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व्यासजन्मवर्णनम् -
व्याससजीकी उत्पत्ति और उनका तपस्याके लिये जाना -
सूत उवाच एकदा तीर्थयात्रायां व्रजन् पाराशरो मुनिः । आजगाम महातेजाः कालिन्द्यास्तटमुत्तमम् ॥ १ ॥ निषादमाह धर्मात्मा कुर्वन्तं भोजनं तदा । प्रापयस्व परं पारं कालिन्द्या उडुपेन माम् ॥ २ ॥
सूतजी बोले-एक बार तीर्थयात्रा करते हुए महान तेजस्वी पराशरमुनि यमुनानदीके उत्तम तटपर आये और उन धर्मात्माने भोजन करते हुए निषादसे कहामुझको नावसे यमुनाके पार पहुँचा दो ॥ १-२ ॥
मुनिका वचन सुनकर यमुनाके तटपर भोजन करते हुए उस निषादने अपनी सुन्दर युवा पुत्री मत्स्यगन्धासे कहा-'हे सुन्दर मुसकानवाली पुत्रि ! तुम इन मुनिको नावमें बैठाकर पार उतार दो; क्योंकि ये धर्मात्मा तपस्वी उस पार जानेके इच्छुक हैं ' ॥ ३-४ ॥
पिताके ऐसा कहनेपर वह सुन्दर वासवी मत्स्यगन्धा मुनिको नावमें बैठाकर खेने लगी । यमुनानदीके जलपर नावसे चलते समय दैवयोगसे प्रारब्धानुसार मुनि पराशर उस सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याको देखकर आसक्त हो गये ॥ ५-६ ॥
ग्रहीतुकामः स मुनिर्दृष्ट्वा व्यञ्जितयौवनाम् । दक्षिणेन करेणैनामस्पृशद्दक्षिणे करे ॥ ७ ॥
प्रस्फुटित यौवनवाली उस कन्याको देखकर उसे प्राप्त करनेकी इच्छावाले मुनिराजने अपनी दाहिनी भुजासे उसकी दाहिनी भुजाका स्पर्श किया ॥ ७ ॥
इसपर उस असितापांगीने मुसकराकर कहाक्या आपका यह कृत्य आपके कुल, तपस्या तथा वेदज्ञानके अनुरूप है ? हे धर्मज्ञ ! आप वसिष्ठजीके वंशज हैं और कुल तथा शीलसे युक्त हैं फिर भी कामदेवसे पीड़ित होकर आप क्या करना चाहते हैं ? ॥ ८-९ ॥
दुर्लभं मानुषं जन्म भुवि ब्राह्मणसत्तम । तत्रापि दुर्लभं मन्ये ब्राह्मणत्वं विशेषतः ॥ १० ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इस पृथ्वीपर मनुष्यजन्म दुर्लभ है । उसमें भी ब्राह्मणकलमें जन्म लेना तो मैं विशेषरूपसे दुर्लभ मानती हूँ ॥ १० ॥
कुलेन शीलेन तथा श्रुतेन द्विजोत्तमस्त्वं किल धर्मविच्च । अनार्यभावं कथमागतोऽसि विप्रेन्द्र मां वीक्ष्य च मीनगन्धाम् ॥ ११ ॥ मदीये शरीरे द्विजामोघबुद्धे ॥ शुभं किं समालोक्य पाणिं ग्रहीतुम् । समीपं समायासि कामातुरस्त्वं कथं नाभिजानासि धर्मं स्वकीयम् ॥ १२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! आप कुलसे, शीलसे तथा वेदाध्ययनसे एक धर्मपरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं ? मुझ मत्स्यगन्धाको देखकर आप अनाचारयुक्त विचारवाले कैसे हो गये ? हे अमोघ बुद्धिवाले ब्राह्मण ! मेरे शरीरमें स्थित किस विशेषताको देखकर आप मेरा हाथ पकड़नेके लिये कामासक्त होकर मेरी ओर चले आ रहे हैं ? क्या आपको अपने धर्मका ज्ञान नहीं है ? ॥ ११-१२ ॥
अहो मन्दबुद्धिर्द्विजोऽयं ग्रहीष्य- ञ्जले मग्न एवाद्य मां वै गृहीत्वा । मनो व्याकुलं पञ्चबाणातिविद्धं न कोऽपीह शक्तः प्रतीपं हि कर्तुम् ॥ १३ ॥
अहो, ये मन्दबुद्धि ब्राह्मण इस जलमें मुझे पकड़नेको आतुर हो रहे हैं । मेरा स्पर्श करके कामबाणसे आहत इनका मन व्याकुल हो उठा है । इस समय कोई भी इन्हें रोकनेमें समर्थ नहीं है ॥ १३ ॥
ऐसा सोचकर उस निषादकन्याने महामुनि पराशरसे कहा-हे महाभाग ! आप धैर्य धारण करें; मैं अभी आपको उस पार ले चलती हूँ ॥ १४ ॥
सूत उवाच पराशरस्तु तच्छ्रुत्वा वचनं हितपूर्वकम् । करं त्यक्त्वा स्थितस्तत्र सिन्धोः पारं गतः पुनः ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-मुनि पराशर उसका हितकारी वचन सुनकर उसका हाथ छोड़ करके वहीं स्थित हो गये और उस पार पहुँच गये ॥ १५ ॥
मत्स्यगन्धां प्रजग्राह मुनिः कामातुरस्तदा । वेपमाना तु सा कन्या तमुवाच पुरःस्थितम् ॥ १६ ॥ दुर्गन्धाहं मुनिश्रेष्ठ कथं त्वं नोपशङ्कसे । समानरूपयोः कामसंयोगस्तु सुखावहः ॥ १७ ॥
तदनन्तर पराशरमुनिने मत्स्यगन्धाको पकड़ लिया । तब भयसे काँपती हुई वह कन्या सम्मुखस्थित मुनिसे कहने लगी-हे मुनिवर ! मैं दुर्गन्धवाली हूँ, मुझसे क्या आपको घृणा नहीं हो रही है ? समान रूपवालोंके बीच ही परस्पर सम्बन्ध आनन्ददायक होता है ॥ १६-१७ ॥
इत्युक्तेन तु सा कन्या क्षणमात्रेण भामिनी । कृता योजनगन्धा तु सुरूपा च वरानना ॥ १८ ॥
मत्स्यगन्धाके ऐसा कहते ही पराशरमुनिने क्षणमात्रमें अपने तपोबलसे उस भामिनी कन्याको सुमुखी, रूपवती तथा योजनगन्धा बना दिया ॥ १८ ॥
मृगनाभिसुगन्धां तां कृत्वा कान्तां मनोहराम् । जग्राह दक्षिणे पाणौ मुनिर्मन्मथपीडितः ॥ १९ ॥ ग्रहीतुकामं तं प्राह नाम्ना सत्यवती शुभा । मुने पश्यति लोकोऽयं पिता चैव तटस्थितः ॥ २० ॥
उसे कस्तूरीकी सुगन्धिवाली मनोहर स्त्री बनाकर कामातुर मुनिराजने अपने दाहिने हाथसे उसे पकड़ लिया । तब सत्यवती नामवाली उस सुन्दरीने संयोगकी कामनावाले मुनिसे कहा-हे मुने ! तटपर स्थित मेरे पिता तथा सभी लोग यहाँ हमें देख रहे हैं ॥ १९-२० ॥
पशुधर्मो न मे प्रीतिं जनयत्यतिदारुणः । प्रतीक्षस्व मुनिश्रेष्ठ यावद्भवति यामिनी ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! यह भीषण पशुवत् व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता । जबतक रात नहीं हो जाती, तबतक प्रतीक्षा कीजिये ॥ २१ ॥
रात्रौ व्यवाय उद्दिष्टो दिवा न मनुजस्य हि । दिवासङ्गे महान् दोषः पश्यन्ति किल मानवाः ॥ २२ ॥
मनुष्यके लिये कामसंसर्ग रातमें ही विहित है, दिनमें नहीं । दिनमें संसर्ग करनेसे महान् दोष होता है और बहुत-से लोग उसे देख भी लेते हैं ॥ २२ ॥
कामं यच्छ महाबुद्धे लोकनिन्दा दुरासदा । तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या युक्तमुक्तमुदारधीः ॥ २३ ॥ नीहारं कल्पयामास शीघ्रं पुण्यबलेन वै । नीहारे च समुत्पन्ने तटेऽतितमसा युते ॥ २४ ॥ कामिनी तं मुनिं प्राह मृदुपूर्वमिदं वचः । कन्याहं द्विजशार्दूल भुक्त्वा गन्तासि कामतः ॥ २५ ॥ अमोघवीर्यस्त्वं ब्रह्मन् का गतिर्मे भवेदिति । पितरं किं ब्रवीम्यद्य सगर्भा चेद्भवाम्यहम् ॥ २६ ॥
हे महाबुद्धे ! अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें, लोकनिन्दा अत्यन्त कष्टकर होती है । सत्यवतीका कहा गया युक्तिसंगत वचन सुनकर उदार बुद्धिवाले पराशरमुनिने अपने पुण्यबलसे तत्क्षण कुहरा उत्पन्न कर दिया । उस कुहरेके उत्पन्न हो जानेपर अत्यन्त अन्धकारमय नदीतटपर उस कामिनीने पराशरमुनिसे मधुर वाणीमें यह वचन कहा-हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं अभी कन्या हूँ और आप मेरे साथ संसर्ग करके चले जायँगे । हे ब्रह्मन् ! आप अमोघ वीर्यवाले हैं, ऐसी स्थितिमें मेरी क्या गति होगी ? यदि मैं गर्भधारण कर लूँगी तो पिताको क्या उत्तर दूँगी ? हे ब्रह्मन् ! मेरे साथ संसर्ग करके आप चले जायेंगे तब मैं क्या करूँगी, उसे बताइये ? ॥ २३-२६ ॥
पराशर बोले-हे प्रिये ! आज मुझे प्रसन्न करके भी तुम कन्या ही बनी रहोगी । हे भामिनि ! हे भीरु ! तुम जो वर चाहती हो, उसे माँग लो ॥ २७.५ ॥
सत्यवत्युवाच यथा मे पितरौ लोके न जानीतो हि मानद ॥ २८ ॥ कन्याव्रतं न मे हन्यात्तथा कुरु द्विजोत्तम । पुत्रश्च त्वत्समः कामं भवेदद्भुतवीर्यवान् ॥ २९ ॥ गन्धोऽयं सर्वदा मे स्याद्यौवनं च नवं नवम् ।
सत्यवती बोली-हे मानद ! आप ऐसा वरदान दीजिये, जिससे मेरे माता-पिता लोकमें इसे न जान सकें । साथ ही हे विप्रवर ! आप ऐसा करें, जिससे मेरा कन्याव्रत नष्ट न हो और जो पुत्र उत्पन्न हो, वह आपहीके समान अपूर्व ओजस्वी हो, मेरी यह सुगन्ध सदा बनी रहे और मेरा यौवन नित नूतन बना रहे ॥ २८-२९.५ ॥
पराशर उवाच शृणु सुन्दरि पुत्रस्ते विष्ण्वंशसम्भवः शुचिः ॥ ३० ॥ भविष्यति च विख्यातस्त्रैलोक्ये वरवर्णिनि । केनचित्कारणेनाहं जातः कामातुरस्त्वयि ॥ ३१ ॥ कदापि च न सम्मोहो भूतपूर्वो वरानने । दृष्ट्वा चाप्सरसां रूपं सदाहं धैर्यमावहम् ॥ ३२ ॥ दैवयोगेन वीक्ष्य त्वां कामस्य वशगोऽभवम् । तत्किञ्चित्कारणं विद्धि दैवं हि दुरतिक्रमम् ॥ ३३ ॥ दृष्ट्वाहं चातिदुर्गन्धां त्वां कथं मोहमाप्नुयाम् । पुराणकर्ता पुत्रस्ते भविष्यति वरानने ॥ ३४ ॥ वेदविद्भागकर्ता च ख्यातश्च भुवनत्रये ।
पराशर बोले-हे सुन्दरि ! सुनो, तुम्हारा पुत्र पवित्र तथा भगवान् विष्णुके अंशसे अवतीर्ण होगा । हे सुन्दरि ! वह तीनों लोकोंमें विख्यात होगा । मैं तुम्हारे ऊपर किसी कारणविशेषसे ही कामासक्त हुआ हूँ । हे सुमुखि ! मुझे ऐसा मोह पूर्व में कभी नहीं हुआ । अप्सराओंके रूपको देखकर भी मैं सदा धैर्य धारण किये रहा । दैवयोगसे ही तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार कामके वशीभूत हुआ हूँ । इस विषयमें तुम कोई विशेष कारण ही समझो, दैवका अतिक्रमण अत्यन्त कठिन है, अन्यथा अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार क्यों मोहित होता ! हे वरानने ! तुम्हारा पुत्र पुराणोंका रचयिता, वेदोका विभाग करनेवाला तथा तीनों लोकोंमें विख्यात होगा ॥ ३०-३४.५ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर अपने वशमें आयी हुई उस कन्याके साथ संसर्ग करके मुनिश्रेष्ठ पराशर तत्काल यमुनानदीमें स्नानकर वहाँसे शीघ्र चले गये । वह साध्वी सत्यवती भी तत्काल गर्भवती हो गयी ॥ ३५-३६ ॥
[यथासमय] सत्यवतीने यमुनाजीके द्वीपमें दूसरे कामदेवके तुल्य एक सुन्दर पुत्रको जन्म दिया । उत्पन्न होते ही उस तेजवान् पुत्रने अपनी मातासे कहा-हे माता ! मनमें तपस्याका निश्चय करके ही अत्यन्त तेजस्वी मैं गर्भमें प्रविष्ट हुआ था । हे महाभागे ! अब आप अपनी इच्छानुसार कहीं भी चली जायँ और मैं भी यहाँसे तप करनेके लिये जा रहा हूँ । हे माता ! आपके स्मरण करनेपर मैं अवश्य ही दर्शन दूँगा । हे माता ! जब कोई उत्तम कार्य आ पड़े तब आप मेरा स्मरण कीजियेगा, मैं शीघ्र ही उपस्थित हो जाऊँगा । हे भामिनि ! आपका कल्याण हो, अब मैं चलूँगा । आप चिन्ता छोड़कर सुखपूर्वक रहिये ॥ ३७-४० ॥
ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और वह सत्यवती भी अपने पिताके पास चली गयी । सत्यवतीने बालकको यमुनाद्वीपमें जन्म दिया था । अतः वह बालक 'द्वैपायन' नामसे विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥
इस प्रकार पराशरमुनिके द्वारा सत्यवतीके गर्भसे द्वैपायन उत्पन्न हुए और उन्होंने ही कलियुगको आया जानकर वेदोंको अनेक शाखाओंमें विभक्त किया, वेदोंका विस्तार करनेके कारण ही उन मुनिका नाम 'व्यास' पड़ गया । उन्होंने ही विभिन्न पुराणसंहिताओं तथा श्रेष्ठ महाभारतको रचना की । उन्होंने ही वेदोंके अनेक विभाग करके उसे अपने शिष्यों-सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, असित, देवल और अपने पुत्र शुकदेवजीको पढ़ाया ॥ ४३-४५.५ ॥
सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ मुनियो ! मैंने यह सब उत्पत्तिका कारण आपलोगोंसे बता दिया, साथ ही सत्यवतीके पुत्र व्यासजीकी पवित्र उत्पत्तिका वर्णन कर दिया है । हे श्रेष्ठ मुनिगण ! व्यासजीकी इस उत्पत्तिके विषयमें आपलोगोंको सन्देह नहीं करना चाहिये । महापुरुषोंके चरितसे केवल गुण ही ग्रहण करना चाहिये । किसी विशेष कारणसे ही मुनि व्यासका तथा मछलीके उदरसे सत्यवतीका जन्म, पराशरमुनिके साथ उनका संयोग और फिर राजा शन्तनुके साथ उनका विवाह हुआ । अन्यथा मुनि पराशरका चित्त कामासक्त ही क्यों होता ? और धर्मके ज्ञाता वे महामुनि पराशर अनार्य लोगोंद्वारा आचरित किया जानेवाला ऐसा कृत्य क्यों करते ! किसी विशेष कारणसे युक्त तथा आश्चर्यकारिणी यह उत्पत्ति मैंने बता दी, जिसे सुनकर मनुष्य निश्चितरूपसे पापसे मुक्त हो जाता है । जो श्रुतिपरायण मनुष्य इस शुभ आख्यानको सुनता है; वह दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है तथा सर्वदा सुखी रहता है । ४६-५२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे व्यासजन्मवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥