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विमानस्थैर्हरादिभिर्देवीदर्शनम् -
ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन -
ब्रह्मोवाच विमानं तन्मनोवेगं यत्र स्थानान्तरे गतम् । न जलं तत्र पश्यामो विस्मिताः स्मो वयं तदा ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-मनके समान वेगसे उड़नेवाला वह विमान जिस स्थानपर पहुँचा, वहाँ जब हमने जल नहीं देखा तब हमलोगोंको महान् आश्चर्य हुआ ॥ १ ॥
वृक्षाः सर्वफला रम्याः कोकिलारावमण्डिताः । मही महीधराः कामं वनान्युपवनानि च ॥ २ ॥
उस स्थानके वृक्ष सभी प्रकारके फलोंसे लदे हुए और कोकिलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजायमान थे । वहाँकी भूमि, पर्वत, वन और उपवन-ये सभी सुरम्य दृष्टिगोचर हो रहे थे ॥ २ ॥
नार्यश्च पुरुषाश्चैव पशवश्च सरिद्वराः । वाप्यः कूपास्तडागाश्च पल्वलानि च निर्झराः ॥ ३ ॥
उस स्थानपर स्त्रियाँ, पुरुष, पशु, बड़ी नदियाँ, बावलियाँ, कुएँ, तालाब, पोखरे तथा झरने इत्यादि विद्यमान थे ॥ ३ ॥
पुरतो नगरं रम्यं दिव्यप्राकारमण्डितम् । यज्ञशालासमायुक्तं नानाहर्म्यविराजितम् ॥ ४ ॥
वहाँ भव्य चहारदीवारीसे घिरा हुआ एक मनोहर नगर था, जो यज्ञशालाओं तथा अनेक प्रकारके दिव्य महलोंसे सुशोभित था ॥ ४ ॥
तब उस नगरको देखकर हमलोगोंको ऐसी प्रतीति हुई मानो यही स्वर्ग है और फिर हम लोगोंकी यह जिज्ञासा हुई कि इस अद्धत नगरका निर्माण किसने किया है, उस समय हमलोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ! ॥ ५ ॥
थोड़ी ही देर बाद हमारा विमान वायुसे प्रेरित होकर आकाशमें पुनः उड़ने लगा और मुहूर्तभरमें वह पुनः एक अन्य सुरम्य देशमें पहुँच गया ॥ ७ ॥
नन्दनं च वनं तत्र दृष्टमस्माभिरुत्तमम् । पारिजाततरुच्छायासंश्रिता सुरभिः स्थिता ॥ ८ ॥
वहाँपर हमलोगोंको अत्यन्त रमणीक नन्दनवन दृष्टिगत हुआ, जिसमें पारिजातवृक्षकी छायाका आश्रय लिये हुए कामधेनु स्थित थी ॥ ८ ॥
चतुर्दन्तो गजस्तस्याः समीपे समवस्थितः । अप्सरसां तत्र वृन्दानि मेनकाप्रभृतीनि च ॥ ९ ॥ क्रीडन्ति विविधैर्भावैर्गाननृत्यसमन्वितैः । गन्धर्वाः शतशस्तत्र यक्षा विद्याधरास्तथा ॥ १० ॥ मन्दारवाटिकामध्ये गायन्ति च रमन्ति च दृष्टः शतक्रतुस्तत्र पौलोम्या सहितः प्रभुः ॥ ११ ॥
कामधेनुके समीप ही चार दाँतोंवाला ऐरावत हाथी विद्यमान था और वहाँ मेनका आदि अप्सराओंके समूह अपने नृत्यों तथा गानोंमें विविध भाव-भंगिमाओंका प्रदर्शन करते हुए अनेक प्रकारको क्रीडाएँ कर रहे थे । वहाँ मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंमें सैकड़ों गन्धर्व, यक्ष और विद्याधर गा रहे थे और रमण कर रहे थे । वहाँपर इन्द्रभगवान् भी इन्द्राणीके साथ दृष्टिगोचर हुए ॥ ९-११ ॥
वयं तु विस्मिताश्चास्म दृष्ट्वा त्रैविष्टपं तदा । यादःपतिं कुबेरं च यमं सूर्यं विभावसुम् ॥ १२ ॥ विलोक्य विस्मिताश्चास्म वयं तत्र सुरान्स्थितान् । तदा विनिर्गतो राजा पुरात्तस्मात्सुमण्डितात् ॥ १३ ॥
स्वर्गमें निवास करनेवाले देवताओंको देखकर हमें परम विस्मय हुआ । वहाँपर वरुण, कुबेर, यम, सूर्य, अग्नि तथा अन्य देवताओंको स्थित देखकर हम आश्चर्यचकित हुए । उसी समय उस सुसज्जित नगरसे वह राजा निकला ॥ १२-१३ ॥
वहाँ ब्रह्माजीकी सभामें सभी वेद अपनेअपने अंगोंसहित मूर्तरूपमें विराजमान थे । साथ ही समुद्र, नदियाँ, पर्वत, सर्प एवं नाग भी उपस्थित थे ॥ १६ ॥
मामूचतुश्चतुर्वक्त्रः कोऽयं ब्रह्मा सनातनः । ताववोचमहं नैव जाने सृष्टिपतिं पतिम् ॥ १७ ॥
_तत्पश्चात् भगवान् विष्णु और शंकरने मुझसे पूछा-हे चतुर्मुख ! ये दूसरे सनातन ब्रह्मा कौन हैं ? तब मैंने उनसे कहा कि मैं सबके स्वामी तथा सृष्टिकर्ता इन ब्रह्माको नहीं जानता ॥ १७ ॥
कोऽहं कोऽयं किमर्थं वा भ्रमोऽयं मम चेश्वरौ । क्षणादथ विमानं तच्चचालाशु मनोजवम् ॥ १८ ॥
हे ईश्वरो ! मैं कौन हूँ, ये कौन हैं और हम दोनोंका क्या प्रयोजन है ? इसमें मैं भ्रमित हूँ । थोड़ी ही देरमें वह विमान पुन: मनके सदृश वेगसे आगेकी ओर बढ़ा ॥ १८ ॥
कैलासशिखरे प्राप्तं रम्ये यक्षगणान्विते । मन्दारवाटिकारम्ये कीरकोकिलकूजिते ॥ १९ ॥
तत्पश्चात् वह विमान यक्षगणोंसे सुशोभित, मन्दार-वृक्षकी वाटिकाओंके कारण अति सुरम्य, शक और कोयलोंकी मधुर ध्वनिसे गुंजित, वीणा और मृदंग आदि वाद्य-यन्त्रोंकी मधुर ध्वनिसे निनादित, सुखदायक तथा मंगलकारी कैलास-शिखरपर पहुँचा ॥ १९ ॥
उस शिखरपर जब वह विमान पहुँचा; उसी समय वृषभपर आरूढ, पंचमुख, दस भुजाओंवाले, मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण किये हुए भगवान् शंकर अपने दिव्य भवनसे बाहर निकले ॥ २०-२१ ॥
व्याघ्रचर्मपरीधानो गजचर्मोत्तरीयकः । पार्ष्णिरक्षौ महावीरौ गजाननषडाननौ ॥ २२ ॥
उस समय वे व्याघ्रचर्म पहने हुए तथा गजचर्म ओढ़े हुए थे । महाबली गजानन (श्रीगणेश) तथा षडानन (कार्तिकेय) उनके अंगरक्षकके रूपमें विद्यमान थे ॥ २२ ॥
भगवान् शंकरके साथ चल रहे उनके दोनों पुत्र अतीव सुशोभित हो रहे थे । नन्दी आदि सभी प्रधान शिवगण जयघोष करते हुए भगवान् शिवके पीछे-पीछे चल रहे थे । हे नारद ! वहाँ अन्य लोगों तथा शंकरको मातृकाओंसहित देखकर हमलोग विस्मयमें पड़ गये और हे मुने ! मैं संशयग्रस्त हो गया । थोड़ी ही देरमें वह विमान उस कैलासशिखरसे वायुगतिसे लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुके वैकुण्ठलोकमें जा पहुँचा । हे पुत्र ! मैंने वहाँ अद्भुत विभूतियाँ देखीं ॥ २३-२६ ॥
उनका वर्ण अलसीके पुष्पकी भाँति श्याम था, वे पीताम्बर धारण किये हुए थे, उनकी चार भुजाएँ थीं, वे पक्षिराज गरुडपर आरूढ़ थे और दिव्य अलंकारोंसे विभूषित थे । भगवती लक्ष्मी उन्हें शुभ चँवर डुला रही थीं । उन सनातन भगवान् विष्णुजीको देखकर हम सभीको महान् आश्चर्य हुआ ॥ २८-२९ ॥
परस्परं निरीक्षन्तः स्थितास्तस्मिन् वरासने । ततश्चचाल तरसा विमानं वातरंहसा ॥ ३० ॥ सुधासमुद्रः सम्प्राप्तौ मिष्टवारिमहोर्मिमान् । यादोगणसमाकीर्णश्चलद्वीचिविराजितः ॥ ३१ ॥
तदनन्तर परस्पर एक-दूसरेको देखते हुए हमलोग अपने-अपने श्रेष्ठ आसनोंपर बैठे रहे । इसके बाद वह विमान वायुसदृश द्रुत गतिसे पुनः चल पड़ा । कुछ ही क्षणोंमें वह विमान मधुर जलवाले, ऊँचीऊँची लहरोंवाले, नानाविध जल-जन्तुओंसे युक्त तथा चंचल तरंगोंसे शोभायमान अमृत-सागरके तटपर पहुँच गया ॥ ३०-३१ ॥
उस सागरके तटपर विभिन्न पंक्तियोंमें नाना प्रकारके विचित्र रंगोंवाले मन्दार एवं पारिजात आदि वृक्ष शोभायमान थे । वहाँ मोतियोंकी झालरें तथा अनेक प्रकारके पुष्पहार शोभामें वृद्धि कर रहे थे । समुद्रके सभी ओर अशोक, मौलसिरी, कुरबक आदि वृक्ष विद्यमान थे । उसके चारों ओर चित्ताकर्षक केतकी तथा चम्पक पुष्पोंकी वाटिकाएँ थीं, जो कोयलोंकी मधुर ध्वनियोंसे गुंजित तथा नाना प्रकारकी दिव्य सुगन्धिसे परिपूर्ण थीं ॥ ३२-३४ ॥
उस स्थलपर भौरे गुंजार कर रहे थे । इस प्रकार वहाँका दृश्य परम अद्भुत था । उस द्वीपमें हमलोगोंने दूरसे ही विमानपर बैठे-बैठे शिवजीके आकारवाला एक मनोहर तथा अत्यन्त अद्भुत पलंग देखा, जो रत्नमालाओंसे जड़ा हुआ था और नाना प्रकारके रत्नोंसे विभूषित था ॥ ३५-३६ ॥
उस पलंगपर अनेक प्रकारके रंगोंवाली आकर्षक चादरें बिछी थी, जिससे वह पलंग इन्द्रधनुषके समान सुशोभित हो रहा था । उस भव्य पलंगपर एक दिव्यांगना बैठी हुई थी ॥ ३७ ॥
उस देवीने रक्तपुष्पोंकी माला तथा रक्ताम्बर धारण किया था । उसने अपने शरीरमें लाल चन्दनका लेप कर रखा था । लालिमापूर्ण नेत्रोंवाली वह देवी असंख्य विद्युत्की कान्तिसे सुशोभित हो रही थी । सुन्दर मुखवाली, रक्तिम अधरसे सुशोभित, लक्ष्मीसे करोड़ोंगुना अधिक सौन्दर्यशालिनी वह स्त्री अपनी कान्तिसे सूर्यमण्डलकी दीप्तिको भी मानो तिरस्कृत कर रही थी ॥ ३८-३९ ॥
ह्रींकार बीजमन्त्रका जप करनेवाले पक्षियोंका समुदाय उनकी सेवामें निरन्तर रत था । नवयौवनसे सम्पन्न तथा अरुण आभावाली वे कुमारी साक्षात् करुणाकी मूर्ति थीं ॥ ४१ ॥
वे सभी प्रकारके श्रृंगार एवं परिधानोंसे सुसज्जित थीं और उनके मुखारविन्दपर मन्द मुसकान विराजमान थी । उनके उन्नत वक्षःस्थल कमलकी कलियोंसे भी बढ़कर शोभायमान हो रहे थे । नानाविध मणियोंसे जटित आभूषणोंसे वे अलंकृत थीं । स्वर्णनिर्मित कंकण, केयूर और मुकुट आदिसे वे सुशोभित थीं । स्वर्णनिर्मित श्रीचक्राकार कर्णफूलसे सुशोभित उनका मुखारविन्द अतीव दीप्तिमान् था । उनकी सखियोंका समुदाय 'हल्लेखा' तथा 'भुवनेशी' नामोंका सतत जप कर रहा था और अन्य सखियाँ उन भुवनेशी महेश्वरीकी अनवरत स्तुति कर रही थीं । हल्लेखा' आदि देवकन्याओं तथा 'अनंगकुसुमा' आदि देवियोंसे वे घिरी हुई थीं । वे षट्कोणके मध्यमें यन्त्रराजके ऊपर विराजमान थीं ॥ ४२-४६ ॥
दृष्ट्वा तां विस्मिताः सर्वे वयं तत्र स्थिताऽभवन् । केयं कान्ता च किं नाम न जानीमोऽत्र संस्थिताः ॥ ४७ ॥
उन भगवतीको देखकर वहाँ स्थित हम सभी आश्चर्यचकित हो गये और कुछ देरतक वहीं ठहरे रहे । हमलोग यह नहीं जान पाये कि वे सुन्दरी कौन हैं और उनका क्या नाम है ? ॥ ४७ ॥
हे नारद ! हम सोचने लगे कि ये न तो अप्सरा, न गन्धर्वी और न देवांगना ही दीखती हैं, तो फिर ये कौन हो सकती हैं ? हम इसी संशयमें पड़कर वहाँ खड़े रहे ॥ ४९ ॥
तदाऽसौ भगवान्विष्णुर्दृष्ट्वा तां चारुहासिनीम् । उवाचाम्बां स्वविज्ञानात्कृत्वा मनसि निश्चयम् ॥ ५० ॥ एषा भगवती देवी सर्वेषां कारणं हि नः । महाविद्या महामाया पूर्णा प्रकृतिरव्यया ॥ ५१ ॥
तब उन सुन्दर हासवाली देवीको देखकर भगवान् विष्णुने अपने अनुभवसे मनमें निश्चित करके हमसे कहा-ये साक्षात् भगवती जगदम्बा हम सबकी कारणस्वरूपा हैं । ये ही महाविद्या, महामाया, पूर्णा तथा शाश्वत प्रकृतिरूपा हैं ॥ ५०-५१ ॥
दुर्ज्ञेयाऽल्पधियां देवी योगगम्या दुराशया । इच्छा परात्मनः कामं नित्यानित्यस्वरूपिणी ॥ ५२ ॥
अल्प बुद्धिवाले गम्भीर आशयवाली इन भगवतीको सम्यक् रूपसे नहीं जान सकते, केवल योगमार्गसे ही ये ज्ञेय हैं । ये देवी परमात्माकी इच्छास्वरूपा तथा नित्यानित्य-स्वरूपिणी हैं ॥ ५२ ॥
पूर्वकालमें हमलोगोंने बड़े प्रयत्नसे जो तपस्या की थी, उसीका यह उत्तम परिणाम है; अन्यथा भगवती हमलोगोंको स्नेहपूर्वक दर्शन कैसे देती ? ॥ ५८ ॥
पश्यन्ति पुण्यपुञ्जा ये ये वदान्यास्तपस्विनः । रागिणो नैव पश्यन्ति देवीं भगवतीं शिवाम् ॥ ५९ ॥
जो उदार हदयवाले पुण्यात्मा तथा तपस्वीलोग हैं, वे ही इनके दर्शन प्राप्त करते हैं, किंतु विषयासक्तलोग इन कल्याणमयी भगवतीके दर्शनसे सर्वथा वंचित रहते हैं ॥ ५९ ॥
मूलप्रकृतिरेवैषा सदा पुरुषसङ्गता । ब्रह्माण्डं दर्शयत्येषा कृत्वा वै परमात्मने ॥ ६० ॥
ये ही मूलप्रकृतिस्वरूपा भगवती परमपुरुषके सहयोगसे ब्रह्माण्डकी रचना करके परमात्माके समक्ष उसे उपस्थित करती हैं ॥ ६० ॥
हे देवो ! यह पुरुष द्रष्टामात्र है और समस्त ब्रह्माण्ड तथा देवतागण दृश्यस्वरूप हैं । महामाया, कल्याणमयी, सर्वव्यापिनी सर्वेश्वरी ये भगवती ही इन सबका मूल कारण हैं । ६१ ॥
क्वाहं वा क्व सुराः सर्वे रम्भाद्याः सुरयोषितः । लक्षांशेन तुलामस्या न भवामः कथञ्चन ॥ ६२ ॥
कहाँ मैं, कहाँ सभी देवता और कहाँ रम्भा आदि देवांगनाएँ । हम सभी इन भगवतीकी तुलनामें उनके लक्षांशके बराबर भी नहीं हैं । ६२ ॥
सैषा वराङ्गना नाम या वै दृष्टा महार्णवे । बालभावे महादेवी दोलयन्तीव मां मुदा ॥ ६३ ॥
ये वे ही महादेवी जगदम्बा हैं, जिन्हें हमलोगोंने प्रलयसागरमें देखा था और जो बाल्यावस्थामें मुझे प्रसन्नतापूर्वक पालनेमें झुला रही थीं । ६३ ॥
उस समय मैं एक सुस्थिर तथा दृढ़ वटपत्ररूपी पलंगपर सोया हुआ था और अपने पैरका अंगूठा अपने मुखारविन्दमें डालकर चूस रहा था । अत्यन्त कोमल अंगोंवाला मैं उस समय अनेक बालसुलभ चेष्टाएँ करता हुआ उसी वटपत्रके दोने में पड़े-पड़े खेल रहा था ॥ ६४-६५ ॥
गायन्ती दोलयन्ती च बालभावान्मयि स्थिते । सेयं सुनिश्चितं ज्ञातं जातं मे दर्शनादिव ॥ ६६ ॥
उस समय गाती हुई ये भगवती बालभावमें स्थित मुझे झूला झुलाती थीं । इन्हें देखकर मुझे यह सुनिश्चित ज्ञान हो गया है कि वे ही यहाँ विराजमान हैं ॥ ६६ ॥