सूतजी बोले-सुद्युम्नके दिवंगत हो जानेपर प्रजानुरंजनमें तत्पर, गुणी एवं सुन्दर महाराज पुरूरवा राज्य करने लगे । उस रमणीय प्रतिष्ठानपुरमें सर्वधर्मज्ञ तथा प्रजाकी रक्षामें तत्पर राजा पुरूरवाने सभीके द्वारा आदरणीय राज्य किया ॥ १-२ ॥
मन्त्रः सुगुप्तस्तस्यासीत्परत्राभिज्ञता तथा । सदैवोत्साहशक्तिश्च प्रभुशक्तिस्तथोत्तमा ॥ ३ ॥ सामदानादयः सर्वे वशगास्तस्य भूपतेः । वर्णाश्रमान्स्वधर्मस्थान्कुर्वन् राज्यं शशास ह ॥ ४ ॥ यज्ञांश्च विविधांश्चक्रे स राजा बहुदक्षिणान् । दानानि च पवित्राणि ददावथ नराधिपः ॥ ५ ॥
उनकी राज्य मन्त्रणा अच्छी तरहसे गुप्त रहती थी और उन्हें दूसरे राज्योंकी मन्त्रणाओंका भलीभाँति ज्ञान रहता था । उनमें सर्वदा उत्साहशक्ति एवं उत्तम प्रभुशक्ति विद्यमान थी । साम, दान, दण्ड और भेदये चारों नीतियाँ उन राजाके वशीभूत थीं । वे चारों वर्णों तथा आश्रमोंके लोगोंसे अपने-अपने धर्मोका आचरण कराते हुए राज्यका शासन-कार्य करते थे । वे राजा पुरूरवा विपुल दक्षिणावाले विविध यज्ञ करते थे और पवित्र दान किया करते थे ॥ ३-५ ॥
राजा पुरूरवाके रूप, गुण, उदारता, शील, ऐश्वर्य एवं वीरताकी प्रशंसा सुनकर उर्वशी उनके वशीभूत हो गयी; उन दिनों वह भी ब्रह्माके शापसे पृथ्वीपर मनुष्य योनिमें आयी थी । अत: उस मानिनीने उन राजाको गुणी जानकर उन्हें पतिके रूपमें स्वीकार कर लिया ॥ ६-७ ॥
समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना । एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥ ८ ॥ घृतं मे भक्षणं नित्यं नान्यत्किञ्चिन्नृपाशनम् । नेक्षे त्वां च महाराज नग्नमन्यत्र मैथुनात् ॥ ९ ॥ भाषाबन्धस्त्वयं राजन् यदि भग्नो भविष्यति । तदा त्यक्त्वा गमिष्यामि सत्यमेतद्ब्रवीम्यहम् ॥ १० ॥
वह वरांगना इस प्रकारकी शर्त रखकर वहीं रहने लगी । [उसने कहा]-हे राजन् ! ये दोनों भेड़के बच्चे मैं आपके पास धरोहरके रूपमें रखती हूँ । हे मानद ! आप इनकी रक्षा करें । हे नृप ! [दूसरी शर्त है कि] मैं केवल घी ही खाऊँगी और कुछ नहीं और हे महाराज ! [तीसरी शर्त है कि] सहवासके अतिरिक्त किसी दूसरे समयमें मैं आपको कभी वस्त्रविहीन अवस्थामें न देखू । हे राजन् ! यदि आप इन कही गयी शर्तोको भंग करेंगे तो मैं उसी समय आपको छोड़कर चली जाऊँगी, यह मैं सत्य कह रही हूँ ॥ ८-१० ॥
अङ्गीकृतं च तद्राज्ञा कामिन्या भाषितं तु यत् । स्थिता भाषणबन्धेन शापानुगहकाम्यया ॥ ११ ॥
इस प्रकार उस कामिनी उर्वशीने जो कहा था, उसे राजाने स्वीकार कर लिया और उर्वशी शापसे उद्धार पानेकी इच्छासे राजा पुरूरवाको प्रतिज्ञाबद्ध करके वहीं रहने लगी ॥ ११ ॥
रेमे तदा स भूपालो लीनो वर्षगणान्बहून् । धर्मकर्मादिकं त्यक्त्वा चोर्वश्या मदमोहितः ॥ १२ ॥ एकचित्तस्तु सञ्जातस्तन्मनस्को महीपतिः । न शशाक तया हीनः क्षणमप्यतिमोहितः ॥ १३ ॥
उर्वशीके द्वारा मुग्ध किये गये राजा सब धर्मकर्म त्यागकर अनेक वर्षांतक भोग-विलासमें पड़े रहे । उसपर आसक्त मनवाले वे सदा उसीका चिन्तन करते रहते थे और उसपर अत्यधिक मोहित होनेके कारण एक क्षण भी उस उर्वशीके बिना नहीं रह सकते थे । १२-१३ ॥
एवं वर्षगणान्ते तु स्वर्गस्थः पाकशासनः । उर्वशीं नागतां दृष्ट्वा गन्धर्वानाह देवराट् ॥ १४ ॥ उर्वशीमानयध्वं भो गन्धर्वाः सर्व एव हि । हृत्वोरणौ गृहात्तस्य भूपतेः समये किल ॥ १५ ॥ उर्वशीरहितं स्थानं मदीयं नातिशोभते । येन केनाप्युपायेन तामानयत कामिनीम् ॥ १६ ॥
इस प्रकार जब बहुत वर्ष बीत गये, तब देवलोकमें इन्द्रने अपनी सभामें उर्वशीको अनुपस्थित देखकर गन्धर्वोसे पूछकर कहा-हे गन्धर्वगण ! तुम सब लोग वहाँ जाओ और प्रतिज्ञाबद्ध राजाके घरसे भेड़ोंको चुराकर उर्वशीको ले आओ; क्योंकि उर्वशीके बिना मुझे यह स्थान अच्छा नहीं लगता । अत: जिस किसी भी उपायसे उस कामिनीको तुमलोग लाओ ॥ १४-१६ ॥
तब इन्द्रके ऐसा कहनेपर विश्वावसु आदि प्रधान गन्धवोंने वहाँसे जाकर रात्रिके घोर अन्धकारमें राजा पुरूरवाको विहार करते देख उन दोनों भेड़ोंको चुरा लिया । तब आकाशमार्गमें जाते हुए चुराये गये वे दोनों भेड़ जोरसे चिल्लाने लगे ॥ १७-१८ ॥
अपने पुत्रके समान पाले हुए भेड़ोंका क्रन्दन सुनते ही उर्वशीने क्रोधित होकर राजा पुरूरवासे कहा-हे राजन् ! मैंने आपके सम्मुख जो पहली शर्त रखी थी, वह टूट गयी । आपके विश्वासपर मैं धोखेमें पड़ी; क्योंकि पुत्रके समान मेरे प्रिय भेड़ोंको चोरोंने चुरा लिया फिर भी आप घरमें स्त्रीकी तरह शयन कर रहे हैं । १९-२० ॥
हतास्म्यहं कुनाथेन नपुंसा वीरमानिना । उरणौ मे गतौ चाद्य सदा प्राणप्रियौ मम ॥ २१ ॥ एवं विलप्यमानां तां दृष्ट्वा राजा विमोहितः । नग्न एव ययौ तूर्णं पृष्ठतः पृथिवीपतिः ॥ २२ ॥
अपनेको वीर समझनेवाले नपुंसक इस अधम स्वामीके द्वारा मैं नष्ट कर दी गयी । सर्वदा प्राणोंके समान मेरे दोनों भेड़ अब चले गये । उर्वशीको इस प्रकार विलाप करती देख प्रेममें आसक्त राजा पुरूरवा चोरोंके पीछे नग्नावस्थामें ही तुरंत दौड़ पड़े । २१-२२ ॥
विद्युत्प्रकाशिता तत्र गन्धर्वैर्नृपवेश्मनि । नग्नभूतस्तया दृष्टो भूपतिर्गन्तुकामया ॥ २३ ॥
उसी समय गन्धर्वोद्वारा वहाँ राजाके भवनमें बिजली चमका दी गयी, जिसके कारण वहाँसे जानेकी इच्छावाली उर्वशीने राजाको नग्न देख लिया ॥ २३ ॥
गन्धर्व उन दोनों भेड़ोंको वहीं मार्गमें छोड़कर भाग गये । थके एवं नग्न राजा भेड़ोंको लेकर अपने घर चले आये । तब वे उर्वशीको वहाँसे गयी हुई देखकर अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगे एवं लज्जित हुए । पतिको नग्न देखकर वह सुन्दरी उर्वशी चली गयी थी ॥ २४-२५ ॥
इस प्रकार समस्त भूमण्डलपर भ्रमण करते हुए उन्होंने उर्वशीको कुरुक्षेत्रमें देखा । उसे देखते ही प्रसन्न मुखवाले नृपश्रेष्ठ राजा पुरूरवाने मधुर वाणीमें कहा-हे प्रिये ! ठहरो-ठहरो । हे कठोरहदये ! मैं अब भी तुमपर आसक्त हूँ, मैं तुम्हारे वशमें हूँ; अत: मुझ निरपराधी पतिको तुम मत छोड़ो ॥ २७-२८ ॥
स देहोऽयं पतत्यत्र देवि दूरं हृतस्त्वया । खादन्त्येनं वृकाः काकास्त्वया त्यक्तं वरोरु यत् ॥ २९ ॥
हे देवि ! जिस शरीरसे तुमने इतना प्रेम किया था, जिसे तुमने यहाँतक खींच लिया, वह शरीर आज यहीं गिर जायगा । हे सुन्दरि ! तुम्हारे द्वारा त्यक्त इस देहको भेड़िये और कौए खा जायेंगे ॥ २९ ॥
एवं विलपमानं तं राजानं प्राह चोर्वशी । दुःखितं कृपणं श्रान्तं कामार्तं विवशं भृशम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार विलाप करते हुए दुःखित, दीन, थके, कामातुर और अत्यन्त लाचार राजा पुरूरवासे उर्वशी कहने लगी ॥ ३० ॥
उर्वश्युवाच मूर्खोऽसि नृपशार्दूल ज्ञानं कुत्र गतं तव । क्वापि सख्यं न च स्त्रीणां वृकाणामिव पार्थिव ॥ ३१ ॥ न विश्वासो हि कर्तव्यः स्त्रीषु चौरेषु पार्थिवैः । गृहं गच्छ सुखं भुंक्ष्व मा विषादे मनः कृथाः ॥ ३२ ॥
उर्वशी बोली-हे राजेन्द्र ! आप मूर्ख हैं । आपका ज्ञान कहाँ चला गया ? हे पृथ्वीपते ! भेड़ियोंके समान स्त्रियोंकी किसीसे मित्रता नहीं होती । अत: राजाओंको चाहिये कि वे स्त्रियों और चोरोंपर कभी भी विश्वास न करें । अब आप अपने घर जाइये, सुख भोगिये और मनमें किसी प्रकारकी चिन्ता मत कीजिये ॥ ३१-३२ ॥
इत्येवं बोधितो राजा न विवेदातिमोहितः । दुःखं च परमं प्राप्तः स्वैरिणीस्नेहयन्त्रितः ॥ ३३ ॥
इस प्रकार अत्यन्त विषयासक्त होनेके कारण उर्वशीके समझानेपर भी राजाको ज्ञान नहीं हुआ । उस स्वेच्छाचारिणी अप्सराके स्नेहमें जकड़े रहनेके कारण उन्हें अपार दुःख प्राप्त हुआ ॥ ३३ ॥