जनमेजय बोले-हे प्रभो ! यह आस्तीक किसका पुत्र था और यज्ञमें विघ्न डालनेके लिये क्यों आया ? यज्ञमें सर्पोकी रक्षा करनेके पीछे इसका क्या उद्देश्य था ? ॥ ५ ॥
कथयैतन्महाभाग विस्तरेण कथानकम् । पुराणं च तथा सर्वं विस्तराद्वद सुव्रत ॥ ६ ॥
हे महाभाग ! उस आख्यानको विस्तारपूर्वक बताइये । हे सुव्रत ! उस सम्पूर्ण पुराणको भी विस्तारके साथ कहिये ॥ ६ ॥
व्यास उवाच जरत्कारुर्मुनिः शान्तो न चकार गृहाश्रमम् । तेन दृष्टा वने गर्ते लम्बमाना स्वपूर्वजाः ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-जरत्कारु एक शान्त स्वभाववाले ऋषि थे, उन्होंने गार्हस्थ्य-जीवन अंगीकार नहीं किया था । उन्होंने एक बार वनमें एक गड्डे के भीतर अपने पूर्वजोंको लटकते हुए देखा ॥ ७ ॥
ततस्तमाहुः कुरु पुत्र दारा- न्यथा च नः स्यात्परमा हि तृप्तिः । स्वर्गे व्रजामः खलु दुःखमुक्ता वयं सदाचारयुते सुते वै ॥ ८ ॥
तदनन्तर पूर्वजोंने उनसे कहा-हे पुत्र ! तुम विवाह कर लो, जिससे हमारी परम तृप्ति हो सके । तुझ सदाचारी पुत्रके ऐसा करनेपर हमलोग निश्चितरूपसे दुःखमुक्त होकर स्वर्गकी प्राप्ति कर लेंगे ॥ ८ ॥
स तानुवाचाथ लभे समाना- मयाचितां चातिवशानुगां च । तदा गृहारम्भमहं करोमि ब्रवीमि तथ्यं मम पूर्वजा वै ॥ ९ ॥
तब उन जरत्कारुने उनसे कहा-हे मेरे पूर्वजो ! जब मुझे अपने समान नामवाली तथा अत्यन्त वशवर्तिनी कन्या बिना माँगे ही मिलेगी तभी मैं विवाह करके गृहस्थी बसाऊँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ९ ॥
कद्दू बोली-हे शुभ मुसकानवाली ! मैं तो इस घोड़ेको कृष्णवर्णका समझती हूँ । हे भामिनि ! आओ, मेरे साथ शर्त लगाओ कि जो हारेगी, वह दूसरेकी दासी होना स्वीकार करेगी ॥ १४ ॥
अन्य सपने माताको प्रसन्न करनेकी कामनासे उस घोड़ेकी पूँछमें लिपटकर अपने विभिन्न रंगोंसे घोड़ेको चितकबरा कर दिया ॥ १७ ॥
भगिन्यौ च सुसंयुक्ते गत्वा ददृशतुर्हयम् । कर्बुरं तं हयं दृष्ट्वा विनता चातिदुःखिता ॥ १८ ॥
तदनन्तर दोनों बहनोंने साथ-साथ जाकर घोड़ेको देखा । उस घोड़ेको चितकबरा देखकर विनता बहुत दुःखी हुई ॥ १८ ॥
तदाजगाम गरुडः सुतस्तस्या महाबलः । स दृष्ट्वा मातरं दीनामपृच्छत्पन्नगाशनः ॥ १९ ॥
उसी समय सर्पोका आहार करनेवाले महाबली विनतापुत्र गरुडजी वहाँ आ गये । उन्होंने अपनी माताको दुःखित देखकर उनसे पूछा- ॥ १९ ॥
मातः कथं सुदीनासि रुदितेव विभासि मे । जीवमाने मयि सुते तथान्ये रविसारथौ ॥ २० ॥ दुःखितासि ततो वां धिग्जीवितं चारुलोचने । किं जातेन सुतेनाथ यदि माता सुदुःखिता ॥ २१ ॥ शंस मे कारणं मातः करोमि विगतज्वराम् ।
हे माता ! आप बहुत उदास क्यों हैं ? आप मुझे रोती हुई प्रतीत हो रही हैं । हे सुनयने ! मेरे एवं सूर्यसारथि अरुणसदृश पुत्रोंके जीवित रहते यदि आप दुःखी हैं, तब हमारे जीवनको धिक्कार है ! यदि माता ही परम दुःखी हों तो पुत्रके उत्पन्न होनेसे क्या लाभ ? हे माता ! आप मुझे अपने दुःखका कारण बताइये, मैं आपको दुःखसे मुक्त करूँगा ॥ २०-२१.५ ॥
विनतोवाच सपत्न्या दास्यहं पुत्र किं ब्रवीमि वृथा क्षता ॥ २२ ॥ वह मां सा ब्रवीत्यद्य तेनास्मि दुःखिता सुत ।
विनता बोली-हे पुत्र ! मैं अपनी सौतकी दासी हो गयी हूँ । अब व्यर्थमें मारी गयी मैं क्या कहूँ ? वह मुझसे अब कह रही है कि मैं उसे अपने कन्धेपर ढोऊँ । हे पुत्र ! मैं इसीसे दुःखी हूँ ॥ २२.५ ॥
गरुड उवाच वहिष्येऽहं तत्र किल यत्र सा गन्तुमुत्सुका ॥ २३ ॥ मा शोकं कुरु कल्याणि निश्चिन्तां त्वां करोम्यहम् ।
गरुडजी बोले-वे जहाँ भी जानेकी कामना करेंगी, मैं उन्हें ढोकर वहाँ ले जाऊंगा । हे कल्याणि ! | आप शोक न करें, मैं आपको निश्चिन्त कर देता हूँ ॥ २३.५ ॥
व्यास उवाच इत्युक्ता सा गता पार्श्वं कद्रोश्च विनता तदा ॥ २४ ॥ दासीभावमपाकर्तुं गरुडोऽपि महाबलः । उवाह तां सपुत्रां वै सिन्धोः पारं जगाम ह ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-गरुडद्वारा ऐसा कहे जानेपर विनता उसी समय कद्रूके पास चली गयी । महाबली गरुड भी अपनी माता विनताको दास्यभावसे मुक्ति दिलानेके उद्देश्यसे कद्रूको उसके पुत्रोंसहित अपनी पीठपर बैठाकर सागरके उस पार ले गये ॥ २४-२५ ॥
गत्वा तां गरुडः प्राह ब्रूहि मातर्नमोऽस्तु ते । कथं मुच्येत मे माता दासीभावादसंशयम् ॥ २६ ॥
वहाँ जाकर गरुडने कद्रूसे कहा-हे जननि ! आपको बार-बार प्रणाम है । अब आप मुझे यह बतायें कि मेरी माता दासीभावसे निश्चित ही कैसे मुक्त होंगी ? ॥ २६ ॥
कद्रूरुवाच अमृतं देवलोकात्त्वं बलादानीय मे सुतान् । समर्पय सुताद्याशु मातरं मोचयाबलाम् ॥ २७ ॥
कढू बोली-हे पुत्र ! तुम स्वर्गलोकसे बलपूर्वक अमृत लाकर मेरे पुत्रोंको दे दो और शीघ्र ही अपनी अबला माताको मुक्त करा लो ॥ २७ ॥
व्यास उवाच इत्युक्तः प्रययौ शीघ्रमिन्द्रलोकं महाबलः । कृत्वा युद्धं जहाराशु सुधाकुम्भं खगोत्तमः ॥ २८ ॥ समानीयामृतं मात्रे वैनतेयः समर्पयत् । मोचिता विनता तेन दासीभावादसंशयम् ॥ २९ ॥
व्यासजी बोले-कद्रूके ऐसा कहनेपर पक्षिश्रेष्ठ महाबली गरुड उसी समय इन्द्रलोक गये और देवताओंसे युद्ध करके उन्होंने सुधा-कलश छीन लिया । अमृत लाकर उन्होंने उसे अपनी विमाता कद्रूको अर्पण कर दिया और उन्होंने विनताको दासीभावसे निःसन्देह मुक्त करा लिया ॥ २८-२९ ॥
अमृतघटके पास कुश बिछे हुए थे, जिन्हें सर्प अपनी जिह्वासे चाटने लगे । तब कुशके अग्रभागके स्पर्शमात्रसे ही वे दो जीभवाले हो गये ॥ ३१ ॥
मात्रा शप्ताश्च ये नागा वासुकिप्रमुखाः शुचा । ब्रह्माणं शरणं गत्वा ते होचुः शापजं भयम् ॥ ३२ ॥ तानाह भगवान्ब्रह्मा जरत्कारुर्महामुनिः । वासुकेर्भगिनीं तस्मै अर्पयध्वं सनामिकाम् ॥ ३३ ॥ तस्यां यो जायते पुत्रः स वस्त्राता भविष्यति । आस्तीक इति नामासौ भविता नात्र संशयः ॥ ३४ ॥
जिन सोको उनकी माताने शाप दिया था, वे वासुकि आदि नाग चिन्तित होकर ब्रह्माजीके पास गये और उन्होंने अपने शाप-जनित भयकी बात बतायी । ब्रह्माजीने उनसे कहा-जरत्कारु नामके एक महामुनि हैं, तुमलोग उन्हींके नामवाली वासुकिनागकी बहन जरत्कारुको उन्हें अर्पित कर दो । उस कन्यासे जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही तुमलोगोंका रक्षक होगा । वह 'आस्तीक'-इस नामवाला होगा । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३२-३४ ॥
हे परन्तप ! मुनि जरत्कारु उस महावनमें सुन्दर पर्णकुटी बनाकर उसके साथ रमण करते हुए सुख भोगने लगे ॥ ३८ ॥
एकदा भोजनं कृत्वा सुप्तोऽसौ मुनिसत्तमः । भगिनी वासुकेस्तत्र संस्थिता वरवर्णिनी ॥ ३९ ॥ न सम्बोधयितव्योऽहं त्वया कान्ते कथञ्चन । इत्युक्त्वा तु गतो निद्रां मुनिस्तां सुदतीं तदा ॥ ४० ॥
एक समय मुनिश्रेष्ठ जरत्कारु भोजन करके विश्राम कर रहे थे, वासुकिकी बहन सुन्दरी जरत्कारु भी वहीं बैठी हुई थी । [मुनिने उससे कहा] हे कान्ते ! तुम मुझे किसी भी प्रकार जगाना मत-उस सुन्दर दाँतोंवालीसे ऐसा कहकर वे मुनि सो गये ॥ ३९-४० ॥
रविरस्तगिरिं प्राप्तः सन्ध्याकाल उपस्थिते । किं करोमि न मे शान्तिस्त्यजेन्मां बोधितः पुनः ॥ ४१ ॥ धर्मलोपभयाद्भीता जरत्कारुरचिन्तयत् । नोचेत्प्रबोथयाम्येनं सन्ध्याकालो वृथा व्रजेत् ॥ ४२ ॥
सूर्य अस्ताचलको प्राप्त हो गये थे । सन्ध्यावन्दनका समय उपस्थित हो जानेपर धर्मलोपके भयसे डरी हुई जरत्कारु सोचने लगी-मैं क्या करूँ ? मुझे शान्ति नहीं मिल रही है । यदि मैं इन्हें जगाती हूँ तो ये मेरा परित्याग कर देंगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो यह सन्ध्याकाल व्यर्थं ही चला जायगा । ४१-४२ ॥
धर्मनाशकी अपेक्षा त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है ही । धर्मके नष्ट होनेपर मनुष्योंको निश्चित ही नरकमें जाना पड़ता है-ऐसा निश्चय करके उस स्त्रीने उन मुनिको जगाया और कहाहे सुव्रत ! उठिये, उठिये, अब सन्ध्याकाल भी उपस्थित हो गया है । ४३-४४ ॥
हे महाबाहो ! आपका कल्याण हो । आपने सम्पूर्ण महाभारत सुना, नानाविध दान दिये और मुनिजनोंकी पूजा की । हे भूपश्रेष्ठ ! आपके द्वारा इतना महान् पुण्यकार्य किये जानेपर भी आपके पिता स्वर्गको प्राप्त नहीं हुए और न आपका सम्पूर्ण कुल ही पवित्र हो सका । अतः हे महाराज जनमेजय ! आप भक्तिभावसे युक्त होकर देवी भगवतीके एक विशाल मन्दिरका निर्माण कराइये, जिसके द्वारा आप समस्त सिद्धिको प्राप्त कर लेंगे ॥ ५३-५५ ॥
पूजिता परया भक्त्या शिवा सकलदा सदा । कुलवृद्धिं करोत्येव राज्यं च सुस्थिरं सदा ॥ ५६ ॥
सर्वस्व प्रदान करनेवाली भगवती दुर्गा परम श्रद्धापूर्वक पूजित होनेपर सदा वंश-वृद्धि करती हैं तथा राज्यको सदा स्थिरता प्रदान करती हैं ॥ ५६ ॥
जो मनुष्य इस पुराणका नित्य श्रवण करता है, उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । स्वयं भगवतीने भगवान् विष्णुके समक्ष इस अतिश्रेष्ठ पुराणका वर्णन किया था । ६३ ॥