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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
सप्तदशोऽध्यायः

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शुकस्य राजमन्दिरप्रवेशवर्णनम् -
शुकदेवजीका राजा जनकसे मिलनेके लिये मिथिलापुरीको प्रस्थान तथा राजभवनमें प्रवेश


सूत उवाच
इत्युक्त्वा पितरं पुत्रः पादयोः पतितः शुकः ।
बद्धाञ्जलिरुवाचेदं गन्तुकामो महामनाः ॥ १ ॥
आपृच्छे त्वां महाभाग ग्राह्यं ते वचनं मया ।
विदेहान्द्रष्टुमिच्छामि पालिताञ्जनकेन तु ॥ २ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनियो !] पितासे यह कहकर महात्मा पुत्र शुकदेवजी उनके चरणोंपर गिर पड़े तथा हाथ जोड़कर चलनेकी इच्छासे बोले-हे महाभाग ! अब आपसे आज्ञा चाहता हूँ । मुझे आपका वचन स्वीकार्य है । अतः मैं महाराज जनकद्वारा पालित मिथिलापुरी देखना चाहता हूँ ॥ १-२ ॥

विना दण्डं कथं राज्यं करोति जनकः किल ।
धर्मे न वर्तते लोको दण्डश्चेन्न भवेद्यदि ॥ ३ ॥
राजा जनक दण्ड दिये बिना ही कैसे राज्य चलाते हैं ? क्योंकि यदि दण्डका भय प्रजाओंको न हो तो लोग धर्मका पालन नहीं करेंगे ॥ ३ ॥

धर्मस्य कारणं दण्डो मन्वादिप्रहितः सदा ।
स कथं वर्तते तात संशयोऽयं महान्मम ॥ ४ ॥
मम माता त्वियं वन्ध्या तद्वद्‌भाति विचेष्टितम् ।
पृच्छामि त्वां महाभाग गच्छामि च परन्तप ॥ ५ ॥
मनु आदिके द्वारा धर्माचरणका मूल कारण सदा दण्ड-विधान ही कहा गया है । इस राजधर्मका निर्वाह बिना दण्डके कैसे हो सकेगा ? हे पिताजी ! इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है । हे महाभाग ! यह बात वैसी ही अनर्गल प्रतीत होती है, जैसे कोई कहे कि मेरी यह माता बन्ध्या है । हे परन्तप ! अब मैं आपसे अनुमति लेता हूँ और यहाँसे जा रहा हूँ ॥ ४-५ ॥

सूत उवाच
तं दृष्ट्वा गन्तुकामं च शुकं सत्यवतीसुतः ।
आलिङ्ग्योवाच पुत्रं तं ज्ञानिनं निःस्पृहं दृढम् ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार शुकदेवजीको जनकपुर जानेका इच्छुक देखकर व्यासजीने अपने ज्ञानी एवं निःस्पृह पुत्रका दृढ़ आलिंगन करके कहा- ॥ ६ ॥

व्यास उवाच
स्वस्त्यस्तु शक दीर्घायुर्भव पुत्र महामते ।
सत्यां वाचं प्रदत्त्वा मे गच्छ तात यथासुखम् ॥ ७ ॥
आगन्तव्यं पुनर्गत्वा ममाश्रममनुत्तमम् ।
न कुत्रापि च गन्तव्यं त्वया पुत्र कथञ्चन ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-हे महामते ! हे पुत्र ! तुम्हारा कल्याण हो, हे शुक ! तुम दीर्घायु होओ । हे तात ! तुम मुझे यह सत्य वचन देकर सुखपूर्वक जाओ कि यहाँसे जाकर मेरे इस उत्तम आश्रममें पुन: आओगे । हे पुत्र ! तुम वहाँसे कहीं और कभी भी मत चले जाना ॥ ७-८ ॥

सुखं जीवामि पुत्राहं दृष्ट्वा ते मुखपङ्कजम् ।
अपश्यन्दुःखमाप्नोमि प्राणस्त्वमसि मे सुत ॥ ९ ॥
हे पुत्र ! मैं तुम्हारा मुखकमल देखकर ही सुखपूर्वक जीता हूँ और तुम्हें न देखनेपर दुःखी रहता हूँ । हे सुत ! तुम्हीं मेरे प्राण हो ॥ ९ ॥

दृष्ट्वा त्वं जनकं पुत्र सन्देहं विनिवर्त्य च ।
अत्रागत्य सुखं तिष्ठ वेदाध्ययनतत्परः ॥ १० ॥
हे पुत्र ! वहाँ राजर्षि जनकसे मिलकर और अपना सन्देह दूर करके फिर उसके बाद यहाँ आकर वेदाध्ययनमें रत रहते हुए सुखपूर्वक रहो ॥ १० ॥

सूत उवाच
इत्युक्तः सोऽभिवाद्यार्यं कृत्वा चैव प्रदक्षिणाम् ।
चलितस्तरसातीव धनुर्मुक्तः शरो यथा ॥ ११ ॥
सूतजी बोले-व्यासजीके ऐसा कहनेपर शुकदेवजी अपने पिताको प्रणाम तथा उनकी प्रदक्षिणा करके शीघ्र ही इस प्रकार चल पड़े जैसे धनुषसे छूटा हुआ बाण । ११ ॥

सम्पश्यन्विविधान्देशाँल्लोकांश्च वित्तधर्मिणः ।
वनानि पादपांश्चैव क्षेत्राणि फलितानि च ॥ १२ ॥
तापसांस्तप्यमानांश्च याजकान्दीक्षयान्वितान् ।
योगाभ्यासरतान्योगिवानप्रस्थान्वनौकसः ॥ १३ ॥
शैवान्पाशुपतांश्चैव सौराञ्छाक्तांश्च वैष्णवान् ।
वीक्ष्य नानाविधान्धर्माञ्जगामातिस्मयन्मुनिः ॥ १४ ॥
मार्गमें चलते हुए अनेक समृद्धिशाली देशों, नागरिकों, वनों, वृक्षों, फले-फूले खेतों, तप करते हुए तपस्वीजनों, दीक्षा लिये हुए याजकजनों, योगाभ्यासमें तत्पर योगीजनों, वनमें रहनेवाले वानप्रस्थों, वैष्णव, पाशुपत, शैव, शाक्त एवं सूर्योपासक और अनेक धर्मावलम्बियोंको देखकर वे शुकदेवमुनि अति विस्मयमें पड़ गये ॥ १२-१४ ॥

वर्षद्वयेन मेरुं च समुल्लङ्घ्य महामतिः ।
हिमाचलं च वर्षेण जगाम मिथिलां प्रति ॥ १५ ॥
इस प्रकार वे महामति शुकदेवजी लगभग दो वर्षो में मेरुपर्वत और एक वर्षमें हिमालयको पार करके मिथिला-देशमें पहुँचे ॥ १५ ॥

प्रविष्टो मिथिलां मध्ये पश्यन्सर्वर्द्धिमुत्तमाम् ।
प्रजाश्च सुखिताः सर्वाः सदाचाराः सुसंस्थिताः ॥ १६ ॥
जब वे मिथिलामें प्रविष्ट हुए, तब उन्होंने वहाँकी श्रेष्ठ ऐश्वर्यसम्पदाको देखा तथा वहाँकी सारी प्रजाको सुखी एवं सदाचारसम्पन्न देखा ॥ १६ ॥

क्षत्रा निवारितस्तत्र कस्त्वमत्र समागतः ।
किं ते कार्यं वदस्वेति पृष्टस्तेन न चाब्रवीत् ॥ १७ ॥
निःसृत्य नगरद्वारात्स्थितः स्थाणुरिवाचलः ।
विस्मितोऽतिहसंस्तस्थौ वचो नोवाच किञ्चन ॥ १८ ॥
वहाँ द्वारपालने उन्हें रोका और पूछा-तुम कौन हो और कहाँसे आये हो, तुम्हारा क्या कार्य है । बताओ । ऐसा पूछनेपर भी शुकदेवजी मौन रहे, कुछ बोले नहीं । वे नगरद्वारसे बाहर जाकर स्थाणुकी तरह खड़े हो गये और थोड़ी देरमें आश्चर्यचकित होकर हँसते हुए वहीं स्थित हो गये, पर किसीसे कुछ बोले नहीं । १७-१८ ॥

प्रतीहार उवाच
ब्रूहि मूकोऽसि किं ब्रह्मन्किमर्थं त्वमिहागतः ।
चलनं च विना कार्यं न भवेदिति मे मतिः ॥ १९ ॥
द्वारपालने पूछा-हे ब्रह्मन् ! बोलिये, आप गूंगे तो नहीं हैं । आपका किस हेतु यहाँ आना हुआ है ? मेरे विचारमें तो कोई कहीं भी निष्प्रयोजन नहीं जाता ॥ १९ ॥

राजाज्ञया प्रवेष्टव्यं नगरेऽस्मिन्सदा द्विज ।
अज्ञातकुलशीलस्य प्रवेशो नात्र सर्वथा ॥ २० ॥
हे विप्र ! इस नगरमें राजाकी आज्ञा पाकर ही कोई प्रवेश कर सकता है । अज्ञात कुल तथा शीलवाले व्यक्तिका प्रवेश यहाँ कदापि नहीं होता है ॥ २० ॥

तेजस्वी भासि नूनं त्वं ब्राह्मणो वेदवित्तमः ।
कुलं कार्यं च मे ब्रूहि यथेष्टं गच्छ मानद ॥ २१ ॥
हे मानद ! आप निश्चय ही तेजस्वी एवं वेदवेत्ता ब्राह्मण प्रतीत हो रहे हैं । इसलिये आप अपने कुल तथा प्रयोजनके विषयमें मुझे बता दें और फिर अपने इच्छानुसार चले जायें ॥ २१ ॥

शुक उवाच
यदर्थमागतोऽस्म्यत्र तत्प्राप्तं वचनात्तव ।
विदेहनगरं द्रष्टुं प्रवेशो यत्र दुर्लभः ॥ २२ ॥
शुकदेवजी बोले-मैं जिस कार्यके लिये यहाँ आया था, वह तुम्हारे कथनमात्रसे ही पूरा हो गया । मैं विदेहनगर देखने आया था, परंतु यहाँ तो प्रवेश ही दुर्लभ है ॥ २२ ॥

मोहोऽयं मम दुर्बुद्धेः समुल्लङ्घ्य गिरिद्वयम् ।
राजानं द्रष्टुकामोऽहं पर्यटन्समुपागतः ॥ २३ ॥
मुझ अज्ञानीकी यह भूल थी, जो दो पर्वतोंको लाँघकर महाराजसे मिलनेकी इच्छासे घूमते हुए यहाँ चला आया ॥ २३ ॥

वञ्चितोऽहं स्वयं पित्रा दूषणं कस्य दीयते ।
भ्रामितोऽहं महाभाग कर्मणा वा महीतले ॥ २४ ॥
मैं तो स्वयं अपने पिताद्वारा ही ठगा गया हूँ । इसमें किसी अन्यको ही क्या दोष दिया जाय ? अथवा हे महाभाग ! यह मेरे दुर्भाग्यका ही दोष है, जिसके कारण इस भूमिपर मुझे इतना चक्कर काटना पड़ा ॥ २४ ॥

धनाशा पुरुषस्येह परिभ्रमणकारणम् ।
सा मे नास्ति तथाप्यत्र सम्प्राप्तोऽस्मि भ्रमात्किल ॥ २५ ॥
इस संसारमें लोगोंका भ्रमण करनेका उद्देश्य धनोपार्जन ही है, किंतु मुझे उसकी कोई इच्छा नहीं है । मैं तो केवल भ्रमवश ही यहाँ आ गया हूँ ॥ २५ ॥

निराशस्य सुखं नित्यं यदि मोहे न मज्जति ।
निराशोऽहं महाभाग मग्नोऽस्मिन्मोहसागरे ॥ २६ ॥
आशारहित पुरुषको ही सर्वदा सुख प्राप्त होता है, यदि वह मोहमें न पड़े । किंतु हे महाभाग ! मैं तो निराश होकर भी, न जानें क्यों इस मोहसागरमें निमग्न हो रहा हूँ । ॥ २६ ॥

क्व मेरुर्मिथिला क्वेयं पद्‌भ्यां च समुपागतः ।
परिश्रमफलं किं मे वञ्चितो विधिना किल ॥ २७ ॥
प्रारब्धं किल भोक्तव्यं शुभं वाप्यथवाशुभम् ।
उद्यमस्तद्वशे नित्यं कारयत्येव सर्वथा ॥ २८ ॥
कहाँ सुमेरुपर्वत और कहाँ यह मिथिलापुरी ! पैदल ही चलकर मैं यहाँ आया हूँ । इस परिश्रमका फल मुझे क्या मिला ? प्रारब्धने ही मुझे ठगा है । प्रारब्धका भोग अवश्य ही भोगना पड़ता है, चाहे वह शुभ हो या अशुभ । उद्योग भी तो सदा उसी दैवके अधीन ही रहता है; वह जैसा चाहे वैसा कराता है ॥ २७-२८ ॥

न तीर्थं न च वेदोऽत्र यदर्थमिह मे श्रमः ।
अप्रवेशः पुरे जातो विदेहो नाम भूपतिः ॥ २९ ॥
यहाँ न कोई तीर्थ है न ज्ञानप्राप्ति होनी है, जिसके लिये यह मेरा परिश्रम हुआ । मैं तो महाराज जनकका 'विदेह' नाम सुनकर उत्सुकतासे यहाँ आया था, किंतु उनके नगरमें तो प्रवेश करना भी निषिद्ध है ॥ २९ ॥

इत्युक्त्या विररामाशु मौनीभूत इव स्थितः ।
ज्ञातो हि प्रतिहारेण ज्ञानी कश्चिद्‌द्विजोत्तमः ॥ ३० ॥
सामपूर्वमुवाचासौ तं क्षत्ता संस्थितं मुनिम् ।
गच्छ भो यत्र ते कार्यं यथेष्टं द्विजसत्तम ॥ ३१ ॥
इतना कहकर शुकदेवजी चुप हो गये और मौन होकर खड़े रहे । द्वारपालको लगा कि ये कोई ज्ञानी श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं । तब उसने वहाँ खड़े मुनिसे शान्तिपूर्वक निवेदन किया-हे द्विजश्रेष्ठ ! आपका जहाँ कार्य हो, वहाँ यथेष्ट चले जाइये ॥ ३०-३१ ॥

अपराधो मम ब्रह्मन्यन्निवारितवानहम् ।
तत्क्षन्तव्यं महाभाग विमुक्तानां क्षमा बलम् ॥ ३२ ॥
हे ब्रह्मन् ! मैंने जो आपको रोका था, वह मेरा अपराध हुआ । उसके लिये आप क्षमा करें; क्योंकि हे महाभाग ! मुक्तजनोंका तो क्षमा ही बल है ॥ ३२ ॥

शुक उवाच
किं तेऽत्र दूषणं क्षत्तः परतन्त्रोऽसि सर्वदा ।
प्रभुकार्यं प्रकर्तव्यं सेवकेन यथोचितम् ॥ ३३ ॥
न भूपदूषणं चात्र यदहं रक्षितस्त्वया ।
चोरशत्रुपरिज्ञानं कर्तव्यं सर्वथा बुधैः ॥ ३४ ॥
शुकदेवजी बोले-हे द्वारपाल ! इसमें तुम्हारा क्या दोष है; तुम तो सर्वदा पराधीन हो । सेवकको तो स्वामीकी आज्ञाका यथोचित पालन करना ही चाहिये । तुमने मुझे जो रोका इसमें राजाका भी कोई दोष नहीं है । क्योंकि बुद्धिमानोंको चोर और शत्रुओंका सम्यक् ज्ञान रखना चाहिये ॥ ३३-३४ ॥

ममैव सर्वथा दोषो यदहं समुपागतः ।
गमनं परगेहे यल्लघुतायाश्च कारणम् ॥ ३५ ॥
यह सर्वथा मेरा ही दोष है, जो मैं यहाँ आ गया । [बिना बुलाये] दूसरेके घर जाना लघुताका कारण होता है ॥ ३५ ॥

प्रतीहार उवाच
किं सुखं द्विज किं दुःखं किं कार्यं शुभमिच्छता ।
कः शत्रुर्हितकर्ता को ब्रूहि सर्वं ममाद्य वै ॥ ३६ ॥
द्वारपालने कहा-हे विप्र ! सुख क्या है, दुःख क्या है, कल्याण चाहनेवाले पुरुषका क्या कर्तव्य है ? शत्रु कौन है और मित्र कौन है ? आप मुझे यह सब बताइये ॥ ३६ ॥

शुक उवाच
द्वैविध्यं सर्वलोकेषु सर्वत्र द्विविधो जनः ।
रागी चैव विरागी च तयोश्चित्तं द्विधा पुनः ॥ ३७ ॥
विरागी त्रिविधः कामं ज्ञातोऽज्ञातश्च मध्यमः ।
रागी च द्विविधः प्रोक्तो मूर्खश्च चतुरस्तथा ॥ ३८ ॥
चातुर्यं द्विविधं प्रोक्तं शास्त्रजं मतिजं तथा ।
मतिस्तु द्विविधा लोके युक्तायुक्तेति सर्वथा ॥ ३९ ॥
शुकदेवजी बोले-सभी लोकोंमें सर्वत्र द्वैविध्य रहता है । इसलिये मनुष्य भी दो प्रकारके हैं-एक रागी और दूसरा विरागी । उन दोनोंके मन भी दो प्रकारके होते हैं । उनमें भी विरागी तीन प्रकारके होते हैं-ज्ञात, अज्ञात एवं मध्यम । रागी भी दो प्रकारके कहे गये हैं-मूर्ख तथा चतुर । चातुर्य भी दो प्रकारका कहा गया है-शास्त्रजनित तथा बुद्धिजनित । इसी प्रकार लोकमें बुद्धि भी युक्त और अयुक्त-भेदसे दो प्रकारकी होती है ॥ ३७-३९ ॥

प्रतीहार उवाच
यदुक्तं भवता विद्वन्नार्थज्ञोऽहं द्विजोत्तम ।
तत्सर्वं विस्तरेणाद्य यथार्थं वद सत्तम ॥ ४० ॥
द्वारपालने कहा-हे विद्वन् ! हे विप्रवर ! आपने जो कुछ कहा है, उसे मैं भलीभाँति नहीं समझ पाया । अतएव हे श्रेष्ठ ! आप फिरसे विस्तारपूर्वक इस विषयको यथार्थरूपसे समझाइये ॥ ४० ॥

शुक उवाच
रागो यस्यास्ति संसारे स रागीत्युच्यते ध्रुवम् ।
दुःखं बहुविधं तस्य सुखं च विविधं पुनः ॥ ४१ ॥
शुकदेवजी बोले-इस संसारमें जिसको राग है, वह निश्चय ही रागी कहलाता है । उस रागीको अनेक प्रकारके सुख एवं दुःख आते ही रहते हैं ॥ ४१ ॥

धनं प्राप्य सुतान्दारान्मानं च विजयं तथा ।
तदप्राप्य महद्दुःखं भवत्येव क्षणे क्षणे ॥ ४२ ॥
धन, पुत्र, कलत्र, मान-प्रतिष्ठा और विजय प्राप्त करके ही सुख प्राप्त होता है । इनके न मिलनेपर प्रतिक्षण महान् दुःख होता ही है ॥ ४२ ॥

कार्यस्तस्य सुखोपायः कर्तव्यं सुखसाधनम् ।
तस्यारातिः स विज्ञेयः सुखविघ्नं करोति यः ॥ ४३ ॥
सुखोत्पादयिता मित्रं रागयुक्तस्य सर्वदा ।
चतुरो नैव मुह्येत मूर्खः सर्वत्र मुह्यति ॥ ४४ ॥
अतः जैसे सुख प्राप्त हो सके, वैसा उपाय करना चाहिये और सुखके साधनका संग्रह करना चाहिये । जो उस सुखमें विघ्न डाले, उसे शत्रु समझना चाहिये । जो रागी पुरुषके सुखको सर्वदा बढ़ाये, वही मित्र है । चतुर मनुष्य मोहमें फँसता नहीं है । किंतु मूर्ख सर्वत्र आसक्त रहता है ॥ ४३-४४ ॥

विरक्तस्यात्मरक्तस्य सुखमेकान्तसेवनम् ।
आत्मानुचिन्तनं चैव वेदान्तस्य च चिन्तनम् ॥ ४५ ॥
दुःखं तदेतत्सर्वं हि संसारकथनादिकम् ।
शत्रवो बहवस्तस्य विज्ञस्य शुभमिच्छतः ॥ ४६ ॥
कामः क्रोधः प्रमादश्च शत्रवो विविधाः स्मृताः ।
बन्धुः सन्तोष एवास्य नान्योऽस्ति भुवनत्रये ॥ ४७ ॥
विरागी तथा आत्माराम पुरुषको एकान्तवास, आत्म-चिन्तन तथा वेदान्तशास्त्रका अनुशीलन करनेसे ही सुख होता है । सांसारिक विषयोंकी चर्चा आदि-यह सब उनके लिये दुःखरूप है । कल्याण चाहनेवाले विद्वान् पुरुषके लिये बहुत शत्रु हैं; काम, क्रोध, प्रमाद आदि अनेक प्रकारके शत्रु बताये गये हैं । किंतु व्यक्तिका सच्चा बन्धु तो एकमात्र सन्तोष ही है; तीनों लोकोंमें दूसरा कोई भी नहीं है । ४५-४७ ॥

सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य मत्वा तं ज्ञानिनं द्विजम् ।
क्षत्ता प्रवेशयामास कक्षां चातिमनोरमाम् ॥ ४८ ॥
सूतजी बोले-शुकदेवजीकी बात सुनकर उन्हें ज्ञानी द्विज समझकर उसने शुकदेवजीको एक अत्यन्त रमणीय कक्षसे प्रवेश कराया ॥ ४८ ॥

नगरं वीक्षमाणः संस्त्रैविध्यजनसङ्कुलम् ।
नानाविपणिद्रव्याढ्यं क्रयविक्रयकारकम् ॥ ४९ ॥
रागद्वेषयुतं कामलोभमोहाकुलं तथा ।
विवदत्सुजनाकीर्णं वसुपूर्णं महत्तरम् ॥ ५० ॥
पश्यन्स त्रिविधाँल्लोकान्प्रासरद्‌राजमन्दिरम् ।
प्राप्तः परमतेजस्वी द्वितीय इव भास्करः ॥ ५१ ॥
निवारितश्च तत्रैव प्रतीहारेण काष्ठवत् ।
तत्रैव च स्थितो द्वारि मोक्षमेवानुचिन्तयन् ॥ ५२ ॥
तीन प्रकारके नागरिकजनोंसे भरे हुए । अनेक प्रकारके क्रय-विक्रयकी वस्तुओंसे सजी दुकानोंवाले; राग-द्वेष, काम, लोभ, मोहसे युक्त एवं परस्पर वाद-विवादमें संलग्न श्रेष्ठीजनोंसे सुशोभित और धन-धान्यसे परिपूर्ण विशाल नगरको देखते हुए शुकदेवजी चले । इस तरह तीन प्रकारके लोगोंको देखते हुए शुकदेवजी राजभवनकी ओर बढ़े । इस प्रकार द्वितीय सूर्यके समान परम तेजस्वी शुकदेवजी द्वारपर पहुँचे द्वारपालने उन्हें अन्दर जानेसे रोका । तब वे काष्ठके समान वहीं द्वारपर खड़े हो गये और मोक्षसम्बन्धी विषयपर विचार करने लगे ॥ ४९-५२ ॥

छायायामातपे चैव समदर्शी महातपाः ।
ध्यानं कृत्वा तथैकान्ते स्थितः स्थाणुरिवाचलः ॥ ५३ ॥
धूप तथा छायाको समान-समझनेवाले महातपस्वी शुकदेवजी वहाँ एकान्तमें ध्यान करके इस प्रकार खड़े रहे मानो कोई अचल स्तम्भ हो ॥ ५३ ॥

तं मुहूर्तादुपागत्य राज्ञोऽमात्यः कृताञ्जलिः ।
प्रावेशयत्ततः कक्षां द्वितीयां राजवेश्मनः ॥ ५४ ॥
थोड़ी देर बाद राजमन्त्रीने हाथ जोड़े हुए स्वयं आकर उन्हें राजभवनके दूसरे कक्षमें प्रवेश कराया ॥ ५४ ॥

तत्र दिव्यं मनोरम्यं पुष्पितं दिव्यपादपम् ।
तद्वनं दर्शयित्वा तु कृत्वा चातिथिसत्क्रियाम् ॥ ५५ ॥
वारमुख्याः स्त्रियस्तत्र राजसेवापरायणाः ।
गीतवादित्रकुशलाः कामशास्त्रविशारदाः ॥ ५६ ॥
ता आदिश्य च सेवार्थं शुकस्य मन्त्रिसत्तमः ।
निर्गतः सदनात्तस्माद्व्यासपुत्रः स्थितस्तदा ॥ ५७ ॥
पूजितः परया भक्त्या ताभिः स्त्रीभिर्यथाविधि ।
देशकालोपपन्नेन नानान्नेनातितोषितः ॥ ५८ ॥
वहाँ एक दिव्य रमणीय उपवन था, जिसमें विविध प्रकारके पुष्पोंसे लदे दिव्य वृक्ष सुशोभित हो रहे थे । उस वनको दिखाकर मन्त्रीने उनका यथोचित आतिथ्य सत्कार किया । वहाँ राजाकी सेवा करनेवाली अनेक वारांगनाएँ थीं, वे नृत्य-गानमें कुशल तथा कामशास्त्रमें निपुण थीं । शुकदेवजीकी सेवाके लिये उन्हें आदेश देकर राजमन्त्री उस भवनसे निकल गये और शुकदेवजी वहीं स्थित रहे । उन वारांगनाओंने परम भक्तिके साथ उनकी पूजा की और देशकालानुसार उपलब्ध अनेक प्रकारके भोजनसे उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ ५५-५८ ॥

ततोऽन्तःपुरवासिन्यस्तस्यान्तःपुरकाननम् ।
रम्यं संदर्शयामासुरङ्गनाः काममोहिताः ॥ ५९ ॥
स युवा रूपवान्कान्तो मृदुभाषी मनोरमः ।
दृष्ट्वा ता मुमुहुः सर्वास्तं च काममिवापरम् ॥ ६० ॥
तत्पश्चात् अन्तःपुरनिवासिनी कामिनी स्त्रियोंने उन्हें अन्तःपुरका वन दिखाया, जो अत्यन्त रमणीय था । वे युवा, रूपवान्, कान्तिमान्, मृदुभाषी एवं मनोरम थे । दूसरे कामदेवके समान उन शुकदेवजीको देखकर वे सभी मुग्ध हो गयीं ॥ ५९-६० ॥

जितेन्द्रियं मुनिं मत्त्वा सर्वाः पर्यचरंस्तदा ।
आरणेयस्तु शुद्धात्मा मातृभावमकल्पयत् ॥ ६१ ॥
मुनिको जितेन्द्रिय जानकर वे सब उनकी परिचर्या करने लगीं । अरणिनन्दन शुद्धात्मा शुकदेवजीने उन्हें माताके समान समझा ॥ ६१ ॥

आत्मारामो जितक्रोधो न हृष्यति न तप्यति ।
पश्यंस्तासां विकारांश्च स्वस्थ एव स तस्थिवान् ॥ ६२ ॥
वे आत्माराम तथा क्रोधको जीतनेवाले शुकदेवजी न हर्षित होते थे और न दुःखी । उनकी चेष्टाओंको देखकर भी वे शान्तचित्त होकर स्थित रहे । ६२ ॥

तस्मै शय्यां सुरम्यां च ददुर्नार्यः सुसंस्कृताम् ।
परार्ध्यास्तरणोपेतां नानोपस्करसंवृताम् ॥ ६३ ॥
स कृत्वा पादशौचं च कुशपाणिरतन्द्रितः ।
उपास्य पश्चिमां सन्ध्यां ध्यानमेवान्वपद्यत ॥ ६४ ॥
तब उन स्त्रियोंने उनके लिये सुरम्य, कोमल तथा बहुमूल्य आस्तरण और नानाविध उपकरणोंसे सुसज्जित शय्या बिछायी । शुकदेवजी हाथ-पाँव धोकर हाथमें कुश लेकर सावधान हो सायंकालीन सन्ध्योपासन सम्पन्न करके भगवान्के ध्यानमें लग गये ॥ ६३-६४ ॥

याममेकं स्थितो ध्याने सुष्वाप तदनन्तरम् ।
सुप्त्वा यामद्वयं तत्र चोदतिष्ठत्ततः शुकः ॥ ६५ ॥
पाश्चात्यं यामिनीयामं ध्यानमेवान्वपद्यत ।
स्नात्वा प्रातःक्रियाः कृत्वा पुनरास्ते समाहितः ॥ ६६ ॥
इस प्रकार एक प्रहरतक ध्यानावस्थित होकर वे शयन करने लगे । दो प्रहर शयन करके पुनः वे शुकदेवजी उठ गये । रात्रिके चौथे प्रहरमें वे पुनः ध्यानमें स्थित रहे; तदनन्तर स्नान करके प्रात:कालीन क्रियाएँ सम्पन्न करके पुनः समाधिस्थ हो गये ॥ ६५-६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे शुकस्य राजमन्दिरप्रवेशवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥
अध्याय सत्रहवाँ समाप्त


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