Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


व्यासजन्मवर्णनम् -
व्याससजीकी उत्पत्ति और उनका तपस्याके लिये जाना -


सूत उवाच
एकदा तीर्थयात्रायां व्रजन् पाराशरो मुनिः ।
आजगाम महातेजाः कालिन्द्यास्तटमुत्तमम् ॥ १ ॥
निषादमाह धर्मात्मा कुर्वन्तं भोजनं तदा ।
प्रापयस्व परं पारं कालिन्द्या उडुपेन माम् ॥ २ ॥
सूतजी बोले-एक बार तीर्थयात्रा करते हुए महान तेजस्वी पराशरमुनि यमुनानदीके उत्तम तटपर आये और उन धर्मात्माने भोजन करते हुए निषादसे कहामुझको नावसे यमुनाके पार पहुँचा दो ॥ १-२ ॥

दाशः श्रुत्वा मुनेर्वाक्यं कुर्वाणो भोजनं तटे ।
उवाच तां सुतां बालां मत्स्यगन्धां मनोरमाम् ॥ ३ ॥
उडुपेन मुनिं बाले परं पारं नयस्व ह ।
गन्तुकामोऽस्ति धर्मात्मा तापसोऽयं शुचिस्मिते ॥ ४ ॥
मुनिका वचन सुनकर यमुनाके तटपर भोजन करते हुए उस निषादने अपनी सुन्दर युवा पुत्री मत्स्यगन्धासे कहा-'हे सुन्दर मुसकानवाली पुत्रि ! तुम इन मुनिको नावमें बैठाकर पार उतार दो; क्योंकि ये धर्मात्मा तपस्वी उस पार जानेके इच्छुक हैं ' ॥ ३-४ ॥

इत्युक्ता सा तदा पित्रा मत्स्यगन्धाथ वासवी ।
उडुपे मुनिमासीनं संवाहयति भामिनी ॥ ५ ॥
व्रजन् सूर्यसुतातोये भावित्वाद्दैवयोगतः ।
कामार्तस्तु मुनिर्जातो दृष्ट्वा तां चारुलोचनाम् ॥ ६ ॥
पिताके ऐसा कहनेपर वह सुन्दर वासवी मत्स्यगन्धा मुनिको नावमें बैठाकर खेने लगी । यमुनानदीके जलपर नावसे चलते समय दैवयोगसे प्रारब्धानुसार मुनि पराशर उस सुन्दर नेत्रोंवाली कन्याको देखकर आसक्त हो गये ॥ ५-६ ॥

ग्रहीतुकामः स मुनिर्दृष्ट्वा व्यञ्जितयौवनाम् ।
दक्षिणेन करेणैनामस्पृशद्दक्षिणे करे ॥ ७ ॥
प्रस्फुटित यौवनवाली उस कन्याको देखकर उसे प्राप्त करनेकी इच्छावाले मुनिराजने अपनी दाहिनी भुजासे उसकी दाहिनी भुजाका स्पर्श किया ॥ ७ ॥

तमुवाचासितापाङ्गी स्मितपूर्वमिदं वचः ।
कुलस्य सदृशं वः किं श्रुतस्य तपसश्च किम् ॥ ८ ॥
त्वं वै वसिष्ठदायादः कुलशीलसमन्वितः ।
किं चिकीर्षसि धर्मज्ञ मन्मथेन प्रपीडितः ॥ ९ ॥
इसपर उस असितापांगीने मुसकराकर कहाक्या आपका यह कृत्य आपके कुल, तपस्या तथा वेदज्ञानके अनुरूप है ? हे धर्मज्ञ ! आप वसिष्ठजीके वंशज हैं और कुल तथा शीलसे युक्त हैं फिर भी कामदेवसे पीड़ित होकर आप क्या करना चाहते हैं ? ॥ ८-९ ॥

दुर्लभं मानुषं जन्म भुवि ब्राह्मणसत्तम ।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये ब्राह्मणत्वं विशेषतः ॥ १० ॥
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इस पृथ्वीपर मनुष्यजन्म दुर्लभ है । उसमें भी ब्राह्मणकलमें जन्म लेना तो मैं विशेषरूपसे दुर्लभ मानती हूँ ॥ १० ॥

कुलेन शीलेन तथा श्रुतेन
     द्विजोत्तमस्त्वं किल धर्मविच्च ।
अनार्यभावं कथमागतोऽसि
     विप्रेन्द्र मां वीक्ष्य च मीनगन्धाम् ॥ ११ ॥
मदीये शरीरे द्विजामोघबुद्धे ॥
     शुभं किं समालोक्य पाणिं ग्रहीतुम् ।
समीपं समायासि कामातुरस्त्वं
     कथं नाभिजानासि धर्मं स्वकीयम् ॥ १२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! आप कुलसे, शीलसे तथा वेदाध्ययनसे एक धर्मपरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं ? मुझ मत्स्यगन्धाको देखकर आप अनाचारयुक्त विचारवाले कैसे हो गये ? हे अमोघ बुद्धिवाले ब्राह्मण ! मेरे शरीरमें स्थित किस विशेषताको देखकर आप मेरा हाथ पकड़नेके लिये कामासक्त होकर मेरी ओर चले आ रहे हैं ? क्या आपको अपने धर्मका ज्ञान नहीं है ? ॥ ११-१२ ॥

अहो मन्दबुद्धिर्द्विजोऽयं ग्रहीष्य-
     ञ्जले मग्न एवाद्य मां वै गृहीत्वा ।
मनो व्याकुलं पञ्चबाणातिविद्धं
     न कोऽपीह शक्तः प्रतीपं हि कर्तुम् ॥ १३ ॥
अहो, ये मन्दबुद्धि ब्राह्मण इस जलमें मुझे पकड़नेको आतुर हो रहे हैं । मेरा स्पर्श करके कामबाणसे आहत इनका मन व्याकुल हो उठा है । इस समय कोई भी इन्हें रोकनेमें समर्थ नहीं है ॥ १३ ॥

इति सञ्चिन्त्य सा बाला तमुवाच महामुनिम् ।
धैर्यं कुरु महाभाग परं पारं नयामि वै ॥ १४ ॥
ऐसा सोचकर उस निषादकन्याने महामुनि पराशरसे कहा-हे महाभाग ! आप धैर्य धारण करें; मैं अभी आपको उस पार ले चलती हूँ ॥ १४ ॥

सूत उवाच
पराशरस्तु तच्छ्रुत्वा वचनं हितपूर्वकम् ।
करं त्यक्त्वा स्थितस्तत्र सिन्धोः पारं गतः पुनः ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-मुनि पराशर उसका हितकारी वचन सुनकर उसका हाथ छोड़ करके वहीं स्थित हो गये और उस पार पहुँच गये ॥ १५ ॥

मत्स्यगन्धां प्रजग्राह मुनिः कामातुरस्तदा ।
वेपमाना तु सा कन्या तमुवाच पुरःस्थितम् ॥ १६ ॥
दुर्गन्धाहं मुनिश्रेष्ठ कथं त्वं नोपशङ्कसे ।
समानरूपयोः कामसंयोगस्तु सुखावहः ॥ १७ ॥
तदनन्तर पराशरमुनिने मत्स्यगन्धाको पकड़ लिया । तब भयसे काँपती हुई वह कन्या सम्मुखस्थित मुनिसे कहने लगी-हे मुनिवर ! मैं दुर्गन्धवाली हूँ, मुझसे क्या आपको घृणा नहीं हो रही है ? समान रूपवालोंके बीच ही परस्पर सम्बन्ध आनन्ददायक होता है ॥ १६-१७ ॥

इत्युक्तेन तु सा कन्या क्षणमात्रेण भामिनी ।
कृता योजनगन्धा तु सुरूपा च वरानना ॥ १८ ॥
मत्स्यगन्धाके ऐसा कहते ही पराशरमुनिने क्षणमात्रमें अपने तपोबलसे उस भामिनी कन्याको सुमुखी, रूपवती तथा योजनगन्धा बना दिया ॥ १८ ॥

मृगनाभिसुगन्धां तां कृत्वा कान्तां मनोहराम् ।
जग्राह दक्षिणे पाणौ मुनिर्मन्मथपीडितः ॥ १९ ॥
ग्रहीतुकामं तं प्राह नाम्ना सत्यवती शुभा ।
मुने पश्यति लोकोऽयं पिता चैव तटस्थितः ॥ २० ॥
उसे कस्तूरीकी सुगन्धिवाली मनोहर स्त्री बनाकर कामातुर मुनिराजने अपने दाहिने हाथसे उसे पकड़ लिया । तब सत्यवती नामवाली उस सुन्दरीने संयोगकी कामनावाले मुनिसे कहा-हे मुने ! तटपर स्थित मेरे पिता तथा सभी लोग यहाँ हमें देख रहे हैं ॥ १९-२० ॥

पशुधर्मो न मे प्रीतिं जनयत्यतिदारुणः ।
प्रतीक्षस्व मुनिश्रेष्ठ यावद्‌भवति यामिनी ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! यह भीषण पशुवत् व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता । जबतक रात नहीं हो जाती, तबतक प्रतीक्षा कीजिये ॥ २१ ॥

रात्रौ व्यवाय उद्दिष्टो दिवा न मनुजस्य हि ।
दिवासङ्गे महान् दोषः पश्यन्ति किल मानवाः ॥ २२ ॥
मनुष्यके लिये कामसंसर्ग रातमें ही विहित है, दिनमें नहीं । दिनमें संसर्ग करनेसे महान् दोष होता है और बहुत-से लोग उसे देख भी लेते हैं ॥ २२ ॥

कामं यच्छ महाबुद्धे लोकनिन्दा दुरासदा ।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या युक्तमुक्तमुदारधीः ॥ २३ ॥
नीहारं कल्पयामास शीघ्रं पुण्यबलेन वै ।
नीहारे च समुत्पन्ने तटेऽतितमसा युते ॥ २४ ॥
कामिनी तं मुनिं प्राह मृदुपूर्वमिदं वचः ।
कन्याहं द्विजशार्दूल भुक्त्वा गन्तासि कामतः ॥ २५ ॥
अमोघवीर्यस्त्वं ब्रह्मन् का गतिर्मे भवेदिति ।
पितरं किं ब्रवीम्यद्य सगर्भा चेद्‌भवाम्यहम् ॥ २६ ॥
हे महाबुद्धे ! अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें, लोकनिन्दा अत्यन्त कष्टकर होती है । सत्यवतीका कहा गया युक्तिसंगत वचन सुनकर उदार बुद्धिवाले पराशरमुनिने अपने पुण्यबलसे तत्क्षण कुहरा उत्पन्न कर दिया । उस कुहरेके उत्पन्न हो जानेपर अत्यन्त अन्धकारमय नदीतटपर उस कामिनीने पराशरमुनिसे मधुर वाणीमें यह वचन कहा-हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं अभी कन्या हूँ और आप मेरे साथ संसर्ग करके चले जायँगे । हे ब्रह्मन् ! आप अमोघ वीर्यवाले हैं, ऐसी स्थितिमें मेरी क्या गति होगी ? यदि मैं गर्भधारण कर लूँगी तो पिताको क्या उत्तर दूँगी ? हे ब्रह्मन् ! मेरे साथ संसर्ग करके आप चले जायेंगे तब मैं क्या करूँगी, उसे बताइये ? ॥ २३-२६ ॥

त्वं गमिष्यसि भुक्त्वा मां किं करोमि वदस्व तत् ।
पराशर उवाच
कान्तेऽद्य मत्प्रियं कृत्वा कन्यैव त्वं भविष्यसि ॥ २७ ॥
वृणीष्व च वरं भीरु यं त्वमिच्छसि भामिनि ।
पराशर बोले-हे प्रिये ! आज मुझे प्रसन्न करके भी तुम कन्या ही बनी रहोगी । हे भामिनि ! हे भीरु ! तुम जो वर चाहती हो, उसे माँग लो ॥ २७.५ ॥

सत्यवत्युवाच
यथा मे पितरौ लोके न जानीतो हि मानद ॥ २८ ॥
कन्याव्रतं न मे हन्यात्तथा कुरु द्विजोत्तम ।
पुत्रश्च त्वत्समः कामं भवेदद्‌भुतवीर्यवान् ॥ २९ ॥
गन्धोऽयं सर्वदा मे स्याद्यौवनं च नवं नवम् ।
सत्यवती बोली-हे मानद ! आप ऐसा वरदान दीजिये, जिससे मेरे माता-पिता लोकमें इसे न जान सकें । साथ ही हे विप्रवर ! आप ऐसा करें, जिससे मेरा कन्याव्रत नष्ट न हो और जो पुत्र उत्पन्न हो, वह आपहीके समान अपूर्व ओजस्वी हो, मेरी यह सुगन्ध सदा बनी रहे और मेरा यौवन नित नूतन बना रहे ॥ २८-२९.५ ॥

पराशर उवाच
शृणु सुन्दरि पुत्रस्ते विष्ण्वंशसम्भवः शुचिः ॥ ३० ॥
भविष्यति च विख्यातस्त्रैलोक्ये वरवर्णिनि ।
केनचित्कारणेनाहं जातः कामातुरस्त्वयि ॥ ३१ ॥
कदापि च न सम्मोहो भूतपूर्वो वरानने ।
दृष्ट्वा चाप्सरसां रूपं सदाहं धैर्यमावहम् ॥ ३२ ॥
दैवयोगेन वीक्ष्य त्वां कामस्य वशगोऽभवम् ।
तत्किञ्चित्कारणं विद्धि दैवं हि दुरतिक्रमम् ॥ ३३ ॥
दृष्ट्वाहं चातिदुर्गन्धां त्वां कथं मोहमाप्नुयाम् ।
पुराणकर्ता पुत्रस्ते भविष्यति वरानने ॥ ३४ ॥
वेदविद्‌भागकर्ता च ख्यातश्च भुवनत्रये ।
पराशर बोले-हे सुन्दरि ! सुनो, तुम्हारा पुत्र पवित्र तथा भगवान् विष्णुके अंशसे अवतीर्ण होगा । हे सुन्दरि ! वह तीनों लोकोंमें विख्यात होगा । मैं तुम्हारे ऊपर किसी कारणविशेषसे ही कामासक्त हुआ हूँ । हे सुमुखि ! मुझे ऐसा मोह पूर्व में कभी नहीं हुआ । अप्सराओंके रूपको देखकर भी मैं सदा धैर्य धारण किये रहा । दैवयोगसे ही तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार कामके वशीभूत हुआ हूँ । इस विषयमें तुम कोई विशेष कारण ही समझो, दैवका अतिक्रमण अत्यन्त कठिन है, अन्यथा अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार क्यों मोहित होता ! हे वरानने ! तुम्हारा पुत्र पुराणोंका रचयिता, वेदोका विभाग करनेवाला तथा तीनों लोकोंमें विख्यात होगा ॥ ३०-३४.५ ॥

सूत उवाच
इत्युक्त्वा तां वशं यातां भुक्त्वा स मुनिसत्तमः ॥ ३५ ॥
जगाम तरसा स्नात्वा कालिन्दीसलिले मुनिः ।
सापि सत्यवती जाता सद्यो गर्भवती सती ॥ ३६ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर अपने वशमें आयी हुई उस कन्याके साथ संसर्ग करके मुनिश्रेष्ठ पराशर तत्काल यमुनानदीमें स्नानकर वहाँसे शीघ्र चले गये । वह साध्वी सत्यवती भी तत्काल गर्भवती हो गयी ॥ ३५-३६ ॥

सुषुवे यमुनाद्वीपे पुत्रं काममिवापरम् ।
जातमात्रस्तु तेजस्वी तामुवाच स्वमातरम् ॥ ३७ ॥
तपस्येव मनः कृत्वा विविशे चातिवीर्यवान् ।
गच्छ मातर्यथाकामं गच्छाम्यहमतः परम् ॥ ३८ ॥
तपः कर्तुं महाभागे दर्शयिष्यामि वै स्मृतः ।
मातर्यदा भवेत्कार्यं तव किञ्चिदनुत्तमम् ॥ ३९ ॥
स्मर्तव्योऽहं तदा शीघ्रमागमिष्यामि भामिनि ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि त्यक्त्वा चिन्तां सुखं वस ॥ ४० ॥
[यथासमय] सत्यवतीने यमुनाजीके द्वीपमें दूसरे कामदेवके तुल्य एक सुन्दर पुत्रको जन्म दिया । उत्पन्न होते ही उस तेजवान् पुत्रने अपनी मातासे कहा-हे माता ! मनमें तपस्याका निश्चय करके ही अत्यन्त तेजस्वी मैं गर्भमें प्रविष्ट हुआ था । हे महाभागे ! अब आप अपनी इच्छानुसार कहीं भी चली जायँ और मैं भी यहाँसे तप करनेके लिये जा रहा हूँ । हे माता ! आपके स्मरण करनेपर मैं अवश्य ही दर्शन दूँगा । हे माता ! जब कोई उत्तम कार्य आ पड़े तब आप मेरा स्मरण कीजियेगा, मैं शीघ्र ही उपस्थित हो जाऊँगा । हे भामिनि ! आपका कल्याण हो, अब मैं चलूँगा । आप चिन्ता छोड़कर सुखपूर्वक रहिये ॥ ३७-४० ॥

इत्युक्त्वा निर्ययौ व्यासः सापि पित्रन्तिकं गता ।
द्वीपे न्यस्तस्तया बालस्तस्माद्‌द्वैपायनोऽभवत् ॥ ४१ ॥
ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और वह सत्यवती भी अपने पिताके पास चली गयी । सत्यवतीने बालकको यमुनाद्वीपमें जन्म दिया था । अतः वह बालक 'द्वैपायन' नामसे विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥

जातमात्रो जगामाशु वृद्धिं विष्ण्वंशयोगतः ।
तीर्थे तीर्थे कृतस्तानश्चचार तप उत्तमम् ॥ ४२ ॥
विष्णुभगवानके अंशावतार होनेके कारण वह बालक उत्पन्न होते ही शीघ्र बड़ा हो गया तथा अनेक तीथों में स्नान करता हुआ उत्तम तप करने लगा ॥ ४२ ॥

एवं द्वैपायनो जज्ञे सत्यवत्यां पराशरात् ।
चकार वेदशाखाश्च प्राप्तं ज्ञात्वा कलेर्युगम् ॥ ४३ ॥
वेदविस्तारकरणाद्व्यासनामाभवन्मुनिः ।
पुराणसंहिताश्चक्रे महाभारतमुत्तमम् ॥ ४४ ॥
शिष्यानध्यापयामास वेदान्कृत्वा विभागशः ।
सुमन्तुं जैमिनिं पैलं वैशम्पायनमेव च ॥ ४५ ॥
असितं देवलं चैव शुकं चैव स्वमात्मजम् ।
इस प्रकार पराशरमुनिके द्वारा सत्यवतीके गर्भसे द्वैपायन उत्पन्न हुए और उन्होंने ही कलियुगको आया जानकर वेदोंको अनेक शाखाओंमें विभक्त किया, वेदोंका विस्तार करनेके कारण ही उन मुनिका नाम 'व्यास' पड़ गया । उन्होंने ही विभिन्न पुराणसंहिताओं तथा श्रेष्ठ महाभारतको रचना की । उन्होंने ही वेदोंके अनेक विभाग करके उसे अपने शिष्यों-सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, असित, देवल और अपने पुत्र शुकदेवजीको पढ़ाया ॥ ४३-४५.५ ॥

सूत उवाच
एतच्च कथितं सर्वं कारणं मुनिसत्तमाः ॥ ४६ ॥
सत्यवत्याः सुतस्यापि समुत्पत्तिस्तथा शुभा ।
संशयोऽत्र न कर्तव्यः सम्भवे मुनिसत्तमाः ॥ ४७ ॥
महतां चरिते चैव गुणा ग्राह्या मुनेरिति ।
कारणाच्च समुत्पत्तिः सत्यवत्या झषोदरे ॥ ४८ ॥
पराशरेण संयोगः पुनः शन्तनुना तथा ।
अन्यथा तु मुनेश्चित्तं कथं कामाकुलं भवेत् ॥ ४९ ॥
अनार्यजुष्टं धर्मज्ञः कृतवान्स कथं मुनिः ।
सकारणेयमुत्पत्तिः कथिताश्चर्यकारिणी ॥ ५० ॥
श्रुत्वा पापाच्च निर्मुक्तो नरो भवति सर्वथा ।
य एतच्छुभमाख्यानं शृणोति श्रुतिमान्नरः ॥ ५१ ॥
न दुर्गतिमवाप्नोति सुखी भवति सर्वदा ॥ ५२ ॥
सूतजी बोले-हे श्रेष्ठ मुनियो ! मैंने यह सब उत्पत्तिका कारण आपलोगोंसे बता दिया, साथ ही सत्यवतीके पुत्र व्यासजीकी पवित्र उत्पत्तिका वर्णन कर दिया है । हे श्रेष्ठ मुनिगण ! व्यासजीकी इस उत्पत्तिके विषयमें आपलोगोंको सन्देह नहीं करना चाहिये । महापुरुषोंके चरितसे केवल गुण ही ग्रहण करना चाहिये । किसी विशेष कारणसे ही मुनि व्यासका तथा मछलीके उदरसे सत्यवतीका जन्म, पराशरमुनिके साथ उनका संयोग और फिर राजा शन्तनुके साथ उनका विवाह हुआ । अन्यथा मुनि पराशरका चित्त कामासक्त ही क्यों होता ? और धर्मके ज्ञाता वे महामुनि पराशर अनार्य लोगोंद्वारा आचरित किया जानेवाला ऐसा कृत्य क्यों करते ! किसी विशेष कारणसे युक्त तथा आश्चर्यकारिणी यह उत्पत्ति मैंने बता दी, जिसे सुनकर मनुष्य निश्चितरूपसे पापसे मुक्त हो जाता है । जो श्रुतिपरायण मनुष्य इस शुभ आख्यानको सुनता है; वह दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता है तथा सर्वदा सुखी रहता है । ४६-५२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे व्यासजन्मवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अध्याय दुसरा समाप्त


GO TOP