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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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श्रोतृप्रवक्तृप्रसङ्गः -
आस्तीकमुनिके जन्मकी कथा, कद्रू और विनताद्वारा सूर्यके घोड़ेके रंगके विषयमें शर्त लगाना और विनताको दासीभावकी प्राप्ति, कद्रूद्वारा अपने पुत्रोंको शाप -


सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य व्यासः सत्यवतीसुतः ।
उवाच वचनं तत्र सभायां नृपतिं च तम् ॥ १ ॥
सूतजी बोले-राजा जनमेजयका वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यासने सभामें उन राजासे कहा- ॥ १ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि पुराणं गुह्यमद्‌भुतम् ।
पुण्यं भागवतं नाम नानाख्यानयुतं शिवम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं आपसे एक पुनीत, कल्याणकारक, रहस्यमय, अद्भुत तथा विविध कथानकोंसे युक्त देवीभागवत नामक पुराण कहूँगा ॥ २ ॥

अध्यापितं मया पूर्वं शुकायात्मसुताय वै ।
श्रावयामि नृप त्वां हि रहस्यं परमं मम ॥ ३ ॥
मैंने पूर्वकालमें उसे अपने पुत्र शुकदेवको पढ़ाया था । हे राजन् ! मैं अपने परम रहस्यमय पुराणका श्रवण आपको कराऊँगा ॥ ३ ॥

धर्मार्थकाममोक्षाणां कारणं श्रवणात्किल ।
शुभद सुखदं नित्यं सर्वागमसमुद्धृतम् ॥ ४ ॥
सभी वेदों एवं शास्त्रोंके सारस्वरूप तथा धर्मअर्थ-काम-मोक्षके कारणभूत इस पुराणका श्रवण करनेसे यह मंगल तथा आनन्द प्रदान करनेवाला होता है ॥ ४ ॥

जनमेजय उवाच
आस्तीकोऽयं सुतः कस्य विघ्नार्थं कथमागतः ।
प्रयोजनं किमत्रास्य सर्पाणां रक्षणे प्रभो ॥ ५ ॥
जनमेजय बोले-हे प्रभो ! यह आस्तीक किसका पुत्र था और यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये क्यों आया ? यज्ञमें सर्पोकी रक्षा करनेके पीछे इसका क्या उद्देश्य था ? ॥ ५ ॥

कथयैतन्महाभाग विस्तरेण कथानकम् ।
पुराणं च तथा सर्वं विस्तराद्वद सुव्रत ॥ ६ ॥
हे महाभाग ! उस आख्यानको विस्तारपूर्वक बताइये । हे सुव्रत ! उस सम्पूर्ण पुराणको भी विस्तारके साथ कहिये ॥ ६ ॥

व्यास उवाच
जरत्कारुर्मुनिः शान्तो न चकार गृहाश्रमम् ।
तेन दृष्टा वने गर्ते लम्बमाना स्वपूर्वजाः ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-जरत्कारु एक शान्त स्वभाववाले ऋषि थे, उन्होंने गार्हस्थ्य-जीवन अंगीकार नहीं किया था । उन्होंने एक बार वनमें एक गड्डे के भीतर अपने पूर्वजोंको लटकते हुए देखा ॥ ७ ॥

ततस्तमाहुः कुरु पुत्र दारा-
     न्यथा च नः स्यात्परमा हि तृप्तिः ।
स्वर्गे व्रजामः खलु दुःखमुक्ता
     वयं सदाचारयुते सुते वै ॥ ८ ॥
तदनन्तर पूर्वजोंने उनसे कहा-हे पुत्र ! तुम विवाह कर लो, जिससे हमारी परम तृप्ति हो सके । तुझ सदाचारी पुत्रके ऐसा करनेपर हमलोग निश्चितरूपसे दुःखमुक्त होकर स्वर्गकी प्राप्ति कर लेंगे ॥ ८ ॥

स तानुवाचाथ लभे समाना-
     मयाचितां चातिवशानुगां च ।
तदा गृहारम्भमहं करोमि
     ब्रवीमि तथ्यं मम पूर्वजा वै ॥ ९ ॥
तब उन जरत्कारुने उनसे कहा-हे मेरे पूर्वजो ! जब मुझे अपने समान नामवाली तथा अत्यन्त वशवर्तिनी कन्या बिना माँगे ही मिलेगी तभी मैं विवाह करके गृहस्थी बसाऊँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ९ ॥

इत्युक्त्वा ताञ्जरत्कारुर्गतस्तीर्थान्प्रति द्विजः ।
तदैव पन्नगाः शप्ता मात्राग्नौ निपतन्त्विति ॥ १० ॥
उनसे ऐसा कहकर ब्राह्मण जरत्कारु तीर्थाटनके लिये चल पड़े । उसी समय सपौंको उनकी माताने शाप दे दिया कि वे अग्निमें गिर जायें ॥ १० ॥

कश्यपस्य मुनेः पत्‍न्यौ कद्रूश्च विनता तथा ।
दृष्ट्वादित्यरथे चाश्वमूचतुश्च परस्परम् ॥ ११ ॥
कश्यपऋषिकी कद्रू और विनता नामक दो पलियाँ थीं । सूर्यके रथमें जुते हुए घोड़ेको देखकर वे आपसमें वार्तालाप करने लगी ॥ ११ ॥

तं दृष्ट्वा च तदा कद्रूर्विनतामिदमब्रवीत् ।
किंवर्णोऽयं हयो भद्रे सत्यं प्रब्रूहि माचिरम् ॥ १२ ॥
उस घोड़ेको देखकर कद्रूने विनतासे यह कहाहे कल्याणि ! यह घोड़ा किस रंगका है ? यह मुझे शीघ्र ही सही-सही बताओ ॥ १२ ॥

विनतोवाच
श्वेत एवाश्वराजोऽयं किं वा त्वं मन्यसे शुभे ।
ब्रूहि वर्णं त्वमप्यस्य ततस्तु विपणावहे ॥ १३ ॥
विनता बोली-यह अश्वराज श्वेत रंगका है । हे शुभे ! तुम इसे किस रंगका मानती हो ? तुम भी इसका रंग बता दो । तब हम दोनों आपसमें इसपर शर्त लगायें ॥ १३ ॥

कद्रुरुवाच
कृष्णवर्णमहं मन्ये हयमेनं शुचिस्मिते ।
एहि सार्धं मया दिव्यं दासीभावाय भामिनि ॥ १४ ॥
कद्दू बोली-हे शुभ मुसकानवाली ! मैं तो इस घोड़ेको कृष्णवर्णका समझती हूँ । हे भामिनि ! आओ, मेरे साथ शर्त लगाओ कि जो हारेगी, वह दूसरेकी दासी होना स्वीकार करेगी ॥ १४ ॥

सूत उवाच
कद्रूश्च स्वसुतानाह सर्वान्सर्पान्वशे स्थितान् ।
बालाञ्छ्यामान्प्रकुर्वन्तु यावतोऽश्वशरीरके ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-कद्रूने अपने सभी आज्ञाकारी सर्पपुत्रोंसे कहा कि तुम सभी लिपटकर उस घोड़ेके शरीरमें जितने बाल हैं, उन्हें काला कर दो ॥ १५ ॥

नेति केचन तत्राहुस्तानथासौ शशाप ह ।
जनमेजयस्य यज्ञे वै गमिष्यथ हुताशनम् ॥ १६ ॥
उनमेंसे कुछ सोने कहा कि हम ऐसा नहीं करेंगे । उन सर्पोको कदूने शाप दे दिया कि तुम लोग जनमेजयके यज्ञमें हवनकी अग्निमें गिर पड़ोगे ॥ १६ ॥

अन्ये चक्रुर्हयं सर्पाः कर्बुरं वर्णभोगकैः ।
वेष्टयित्वास्य पुच्छं तु मातुः प्रियचिकीर्षया ॥ १७ ॥
अन्य सपने माताको प्रसन्न करनेकी कामनासे उस घोड़ेकी पूँछमें लिपटकर अपने विभिन्न रंगोंसे घोड़ेको चितकबरा कर दिया ॥ १७ ॥

भगिन्यौ च सुसंयुक्ते गत्वा ददृशतुर्हयम् ।
कर्बुरं तं हयं दृष्ट्वा विनता चातिदुःखिता ॥ १८ ॥
तदनन्तर दोनों बहनोंने साथ-साथ जाकर घोड़ेको देखा । उस घोड़ेको चितकबरा देखकर विनता बहुत दुःखी हुई ॥ १८ ॥

तदाजगाम गरुडः सुतस्तस्या महाबलः ।
स दृष्ट्वा मातरं दीनामपृच्छत्पन्नगाशनः ॥ १९ ॥
उसी समय सर्पोका आहार करनेवाले महाबली विनतापुत्र गरुडजी वहाँ आ गये । उन्होंने अपनी माताको दुःखित देखकर उनसे पूछा- ॥ १९ ॥

मातः कथं सुदीनासि रुदितेव विभासि मे ।
जीवमाने मयि सुते तथान्ये रविसारथौ ॥ २० ॥
दुःखितासि ततो वां धिग्जीवितं चारुलोचने ।
किं जातेन सुतेनाथ यदि माता सुदुःखिता ॥ २१ ॥
शंस मे कारणं मातः करोमि विगतज्वराम् ।
हे माता ! आप बहुत उदास क्यों हैं ? आप मुझे रोती हुई प्रतीत हो रही हैं । हे सुनयने ! मेरे एवं सूर्यसारथि अरुणसदृश पुत्रोंके जीवित रहते यदि आप दुःखी हैं, तब हमारे जीवनको धिक्कार है ! यदि माता ही परम दुःखी हों तो पुत्रके उत्पन्न होनेसे क्या लाभ ? हे माता ! आप मुझे अपने दुःखका कारण बताइये, मैं आपको दुःखसे मुक्त करूँगा ॥ २०-२१.५ ॥

विनतोवाच
सपत्‍न्या दास्यहं पुत्र किं ब्रवीमि वृथा क्षता ॥ २२ ॥
वह मां सा ब्रवीत्यद्य तेनास्मि दुःखिता सुत ।
विनता बोली-हे पुत्र ! मैं अपनी सौतकी दासी हो गयी हूँ । अब व्यर्थमें मारी गयी मैं क्या कहूँ ? वह मुझसे अब कह रही है कि मैं उसे अपने कन्धेपर ढोऊँ । हे पुत्र ! मैं इसीसे दुःखी हूँ ॥ २२.५ ॥

गरुड उवाच
वहिष्येऽहं तत्र किल यत्र सा गन्तुमुत्सुका ॥ २३ ॥
मा शोकं कुरु कल्याणि निश्चिन्तां त्वां करोम्यहम् ।
गरुडजी बोले-वे जहाँ भी जानेकी कामना करेंगी, मैं उन्हें ढोकर वहाँ ले जाऊंगा । हे कल्याणि ! | आप शोक न करें, मैं आपको निश्चिन्त कर देता हूँ ॥ २३.५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ता सा गता पार्श्वं कद्रोश्च विनता तदा ॥ २४ ॥
दासीभावमपाकर्तुं गरुडोऽपि महाबलः ।
उवाह तां सपुत्रां वै सिन्धोः पारं जगाम ह ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-गरुडद्वारा ऐसा कहे जानेपर विनता उसी समय कद्रूके पास चली गयी । महाबली गरुड भी अपनी माता विनताको दास्यभावसे मुक्ति दिलानेके उद्देश्यसे कद्रूको उसके पुत्रोंसहित अपनी पीठपर बैठाकर सागरके उस पार ले गये ॥ २४-२५ ॥

गत्वा तां गरुडः प्राह ब्रूहि मातर्नमोऽस्तु ते ।
कथं मुच्येत मे माता दासीभावादसंशयम् ॥ २६ ॥
वहाँ जाकर गरुडने कद्रूसे कहा-हे जननि ! आपको बार-बार प्रणाम है । अब आप मुझे यह बतायें कि मेरी माता दासीभावसे निश्चित ही कैसे मुक्त होंगी ? ॥ २६ ॥

कद्रूरुवाच
अमृतं देवलोकात्त्वं बलादानीय मे सुतान् ।
समर्पय सुताद्याशु मातरं मोचयाबलाम् ॥ २७ ॥
कढू बोली-हे पुत्र ! तुम स्वर्गलोकसे बलपूर्वक अमृत लाकर मेरे पुत्रोंको दे दो और शीघ्र ही अपनी अबला माताको मुक्त करा लो ॥ २७ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तः प्रययौ शीघ्रमिन्द्रलोकं महाबलः ।
कृत्वा युद्धं जहाराशु सुधाकुम्भं खगोत्तमः ॥ २८ ॥
समानीयामृतं मात्रे वैनतेयः समर्पयत् ।
मोचिता विनता तेन दासीभावादसंशयम् ॥ २९ ॥
व्यासजी बोले-कद्रूके ऐसा कहनेपर पक्षिश्रेष्ठ महाबली गरुड उसी समय इन्द्रलोक गये और देवताओंसे युद्ध करके उन्होंने सुधा-कलश छीन लिया । अमृत लाकर उन्होंने उसे अपनी विमाता कद्रूको अर्पण कर दिया और उन्होंने विनताको दासीभावसे निःसन्देह मुक्त करा लिया ॥ २८-२९ ॥

अमृतं सञ्जहारेन्द्रः स्नातुं सर्पा यदा गताः ।
दासीभावाद्विनिर्मुक्ता विनता विपतेर्बलात् ॥ ३० ॥
जब सभी सर्प स्नान करनेके लिये चले गये, तब इन्द्रने अमृत चुरा लिया । इस प्रकार गरुडके प्रतापसे विनता दासीभावसे छूट गयी ॥ ३० ॥

तत्रास्तीर्णाः कुशास्तैस्तु लीढाः पन्नगनामकैः ।
द्विजिह्वास्ते सुसम्पन्नाः कुशाग्रस्पर्शमात्रतः ॥ ३१ ॥
अमृतघटके पास कुश बिछे हुए थे, जिन्हें सर्प अपनी जिह्वासे चाटने लगे । तब कुशके अग्रभागके स्पर्शमात्रसे ही वे दो जीभवाले हो गये ॥ ३१ ॥

मात्रा शप्ताश्च ये नागा वासुकिप्रमुखाः शुचा ।
ब्रह्माणं शरणं गत्वा ते होचुः शापजं भयम् ॥ ३२ ॥
तानाह भगवान्ब्रह्मा जरत्कारुर्महामुनिः ।
वासुकेर्भगिनीं तस्मै अर्पयध्वं सनामिकाम् ॥ ३३ ॥
तस्यां यो जायते पुत्रः स वस्त्राता भविष्यति ।
आस्तीक इति नामासौ भविता नात्र संशयः ॥ ३४ ॥
जिन सोको उनकी माताने शाप दिया था, वे वासुकि आदि नाग चिन्तित होकर ब्रह्माजीके पास गये और उन्होंने अपने शाप-जनित भयकी बात बतायी । ब्रह्माजीने उनसे कहा-जरत्कारु नामके एक महामुनि हैं, तुमलोग उन्हींके नामवाली वासुकिनागकी बहन जरत्कारुको उन्हें अर्पित कर दो । उस कन्यासे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही तुमलोगोंका रक्षक होगा । वह 'आस्तीक'-इस नामवाला होगा । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३२-३४ ॥

वासुकिस्तु तदाकर्ण्य वचनं ब्रह्मणः शिवम् ।
वनं गत्वा सुतां तस्मै ददौ विनयपूर्वकम् ॥ ३५ ॥
ब्रह्माजीका वह कल्याणकारी वचन सुनकर वासुकिने वनमें जाकर अपनी बहन उन्हें विनयपूर्वक समर्पित कर दी ॥ ३५ ॥

सनामां तां मुनिर्ज्ञात्वा जरत्कारुरुवाच तम् ।
अप्रियं मे यदा कुर्यात्तदा तां सन्त्यजाम्यहम् ॥ ३६ ॥
जरत्कारुमुनिने उसे अपने ही समान नामवाली जानकर उनसे कहा-जब भी यह मेरा अप्रिय करेगी, तब मैं इसका परित्याग कर दूंगा ॥ ३६ ॥

वाग्बन्धं तादृशं कृत्वा मुनिर्जग्राह तां स्वयम् ।
दत्त्वा च वासुकिः कामं भवनं स्वं जगाम ह ॥ ३७ ॥
वैसी प्रतिज्ञा करके जरत्कारुमुनिने उस जरत्कारुको पत्नीरूपसे ग्रहण कर लिया । वासुकिनाग भी अपनी बहन उन्हें प्रदानकर आनन्दपूर्वक अपने घर लौट गये ॥ ३७ ॥

कृत्वा पर्णकुटीं शुभ्रां जरत्कारुर्महावने ।
तया सह सुखं प्राप रममाणः परन्तप ॥ ३८ ॥
हे परन्तप ! मुनि जरत्कारु उस महावनमें सुन्दर पर्णकुटी बनाकर उसके साथ रमण करते हुए सुख भोगने लगे ॥ ३८ ॥

एकदा भोजनं कृत्वा सुप्तोऽसौ मुनिसत्तमः ।
भगिनी वासुकेस्तत्र संस्थिता वरवर्णिनी ॥ ३९ ॥
न सम्बोधयितव्योऽहं त्वया कान्ते कथञ्चन ।
इत्युक्त्वा तु गतो निद्रां मुनिस्तां सुदतीं तदा ॥ ४० ॥
एक समय मुनिश्रेष्ठ जरत्कारु भोजन करके विश्राम कर रहे थे, वासुकिकी बहन सुन्दरी जरत्कारु भी वहीं बैठी हुई थी । [मुनिने उससे कहा] हे कान्ते ! तुम मुझे किसी भी प्रकार जगाना मत-उस सुन्दर दाँतोंवालीसे ऐसा कहकर वे मुनि सो गये ॥ ३९-४० ॥

रविरस्तगिरिं प्राप्तः सन्ध्याकाल उपस्थिते ।
किं करोमि न मे शान्तिस्त्यजेन्मां बोधितः पुनः ॥ ४१ ॥
धर्मलोपभयाद्‌भीता जरत्कारुरचिन्तयत् ।
नोचेत्प्रबोथयाम्येनं सन्ध्याकालो वृथा व्रजेत् ॥ ४२ ॥
सूर्य अस्ताचलको प्राप्त हो गये थे । सन्ध्यावन्दनका समय उपस्थित हो जानेपर धर्मलोपके भयसे डरी हुई जरत्कारु सोचने लगी-मैं क्या करूँ ? मुझे शान्ति नहीं मिल रही है । यदि मैं इन्हें जगाती हूँ तो ये मेरा परित्याग कर देंगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो यह सन्ध्याकाल व्यर्थं ही चला जायगा । ४१-४२ ॥

धर्मनाशाद्वरं त्यागस्तथापि मरणं ध्रुवम् ।
धर्महानिर्नराणां हि नरकाय भवेत्पुनः ॥ ४३ ॥
इति सञ्चिन्त्य सा बाला तं मुनिं प्रत्यबोधयत् ।
सन्ध्याकालोऽपि सञ्जात उत्तिष्ठोत्तिष्ठसुव्रत ॥ ४४ ॥
धर्मनाशकी अपेक्षा त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है ही । धर्मके नष्ट होनेपर मनुष्योंको निश्चित ही नरकमें जाना पड़ता है-ऐसा निश्चय करके उस स्त्रीने उन मुनिको जगाया और कहाहे सुव्रत ! उठिये, उठिये, अब सन्ध्याकाल भी उपस्थित हो गया है । ४३-४४ ॥

उत्थितोऽसौ मुनिः कोपात्तामुवाच व्रजाम्यहम् ।
त्वं तु भ्रातृगृहं याहि निद्राविच्छेदकारिणी ॥ ४५ ॥
जगनेपर मुनि जरत्कारुने क्रोधित होकर उससे कहा-अब मैं जा रहा हूँ और मेरी निद्रामें विघ्न डालनेवाली तुम अपने भाई वासुकिके घर चली जाओ ॥ ४५ ॥

वेपमानाब्रवीद्वाक्यमित्युक्ता मुनिना तदा ।
भ्रात्रा दत्ता यदर्थं तत्कथं स्यादमितप्रभ ॥ ४६ ॥
मुनिके ऐसा कहनेपर भयसे काँपती हुई उसने कहा-हे महातेजस्वी ! मेरे भाईने जिस प्रयोजनसे मुझे आपको सौंपा था, वह प्रयोजन अब कैसे सिद्ध होगा ? ॥ ४६ ॥

मुनिः प्राह जरत्कारुं तदस्तीति निराकुलः ।
गता सा मुनिना त्यक्ता वासुकेः सदनं तदा ॥ ४७ ॥
तदनन्तर मुनिने शान्तचित्त होकर जरत्कारुसे कहा-'वह तो है ही । ' इसके बाद मुनिके द्वारा परित्यक्त वह कन्या वासुकिके घर चली गयी ॥ ४७ ॥

पृष्टा भ्रात्राब्रवीद्वाक्यं यथोक्तं पतिना तदा ।
अस्तीत्युक्त्वा च हित्वा मां गतोऽसौ मुनिसत्तमः ॥ ४८ ॥
भाई वासुकिके पूछनेपर उसने पतिद्वारा कही गयी बात उनसे यथावत् कह दी और [वह यह भी बोली कि] 'अस्ति'-ऐसा कहकर वे मुनिश्रेष्ठ मुझको छोड़कर चले गये ॥ ४८ ॥

वासुकिस्तु तदाकर्ण्य सत्यावाङ्‌मुनिरित्युत ।
विश्वासं च परं कृत्वा भगिनीं तां समाश्रयत् ॥ ४९ ॥
यह सुनकर वासुकिने सोचा कि मुनि सत्यवादी हैं । तत्पश्चात् पूर्ण विश्वास करके उन्होंने अपनी उस बहनको अपने यहाँ आश्रय प्रदान किया ॥ ४९ ॥

ततः कालेन कियता जातोऽसौ मुनिबालकः ।
आस्तीक इति नामासौ विख्यातः कुरुसत्तम ॥ ५० ॥
हे कुरुश्रेष्ठ । कुछ समय बाद मुनिबालक उत्पन्न हुआ और वह आस्तीक नामसे विख्यात हुआ ॥ ५० ॥

तेनायं रक्षितो यज्ञस्तव पार्थिवसत्तम ।
मातृपक्षस्य रक्षार्थं मुनिना भावितात्मना ॥ ५१ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! पवित्र आत्मावाले उन्हीं आस्तीकमुनिने अपने मातृ-पक्षकी रक्षाके लिये आपका सर्पयज्ञ रुकवाया है ॥ ५१ ॥

भव्यं कृतं महाराज मानितोऽयं त्वया मुनिः ।
यायावरकुलोत्पनो वासुकेर्भगिनीसुतः ॥ ५२ ॥
हे महाराज ! यायावर वंशमें उत्पन्न और वासुकिकी बहनके पुत्र आस्तीकका आपने सम्मान किया, यह तो बड़ा ही उत्तम कार्य किया है ॥ ५२ ॥

स्वस्ति तेऽस्तु महाबाहो भारतं सकलं श्रुतम् ।
दानानि बहु दत्तानि पूजिता मुनयस्तथा ॥ ५३ ॥
कृतेन सुकृतेनापि न पिता स्वर्गतिं गतः ।
पावितं न कुलं कृत्स्नं त्वया भूपतिसत्तम ॥ ५४ ॥
देव्याश्चायतनं भूप विस्तीर्णं कुरु भक्तितः ।
येन वै सकला सिद्धिस्तव स्याज्जनमेजय ॥ ५५ ॥
हे महाबाहो ! आपका कल्याण हो । आपने सम्पूर्ण महाभारत सुना, नानाविध दान दिये और मुनिजनोंकी पूजा की । हे भूपश्रेष्ठ ! आपके द्वारा इतना महान् पुण्यकार्य किये जानेपर भी आपके पिता स्वर्गको प्राप्त नहीं हुए और न आपका सम्पूर्ण कुल ही पवित्र हो सका । अतः हे महाराज जनमेजय ! आप भक्तिभावसे युक्त होकर देवी भगवतीके एक विशाल मन्दिरका निर्माण कराइये, जिसके द्वारा आप समस्त सिद्धिको प्राप्त कर लेंगे ॥ ५३-५५ ॥

पूजिता परया भक्त्या शिवा सकलदा सदा ।
कुलवृद्धिं करोत्येव राज्यं च सुस्थिरं सदा ॥ ५६ ॥
सर्वस्व प्रदान करनेवाली भगवती दुर्गा परम श्रद्धापूर्वक पूजित होनेपर सदा वंश-वृद्धि करती हैं तथा राज्यको सदा स्थिरता प्रदान करती हैं ॥ ५६ ॥

देवीमखं विधानेन कृत्वा पार्थिवसत्तम ।
श्रीमद्‌भागवतं नाम पुराणं परमं शृणु ॥ ५७ ॥
हे भूपश्रेष्ठ ! विधि-विधानके साथ देवीयज्ञ करके आप श्रीमद्देवीभागवत नामक महापुराणका श्रवण कीजिये ॥ ५७ ॥

त्वामहं श्रावयिष्यामि कथां परमपावनीम् ।
संसारतारिणीं दिव्यां नानारससमाहृताम् ॥ ५८ ॥
अत्यन्त पुनीत, भवसागरसे पार उतारनेवाली, अलौकिक तथा विविध रसोंसे सम्पृक्त उस कथाको मैं आपको सुनाऊँगा ॥ ५८ ॥

न श्रोतव्यं परं चास्मात्पुराणाद्विद्यते भुवि ।
नाराध्यं विद्यते राजन्देवीपादाम्बुजादृते ॥ ५९ ॥
हे राजन् ! सम्पूर्ण संसारमें इस पुराणसे बढ़कर अन्य कुछ भी श्रवणीय नहीं है और भगवतीके चरणारविन्दके अतिरिक्त अन्य कुछ भी आराधनीय नहीं है ॥ ५९ ॥

ते सभाग्याः कृतप्रज्ञा धन्यास्ते नृपसत्तम ।
येषां चित्ते सदा देवी वसति प्रेमसंकुले ॥ ६० ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! जिनके प्रेमपूरित हृदयमें सदा भगवती विराजमान रहती हैं; वे ही सौभाग्यशाली, ज्ञानवान् एवं धन्य हैं ॥ ६० ॥

सुदुःखितास्ते दृश्यन्ते भुवि भारत भारते ।
नाराधिता महामाया यैर्जनैश्च सदाम्बिका ॥ ६१ ॥
हे भारत ! इस भारतभूमिपर वे ही लोग सदा दुःखी दिखायी देते हैं, जिन्होंने कभी भी महामाया अम्बिकाकी आराधना नहीं की है । ६१ ॥

ब्रह्मादयः सुराः सर्वे यदाराधनतत्पराः ।
वर्तन्ते सर्वदा राजंस्तां न सेवेत को जनः ॥ ६२ ॥
हे राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी जिन भगवतीकी आराधनामें सर्वदा लीन रहते हैं, उनकी आराधना भला कौन मनुष्य नहीं करेगा ? ॥ ६२ ॥

य इदं शृणुयान्नित्यं सर्वान्कामानवाप्नुयात् ।
भगवत्या समाख्यातं विष्णवे यदनुत्तमम् ॥ ६३ ॥
जो मनुष्य इस पुराणका नित्य श्रवण करता है, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । स्वयं भगवतीने भगवान् विष्णुके समक्ष इस अतिश्रेष्ठ पुराणका वर्णन किया था । ६३ ॥

तेन श्रुतेन ते राजंश्चित्ते शान्तिर्भविष्यति ।
पितॄणां चाक्षयः स्वर्गः पुराणश्रवणाद्‌भवेत् ॥ ६४ ॥
हे राजन् ! इस पुराणके श्रवणसे आपके चित्तको परम शान्ति प्राप्त होगी और आपके पितरोंको अक्षय स्वर्ग प्राप्त होगा ॥ ६४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे श्रोतृप्रवक्तृप्रसङ्गो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
अध्याय बारहवाँ समाप्त ॥ द्वितीयः स्कन्धः समाप्तः ॥


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