हे लोमहर्षणतनय ! आप इस समय पूरा कथानक विस्तारपूर्वक कहें । हम सभी लोग आपके मुखारविन्दसे निःसृत रसमयी वाणीको सुननेके इच्छुक हैं ॥ २ ॥
अमृतादपि मिष्टा ते वाणी सूत रसात्मिका । न तृप्यामो वयं सर्वे सुधया च यथामराः ॥ ३ ॥
हे सूतजी ! आपकी वाणी अमृतसे भी बढ़कर मधुर एवं रसमयी है । जिस प्रकार देवगण अमृतपानसे कभी तृप्त नहीं होते, उसी प्रकार आपके कथा-श्रवणसे हम तृप्त नहीं होते ॥ ३ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! अब आपलोग उस दिव्य तथा मनोहर कथाको सुनिये, जिसे मैंने परम श्रेष्ठ व्यासजीके मुखसे सुना है । मैं उसे अपनी बुद्धिके अनुसार वैसा ही कहूँगा ॥ ४ ॥
गुरोस्तु दयिता भार्या तारा नामेति विश्रुता । रूपयौवनयुक्ता सा चार्वङ्गी मदविह्वला ॥ ५ ॥
सुरगुरु बृहस्पतिकी पत्नीका नाम 'तारा' था । वह रूप-यौवनसे सम्पन्न तथा सुन्दर अंगोंवाली थी ॥ ५ ॥
गतैकदा विधोर्धाम यजमानस्य भामिनी । दृष्टा च शशिनात्यर्थं रूपयौवनशालिनी ॥ ६ ॥ कामातुरस्तदा जातः शशी शशिमुखीं प्रति । सापि वीक्ष्य विधुं कामं जाता मदनपीडिता ॥ ७ ॥ तावन्योन्यं प्रेमयुक्तौ स्मरार्तौ च बभूवतुः । तारा शशी मदोन्मत्तौ कामबाणप्रपीडितौ ॥ ८ ॥
एक बार वह सुन्दरी अपने यजमान चन्द्रमाके घर गयी । उस रूप तथा यौवनसे सम्पन्न चन्द्रमुखी कामिनीको देखते ही चन्द्रमा उसपर आसक्त हो गये । तारा भी चन्द्रमाको देखकर आसक्त हो गयी । इस प्रकार वे दोनों तारा तथा चन्द्रमा एक-दूसरेको देखकर प्रेमविभोर हो गये ॥ ६-८ ॥
वे दोनों प्रेमोन्मत्त एक-दूसरेको चाहनेकी इच्छासे युक्त हो विहार करने लगे । इस प्रकार उनके कुछ दिन व्यतीत हुए । तब बृहस्पतिने ताराको घर लानेके लिये अपना एक शिष्य भेजा; परंतु वह न आ सकी ॥ ९-१० ॥
पुनः पुनर्यदा शिष्यं परावर्तत चन्द्रमाः । बृहस्पतिस्तदा क्रुद्धो जगाम स्वयमेव हि ॥ ११ ॥
जब चन्द्रमाने बृहस्पतिके शिष्यको कई बार लौटाया, तो वे क्रोधित होकर चन्द्रमाके पास स्वयं गये ॥ ११ ॥
चन्द्रमाके घर जाकर उदारचित्त बृहस्पतिने अभिमानके साथ मुसकराते हुए उस चन्द्रमासे कहाहे चन्द्रमा ! तुमने यह धर्मविरुद्ध कार्य क्यों किया और मेरी इस परम सुन्दरी पत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १२-१३ ॥
तव देव गुरुश्चाहं यजमानोऽसि सर्वथा । गुरुभार्या कथं मूढ भुक्ता किं रक्षिताथवा ॥ १४ ॥
हे देव ! मैं तुम्हारा गुरु हूँ और तुम मेरे यजमान हो । तब हे मूर्ख ! तुमने गुरुपत्नीको अपने घरमें क्यों रख लिया ? ॥ १४ ॥
ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः । महापातकिनो ह्येते तत्संसर्गी च पञ्चमः ॥ १५ ॥ महापातकयुक्तस्त्वं दुराचारोऽतिगर्हितः । न देवसदनार्होऽसि यदि भुक्तेयमङ्गना ॥ १६ ॥
ब्रह्महत्या करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, मदिरापान करनेवाला, गुरुपत्नीगामी तथा पाँचवाँ इन पापियोंके साथ संसर्ग रखनेवाला-ये 'महापातकी' हैं । तुम महापापी, दुराचारी एवं अत्यन्त निन्दनीय हो । यदि तुमने मेरी पत्नीके साथ अनाचार किया है तो तुम देवलोकमें रहनेयोग्य नहीं हो ॥ १५-१६ ॥
चन्द्रमा बोले-क्रोधके कारण ब्राह्मण अपूजनीय होते हैं । क्रोधरहित तथा धर्मशास्त्रज्ञ विप्र पूजाके योग्य हैं और इन गुणोंसे होन ब्राह्मण त्याज्य होते हैं ॥ १९ ॥
आगमिष्यति सा कामं गृहं ते वरवर्णिनी । अत्रैव संस्थिता बाला का ते हानिरिहानघ ॥ २० ॥ इच्छया संस्थिता चात्र सुखकामार्थिनी हि सा । दिनानि कतिचित्स्थित्वा स्वेच्छया चागमिष्यति ॥ २१ ॥
हे अनघ ! वह सुन्दर स्त्री अपनी इच्छासे आपके घर चली जायगी और यदि कुछ दिन यहाँ ठहर भी गयी तो इससे आपकी क्या हानि है ? अपनी इच्छासे ही वह यहाँ रहती है । सुखकी इच्छा रखनेवाली वह कुछ दिन यहाँ रहकर अपनी इच्छासे चली जायगी ॥ २०-२१ ॥
त्वयैवोदाहृतं पूर्वं धर्मशास्त्रमतं तथा । न स्त्री दुष्यति चारेण न विप्रो वेदकर्मणा ॥ २२ ॥
आपने ही तो पूर्वमें धर्मशास्त्रके इस मतका उल्लेख किया है कि संसर्गसे स्त्री और वेदकमसे ब्राह्मण कभी दूषित नहीं होते ॥ २२ ॥
कुछ दिन अपने घर रहकर चिन्तासे व्याकुल गुरु बृहस्पति पुनः उन औषधिपति चन्द्रमाके यहाँ शीघ्र जा पहुँचे । वहाँ द्वारपालने उन्हें भीतर जानेसे रोका, तब वे क्रुद्ध होकर द्वारपर ही रुक गये । [कुछ देरतक प्रतीक्षा करनेपर] जब चन्द्रमा वहाँ नहीं आये, तब बृहस्पति अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे ॥ २४-२५ ॥
अयं मे शिष्यतां यातो गुरुपत्नीं तु मातरम् । जग्राह बलतोऽधर्मी शिक्षणीयो मयाधुना ॥ २६ ॥
[वे विचार करने लगे] मेरा शिष्य होते हुए भी इसने माताके समान आदरणीया गुरुपत्नीको बलपूर्वक हर लिया है । इसलिये अब मुझे इस अधर्मीको दण्डित करना चाहिये ॥ २६ ॥
उवाच वाचं कोपात्तु द्वारदेशस्थितो बहिः । किं शेषे भवने मन्द पापाचार सुराधम ॥ २७ ॥ देहि मे कामिनीं शीघ्रं नोचेच्छापं ददाम्यहम् । करोमि भस्मसान्नूनं न ददासि प्रियां मम ॥ २८ ॥
तब बाहर द्वारपर खड़े बृहस्पतिने क्रोधके साथ चन्द्रमासे कहा-अरे नीच ! पापी ! देवाधम ! तुम अपने घरमें निश्चिन्त होकर क्यों पड़े हो ? मेरी स्त्री | शीघ्र मुझे लौटा दो, अन्यथा मैं तुम्हें शाप दे ,गा । यदि तुम मेरी पत्नी नहीं दोगे तो मैं तुझे अभी अवश्य भस्म कर दूंगा ॥ २७-२८ ॥
सूत उवाच क्रूराणि चैवमादीनि भाषणानि बृहस्पतेः । श्रुत्वा द्विजपतिः शीघ्रं निर्गतः सदनाद्बहिः ॥ २९ ॥ तमुवाच हसन्सोमः किमिदं बहु भाषसे । न ते योग्यासितापाङ्गी सर्वलक्षणसंयुता ॥ ३० ॥
सूतजी बोले-बृहस्पतिके इस प्रकारके क्रोधभरे वचन सुनकर द्विजराज चन्द्रमा शीघ्र घरसे बाहर निकले और हँसते हुए उनसे बोले-आप इतना अधिक क्यों बोल रहे हैं ? सर्वलक्षणसम्पन्न वह असितापांगी आपके योग्य नहीं है ॥ २९-३० ॥
कुरूपां च स्वसदृशीं गृहाणान्यां स्त्रियं द्विज । भिक्षुकस्य गृहे योग्या नेदृशी वरवर्णिनी ॥ ३१ ॥ रतिः स्वसदृशे कान्ते नार्याः किल निगद्यते । त्वं न जानासि मन्दात्मन् कामशास्त्रविनिर्णयम् ॥ ३२ ॥ यथेष्टं गच्छ दुर्बुद्धे नाहं दास्यामि कामिनीम् । यच्छक्यं कुरु तत्कामं न देया वरवर्णिनी ॥ ३३ ॥ कामार्तस्य च ते शापो न मां बाधितुमर्हति । नाहं ददे गुरो कान्तां यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३४ ॥
हे विप्र ! आप अपने समान किसी अन्य स्त्रीको ग्रहण कर लीजिये; ऐसी सुन्दरी भिक्षुकके घरमें रहनेयोग्य नहीं है । यह प्रायः कहा जाता है कि अपने समान गुणसम्पन्न पतिपर ही पत्नीका प्रेम स्थिर रहता है । अपने इच्छानुसार अब आप चाहे जहाँ चले जायें । मैं इसे नहीं दूंगा । आपका शाप मेरे ऊपर नहीं लग सकता । हे गुरो ! मैं यह रमणी आपको नहीं दूंगा, अब आप जैसा चाहें वैसा करें ॥ ३१-३४ ॥
वहाँ स्थित देवगुरु बृहस्पतिको दुःखसे व्याकुल देखकर इन्द्रने पाद्य, अर्घ्य तथा आचमनीय आदिसे उनकी विधिवत् पूजा करके बैठाया ॥ ३६ ॥
पप्रच्छ परमोदारस्तं तथावस्थितं गुरुम् । का चिन्ता ते महाभाग शोकार्तोऽसि महामुने ॥ ३७ ॥
जब बृहस्पति आसनपर बैठकर स्वस्थ हो गये, तब परम उदार इन्द्रने उनसे पूछा-'हे महाभाग ! आपको कौन-सी चिन्ता है ? हे मुनिवर ! आप इतने शोकाकुल किसलिये हैं ? ॥ ३७ ॥
केनापमानितोऽसि त्वं मम राज्ये गुरुश्च मे । त्वदधीनमिदं सर्वं सैन्यं लोकाधिपैः सह ॥ ३८ ॥ बह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्ये चान्ये देवसत्तमाः । करिष्यन्ति च साहाय्यं का चिन्ता वद साम्प्रतम् ॥ ३९ ॥
मेरे राज्यमें आपका अपमान किसने किया है ? आप मेरे गुरु हैं, अतः हमारी सारी सेना एवं लोकपाल सभी आपके अधीन हैं । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा अन्य देवता भी आपकी सहायता करेंगे । आपको कौन-सी चिन्ता है । इस समय उसे बताइये ॥ ३८-३९ ॥
गुरुरुवाच शशिनापहृता भार्या तारा मम सुलोचना । न ददाति स दुष्टात्मा प्रार्थितोऽपि पुनः पुनः ॥ ४० ॥ किं करोमि सुरेशान त्वमेव शरणं मम । साहाय्यं कुरु देवेश दुःखितोऽस्मि शतक्रतो ॥ ४१ ॥
बृहस्पति बोले-चन्द्रमाने मेरी सुन्दर नेत्रोंवाली पत्नी ताराका हरण कर लिया और वह दुष्ट मेरे बारबार प्रार्थना करनेपर भी उसे लौटाता नहीं है । हे देवराज ! अब मैं क्या करूं ? अब तो केवल आप ही मेरी शरण हैं । हे शतक्रतो ! मैं अत्यन्त दु:खी हूँ । हे देवेश ! आप मेरी सहायता कीजिये ॥ ४०-४१ ॥
इन्द्र बोले-हे धर्मात्मन् ! आप शोक न करें, हे सुव्रत ! मैं आपका सेवक हूँ, मैं आपकी पत्नीको अवश्य लाऊँगा । हे महामते ! यदि दूत भेजनेपर भी वह मदोन्मत्त चन्द्रमा आपकी स्त्रीको नहीं देगा तो देवसेनाओंसहित मैं स्वयं युद्ध करूँगा ॥ ४२-४३ ॥
शीघ्र ही वह चतुर दूत चन्द्रलोक गया और रोहिणीपति चन्द्रमासे यह सन्देश-वचन कहने लगाहे महाभाग ! हे महामते ! इन्द्रने आपसे कुछ कहनेके लिये मुझे भेजा है । अत: उनके द्वारा जो कुछ कहा गया है, वही ज्यों-का-त्यों मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ ४५-४६ ॥
धर्मज्ञोऽसि महाभाग नीतिं जानासि सुव्रत । अत्रिः पिता ते धर्मात्मा न निद्यं कर्तुमर्हसि ॥ ४७ ॥ भार्या रक्ष्या सर्वभूतैर्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितैः । तदर्थे कलहः कामं भविता नात्र संशयः ॥ ४८ ॥
हे महाभाग ! हे सुव्रत ! आप धर्मज्ञ हैं, नीति जानते हैं तथा धर्मात्मा अत्रिमुनि आपके पिता हैं, अतएव आपको कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये जिससे आप निन्दनीय हो जायें । आलस्यरहित होकर यथाशक्ति अपनी स्त्रीकी रक्षा सभी प्राणी करते हैं । अतः इस (तारा)-के लिये बड़ा कलह होगा । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४७-४८ ॥
हे सुधानिधे ! जैसे आप अपनी भार्याकी रक्षा हेतु प्रयत्न करते हैं, वैसे वे गुरु बृहस्पति भी अपनी पत्नीकी रक्षाके लिये प्रयत्नशील हैं । आप अपने ही सदृश सभी प्राणियोंके विषयमें विचार कीजिये । ४९ ॥
अष्टाविंशतिसंख्यास्ते कामिन्यो दक्षजाः शुभाः । गुरुपत्नीं कथं भोक्तुं त्वमिच्छसि सुधानिधे ॥ ५० ॥ स्वर्गे सदा वसन्त्येता मेनकाद्या मनोरमाः । भुंक्ष्व ताः स्वेच्छया कामं मुञ्च पत्नीं गुरोरपि ॥ ५१ ॥
हे सुधानिधे ! आपको दक्षप्रजापतिकी सुलक्षणोंसे युक्त अट्ठाईस कन्याएँ पत्नीके रूपमें प्राप्त हैं । आप अपने गुरुकी पत्नीको पानेकी इच्छा क्यों रखते हैं ? स्वर्गलोकमें मेनका आदि अनेक मनोरम अप्सराएँ सर्वदा सुलभ हैं, तब उनके साथ स्वेच्छापूर्वक विहार कीजिये और गुरुपत्नी ताराको शीघ्र ही लौटा दीजिये ॥ ५०-५१ ॥
आप जैसे महान् लोग यदि अहंकारवश ऐसा निन्दित कर्म करें तो अनभिज्ञ साधारणजन तो उनका अनुकरण करेंगे ही और तब धर्मका नाश हो जायगा । अतः हे महाभाग ! गुरुकी इस मनोरमा पत्नीको शीघ्र लौटा दीजिये, जिससे आपके कारण इस समय देवताओंके बीच कलह न उत्पन्न हो ॥ ५२-५३ ॥
सूतजी बोले-दूतसे इन्द्रका सन्देश सुनकर चन्द्रमा कुछ क्रोधित हो गये और उन्होंने इन्द्रके दूतको इस प्रकार व्यंग्यपूर्वक उत्तर दिया५४ ॥
इन्दुरावाच धर्मज्ञोऽसि महाबाहो देवानामधिपः स्वयम् । पुरोधापि च ते तादृग्युवयोः सदृशी मतिः ॥ ५५ ॥
चन्द्रमा बोले-हे महाबाहो ! आप धर्मज्ञ हैं और स्वयं देवताओंके राजा हैं । आपके पुरोहित बृहस्पति भी ठीक आपकी तरह हैं और आप दोनोंकी बुद्धि भी एक समान है ॥ ५५ ॥
दूसरोंको उपदेश देनेमें अनेक लोग चतुर होते हैं, परंतु कार्य उपस्थित होनेपर [उपदेशानुसार स्वयं आचरण करनेवाला दुर्लभ होता है ॥ ५६ ॥
बार्हस्पत्यप्रणीतं च शास्त्रं गृह्णन्ति मानवाः । को विरोधोऽत्र देवेश कामयानां भजन्स्त्रियम् ॥ ५७ ॥ स्वकीयं बलिनां सर्वं दुर्बलानां न किञ्चन । स्वीया च परकीया च भ्रमोऽयं मन्दचेतसाम् ॥ ५८ ॥ तारा मय्यनुरक्ता च यथा न तु तथा गुरौ । अनुरक्ता कथं त्याज्या धर्मतो न्यायतस्तथा ॥ ५९ ॥ गृहारम्भस्तु रक्तायां विरक्तायां कथं भवेत् । विरक्तेयं यदा जाता चकमेऽनुजकामिनीम् ॥ ६० ॥ न दास्येऽहं वरारोहां गच्छ दूत वद स्वयम् । ईश्वरोऽसि सहस्राक्ष यदिच्छसि कुरुष्व तत् ॥ ६१ ॥
हे देवेश ! बृहस्पतिके बनाये शास्त्रको सभी मनुष्य स्वीकार करते हैं । शक्तिशाली लोगोंके लिये सब कुछ अपना होता है, परंतु दुर्बल लोगोंके लिये कुछ भी अपना नहीं होता । तारा जितना प्रेम मुझसे करती है, उतना बृहस्पतिसे नहीं । अतः अनुरक्त स्त्री धर्म अथवा न्यायसे त्याज्य कैसे हो सकती है ? गार्हस्थ्य जीवनका वास्तविक सुख तो प्रेम रखनेवाली स्त्रीके साथ ही होता है, उदासीन स्त्रीके साथ नहीं; इसलिये हे दूत ! तुम जाओ और इन्द्रसे कह दो कि मैं इसे नहीं दूंगा । हे सहस्राक्ष ! आप स्वयं समर्थ हैं; आप जो चाहते हों, वह कीजिये ॥ ५७-६१ ॥
इसे सुनकर प्रतापी इन्द्र भी अत्यन्त क्रोधित हुए और गुरु बृहस्पतिकी सहायताके लिये सेनाकी तैयारी करने लगे ॥ ६३ ॥
शुक्रस्तु विग्रहं श्रुत्वा गुरुद्वेषात्ततो ययौ । मा ददस्वेति तं वाक्यमुवाच शशिनं प्रति ॥ ६४ ॥
दैत्यगुरु शुक्राचार्य चन्द्रमा तथा देवगुरुके विरोधकी बात सुनकर बृहस्पतिसे द्वेषके कारण चन्द्रमाके पास गये और उससे बोले कि आप ताराको वापस मत कीजिये ॥ ६४ ॥
साहाय्यं ते करिष्यामि मन्त्रशक्त्या महामते । भविता यदि संग्रामस्तव चेन्द्रेण मारिष ॥ ६५ ॥
हे महामते ! हे मान्य ! यदि इन्द्रके साथ आपका युद्ध छिड़ जायगा तो मैं भी अपनी मन्त्रशक्तिसे आपकी सहायता करूँगा ॥ ६५ ॥
देव दानवोंका यह संग्राम देखकर प्रजापति ब्रह्माजी हंसपर सवार होकर उस क्लेशकी शान्तिके लिये रणस्थलमें शीघ्र पहुंचे । तब ब्रह्माजीने चन्द्रमासे कहा कि तुम गुरु बृहस्पतिकी पत्नी लौटा दो, नहीं तो भगवान् विष्णुको बुलाकर मैं तुम्हें समूल नष्ट कर दूंगा । तत्पश्चात् लोकपितामह ब्रह्माजीने भृगुनन्दन शुक्रको भी युद्धसे रोका और उनसे कहा-हे महामते ! दैत्योंके संगसे क्या आपकी भी बुद्धि अन्याययुक्त हो गयी है ? ॥ ६८-७० ॥
तत्पश्चात् [ब्रह्माजीकी बात सुनकर शुक्राचार्य चन्द्रमाके पास गये] उन्होंने चन्द्रमाको युद्धसे रोका और कहा कि तुम्हारे पिताने मुझे भेजा है, तुम अपने गुरुकी पत्नीको तत्काल छोड़ दो ॥ ७१ ॥
तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद ताराने शुभ दिन तथा शुभ नक्षत्रमें गुणोंमें चन्द्रमाके समान ही सुन्दर पत्रको जन्म दिया । पुत्रको उत्पन्न देखकर देवगुरु बृहस्पतिने प्रसन्न मनसे उसके विधिवत् जातकर्म आदि सभी संस्कार किये ॥ ७५-७६ ॥
श्रुतं चन्द्रमसा जन्म पुत्रस्य मुनिसत्तमाः । दूतं च प्रेषयामास गुरुं प्रति महामतिः ॥ ७७ ॥ न चायं तव पुत्रोऽस्ति मम वीर्यसमुद्भवः । कथं त्वं कृतवान्कामं जातकर्मादिकं विधिम् ॥ ७८ ॥
हे श्रेष्ठ मुनियो ! चन्द्रमाने जब सुना कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, तब बुद्धिमान् चन्द्रमाने बृहस्पतिके पास अपना दूत भेजा [और कहलाया-है गुरो !] यह पुत्र आपका नहीं है; क्योंकि यह मेरे तेजसे उत्पन्न है । तब आपने अपनी इच्छासे बालकका जातकर्मादि संस्कार क्यों कर लिया ? ॥ ७७-७८ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य दूतस्य च बृहस्पतिः । उवाच मम पुत्रो मे सदृशो नात्र संशयः ॥ ७९ ॥
उस दूतका वचन सुनकर बृहस्पतिने कहा कि यह मेरा पुत्र है । क्योंकि इसकी आकृति मेरे समान है, इसमें सन्देह नहीं ॥ ७९ ॥
[हे मुनिजन !] इस प्रकार गुरुके क्षेत्रमें चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्तिका यह वृत्तान्त जैसा मैंने पूर्वमें सत्यवती-पुत्र व्यासजीसे सुना था, वैसा आपलोगोंसे कह दिया है । ॥ ८६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे बुधोत्पत्तिर्नामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥