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भुवनेश्वरीवर्णनम् -
राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना -
जनमेजय उवाच - भगवन् भवता प्रोक्तं यज्ञमम्बाभिधं महत् । सा का कथं समुत्पन्ना कुत्र कस्माच्च किंगुणा ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे भगवन् ! आपने महान् अम्बा-यज्ञके विषय में कहा है । वे अम्बा कौन हैं, वे कैसे, कहाँ और किसलिये उत्पन्न हुई हैं और वे कौन-कौनसे गुणोंवाली हैं ? ॥ १ ॥
कीदृशश्च मखस्तस्याः स्वरूपं कीदृशं तथा । विधानं विधिवद्ब्रूहि सर्वज्ञोऽसि दयानिधे ॥ २ ॥
उनका यह यज्ञ कैसा है और उसका क्या स्वरूप है ? हे दयानिधान ! आप सब कुछ जाननेवाले हैं; उस यज्ञका विधान सम्यक् रूपसे बताइये ॥ २ ॥
हे ब्रह्मन् ! आप विस्तारपूर्वक ब्रह्माण्डकी उत्पत्तिका भी वर्णन कीजिये । हे भूसुर ! इस विषयमें अन्य ज्ञानियोंने जैसा कहा है, वह सब कुछ भी आप भलीभांति जानते हैं ॥ ३ ॥
हे मुने ! क्या वे हर्ष, शोक आदि द्वन्द्वोंसे युक्त हैं, क्या वे निद्रा एवं प्रमाद आदिसे प्रभावित हैं तथा क्या उनके शरीर सप्त धातुओं (अन्नरस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य)-से निर्मित हैं अथवा नहीं ? ॥ ८ ॥
कैर्द्रव्यैर्निर्मितास्ते वै कैर्गुणैरिन्द्रियैस्तथा । भोगश्च कीदृशस्तेषां प्रमाणमायुषस्तथा ॥ ९ ॥
वे किन द्रव्योंसे निर्मित हैं, वे किन-किन गुणोंको धारण करते हैं, उनमें कौन-कौन-सी इन्द्रियाँ अवस्थित हैं, उनका भोग कैसा होता है तथा उनकी आयुका परिमाण क्या है ? ॥ ९ ॥
निवासस्थानमप्येषां विभूतिं च वदस्व मे । श्रोतुमिच्छाम्यहं ब्रह्मन् विस्तरेण कथामिमाम् ॥ १० ॥
इनके निवास स्थान एवं विभूतियोंके भी विषयमें मुझको बतलाइये । हे ब्रह्मन् ! इस कथाको विस्तारपूर्वक सुननेकी मेरी अभिलाषा है ॥ १० ॥
व्यास उवाच - दुर्गमः प्रश्नभारोऽयं कृतो राजंस्त्वयाऽधुना । ब्रह्मादीनां समुत्पत्तिः कस्मादिति महामते ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-हे महामति राजन् ! ब्रह्मादि देवोंकी उत्पत्ति किससे हुई, इस समय आपने यह बड़ा दुर्गम प्रश्न किया है ॥ ११ ॥
हे महामति मुनिदेव ! इस अति विस्तीर्ण ब्रह्माण्डका प्रधान कर्ता कौन कहा गया है ? उसे आप मुझे सम्यक् रूपसे बताइये ॥ १६ ॥
कस्मादेतत्समुत्पन्नं ब्रह्माण्डं मुनिसत्तम । अनित्यं वा तथा नित्यं तदाचक्ष्व द्विजोत्तम ॥ १७ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति किससे हुई है ? हे विप्रवर ! आप मुझे यह भी बताइये कि यह ब्रह्माण्ड नित्य है अथवा अनित्य ? ॥ १७ ॥
एककर्तृकमेतद्वा बहुकर्तृकमन्यथा । अकर्तृकं न कार्यं स्याद्विरोधोऽयं विभाति मे ॥ १८ ॥
यह ब्रह्माण्ड किसी एकके द्वारा विरचित है अथवा अनेक कर्ताओंद्वारा मिलकर इसका निर्माण किया गया है ? किसी कर्ताक बिना कार्यकी सत्ता सम्भव नहीं है । इस विषयमें मुझे अत्यन्त सन्देह हो रहा है ॥ १८ ॥
इस प्रकार इस विस्तृत ब्रह्माण्डके विषयमें विविध कल्पना करते हुए तथा सन्देहसागरमें डूबते हुए मुझ दुःखीका आप उद्धार कीजिये ॥ १९ ॥
ब्रुवन्ति शंकरं केचिन्मत्वा कारणकारणम् । सदाशिवं महादेवं प्रलयोत्पत्तिवर्जितम् ॥ २० ॥ आत्मारामं सुरेशं च त्रिगुणं निर्मलं हरम् । संसारतारकं नित्यं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम् ॥ २१ ॥
कुछ लोग सदाशिव, महादेव, प्रलय तथा उत्पत्तिसे रहित, आत्माराम, देवेश, त्रिगुणात्मक, निर्मल, हर, संसारसे उद्धार करनेवाले, नित्य तथा सृष्टिपालन-संहार करनेवाले भगवान् शंकरको ही मूल कारण मानकर उन्हें ही इस ब्रह्माण्डका रचयिता कहते हैं । २०-२१ ॥
दूसरे लोग श्रीहरि विष्णुको सबका प्रभु, ईश्वर, परमात्मा, अव्यक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, भोग तथा मोक्षप्रदाता, शान्त, सबका आदि, सर्वतोमुख, व्यापक, समग्र संसारको शरण देनेवाला तथा आदि-अन्तसे रहित जानकर उन्हींका स्तवन करते हैं ॥ २२-२३ ॥
धातारं च तथा चान्ये ब्रुवन्ति सृष्टिकारणम् । तमेव सर्ववेत्तारं सर्वभूतप्रवर्तकम् ॥ २४ ॥ चतुर्मुखं सुरेशानं नाभिपद्मभवं विभुम् । स्रष्टारं सर्वलोकानां सत्यलोकनिवासिनम् ॥ २५ ॥
अन्य लोग ब्रह्माजीको सृष्टिका कारण, सर्वज्ञ, सभी प्राणियोंका प्रवर्तक, चार मुखोंवाला, सुरपति, विष्णुके नाभिकमलसे प्रादुर्भूत, सर्वव्यापी, सभी लोकोंकी रचना करनेवाला तथा सत्यलोकमें निवास करनेवाला बताते हैं ॥ २४-२५ ॥
कुछ वेदवेत्ता विद्वान् सर्वेश्वर भगवान् सूर्यको ब्रह्माण्डकर्ता मानते हैं और सावधान होकर सायंप्रातः उन्हींकी स्तुति करते हैं तथा उन्हींका यशोगान करते हैं ॥ २६ ॥
यजन्ति च तथा यज्ञे वासवं च शतक्रतुम् । सहस्राक्षं देवदेवं सर्वेषां प्रभुमुल्बणम् ॥ २७ ॥ यज्ञाधीशं सुराधीशं त्रिलोकेशं शचीपतिम् । यज्ञानां चैव भोक्तारं सोमपं सोमपप्रियम् ॥ २८ ॥
यज्ञमें निष्ठाभाव रखनेवाले लोग धनप्रदाता, शतक्रतु, सहस्राक्ष, देवाधिदेव, सबके स्वामी, बलशाली, यज्ञाधीश, सुरपति, त्रिलोकेश, यज्ञोंका भोग करनेवाले, सोमपान करनेवाले तथा सोमपायी लोगोंके प्रिय शचीपति इन्द्रको [सर्वश्रेष्ठ मानकर] यज्ञोंमें उन्हींका यजन करते हैं ॥ २७-२८ ॥
वरुणं च तथा सोमं पावकं पवनं तथा । यमं कुबेरं धनदं गणाधीशं तथापरे ॥ २९ ॥ हेरम्बं गजवक्त्रं च सर्वकार्यप्रसाधकम् । स्मरणात्सिद्धिदं कामं कामदं कामगं परम् ॥ ३० ॥
कुछ लोग वरुण, सोम, अग्नि, पवन, यमराज, धनपति कुबेरकी तथा कुछ लोग हेरम्ब, गजमुख, सर्वकार्यसाधक, स्मरणमात्रसे सिद्धि प्रदान करनेवाले, कामस्वरूप, कामनाओंको प्रदान करनेवाले, स्वेच्छ विचरण करनेवाले, परम देव गणाधीश गणेशकी स्तुति करते हैं ॥ २९-३० ॥
कुछ आचार्य भवानीको ही सब कुछ देनेवाली, आदिमाया, महाशक्ति तथा पुरुषानुगामिनी परा प्रकृति कहते हैं । वे उनको ब्रह्मस्वरूपा, सृजन-पालन-संहार करनेवाली, सभी प्राणियों एवं देवताओंकी जननी, आदि-अन्तरहित, पूर्णा, सभी जीवोंमें व्याप्त, सभी लोकोंकी स्वामिनी, निर्गुणा, सगुणा तथा कल्याणस्वरूपा मानते हैं ॥ ३१-३३ ॥
वैष्णवीं शाङ्करीं ब्राह्मीं वासवीं वारुणीं तथा । वाराहीं नारसिंहीं च महालक्ष्मीं तथाद्भुताम् ॥ ३४ ॥ वेदमातरमेकां च विद्यां भवतरोः स्थिराम् । सर्वदुःखनिहन्त्रीं च स्मरणात्सर्वकामदाम् ॥ ३५ ॥ मोक्षदां च मुमुक्षूणां कामदां च फलार्थिनाम् । त्रिगुणातीतरूपां च गुणविस्तारकारकाम् ॥ ३६ ॥ निर्गुणां सगुणां तस्मात्तां ध्यायन्ति फलार्थिनः ।
फलकी आकांक्षा रखनेवाले उन भवानीका वैष्णवी, शांकरी, ब्राह्मी, वासवी, वारुणी, वाराही, नारसिंही, महालक्ष्मी, विचित्ररूपा, वेदमाता, एकेश्वरी, विद्यास्वरूपा, संसाररूपी वृक्षकी स्थिरताकी कारणरूपा, सभी कष्टोंका नाश करनेवाली और स्मरण करते ही सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली, मुक्ति चाहनेवालोंके लिये मोक्षदायिनी, फलकी अभिलाषा रखनेवालोंके लिये कामप्रदायिनी, त्रिगुणातीतस्वरूपा, गुणोंका विस्तार करनेवाली, निर्गुणा-सगुणा-रूपमें ध्यान करते हैं ॥ ३४-३६.५ ॥
कुछ मुनीश्वर निरंजन, निराकार, निर्लिप्त, गुणरहित, रूपरहित तथा सर्वव्यापक ब्रह्मको जगत्का कर्ता बतलाते हैं । वेदों तथा उपनिषदोंमें कहीं-कहीं उसे अनन्त सिर, नेत्र, हाथ, कान, मुख और चरणसे युक्त तेजोमय विराट् पुरुष कहा गया है ॥ ३७-३९ ॥
कुछ तत्त्वज्ञानी पुराणवेत्ता पुरुषोत्तमको सृष्टिका निर्माता कहते हैं । कुछ लोग कहते हैं कि इस अनन्त ब्रह्माण्डकी रचनामें केवल एक ईश्वर कदापि समर्थ नहीं हो सकता है ॥ ४१ ॥
अनीश्वरमिदं सर्वं ब्रह्माण्डमिति केचन । न कदापीशजन्यं यज्जगदेतदचिन्तितम् ॥ ४२ ॥ सदैवेदमनीशं च स्वभावोत्थं सदेदृशम् । अकर्तासौ पुमान्प्रोक्तः प्रकृतिस्तु तथा च सा ॥ ४३ ॥ एवं वदन्ति साङ्ख्याश्च मुनयः कपिलादयः ।
कुछ लोग कहते हैं कि यह जगत् अचिन्त्य है, अतः यह ईश्वररचित कदापि नहीं हो सकता उनके मतमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वररहित है । 'यह जगत् सदासे ही ईश्वरीय सत्तासे रहित रहा है और यह स्वभावसे उत्पन्न होता है तथा सदासे ऐसा ही है । यह पुरुष तो कर्तृत्वभावसे रहित कहा गया है और वह प्रकृति ही सर्वसंचालिका है'कपिल आदि सांख्यशास्त्रके आचार्य ऐसा ही कहते हैं । ४२-४३.५ ॥
हे मुनिनाथ ! मेरे मनमें ये तथा अन्य प्रकारके और भी सन्देहपुंज उत्पन्न होते रहते हैं । नाना प्रकारकी कल्पनाओंसे उद्विग्न मनवाला मैं क्या करूँ ? धर्म तथा अधर्मके विषयमें मेरा मन स्थिर नहीं हो पाता है । ४४-४५ ॥
क्या धर्म है और क्या अधर्म है; इसका कोई स्पष्ट लक्षण प्राप्त नहीं होता है । लोग कहते हैं कि देवता सत्त्वगुणसे उत्पन्न हुए हैं और वे सत्यधर्ममें स्थित रहते हैं फिर भी वे देवगण पापाचारी दानवोंद्वारा प्रताड़ित किये जाते हैं, तो फिर धर्मकी व्यवस्था कहाँ रह गयी ? धर्मनिष्ठ और सदाचारी मेरे वंशज पाण्डव भी नाना प्रकारके कष्ट सहनेको विवश हुए, ऐसी स्थितिमें धर्मकी क्या मर्यादा रह गयी ? अत: हे तात ! इस संशयमें पड़ा हुआ मेरा मन अतीव चंचल रहता है ॥ ४६-४८ ॥
हे महामुने ! आप सर्वसमर्थ हैं, अतः मेरे हदयको संशयमुक्त कीजिये । हे मुने ! संसार-सागरके मोहसे दृषित जलमें गिरे हुए तथा बार-बार डूबतेउतराते मुझ अज्ञानीकी अपने ज्ञानरूपी जहाजसे रक्षा कीजिये ॥ ४९-५० ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे भुवनेश्वरीवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥