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व्यासोपदेशवर्णनम् -
बालरूपधारी भगवान् विष्णुसे महालक्ष्मीका संवाद, व्यासजीका शुकदेवजीसे देवीभागवतप्राप्तिकी परम्परा बताना तथा शुकदेवजीका मिथिला जानेका निश्चय करना
व्यास उवाच दृष्ट्वा तं विस्मितं देवं शयानं वटपत्रके । उवाच सस्मितं वाक्यं विष्णो किं विस्मितो ह्यसि ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वटपत्रपर सोये हुए उन भगवान् विष्णुको आश्चर्यचकित देखकर मन्द मुसकान करती हुई देवीने यह वचन कहा'विष्णो ! आप विस्मयमें क्यों पड़े हैं ?' ॥ १ ॥
महाशक्त्याः प्रभावेण त्वं मां विस्मृतवान्पुरा । प्रभवे प्रलये जाते भूत्वा भूत्वा पुनः पुनः ॥ २ ॥
आप उस महाशक्तिकी मायासे पूर्वकालमें भी सृष्टिकी उत्पत्ति तथा प्रलय होनेपर इसी प्रकार बार-बार जन्म लेकर मुझे भूलते रहे हैं ॥ २ ॥
निर्गुणा सा परा शक्तिः सगुणस्त्वं तथाप्यहम् । सात्त्विकी किल या शक्तिस्तां शक्तिं विद्धि मामिकाम् ॥ ३ ॥
वे पराशक्ति निर्गुणा हैं, मैं और आप तो सगुण हैं । जो सात्त्विकी शक्ति है, उसे आप मेरी ही शक्ति समझिये ॥ ३ ॥
त्वन्नाभिकमलाद्ब्रह्मा भविष्यति प्रजापतिः । स कर्ता सर्वलोकस्य रजोगुणसमन्वितः ॥ ४ ॥
आपके नाभिकमलसे प्रजापति ब्रह्मा उत्पन्न होंगे । वे ही रजोगुणसे युक्त होकर समस्त ब्रह्माण्डकी सृष्टि करेंगे ॥ ४ ॥
स तदा तप आस्थाय प्राप्य शक्तिमनुत्तमाम् । रजसा रक्तवर्णञ्च करिष्यति जगत्त्रयम् ॥ ५ ॥ सगुणान्पञ्चभूतांश्च समुत्पाद्य महामतिः । इन्द्रियाणीन्द्रियेशांश्च मनःपूर्वान्समन्ततः ॥ ६ ॥ करिष्यति ततः सर्गं तेन कर्ता स उच्यते । विश्वस्यास्य महाभाग त्वं वै पालयिता तथा ॥ ७ ॥
वे ब्रह्मा ही तपोबलका आश्रय लेकर श्रेष्ठ शक्ति प्राप्त करके रजोगुणके द्वारा त्रिभुवनको लाल वर्णका कर देंगे । गुणोंसहित पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु-इन पाँचों महाभूतोंकी एवं मनके साथ इन्द्रियों तथा उनके अधिष्ठातृदेवताओंकी रचना करके वे बुद्धिमान् ब्रह्माजी जगत्की सृष्टि करेंगे; इसी कारण वे कर्ता कहे जायेंगे और आप इस विश्वके पालक होंगे ॥ ५-७ ॥
उनके क्रोध करनेपर उनकी भौंहोंके मध्यभागसे रुद्र उत्पन्न होंगे । हे महामते ! वे ही रुद्र घोर तप करके तामसी शक्ति प्राप्तकर कल्पान्तके समय सृष्टिके संहारकर्ता होंगे । इसी कारण मैं आपके पास आयी हूँ आप मुझे वही सात्त्विकी शक्ति समझिये । हे मधुसूदन ! मैं यहीं रहूँगी । मैं तो सर्वदा आपके ही पास रहती हूँ । आपके हृदयमें मैं निरन्तर निवास करती हूँ ॥ ८-१० ॥
विष्णुरुवाच श्लोकस्यार्धं मया पूर्वं श्रुतं देवि स्फुटाक्षरम् । तत्केनोक्तं वरारोहे रहस्यं परमं शिवम् ॥ ११ ॥ तन्मे ब्रूहि वरारोहे संशयोऽयं वरानने । निर्धनो हि यथा द्रव्यं तत्स्मरामि पुनः पुनः ॥ १२ ॥
विष्णु बोले-हे देवि ! हे वरारोहे ! कुछ समय पूर्व मैंने स्पष्ट अक्षरोंवाला जो आधा श्लोक सुना, वह परम कल्याणप्रद तथा रहस्यमय वाक्य किसने कहा था ? हे वरारोहे ! यह मुझे शीघ्र बताइये; हे सुमुखि ! इस विषयमें मुझे महती शंका है । जिस प्रकार निर्धन पुरुष धनकी चिन्ता करता रहता है, उसी प्रकार मैं उसका बार-बार स्मरण किया करता हूँ ॥ ११-१२ ॥
व्यास उवाच विष्णोस्तद्वचनं श्रुत्वा महालक्ष्मीः स्मितानना । उवाच परया प्रीत्या वचनं चारुहासिनी ॥ १३ ॥
व्यासजी बोले-विष्णुका वह वचन सुनकर मुसकानयुक्त मुखमण्डलवाली महालक्ष्मी मधुर हास्यके साथ अत्यन्त प्रेमसे बोली- ॥ १३ ॥
महालक्ष्मीरुवाच शृणु शौरे वचो मह्यं सगुणाहं चतुर्भुजा । मां जानासि न जानासि निर्गुणां सगुणालयाम् ॥ १४ ॥
महालक्ष्मी बोलीं-हे शौरे ! मेरी बात सुनिये । मैं सगुणरूपा चतुर्भुजा भगवती हूँ । आप मुझे जानते हों या न जानते हों, किंतु मैं सब गुणोंका आलय होती हुई निर्गुणा भी हूँ ॥ १४ ॥
त्वं जानीहि महाभाग तया तत्प्रकटीकृतम् । पुण्यं भागवतं विद्धि वेदसारं शुभावहम् ॥ १५ ॥ कृपां च महतीं मन्ये देव्याः शत्रुनिषूदन । यया प्रोक्तं परं गुह्यं हिताय तव सुव्रत ॥ १६ ॥
हे महाभाग ! आप यह जान लें कि वह अर्धश्लोक उसी पराशक्तिने कहा था । आप उसे सब वेदोंका तत्त्वस्वरूप, कल्याणकारी और पुण्यप्रद श्रीमद्देवीभागवत समझिये । हे शत्रुमर्दन ! हे सुव्रत ! मैं भगवतीकी परम कृपा मानती हूँ, जिसने ऐसा गुप्त एवं परम रहस्यमय मन्त्र आपके कल्याणके लिये कहा है ॥ १५-१६ ॥
रक्षणीयं सदा चित्ते न विस्मार्यं कदाचन । सारं हि सर्वशास्त्राणां महाविद्याप्रकाशितम् ॥ १७ ॥
आप इसे सर्वदा चित्तमें रखिये और कभी भी इसे विस्मत न कीजिये: यह सब शास्त्रोंका सार है तथा महाविद्याके द्वारा प्रकाशित किया गया है ॥ १७ ॥
नातः परं वेदितव्यं वर्तते भुवनत्रये । प्रियोऽसि खलु देव्यास्त्वं तेन ते व्याहृतं वचः ॥ १८ ॥
इससे बढ़कर त्रिभुवनमें कुछ भी ज्ञातव्य नहीं है । आप निश्चय ही देवीके परम प्रिय हैं, इसीलिये उन्होंने यह मन्त्र आपको बताया है ॥ १८ ॥
व्यास उवाच इति श्रुत्वा वचो देव्या महालक्ष्याश्चतुर्भुजः । दधार हृदये नित्यं मत्वा मन्त्रमनुत्तमम् ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-महादेवी लक्ष्मीके इस वचनको सुनकर चतुर्भुज भगवान् विष्णुने इसे सर्वश्रेष्ठ मन्त्र समझकर सदाके लिये हृदयमें धारण कर लिया ॥ १९ ॥
कुछ दिनोंके बाद उनके नाभिकमलसे उत्पन्न ब्रह्माजी दैत्योंके भयसे डरकर भगवान् विष्णुकी शरणमें गये । तब वे भगवान् विष्णु भयंकर युद्ध करके मधु-कैटभका वधकर उस विशद अक्षरोंवाले श्लोकार्धरूप मन्त्रका जप करने लगे ॥ २०-२१ ॥
जपन्तं वासुदेवं च दृष्ट्वा देवः प्रजापतिः । पप्रच्छ परमप्रीतः कञ्जजः कमलापतिम् ॥ २२ ॥ किं त्वं जपसि देवेश त्वत्तः कोऽप्यधिकोऽस्ति वै । यत्कृत्वा पुण्डरीकाक्ष प्रीतोऽसि जगदीश्वर ॥ २३ ॥
भगवान् वासुदेवको जप करते हुए देखकर प्रजापति ब्रह्माजीने प्रेमपूर्वक कमलापतिसे पूछाहे देवेश ! हे पुण्डरीकाक्ष ! हे जगदीश्वर ! आप किसका जप कर रहे हैं ? आपसे भी बढ़कर दूसरा कौन है, जिसका ध्यान करके आप इतने प्रसन्न हो रहे हैं ? ॥ २२-२३ ॥
हरिरुवाच मयि त्वयि च या शक्तिः क्रियाकारणलक्षणा । विचारय महाभाग या सा भगवती शिवा ॥ २४ ॥ यस्याधारे जगत्सर्वं तिष्ठत्यत्र महार्णवे । साकारा या महाशक्तिरमेया च सनातनी ॥ २५ ॥ यया विसृज्यते विश्वं जगदेतच्चराचरम् । सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये ॥ २६ ॥
विष्णु बोले-हे महाभाग ! विचार कीजिये कि आपमें और मुझमें जो कार्यकारणस्वरूपा शक्ति विद्यमान है, वे ही भगवती शिवा हैं । जिनके आधारपर एकार्णव महासागरमें यह समस्त जगत् ठहरा हुआ है । जो महाशक्ति साकार, असीम तथा | सनातनी भगवती हैं और यह समस्त जड़-चेतन संसार जिनके द्वारा रचा गया है, वे ही जब प्रसन्न होती हैं तब मनुष्योंके उद्धारके लिये वरदायिनी होती हैं ॥ २४-२६ ॥
मैं, आप तथा समस्त संसार उन्हींकी चैतन्य शक्तिसे उत्पन्न हुए हैं । हे ब्रह्मन् ! हे निष्पाप ! ऐसा आप सत्य जानिये, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २८ ॥
श्लोकार्धेन तया प्रोक्तं तद्वै भागवतं किल । विस्तरो भविता तस्य द्वापरादौ युगे तथा ॥ २९ ॥
उन भगवतीने आधे श्लोकमें ही जो कहा है, वही वास्तविक श्रीमद्देवीभागवत है । द्वापरयुगके आदिमें पुनः उसका विस्तार होगा ॥ २९ ॥
व्यास उवाच ब्रह्मणा संगृहीतं च विष्णोस्तु नाभिपङ्कजे । नारदाय च तेनोक्तं पुत्रायामितबुद्धये ॥ ३० ॥ नारदेन तथा मह्यं दत्तं हि मुनिना पुरा । मया कृतमिदं पूर्णं द्वादशस्कन्धविस्तरम् ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार भगवान् विष्णुके नाभिकमलपर विराजमान ब्रह्माजीने उस भागवतका संग्रह किया । तत्पश्चात् उन्होंने अपने परम बुद्धिमान् पुत्र नारदजीसे इसे कहा । पूर्वकालमें वही भागवत देवर्षि नारदजीने मुझे दिया और फिर मैंने उसे बारह स्कन्धोंमें विस्तृत करके पूर्ण किया ॥ ३०-३१ ॥
तत्त्वज्ञानके रससे परिपूर्ण, वेदार्थके द्वारा उपबृंहित और धर्मशास्त्रके समान पुण्यप्रद यह भागवत सभी पुराणोंमें श्रेष्ठतम है । यह वृत्रासुरवधके कथानकसे युक्त, विविध आख्यानोपाख्यानोंसे समन्वित, ब्रह्मविद्याका निधान एवं भवसागरसे पार करनेवाला है । ३३-३४ ॥
तुम इसके अठारह हजार श्लोकोंको हृदयंगम कर लो; यह पुराण पाठ तथा श्रवण करनेवालेके लिये अज्ञानका नाश करनेवाला, दिव्य ज्ञानरूपी सूर्यका बोध करानेवाला, सुखप्रद, शान्तिदायक, धन्य, दीर्घ आयु प्रदान करनेवाला, कल्याणकारी तथा पुत्रपौत्रकी वृद्धि करनेवाला है । ३६-३७ ॥
सूतजी बोले-हे मुनियो ! व्यासजीने मुझसे और अपने पुत्रसे इस प्रकार कहा था, तब मैंने उस सम्पूर्ण विस्तृत पुराण-संहिताको विधिवत् पढ़ा था ॥ ३९ ॥
शुकोऽधीत्य पुराणं तु स्थितो व्यासाश्रमे शुभे । न लेभे शर्म धर्मात्मा ब्रह्मात्मज इवापरः ॥ ४० ॥
उस समय भागवतपुराणका अध्ययन करके शुकदेवजी व्यासजीके पवित्र आश्रममें ही रहने लगे, परंतु दूसरे ब्रह्मापुत्र नारदकी भाँति उन धर्मात्माको वहाँ शान्ति न मिल सकी ॥ ४० ॥
एकान्तमें रहनेवाले तथा व्याकलचित्त वे उदासीनकी भाँति दिखायी पड़ते थे । न वे अधिक भोजन करते थे और न उपवासपूर्वक ही रहते थे ॥ ४१ ॥
चिन्ताविष्टं शुकं दृष्ट्वा व्यासः प्राह सुतं प्रति । किं पुत्र चिन्त्यते नित्यं कस्माद्व्यग्रोऽसि मानद ॥ ४२ ॥ आस्से ध्यानपरो नित्यमृणग्रस्त इवाधनः । का चिन्ता वर्तते पुत्र मयि ताते तु तिष्ठति ॥ ४३ ॥
इस प्रकार अपने पुत्र शुकदेवको चिन्तित देखकर व्यासजी बोले-हे पुत्र ! तुम क्या चिन्ता करते रहते हो ? हे मानद ! तुम किसलिये व्याकुल रहते हो ? ऋणग्रस्त निर्धन व्यक्तिकी भौति तुम सदा चिन्ता करते रहते हो । हे पुत्र ! मुझ पिताके रहते तुम्हें किस बातकी चिन्ता हो रही है ? ॥ ४२-४३ ॥
तुम मनकी ग्लानि छोड़ो; यथेष्टरूपसे सुखोपभोग करो, शास्त्रोक्त ज्ञानका चिन्तन करो और आत्मचिन्तनमें मन लगाओ ॥ ४४ ॥
न चेन्मनसि ते शान्तिर्वचसा मम सुव्रत । गच्छ त्वं मिथिलां पुत्र पालितां जनकेन ह ॥ ४५ ॥ स ते मोहं महाभाग नाशयिष्यति भूपतिः । जनको नाम धर्मात्मा विदेहः सत्यसागरः ॥ ४६ ॥
हे सुव्रत ! यदि मेरे उपदेशसे तुम्हें शान्ति नहीं मिलती, तो राजा जनकके द्वारा पालित मिथिलापुरी चले जाओ । हे महाभाग ! वे विदेह राजा जनक तुम्हारे मोहका नाश कर देंगे; क्योंकि वे सत्यसिन्धु तथा धर्मात्मा हैं ॥ ४५-४६ ॥
तं गत्वा नृपतिं पुत्र सन्देहं स्वं निवर्तय । वर्णाश्रमाणां धर्मांस्त्वं पृच्छ पुत्र यथातथम् ॥ ४७ ॥
हे पुत्र ! उन राजाके पास जाकर तुम अपना सन्देह दूर करो और वर्णाश्रम-धर्मके रहस्यको उनसे यथार्थरूपमें पूछो ॥ ४७ ॥
जीवन्मुक्तः स राजर्षिर्बह्मज्ञानमतिः शुचिः । तथ्यवक्तातिशान्तश्च योगी योगप्रियः सदा ॥ ४८ ॥
वे राजर्षि जीवन्मुक्त, ब्रह्मज्ञानका चिन्तन करनेवाले, पवित्र, यथार्थ वक्ता, शान्तचित्त तथा सदा योगप्रिय भी हैं ॥ ४८ ॥
सूतजी बोले- परम तेजस्वी उन व्यासजीका वचन सुनकर अरणिसे उत्पन्न महातेजस्वी शुकदेवजीने उत्तर दिया । हे धर्मात्मन् ! आपके द्वारा यह जो कहा जा रहा है, उससे मेरे चित्तमें शंका उठती है कि कहीं यह दम्भ तो नहीं । जीवन्मुक्त तथा विदेह होते हुए भी राजा जनक हर्षके साथ कैसे राज्य करते हैं ? हे पिताजी ! यह बात तो वैसे ही असम्भव है जैसे किसी वन्ध्याको पुत्र हो ! अत: वे राजा जनक राज्य करते हुए भी विदेह कैसे हैं ? यह मुझे अद्भुत सन्देह हो रहा है ! ॥ ४९-५१ ॥
अब मैं नृपश्रेष्ठ विदेह जनकको देखना चाहता हूँ कि वे जलमें कमलपत्रकी भाँति संसारमें कैसे रहते हैं ? हे तात ! उनके विदेह होनेके विषयमें मुझे बड़ा सन्देह हो रहा है ! हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! सौगतोंकी भाँति वे भी मोक्षकी एक दूसरी परिभाषा तो नहीं हैं ! ॥ ५२-५३ ॥
कथं भुक्तमभुक्तं स्यादकृतं च कृतं कथम् । व्यवहारः कथं त्याज्य इन्द्रियाणां महामते ॥ ५४ ॥
हे महामते ! भला भोगा हुआ भोग अभोग और किया हुआ कर्म अकर्म कैसे हो सकता है ? इन्द्रियोंका सहज व्यवहार कैसे छोड़ा जा सकता है ? ॥ ५४ ॥
माता पुत्रस्तथा भार्या भगिनी कुलटा तथा । भेदाभेदः कथं न स्याद्यद्येतन्मुक्तता कथम् ॥ ५५ ॥
एक पुत्रका अपनी माता, पत्नी, बहन तथा किसी असती स्त्रीके साथ भेद-अभेदका सम्बन्ध क्यों नहीं होगा ? और ऐसा होनेपर जीवन्मुक्तता कैसी ? ॥ ५५ ॥
कटु क्षारं तथा तीक्ष्णां कषायं मिष्टमेव च । रसना यदि जानाति भुंक्ते भोगाननुत्तमान् ॥ ५६ ॥ शीतोष्णुसुखदुःखादिपरिज्ञानं यदा भवेत् । मुक्तता कीदृशी तात सन्देहोऽयं ममाद्भुतः ॥ ५७ ॥
यदि जिला कटु, क्षार, तीक्ष्ण, कषाय, मधुर आदि स्वादोंको जानती है तो वे अच्छे-अच्छे पदार्थोका रसास्वादन करते ही होंगे । यदि शीत, उष्ण, सुख-दुःखका परिज्ञान उन्हें होता होगा तो भला यह मुक्तता कैसी ? हे तात ! मुझे यह अद्भुत सन्देह हो रहा है ! ॥ ५६-५७ ॥
शत्रुमित्रपरिज्ञानं वैरं प्रीतिकरं सदा । व्यवहारे परे तिष्ठन्कथं न कुरुते नृपः ॥ ५८ ॥ चौरं वा तापसं वापि समानं मन्यते कथम् । असमा यदि बुद्धिः स्यान्मुक्तता तर्हि कीदृशी ॥ ५९ ॥
शत्रु और मित्रको पहचानकर उनके साथ वैर अथवा प्रीतिका व्यवहार किया जाता है, तो राज्यसिंहासनपर बैठे हुए राजा जनक शत्रुता या मित्रताका व्यवहार क्या नहीं रखते होंगे ? उनके राज्यमें साधु और चोर समान कैसे समझे जाते हैं ? यदि उनके प्रति समान बुद्धि नहीं है, तब भला वह जीवन्मुक्तता कैसी ? ॥ ५८-५९ ॥
दृष्टपूर्वो न मे कश्चिज्जीवन्मुक्तश्च भूपतिः । शङ्केयं महती तात गृहे मुक्तः कथं नृपः ॥ ६० ॥ दिदृक्षा महती जाता श्रुत्वा तं भूपतिं तथा । सन्देहविनिवृत्त्यर्थं गच्छामि मिथिलां प्रति ॥ ६१ ॥
ऐसा जीवन्मुक्त कोई राजा मेरे द्वारा पहले देखा नहीं गया । हे तात ! यह बहुत बड़ी शंका है कि वे राजा जनक घरमें रहकर भी मुक्त कैसे हैं ? उन राजाके विषयमें सुनकर उन्हें देखनेकी बड़ी लालसा उत्पन्न हो गयी है । अतः सन्देह-निवृत्तिके लिये मैं मिथिलापुरी जा रहा हूँ ॥ ६०-६१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकं प्रति व्यासोपदेशवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥