुष्ट मेरे बारबार प्रार्थना करनेपर भी उसे लौटाता नहीं है । हे देवराज ! अब मैं क्या करूं ? अब तो केवल आप ही मेरी शरण हैं । हे शतक्रतो ! मैं अत्यन्त दु:खी हूँ । हे देवेश ! आप मेरी सहायता कीजिये ॥ ४०-४१ ॥

इन्द्र उवाच
मा शोकं कुरु धर्मज्ञ दासोऽस्मि तव सुव्रत ।
आनयिष्याम्यहं नूनं भार्यां तव महामते ॥ ४२ ॥
प्रेषिते चेन्मया दूते न दास्यति मदाकुलः ।
ततो युद्धं करिष्यामि देवसैन्यैः समावृतः ॥ ४३ ॥
इन्द्र बोले-हे धर्मात्मन् ! आप शोक न करें, हे सुव्रत ! मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपकी पत्नीको अवश्य लाऊँगा । हे महामते ! यदि दूत भेजनेपर भी वह मदोन्मत्त चन्द्रमा आपकी स्त्रीको नहीं देगा तो देवसेनाओंसहित मैं स्वयं युद्ध करूँगा ॥ ४२-४३ ॥

इत्याश्वास्य गुरुं शक्रो दूतं वक्तृविचक्षणम् ।
प्रेषयामास सोमाय वार्ताशंसिनमद्‌भुतम् ॥ ४४ ॥
इस प्रकार गुरु बृहस्पतिको आश्वासन देकर इन्द्रने अपनी बातको सही ढंगसे कहनेवाले, विलक्षण तथा वाक्पटु दूतको चन्द्रमाके पास भेजा ॥ ४४ ॥

स गत्वा शशिलोकं तु त्वरितः सुविचक्षणः ।
उवाच वचनेनैव वचनं रोहिणीपतिम् ॥ ४५ ॥
प्रेषितोऽहं महाभाग शक्रेण त्वां विवक्षया ।
कथितं प्रभुणा यच्च तद्‌ब्रवीमि महामते ॥ ४६ ॥
शीघ्र ही वह चतुर दूत चन्द्रलोक गया और रोहिणीपति चन्द्रमासे यह सन्देश-वचन कहने लगाहे महाभाग ! हे महामते ! इन्द्रने आपसे कुछ कहनेके लिये मुझे भेजा है । अत: उनके द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही ज्यों-का-त्यों मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ४५-४६ ॥

धर्मज्ञोऽसि महाभाग नीतिं जानासि सुव्रत ।
अत्रिः पिता ते धर्मात्मा न निद्यं कर्तुमर्हसि ॥ ४७ ॥
भार्या रक्ष्या सर्वभूतैर्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितैः ।
तदर्थे कलहः कामं भविता नात्र संशयः ॥ ४८ ॥
हे महाभाग ! हे सुव्रत ! आप धर्मज्ञ हैं, नीति जानते हैं तथा धर्मात्मा अत्रिमुनि आपके पिता हैं, अतएव आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे आप निन्दनीय हो जायें । आलस्यरहित होकर यथाशक्ति अपनी स्त्रीकी रक्षा सभी प्राणी करते हैं । अतः इस (तारा)-के लिये बड़ा कलह होगा । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४७-४८ ॥

यथा तव तथा तस्य यत्‍नः स्याद्दाररक्षणे ।
आत्मवत्सर्वभूतानि चिन्तय त्वं सुधानिधे ॥ ४९ ॥
हे सुधानिधे ! जैसे आप अपनी भार्याकी रक्षा हेतु प्रयत्न करते हैं, वैसे वे गुरु बृहस्पति भी अपनी पत्नीकी रक्षाके लिये प्रयत्नशील हैं । आप अपने ही सदृश सभी प्राणियोंके विषयमें विचार कीजिये । ४९ ॥

अष्टाविंशतिसंख्यास्ते कामिन्यो दक्षजाः शुभाः ।
गुरुपत्‍नीं कथं भोक्तुं त्वमिच्छसि सुधानिधे ॥ ५० ॥
स्वर्गे सदा वसन्त्येता मेनकाद्या मनोरमाः ।
भुंक्ष्व ताः स्वेच्छया कामं मुञ्च पत्‍नीं गुरोरपि ॥ ५१ ॥
हे सुधानिधे ! आपको दक्षप्रजापतिकी सुलक्षणोंसे युक्त अट्ठाईस कन्याएँ पत्नीके रूपमें प्राप्त हैं । आप अपने गुरुकी पत्नीको पानेकी इच्छा क्यों रखते हैं ? स्वर्गलोकमें मेनका आदि अनेक मनोरम अप्सराएँ सर्वदा सुलभ हैं, तब उनके साथ स्वेच्छापूर्वक विहार कीजिये और गुरुपत्नी ताराको शीघ्र ही लौटा दीजिये ॥ ५०-५१ ॥

ईश्वरा यदि कुर्वन्ति जुगुप्सितमहन्तया ।
अज्ञास्तदनुवर्तन्ते तदा धर्मक्षयो भवेत् ॥ ५२ ॥
तस्मान्मुञ्च महाभाग गुरोः पत्‍नीं मनोरमाम् ।
कलहस्त्वन्निमित्तोऽद्य सुराणां न भवेद्यथा ॥ ५३ ॥
आप जैसे महान् लोग यदि अहंकारवश ऐसा निन्दित कर्म करें तो अनभिज्ञ साधारणजन तो उनका अनुकरण करेंगे ही और तब धर्मका नाश हो जायगा । अतः हे महाभाग ! गुरुकी इस मनोरमा पत्नीको शीघ्र लौटा दीजिये, जिससे आपके कारण इस समय देवताओंके बीच कलह न उत्पन्न हो ॥ ५२-५३ ॥

सूत उवाच
सोमः शक्रवचः श्रुत्वा किञ्चित्क्रोधसमाकुलः ।
भङ्ग्या प्रतिवचः प्राह शक्रदूतं तदा शशी ॥ ५४ ॥
सूतजी बोले-दूतसे इन्द्रका सन्देश सुनकर चन्द्रमा कुछ क्रोधित हो गये और उन्होंने इन्द्रके दूतको इस प्रकार व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया५४ ॥

इन्दुरावाच
धर्मज्ञोऽसि महाबाहो देवानामधिपः स्वयम् ।
पुरोधापि च ते तादृग्युवयोः सदृशी मतिः ॥ ५५ ॥
चन्द्रमा बोले-हे महाबाहो ! आप धर्मज्ञ हैं और स्वयं देवताओंके राजा हैं । आपके पुरोहित बृहस्पति भी ठीक आपकी तरह हैं और आप दोनोंकी बुद्धि भी एक समान है ॥ ५५ ॥

परोपदेशे कुशला भवन्ति बहवो जनाः ।
दुर्लभस्तु स्वयं कर्ता प्राप्ते कर्मणि सर्वदा ॥ ५६ ॥
दूसरोंको उपदेश देनेमें अनेक लोग चतुर होते हैं, परंतु कार्य उपस्थित होनेपर [उपदेशानुसार स्वयं आचरण करनेवाला दुर्लभ होता है ॥ ५६ ॥

बार्हस्पत्यप्रणीतं च शास्त्रं गृह्णन्ति मानवाः ।
को विरोधोऽत्र देवेश कामयानां भजन्स्त्रियम् ॥ ५७ ॥
स्वकीयं बलिनां सर्वं दुर्बलानां न किञ्चन ।
स्वीया च परकीया च भ्रमोऽयं मन्दचेतसाम् ॥ ५८ ॥
तारा मय्यनुरक्ता च यथा न तु तथा गुरौ ।
अनुरक्ता कथं त्याज्या धर्मतो न्यायतस्तथा ॥ ५९ ॥
गृहारम्भस्तु रक्तायां विरक्तायां कथं भवेत् ।
विरक्तेयं यदा जाता चकमेऽनुजकामिनीम् ॥ ६० ॥
न दास्येऽहं वरारोहां गच्छ दूत वद स्वयम् ।
ईश्वरोऽसि सहस्राक्ष यदिच्छसि कुरुष्व तत् ॥ ६१ ॥
हे देवेश ! बृहस्पतिके बनाये शास्त्रको सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं । शक्तिशाली लोगोंके लिये सब कुछ अपना होता है, परंतु दुर्बल लोगोंके लिये कुछ भी अपना नहीं होता । तारा जितना प्रेम मुझसे करती है, उतना बृहस्पतिसे नहीं । अतः अनुरक्त स्त्री धर्म अथवा न्यायसे त्याज्य कैसे हो सकती है ? गार्हस्थ्य जीवनका वास्तविक सुख तो प्रेम रखनेवाली स्त्रीके साथ ही होता है, उदासीन स्त्रीके साथ नहीं; इसलिये हे दूत ! तुम जाओ और इन्द्रसे कह दो कि मैं इसे नहीं दूंगा । हे सहस्राक्ष ! आप स्वयं समर्थ हैं; आप जो चाहते हों, वह कीजिये ॥ ५७-६१ ॥

सूत उवाच
इत्युक्तः शशिना दूतः प्रययौ शक्रसन्निधिम् ।
इन्द्रायाचष्ट तत्सर्वं यदुक्तं शीतरश्मिना ॥ ६२ ॥
सूतजी बोले-चन्द्रमाके ऐसा कहनेपर दूत इन्द्रके पास लौट गया और चन्द्रमाने जो कहा था, वह सब उसने इन्द्रसे कह दिया ॥ ६२ ॥

तुराषाडपि तच्छ्रुत्वा क्रोधयुक्तो बभूव ह ।
सेनोद्योगं तथा चक्रे साहाय्यार्थं गुरोर्विभुः ॥ ६३ ॥
इसे सुनकर प्रतापी इन्द्र भी अत्यन्त क्रोधित हुए और गुरु बृहस्पतिकी सहायताके लिये सेनाकी तैयारी करने लगे ॥ ६३ ॥

शुक्रस्तु विग्रहं श्रुत्वा गुरुद्वेषात्ततो ययौ ।
मा ददस्वेति तं वाक्यमुवाच शशिनं प्रति ॥ ६४ ॥
दैत्यगुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा तथा देवगुरुके विरोधकी बात सुनकर बृहस्पतिसे द्वेषके कारण चन्द्रमाके पास गये और उससे बोले कि आप ताराको वापस मत कीजिये ॥ ६४ ॥

साहाय्यं ते करिष्यामि मन्त्रशक्त्या महामते ।
भविता यदि संग्रामस्तव चेन्द्रेण मारिष ॥ ६५ ॥
हे महामते ! हे मान्य ! यदि इन्द्रके साथ आपका युद्ध छिड़ जायगा तो मैं भी अपनी मन्त्रशक्तिसे आपकी सहायता करूँगा ॥ ६५ ॥

शङ्करस्तु तदाकर्ण्य गुरुदाराभिमर्शनम् ।
गुरुशत्रुं भृगुं मत्वा साहाय्यमकरोत्तदा ॥ ६६ ॥
गुरुपत्नीसे अनाचारकी बात सुनकर और शुक्राचार्यको बृहस्पतिका शत्रु जानकर शिवजी भी बृहस्पतिकी सहायताके लिये तैयार हो गये ॥ ६६ ॥

संग्रामस्तु तदा वृत्तो देवदानवयोर्द्रुतम् ।
बहूनि तत्र वर्षाणि तारकासुरवत्किल ॥ ६७ ॥
तब तारकासुरके साथ हुए युद्धकी भांति देवदानवोंमें संग्राम छिड़ गया । यह युद्ध बहुत वर्षांतक चलता रहा । ६७ ॥

देवासुरकृतं युद्धं दृष्ट्वा तत्र पितामहः ।
हंसारूढो जगामाशु तं देशं क्लेशशान्तये ॥ ६८ ॥
राकापतिं तदा प्राह मुञ्च भार्यां गुरोरिति ।
नोचेद्विष्णुं समाहूय करिष्यामि तु संक्षयम् ॥ ६९ ॥
भृगुं निवारयामास ब्रह्मा लोकपितामहः ।
किमन्यायमतिर्जाता सङ्गदोषान्महामते ॥ ७० ॥
देव दानवोंका यह संग्राम देखकर प्रजापति ब्रह्माजी हंसपर सवार होकर उस क्लेशकी शान्तिके लिये रणस्थलमें शीघ्र पहुंचे । तब ब्रह्माजीने चन्द्रमासे कहा कि तुम गुरु बृहस्पतिकी पत्नी लौटा दो, नहीं तो भगवान् विष्णुको बुलाकर मैं तुम्हें समूल नष्ट कर दूंगा । तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने भृगुनन्दन शुक्रको भी युद्धसे रोका और उनसे कहा-हे महामते ! दैत्योंके संगसे क्या आपकी भी बुद्धि अन्याययुक्त हो गयी है ? ॥ ६८-७० ॥

निषेधयामास ततो भृगुस्तं चौषधीपतिम् ।
मुञ्च भार्यां गुरोरद्य पित्राहं प्रेषितस्तव ॥ ७१ ॥
तत्पश्चात् [ब्रह्माजीकी बात सुनकर शुक्राचार्य चन्द्रमाके पास गये] उन्होंने चन्द्रमाको युद्धसे रोका और कहा कि तुम्हारे पिताने मुझे भेजा है, तुम अपने गुरुकी पत्नीको तत्काल छोड़ दो ॥ ७१ ॥

सूत उवाच
द्विजराजस्तु तच्छ्रुत्वा भृगोर्वचनमद्‌भुतम् ।
ददौ च तत्प्रियां भार्यां गुरोर्गर्भवतीं शुभाम् ॥ ७२ ॥
सूतजी बोले-शुक्राचार्यकी वह अद्धत वाणी सुनकर चन्द्रमाने बृहस्पतिकी गर्भवती सुन्दरी प्रिय भार्याको लौटा दिया ॥ ७२ ॥

प्राप्य कान्तां गुरुर्हृष्टः स्वगृहं मुदितो ययौ ।
ततो देवास्ततो दैत्या ययुः स्वान्स्वान्गृहान्प्रति ॥ ७३ ॥
पत्नीको पाकर देवगुरु बड़े प्रसन्न हुए और आनन्दपूर्वक अपने घर चले गये । तत्पश्चात् सभी देवता और दैत्य भी अपने-अपने घर चले गये । ७३ ॥

ब्रह्मा स्वसदनं प्राप्तः कैलासं चापि शङ्करः ।
बृहस्पतिस्तु सन्तुष्टः प्राप्य भार्यां मनोरमाम् ॥ ७४ ॥
पितामह ब्रह्मा अपने लोकको तथा शिवजी भी कैलासपर्वतपर चले गये । इस प्रकार अपनी सुन्दरी स्त्रीको पाकर बृहस्पति सन्तुष्ट हो गये ॥ ७४ ॥

ततः कालेन कियता तारासूत सुतं शुभम् ।
सुदिने शुभनक्षत्रे तारापतिसमं गुणैः ॥ ७५ ॥
दृष्ट्वा पुत्रं गुरुर्जातं चकार विधिपूर्वकम् ।
जातकर्मादिकं सर्वं प्रहृष्टेनान्तरात्मना ॥ ७६ ॥
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद ताराने शुभ दिन तथा शुभ नक्षत्रमें गुणोंमें चन्द्रमाके समान ही सुन्दर पत्रको जन्म दिया । पुत्रको उत्पन्न देखकर देवगुरु बृहस्पतिने प्रसन्न मनसे उसके विधिवत् जातकर्म आदि सभी संस्कार किये ॥ ७५-७६ ॥

श्रुतं चन्द्रमसा जन्म पुत्रस्य मुनिसत्तमाः ।
दूतं च प्रेषयामास गुरुं प्रति महामतिः ॥ ७७ ॥
न चायं तव पुत्रोऽस्ति मम वीर्यसमुद्‌भवः ।
कथं त्वं कृतवान्कामं जातकर्मादिकं विधिम् ॥ ७८ ॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! चन्द्रमाने जब सुना कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब बुद्धिमान् चन्द्रमाने बृहस्पतिके पास अपना दूत भेजा [और कहलाया-है गुरो !] यह पुत्र आपका नहीं है; क्योंकि यह मेरे तेजसे उत्पन्न है । तब आपने अपनी इच्छासे बालकका जातकर्मादि संस्कार क्यों कर लिया ? ॥ ७७-७८ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दूतस्य च बृहस्पतिः ।
उवाच मम पुत्रो मे सदृशो नात्र संशयः ॥ ७९ ॥
उस दूतका वचन सुनकर बृहस्पतिने कहा कि यह मेरा पुत्र है । क्योंकि इसकी आकृति मेरे समान है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७९ ॥

पुनर्विवादः सञ्जातो मिलिता देवदानवाः ।
युद्धार्थमागतास्तेषां समाजः समजायत ॥ ८० ॥
पुनः दोनों में विवाद खड़ा हो गया और देवदानव मिलकर फिर युद्धके लिये आ गये और इस प्रकार उनका बहुत बड़ा समूह एकत्र हो गया । ८० ॥

तत्रागतः स्वयं ब्रह्मा शान्तिकामः प्रजापतिः ।
निवारयामास मुखे संस्थितान्युद्धदुर्मदान् ॥ ८१ ॥
उस समय शान्तिके अभिलाषी स्वयं प्रजापति ब्रह्माजी पुनः वहाँ पहुँचे और रणभूमिमें डटे हुए युद्धोत्सुक देव-दानवोंको उन्होंने युद्धसे रोका ॥ ८१ ॥

तारां पप्रच्छ धर्मात्मा कस्यायं तनयः शुभे ।
सत्यं वद वरारोहे यथा क्लेशः प्रशाम्यति ॥ ८२ ॥
धर्मात्मा ब्रह्माजीने तारासे पूछा-'हे कल्याणि ! यह पुत्र किसका है ? हे सुन्दरि ! तुम सही-सही बता दो, जिससे यह कलह शान्त हो जाय ॥ ८२ ॥

तमुवाचासितापाङ्गी लज्जमानाप्यधोमुखी ।
चन्द्रस्येति शनैरन्तर्जगाम वरवर्णिनी ॥ ८३ ॥
तब असितापांगी सुन्दरी ताराने लजाते हुए सिर नीचे करके मन्द स्वरमें कहा-'यह पुत्र चन्द्रमाका है' ऐसा कहकर वह घरके भीतर चली गयी ॥ ८३ ॥

जग्राह तं सुतं सोमः प्रहृष्टेनान्तरात्मना ।
नाम चक्रे बुध इति जगाम स्वगृहं पुनः ॥ ८४ ॥
तब प्रसन्नचित्त होकर चन्द्रमाने उस पुत्रको ले लिया । उन्होंने उसका नाम 'बुध' रखा । पुनः वे अपने घर चले गये ॥ ८४ ॥

ययौ ब्रह्मा स्वकं धाम सर्वे देवाः सवासवाः ।
यथागतं गतं सर्वैः सर्वशः प्रेक्षकैर्जनैः ॥ ८५ ॥
तत्पश्चात् ब्रह्माजी अपने लोकको तथा इन्द्रसहित सभी देवता भी चले गये । इसी प्रकार प्रेक्षक भी जो जहाँसे आये थे, वे सभी अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ८५ ॥

कथितेयं बुधोत्पत्तिर्गुरुक्षेत्रे च सोमतः ।
यथा श्रुता मया पूर्वं व्यासात्सत्यवतीसुतात् ॥ ८६ ॥
[हे मुनिजन !] इस प्रकार गुरुके क्षेत्रमें चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त जैसा मैंने पूर्वमें सत्यवती-पुत्र व्यासजीसे सुना था, वैसा आपलोगोंसे कह दिया है । ॥ ८६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां
प्रथमस्कन्धे बुधोत्पत्तिर्नामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त


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