ऋषिगण बोले-[हे सूतजी !] आपकी यह बात आश्चर्यजनक एवं रहस्यपूर्ण है । इस सम्बन्धमें हम सब तपस्वियोंको महान् सन्देह उत्पन्न हो गया है ॥ १ ॥
माता व्यासस्य मेधाविन्नाम्ना सत्यवतीति च । विवाहिता पुरा ज्ञाता राज्ञा शन्तनुना यथा ॥ २ ॥ तस्याः पुत्रः कथं व्यासः सती स्वभवने स्थिता । ईदृशी सा कथं राज्ञा पुनः शन्तनुना वृता ॥ ३ ॥ तस्यां पुत्रावुभौ जातौ तत्त्वं कथय सुव्रत । विस्तरेण महाभाग कथां परमपावनीम् ॥ ४ ॥ उत्पत्तिं वद व्यासस्य सत्यवत्यास्तथा पुनः । श्रोतुकामाः पुनः सर्वे ऋषयः संशितव्रताः ॥ ५ ॥
हे मेधाविन् ! पूर्वकालमें सत्यवती नामसे विख्यात व्यासजीकी माताका राजा शन्तनुके साथ जिस प्रकार विवाह हुआ, उन सतीके अपने घरमें रहते हुए भी उनसे पुत्ररूपमें व्यास कैसे उत्पन्न हुए, ऐसी सत्यवतीका शन्तनुने पुन: वरण कैसे किया और उनसे दो पुत्रोंकी उत्पत्ति कैसे हुई ? हे सुव्रत ! हे महाभाग ! आप इस परम पावन कथाको विस्तारपूर्वक कहिये । आप व्यासजी तथा सत्यवतीकी उत्पत्तिका वर्णन कीजिये हम सभी व्रतधारी ऋषि इस विषयमें सुननेके लिये उत्सुक हैं ॥ २-५ ॥
सूतजी बोले-मैं चतुर्वर्ग [धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] प्रदान करनेवाली परमा आदिशक्तिको प्रणाम करके यह शुभ पौराणिक कथा कहूँगा ॥ ६ ॥
यस्योच्चारणमात्रेण सिद्धिर्भवति शाश्वती । व्याजेनापि हि बीजस्य वाग्भवस्य विशेषतः ॥ ७ ॥ सम्यक् सर्वात्मना सर्वैः सर्वकामार्थसिद्धये । स्मर्तव्या सर्वथा देवी वाञ्छितार्थप्रदायिनी ॥ ८ ॥
जिनके विशिष्ट वाग्भव बीजमन्त्र (ऐं)-का किसी भी बहानेसे उच्चारण करते ही शाश्वती सिद्धि प्राप्त हो जाती है, उन इच्छित फल देनेवाली भगवतीका सभी लोगोंको अपनी समस्त कामनाएँ पूर्ण करनेके लिये समर्पण भावसे सम्यक् स्मरण करना चाहिये ॥ ७-८ ॥
राजोपरिचरो नाम धार्मिकः सत्यसङ्गरः । चेदिदेशपतिः श्रीमान् बभूव द्विजपूजकः ॥ ९ ॥ तपसा तस्य तुष्टेन विमानं स्फाटिकं शुभम् । दत्तमिन्द्रेण तत्तस्मै सुन्दरं प्रियकाम्यया ॥ १० ॥
उपरिचर नामके एक सत्यवादी, धर्मात्मा, ब्राह्मणपूजक तथा श्रीमान् राजा हुए, जो चेदि देशके शासक थे । उनकी तपस्यासे सन्तुष्ट होकर देवराज इन्द्रने उन्हें प्रसन्न करनेके लिये स्फटिक मणिका बना हुआ एक सुन्दर तथा दिव्य विमान दिया ॥ ९-१० ॥
तेनारूढस्तु सर्वत्र याति दिव्येन भूपतिः । न भूमावुपरिस्थोऽसौ तेनोपरिचरो वसुः ॥ ११ ॥ विख्यातः सर्वलोकेषु धर्मनित्यः स भूपतिः । तस्य भार्या वरारोहा गिरिका नाम सुन्दरी ॥ १२ ॥
उस दिव्य विमानपर चढ़कर चेदिराज सर्वत्र विचरण करते थे । वे कभी भूमिपर न उतरने तथा पृथ्वीसे ऊपर-ही-ऊपर चलनेके कारण सभी लोकोंमें 'उपरिचर' वसुके नामसे प्रसिद्ध हुए । वे राजा अत्यन्त धर्मपरायण थे । उनकी धर्मपत्नीका नाम गिरिका था, जो रूपवती तथा सुन्दरी थी ॥ ११-१२ ॥
महाराज उपरिचरके पाँच पुत्र हुए जो बड़े महान् वीर एवं परम प्रतापी थे । [यथासमय उन्होंने अपने राजकुमारोंको अलग-अलग देशोंका राजा बना दिया ॥ १३ ॥
वसोस्तु पत्नी गिरिका कामान् काले न्यवेदयत् । ऋतुकालमनुप्राप्ता स्नाता पुंसवने शुचिः ॥ १४ ॥ तदहः पितरश्चैनमूचुर्जहि मृगानिति । तच्छ्रुत्वा चिन्तयामास भार्यामृतुमतीं तथा ॥ १५ ॥ पितृवाक्यं गुरुं मत्वा कर्तव्यमिति निश्चितम् । चचार मृगयां राजा गिरिकां मनसा स्मरन् ॥ १६ ॥
एक बार राजा वसुकी पत्नी गिरिकाने ऋतुकालके स्नानसे पवित्र होकर राजासे पुत्रप्राप्तिकी कामना की । जिस समय वह प्रार्थना करने लगी, उसी समय उनके पितरोंने उन राजासे कहा- हे राजन् ! मृगोंको मार लाओ-इस आदेशको सुनकर राजाको अपनी ऋतुमती पत्नीका भी स्मरण हो आया, किंतु पितरोंकी आज्ञा श्रेष्ठ मानकर तथा अपने कर्तव्यका निश्चयकर राजा मनही-मन गिरिकाका स्मरण करते हुए आखेटके लिये चल पड़े ॥ १४-१६ ॥
वने स्थितः स राजर्षिश्चित्ते सस्मार भामिनीम् । अतीव रूपसम्पन्नां साक्षाच्छ्रियमिवापराम् ॥ १७ ॥ तस्य रेतः प्रचस्कन्द स्मरतस्तां च कामिनीम् । वटपत्रे तु तद्राजा स्कन्नमात्रं समाक्षिपत् ॥ १८ ॥
वनमें रहते हुए राजा वसु साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान रूपवती अपनी पत्नीका स्मरण करने लगे । इस प्रकार उस कामिनीके ध्यानसे एकाएक उनका वीर्य स्खलित हो गया और राजाने शीघ्र ही उस स्खलित वीर्यको बरगदके पत्तेपर रख लिया ॥ १७-१८ ॥
इदं वृथा परिस्कन्नं रेतो वै न भवेत्कथम् । ऋतुकालं च विज्ञाय मतिं चक्रे नृपस्तदा ॥ १९ ॥ अमोघं सर्वथा वीर्यं मम चैतन्न संशयः । प्रियायै प्रेषयाम्येतदिति बुद्धिमकल्पयत् ॥ २० ॥
यह स्खलित तेज व्यर्थ न हो-[यह सोचकर] तथा स्त्रीका ऋतुकाल जानकर उन्होंने ऐसा निश्चय कर लिया कि मेरा तेज सर्वथा अमोघ है, इसमें सन्देह नहीं है अतः अवश्य ही इसे मैं रानीके पास भेज दूं ॥ १९-२० ॥
राजा जब उस वीर्यको बरगदके दोनेमें रखकर अपनी रानीके पास भेजने लगे तब उन्होंने रानीका ऋतुकाल जानकर उस वीर्यको अभिमन्त्रित किया । राजाने पास ही बैठे हुए बाज पक्षीको बुलाकर उससे कहा-'हे महाभाग ! तुम इसे ग्रहण करो और शीघ्र ही मेरे घर चले जाओ । हे सौम्य ! मेरा हित करनेके लिये इसे लेकर तुम मेरे घर जाओ और इसे शीघ्र ही गिरिकाको दे देना; क्योंकि आज ही उसका ऋतुकाल है' ॥ २१-२३ ॥
सूत उवाच इत्युक्त्वा प्रददौ पर्णं श्येनाय नृपसत्तमः । स गृहीत्वोत्पपाताशु गगनं गतिवित्तमः ॥ २४ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठने बाजको वह दोना दे दिया और वह द्रुतगामी बाज भी उसे लेकर शीघ्र ही आकाशमें उड़ने लगा ॥ २४ ॥
चोंचमें पत्तेका दोना लेकर आकाशमें उड़ते हुए उस बाजको एक दूसरे बाजपक्षीने अपनी ओर आते हुए देखा ॥ २५ ॥
आमिषं स तु विज्ञाय शीघ्रमभ्यद्रवत्खगम् । तुण्डयुद्धमथाकाशे तावुभौ सम्प्रचक्रतुः ॥ २६ ॥ युद्ध्यतोरपतद्रेतस्तज्जापि यमुनाम्भसि । खगौ तौ निर्गतौ कामं पुटके पतिते तदा ॥ २७ ॥
बाजकी चोंचमें मांसका टुकड़ा समझकर तत्काल उसने उस बाजपर आक्रमण कर दिया । दोनों बाजोंके बीच आकाशमें चोंचोंसे घोर बुद्ध होने लगा । उन दोनोंके युद्ध करते समय वीर्यवाला वह दोना यमुनाजीके जलमें जा गिरा । दोनेके गिर जानेपर दोनों पक्षी वहाँसे यथेच्छ दिशामें चले गये ॥ २६-२७ ॥
एतस्मिन्समये काचिद्अद्रिका नाम चाप्सराः । ब्राह्मणं समनुप्राप्तं सन्ध्यावन्दनतत्परम् ॥ २८ ॥ कुर्वन्ती जलकेलिं सा जले मग्ना चचार सा । जग्राह चरणं नारी द्विजस्य वरवर्णिनी ॥ २९ ॥
उसी समय अद्रिका नामकी एक अप्सरा जलमें निमग्न होकर जलक्रीडा कर रही थी । उस सुन्दरी स्त्रीने वहाँपर उपस्थित सन्ध्यावन्दन करनेमें तत्पर एक ब्राह्मणको देखा और उन ब्राह्मणका पैर पकड़ लिया ॥ २८-२९ ॥
प्राणायामपरः सोऽथ दृष्ट्वा तां कामचारिणीम् । शशाप भव मत्स्यी त्वं ध्यानविघ्नकरी यतः ॥ ३० ॥ सा शप्ता विप्रमुख्येन बभूव यमुनाचरी । शफरी रूपसम्पन्ना ह्यद्रिका च वराप्सराः ॥ ३१ ॥
प्राणायाम करते हुए ब्राह्मणने उस स्वेच्छाचारिणीको देखकर उसे यह शाप दे दिया कि 'तुमने मेरे ध्यानमें विघ्न डाला है, अतएव तुम मछली हो जाओ । ' इस प्रकार ब्राहाणश्रेष्ठसे शाप पाकर वह अद्रिका नामकी रूपवती श्रेष्ठ अप्सरा मछली बनकर यमुनाके जलमें विचरने लगी ॥ ३०-३१ ॥
राजा उपरिचर वसुने वह कन्या उस मछुआरेको ही दे दी, जो आगे चलकर काली तथा मत्स्योदरी नामसे प्रसिद्ध हुई । अपने गुणविशेषके कारण वह मत्स्यगन्धा नामसे कही जाने लगी । उस मछुआरे दाशके घर वह सुन्दरी वासवी धीरे-धीरे बढ़ने लगी ॥ ३८-३९ ॥
ऋषय ऊचुः अद्रिका मुनिना शप्ता मत्स्यी जाता वराप्सराः । विदारिता च दाशेन मृता च भक्षिता पुनः ॥ ४० ॥ किं बभूव पुनस्तस्या अप्सराया वदस्व तत् । शापस्यान्तं कथं सूत कथं स्वर्गमवाप सा ॥ ४१ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! मुनिके द्वारा शापित वह अद्रिका नामकी श्रेष्ठ अप्सरा जब मछली हो गयी और मछुआरेने उसे चीर डाला, तब वह मर गयी अथवा उसने उसे खा लिया । उस अप्सराका फिर क्या हुआ ? उसके शापकी समाप्ति कैसे हुई और उसे पुनः स्वर्ग कैसे मिला ? यह बताइये । ४०-४१ ॥
दयालु ब्राह्मणने उस रोती हुई स्त्रीसे कहा-हे कल्याणि ! तुम शोक न करो, मैं तुम्हारे शापके अन्तका उपाय बताता हूँ । हे शुभे ! मैंने क्रुद्ध होकर जो शाप दिया है, उससे तुम मत्स्ययोनिको प्राप्त होओगी; किंतु तुम अपने उदरसे एक युग्म मानव-सन्तान उत्पन्नकर इस शापसे मुक्त हो जाओगी ॥ ४३-४४ ॥