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व्यासेन गृहस्थधर्मवर्णनम् -
व्यासपुत्र शुकदेवके अरणिसे उत्पन्न होनेकी कथा तथा व्यासजीद्वारा उनसे गृहस्थधर्मका वर्णन
सूत उवाच दृष्ट्वा तामसितापाङ्गीं व्यासश्चिन्तापरोऽभवत् । किं करोमि न मे योग्या देवकन्येयमप्सराः ॥ १ ॥ एवं चिन्तयमानं तु दृष्ट्वा व्यासं तदाप्सराः । भयभीता हि सञ्जाता शापं मा विसृजेदयम् ॥ २ ॥
सूतजी बोले-उस सुन्दरी असितापांगी घृताचीको देखकर व्यासजी बड़े असमंजसमें पड़े और सोचने लगे कि यह देवकन्या अप्सरा मेरे योग्य नहीं है, अत: अब मैं क्या करूं ? वह अप्सरा भी व्यासजीको चिन्तित होता देखकर भयभीत हो गयी कि कहीं ये मुझे शाप न दे दें ॥ १-२ ॥
उसे देखनेमात्रसे व्यासजीके शरीरमें कामका संचार हो आया और प्रत्यंगमें कामका प्रवेश हो जानेके कारण उनका मन अत्यन्त विस्मयमें पड़ गया ॥ ४ ॥
स तु धैर्येण महता निगह्णन्मानसं मुनिः । न शशाक नियन्तुं च स व्यासः प्रसृतं मनः ॥ ५ ॥
बड़ी धीरताके साथ मनको रोकनेकी चेष्टा करते हुए भी उस चंचल मनको वे व्यासमुनि वशमें करनेमें समर्थ नहीं हुए ॥ ५ ॥
बहुशो गृह्यमाणं च घृताच्या मोहितं मनः । भावित्वान्नैव विधृतं व्यासस्यामिततेजसः ॥ ६ ॥
इस प्रकार धृताचीद्वारा मोहित तेजस्वी व्यासजीका मन अनेक यल करनेपर भी भावी संयोगके कारण उनके वशमें न हो सका ॥ ६ ॥
मन्धनं कुर्वतस्तस्य मुनेरग्निचिकीर्षया । अरण्यामेव सहसा तस्य शुक्रमथापतत् ॥ ७ ॥ सोऽविचिन्त्य तथा पातं ममन्थारणिमेव च । तस्माच्छुकः समुद्भूतो व्यासाकृतिमनोहरः ॥ ८ ॥
इसी बीच अग्नि निकालनेके लिये मन्थन करते समय एकाएक उनका तेज उस अरणीपर गिर गया, किंतु उसके गिरनेपर ध्यान न देकर बे अरणिमन्थन करते रहे । उस अरणीसे उन्हींके सदृश मनोहर स्वरूपवाले 'शुक' उत्पन्न हो गये ॥ ७-८ ॥
अरणीसे उत्पन्न वह बालक विस्मय पैदा करते हुए उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जिस प्रकार हवन करते समय घृताहुति पड़नेसे प्रकट अग्नि दीप्तिमान् हो उठती है ॥ ९ ॥
व्यासजीने दिव्य देहधारी द्वितीय गार्हपत्य अग्निके समान तेजस्वी पुत्रको बड़ी प्रसन्नतासे देखा और पर्वतसे नीचे उतरकर गंगाजलसे उसको नहलाया । हे तपस्वियो ! उस समय आकाशसे उस शिशुके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा होने लगी ॥ १२-१३ ॥
जातकर्मादिकं चक्रे व्यासस्तस्य महात्मनः । देवदुन्दुभयो नेदुर्ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १४ ॥
व्यासजीने उस महात्मा शिशुका जातकर्म आदि संस्कार किया । उस समय देवताओंने दुंदुभियाँ बजायीं तथा अप्सराओंने नृत्य किया ॥ १४ ॥
उस बालकके दर्शनकी लालसावाले विश्वावसु, नारद, तुम्बुरु आदि सभी गन्धर्वराज प्रसन्न होकर शुकके जन्मपर गान करने लगे । सभी देवता तथा विद्याधर भी अरणीके गर्भसे उत्पन्न उस दिव्य व्यासपुत्रको देखकर प्रसन्नतापूर्वक स्तुति करने लगे ॥ १५-१६ ॥
हे द्विजोत्तम ! उसी समय शुकदेवजीके लिये आकाशसे दिव्य दण्ड, कमण्डलु और शुभ कृष्ण मृगचर्म पृथ्वीपर आ गिरे ॥ १७ ॥
सद्यः स ववृधे बालो जातमात्रोऽतिदीप्तिमान् । तस्योपनयनं चक्रे व्यासो विद्याविधानवित् ॥ १८ ॥
उत्पन्न होते ही वह अति तेजस्वी शिशु शीघ्रतापूर्वक बड़ा हो गया, तब वैदिक विधानके मर्मज्ञ व्यासजीने उसका उपनयनसंस्कार भी कर दिया ॥ १८ ॥
उत्पन्नमात्रं तं वेदाः सरहस्याः ससंग्रहाः । उपतस्थुर्महात्मानं यथास्य पितरं तथा ॥ १९ ॥
उत्पन्न होते ही रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेद उन महात्माके समक्ष वैसे ही उपस्थित हो गये, जैसे उसके पिता व्यासजीमें वे विद्यमान थे ॥ १९ ॥
यतो दृष्टं शुकीरूपं घृताच्याः सम्भवे तदा । शुकेति नाम पुत्रस्य चकार मुनिसत्तमः ॥ २० ॥
अरणि-मन्थनके समय मुनिश्रेष्ठ व्यासजीने घृताची अप्सराको शुकीके रूपमें देखा था, इसलिये उन्होंने इस बालकका नाम शुक रख दिया ॥ २० ॥
बृहस्पतिमुपाध्यायं कृत्वा व्याससुतस्तदा । व्रतानि ब्रह्मचर्यस्य चकार विधिपूर्वकम् ॥ २१ ॥ सोऽधीत्य निखिलान्वेदान् सरहस्यान्ससंग्रहान् । धर्मशास्त्राणि सर्वाणि कृत्वा गुरुकुले शुकः ॥ २२ ॥ गुरवे दक्षिणां दत्त्वा समावृत्तो मुनिस्तदा । आजगाम पितुः पार्श्वं कृष्णद्वैपायनस्य च ॥ २३ ॥
व्याससुत शुकदेवने बृहस्पतिको अपना आचार्य मानकर विधिवत् ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । गुरुकुलमें निवासकर रहस्यों तथा संग्रहोंसहित सभी वेदों तथा धर्मशास्त्रोंका अध्ययन करके, तदनन्तर गुरुको दक्षिणा देकर वे शुकदेवमुनि अपने पिता व्यासजीके पास आ गये । २१-२३ ॥
शुकदेवको आया देखकर व्यासजीने शीघ्रताके साथ प्रसन्नतापूर्वक उठकर बारंबार उनका आलिंगन किया और उनका सिर सूंघा । परम पवित्र व्यासजीने शुकदेवजीके कुशलक्षेम तथा अध्ययनके विषयमें पूछा तथा उन्हें आश्वस्त करके अपने पावन आश्रममें रख लिया ॥ २४-२५ ॥
तत्पश्चात् व्यासजी शुकदेवजीके विवाहके विषयमें सोचने लगे । एक दिन परम तेजस्वी व्यासजीने शुकदेवजीसे किसी सुन्दर मुनिकन्याकी चर्चा की ॥ २६ ॥
शुकं प्राह सुतं व्यासो वेदोऽधीतस्त्वयानघ । धर्मशास्त्राणि सर्वाणि कुरु भार्यां महामते ॥ २७ ॥ गार्हस्थ्यं च समासाद्य यज देवान्पितॄनथ । ऋणान्मोचय मां पुत्र प्राप्य दारान्मनोरमान् ॥ २८ ॥
उन्होंने अपने पुत्र शुकदेवसे कहा-हे पवित्रात्मन् ! तुमने वेद तथा सभी धर्मशास्त्रोंका अध्ययन कर लिया है । अतः हे महामते ! अब तुम विवाह कर लो और गृहस्थ आश्रममें रहकर देवताओं और पितरोंका यजन करो और हे पुत्र ! तुम सुन्दर स्त्रीको स्वीकारकर मुझे भी ऋणसे मुक्त कर दो ॥ २७-२८ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च । तस्मात्पुत्र महाभाग कुरुष्वाद्य गृहाश्रमम् ॥ २९ ॥ कृत्वा गृहाश्रमं पुत्र सुखिनं कुरु मां शुक । आशा मे महती पुत्र पूरयस्व महामते ॥ ३० ॥
अपुत्रकी गति नहीं होती और उसे स्वर्ग कदापि नहीं मिलता । इसलिये हे महाभाग पुत्र ! अब तुम गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करो और हे शुक ! हे पुत्र ! गृहस्थी बसाकर मुझे भी आनन्दित करो । ऐसा करके हे महामते ! हे पुत्र ! तुम मेरी महान् आशा परिपूर्ण करो ॥ २९-३० ॥
व्यासजी बोले-हे पुत्र ! तुम्हारे लिये मैंने सैकड़ों वर्ष कष्ट सहकर जो तपस्या की और शिवजीकी आराधना की, उसके फलस्वरूप मैंने तुम्हें पाया है । किसी राजासे माँगकर मैं तुम्हें प्रचुर धन दूंगा, हे महाप्राज्ञ ! तुम श्रेष्ठ यौवन प्राप्त करके सुखका उपभोग करो ॥ ३४-३५ ॥
हे महाभाग ! स्त्री पाकर मैं उसीके वशमें हो जाऊँगा । तब भला आप ही बताइये, परतन्त्र होकर और विशेषतः स्त्रीके वशमें रहकर मैं कौन-सा सुख पा सकूँगा ? ॥ ३७ ॥
यह शरीर विष्ठा एवं मूत्रसे परिपूर्ण रहता है । वैसे ही स्त्रियोंका शरीर भी होता है । हे विप्रेन्द्र ! तब कौन बुद्धिमान् पुरुष उससे प्रीति करना चाहेगा ! ॥ ३९ ॥
अयोनिजोऽहं विप्रर्षे योनौ मे कीदृशी मतिः । न वाञ्छाम्यहमग्रेऽपि योनावेव समुद्भवम् ॥ ४० ॥
हे विप्रशिरोमणे ! मैं अयोनिज हूँ, तब योनिजन्य सुखमें मेरी बुद्धि कैसे होगी ? मैं भविष्य में भी अपनी उत्पत्ति किसी योनिमें नहीं चाहता ॥ ४० ॥
मैंने सांगोपांग वेदोंका अध्ययन किया और जाना कि वे हिंसामय हैं तथा कर्ममार्गके प्रवर्तक हैं । मुझे गुरुरूपमें बृहस्पति प्राप्त हुए, वे भी गृहस्थीके सागरमें डूबे हुए हैं । अविद्याग्रस्त हदयवाले वे मेरा उद्धार कैसे कर सकते हैं ? ॥ ४२-४३ ॥
जैसे कोई रोगग्रस्त वैद्य दूसरेके रोगकी चिकित्सा करता हो, उसी प्रकार मुझ मोक्षार्थीके गुरु गृहस्थ हैं, यह विडम्बना ही है । इसलिये ऐसे गुरुको नमस्कार करके मैं आपके पास आया हूँ । अब आप तत्त्वज्ञानका उपदेश देकर मेरी रक्षा करें; क्योंकि मैं इस संसाररूपी सर्पसे अत्यन्त भयभीत हूँ ॥ ४४-४५ ॥
संसारेऽस्मिन्महाघोरे भ्रमणं नभचक्रवत् । न च विश्रमणं क्यापि सूर्यस्येव दिवानिशि ॥ ४६ ॥
इस महाभयंकर संसार-चक्रमें प्राणिमात्रको सर्वदा नक्षत्रोंकी भाँति चक्कर काटना पड़ता है और सूर्यकी भौति दिन-रात उन्हें भी कभी विश्राम करनेका अवसर नहीं मिलता ॥ ४६ ॥
हे तात ! इस संसारमें आत्मज्ञानको छोड़कर कौनसा सुख है ? मूह जनोंको सुखकी वैसी ही प्रतीति होती है, जैसी विष्ठाके कीड़ोंको विष्ठामें होती है ॥ ४७ ॥
अधीत्य वेदशास्त्राणि संसारे रागिणश्च ये । तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः ॥ ४८ ॥
वेदशास्त्रोंको पढ़कर भी जो सांसारिक सुख में फंसे रहते हैं, भला उनसे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा ? उन्हें तो कुत्ते, घोड़े एवं सूअर आदि पशुओंके समान धर्मवाला समझना चाहिये ॥ ४८ ॥
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य वेदशास्त्राण्यधीत्य च । बध्यते यदि संसारे को विमुच्येत मानवः ॥ ४९ ॥ नातः परतरं लोके क्वचिदाश्चर्यमद्भुतम् । पुत्रदारगृहासक्तः पण्डितः परिगीयते ॥ ५० ॥
दुर्लभ मानवतनको पाकर तथा वेदशास्त्रोंका अध्ययन करके भी यदि मनुष्य इस संसारमें बँधता है, तो दूसरा भला कौन बन्धनमुक्त हो सकता है ? इससे बढ़कर संसारमें कोई दूसरी अद्भुत बात नहीं है कि पुत्र-कलत्र और घरके बन्धनमें पड़ा हुआ भी पण्डित कहलाता है ! ॥ ४९-५० ॥
न बाध्यते यः संसारे नरो मायागुणैस्त्रिभिः । स विद्वान्स च मेधावी शास्त्रपारं गतो हि सः ॥ ५१ ॥
जो मनुष्य इस संसारमें मायाके सत्त्व, रज, तमरूपी तीनों गुणोंसे बाँधा नहीं जाता है; वही विद्वान्, बुद्धिमान् एवं शास्त्रमें पारंगत है ॥ ५१ ॥
जो न्यायमार्गसे धनोपार्जन करता है, शास्त्रोक्त कर्मोका विधिवत् सम्पादन करता है, पितृ श्राद्ध आदि यज्ञ करता है, सर्वदा सत्य बोलता है तथा पवित्र रहता है, वह गृहमें रहते हुए भी मुक्त हो जाता है ॥ ५६ ॥
ब्रह्मचारी, संन्यासी, वानप्रस्थी तथा व्रतोपवास करनेवाला-ये सब मनुष्य मध्याहोत्तरकालमें गृहस्थके पास ही जाते हैं । वे धार्मिक गृहस्थ श्रद्धाके साथ मधुर वचनोंद्वारा सबका सत्कार करते एवं अन्नदानसे उन्हें उपकृत करते हैं ॥ ५७-५८ ॥
गृहाश्रमात्परो धर्मो न दृष्टो न च वै श्रुतः । वसिष्ठादिभिराचार्यैर्ज्ञानिभिः समुपाश्रितः ॥ ५९ ॥
गृहस्थ-आश्रमसे बढ़कर कोई दूसरा आश्रम देखा या सुना नहीं गया । वसिष्ठ आदि आचार्यों और तत्त्वज्ञानियों ने इसका आश्रय ग्रहण किया है ॥ ५९ ॥
किमसाध्यं महाभाग वेदोक्तानि च कुर्वतः । स्वर्गं मोक्षं च सज्जन्म यद्यद्वाञ्छति तद्भवेत् ॥ ६० ॥ आश्रमादाश्रमं गच्छेदिति धर्मविदो विदुः । तस्मादग्निं समाधाय कुरु कर्माण्यतन्द्रितः ॥ ६१ ॥
हे महाभाग ! वेदोक्त कर्म करनेवाले गृहस्थके लिये क्या असाध्य रह जाता है ? वह स्वर्ग, मोक्ष अथवा उत्तम कुलमें जन्म-जो कुछ भी चाहता है, वह हो जाता है । 'एक आश्रमसे दूसरे आश्रममें जाना चाहिये'-ऐसा धर्मज्ञोंने बताया है । अतः आलस्यरहित होकर गृहस्थसम्बन्धी कर्मोको सम्पादित करो ॥ ६०-६१ ॥
हे धर्मज्ञ पुत्र ! देवताओं, पितरों एवं आश्रितजनोंको विधिवत् सन्तुष्ट करके, पुत्र उत्पन्न करके और उसे भी गृहस्थ-आश्रममें लगाकर पुनः गृह त्यागकर वनमें जाकर श्रेष्ठ व्रतका आश्रय ग्रहण करो । वहाँ वानप्रस्थ-आश्रम पूर्ण करके उसके बाद संन्यास धारण करो । ६२-६३ ॥
हे महामते ! इसलिये उन बलवान् इन्द्रियोंपर विजय पानेके लिये स्त्रीपरिणय करके गृहस्थ बनना चाहिये, तत्पश्चात् वृद्धावस्थामें तप करना चाहियेयह शास्त्रवचन है ॥ ६५ ॥
हे महाभाग ! वनमें स्थित महातेजस्वी महर्षि विश्वामित्र किसी समय तीन सहस्र वर्षोतक निराहार और जितेन्द्रिय रहकर अत्यन्त कठोर तप करके भी मेनकाको देखकर मोहित हो गये और उन्हींके तेजसे पुत्रीरूपमें सुन्दर शकुन्तला पैदा हुई ॥ ६६-६७ ॥