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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
चतुर्थोऽध्यायः

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विष्णुना कृतं देवीस्तोत्रम् -
भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, -


ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा भगवान्विष्णुः पुनराह जनार्दनः ।
वयं गच्छेम पार्श्वेऽस्याः प्रणमन्तः पुनः पुनः ॥ १ ॥
सेयं वरा महामाया दास्यत्येषा वरान् हि नः ।
स्तुवामः सन्निधिं प्राप्य निर्भयाश्चरणान्तिके ॥ २ ॥
यदि नो वारयिष्यन्ति द्वारस्थाः परिचारकाः ।
पठिष्यामश्च तत्रस्थाः स्तुतिं देव्याः समाहिताः ॥ ३ ॥
भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! ऐसा कहकर जनार्दन भगवान् विष्णुने पुनः कहा-हमलोग बार-बार प्रणाम करते हुए उनके पास चलें । वे वरदायिनी महामाया हमें अवश्य वरदान देंगी । अत: निर्भय होकर हमें उनके चरणोंके निकट चलकर उनकी स्तुति करनी चाहिये । यदि उनके द्वारपाल हमें वहाँ रोकेंगे तो हमलोग ध्यानपूर्वक वहीं बैठकर देवीकी स्तुति करने लगेंगे ॥ १-३ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्ते हरिणा वाक्ये सुप्रहृष्टौ सुसंस्थितौ ।
जातौ प्रमुदितौ कामं निकटे गमनाय च ॥ ४ ॥
ओमित्युक्त्वा हरिं सर्वे विमानात्त्वरितास्त्रयः ।
उत्तीर्य निर्गता द्वारि शङ्कमाना मनस्यलम् ॥ ५ ॥
द्वारस्थान् वीक्ष्य तान्सर्वान्देवी भगवती तदा ।
स्मितं कृत्वा चकाराशु तांस्त्रीन्स्त्रीरूपधारिणः ॥ ६ ॥
ब्रह्माजी बोले-भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर मैं तथा शिव-हम दोनों प्रसन्नतासे गद्गद होकर शीघ्र उनके निकट जानेको उत्सुक हो गये । विष्णुसे 'ठीक है'-ऐसा कहकर हम तीनों शीघ्रतापूर्वक विमानसे उतरकर मन-ही-मन अनेक तर्क-वितर्क करते हुए भगवतीके द्वारपर ज्यों ही पहुँचे, त्यों ही द्वारपर स्थित हम सभीको देखकर मन्द मुसकान करके उन भगवतीने हम तीनोंको स्त्रीरूपमें परिणत कर दिया ॥ ४-६ ॥

वयं युवतयो जाताः सुरूपाश्चारुभूषणाः ।
विस्मयै परमं प्राप्ता गतास्तत्सन्निधिं पुनः ॥ ७ ॥
हमलोग नाना प्रकारके भूषणोंसे अलंकृत रूपवती युवती बन गये और अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर उन महामाया भगवतीके पास पुनः गये ॥ ७ ॥

सा दृष्ट्वा नः स्थितांस्तत्र स्त्रीरूपांश्चरणान्तिके ।
व्यलोकयत चार्वङ्गी प्रेमसम्पूर्णया दृशा ॥ ८ ॥
स्त्रीके वेषमें हमलोगोंको अपने चरणोंके निकट देखकर अत्यन्त मनोहर रूपवाली उन देवीने हमलोगोंके ऊपर कृपादृष्टि डाली ॥ ८ ॥

प्रणम्य तां महादेवीं पुरतः संस्थिता वयम् ।
परस्परं लोकयन्तः स्त्रीरूपाश्चारुभूषणाः ॥ ९ ॥
उस समय महामाया भगवतीको प्रणाम करके स्त्री-वेषधारी तथा दिव्य वस्त्राभरण धारण किये हम तीनों परस्पर एक दूसरेको देखते हुए उनके सामने खड़े रहे ॥ ९ ॥

पादपीठं प्रेक्षमाणा नानामणिविभूषितम् ।
सूर्यकोटिप्रतीकाशं स्थितास्तत्र वयं त्रयः ॥ १० ॥
विविध प्रकारके मणिजटित एवं करोड़ों सूर्यके समान देदीप्यमान देवीके पादपीठको देखते हुए हम तीनों वहीं स्थित रहे ॥ १० ॥

काश्चिद्‌रक्ताम्बरास्तत्र सहचर्यः सहस्रशः ।
काश्चिन्नीलाम्बरा नार्यस्तथा पीताम्बराः शुभाः ॥ ११ ॥
उन महादेवीकी हजारों सेविकाओंमेंसे कुछने रक्त वस्त्र, कुछने नीले वस्त्र और कुछने सुन्दर पीत वस्त्र धारण कर रखे थे ॥ ११ ॥

देव्यः सर्वाः शुभाकारा विचित्राम्बरभूषणाः ।
विरेजुः पार्श्वतस्तस्याः परिचर्यापराः किल ॥ १२ ॥
वहाँ उपस्थित सभी देवियाँ सुन्दर स्वरूपकी थीं और विचित्र वस्त्र एवं आभूषणोंसे सुसज्जित थीं । वे सब जगदम्बाकी विभिन्न सेवाओंमें तत्पर थीं ॥ १२ ॥

जगुश्च ननृतुश्चान्याः पर्युपासन्त ताः स्त्रियः ।
वीणामारुतवाद्यानि वादयन्तो मुदान्विताः ॥ १३ ॥
उनमेंसे कुछ गा रही थीं, कुछ नाच रही थीं और कुछ स्त्रियाँ हर्षके साथ वीणा तथा मुखवाद्य बजाती हुई अन्य सेवाओंमें संलग्न थीं ॥ १३ ॥

शृणु नारद वक्ष्यामि यद्‌दृष्टं तत्र चाद्‌भुतम् ।
नखदर्पणमध्ये वै देव्याश्चरणपङ्कजे ॥ १४ ॥
ब्रह्माण्डमखिलं सर्वं तत्र स्थावरजङ्गमम् ।
अहं विष्णुश्च रुद्रश्च वायुरग्निर्यमो रविः ॥ १५ ॥
वरुणः शीतगुस्त्वष्टा कुबेरः पाकशासनः ।
पर्वताः सागरा नद्यो गन्धर्वाप्सरसस्तथा ॥ १६ ॥
विश्वावसुश्चित्रकेतुः श्वेतश्चित्राङ्गदस्तथा ।
नारदस्तुम्बुरुश्चैव हाहाहूहूस्तथैव च ॥ १७ ॥
अश्विनौ वसवः साध्याः सिद्धाश्च पितरस्तथा ।
नागाः शेषादयः सर्वे किन्नरोरगराक्षसाः ॥ १८ ॥
हे नारदजी ! वहाँ मैंने भगवतीके चरणकमलके नखरूपी दर्पणमें जो अद्भुत दृश्य देखा, उसे बताता हूँ, आप सुनें । वहाँ मुझे समस्त स्थावर-जंगमात्मक ब्रह्माण्ड, मैं (ब्रह्मा, विष्णु, शिव, वायु, अग्नि, यम, सूर्य, वरुण, चन्द्रमा, विश्वकर्मा, कुबेर, इन्द्र, पर्वत, समुद्र, नदियाँ, गन्धर्व, अप्सराएँ, विश्वावसु, चित्रकेतु, श्वेत, चित्रांगद, नारद, तुम्बुरु, हाहा-हूहू, दोनों अश्विनीकुमार, अष्टवसु, साध्य, सिद्धगण, पितर, शेष आदि नाग, सभी किन्नर, उरग और राक्षसगण दिखायी दे रहे थे ॥ १४-१८ ॥

वैकुण्ठो ब्रह्मलोकश्च कैलासः पर्वतोत्तमः ।
सर्वं तदखिलं दृष्टं नखमध्यस्थितं च नः ॥ १९ ॥
मज्जन्मपङ्कजं तत्र स्थितोऽहं चतुराननः ।
शेषशायी जगन्नाथस्तथा च मधुकैटभौ ॥ २० ॥
वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक तथा पर्वत श्रेष्ठ कैलास-इन सबको हमने उनके पद-नखमें विराजमान देखा । उसीमें मेरा जन्मस्थान कमल भी था और मैं चतुरानन उस कमलकोशमें बैठा हुआ था । मधु-कैटभ नामके दोनों दानव तथा शेषशायी महाविष्णु भी उसीमें विराजमान थे ॥ १९-२० ॥

ब्रह्मोवाच
एवं दृष्टं मया तत्र पादपद्मनखे स्थितम् ।
विस्मतोऽहं ततो वीक्ष्य किमेतदिति शङ्‌कितः ॥ २१ ॥
ब्रह्माजी बोले-इस प्रकार परमेश्वरीके चरणकमलके नखमें स्थित यह सारा दृश्य मुझे दिखायी दिया, जिसे देखकर मैं चकित रह गया और मनही-मन सोचने लगा-'यह क्या है ?' ॥ २१ ॥

विष्णुश्च विस्मयाविष्टः शङ्करश्च तथा स्थितः ।
तां तदा मेनिरे देवीं वयं विश्वस्य मातरम् ॥ २२ ॥
मेरे ही समान विष्णु और शिव भी वहाँ आश्चर्य-चकित होकर खड़े थे । उस समय हम तीनोंने समझ लिया कि समस्त जगत्की जननी ये ही महादेवी हैं ॥ २२ ॥

ततो वर्षशतं पूर्णं व्यतिक्रान्तं प्रपश्यतः ।
सुधामये शिवे द्वीपे विहारं विविधं तदा ॥ २३ ॥
इस प्रकार अमृतमय एवं कल्याणमय उस द्वीपमें अनेक प्रकारके अद्भुत दृश्य देखते हुए हमारे सौ वर्ष व्यतीत हो गये ॥ २३ ॥

सख्य इव तदा तत्र मेनिरेऽस्मानवस्थितान् ।
देव्यः प्रमुदिताकारा नानाभरणमण्डिताः ॥ २४ ॥
वयमप्यतिरम्यत्वाद्‌बभूविम विमोहिताः ।
प्रहृष्टमनसः सर्वे पश्यन्भावान्मनोरमान् ॥ २५ ॥
वहाँकी प्रसन्नवदना एवं विचित्र अलंकारोंसे अलंकृत देवियाँ हम तीनोंको अपनी सखियाँ समझती थीं और हमलोग भी उनके स्नेहपूर्ण सद्व्यवहारसे मुग्ध थे तथा उनके मनोरम भावोंको देखकर अतीव प्रसन्न थे । २४-२५ ॥

एकदा तां महादेवीं देवीं श्रीभुवनेश्वरीम् ।
तुष्टाव भगवान्विष्णुर्युवतीभावसंस्थितः ॥ २६ ॥
एक बार नारीरूपमें स्थित भगवान् विष्णु महादेवी भगवती श्रीभुवनेश्वरीकी स्तुति करने लगे- ॥ २६ ॥

श्रीभगवानुवाच
नमो देव्यै प्रकृत्यै च विधात्र्यै सततं नमः ।
कल्याणै कामदायै च वृद्ध्यै सिद्ध्यै नमो नमः ॥ २७ ॥
सच्चिदानन्दरूपिण्यै संसारारणये नमः ।
पञ्चकृत्यविधात्र्यै ते भुवनेश्यै नमो नमः ॥ २८ ॥
श्रीभगवान् बोले-प्रकृति एवं विधात्रीदेवीको मेरा निरन्तर नमस्कार है । कल्याणी, कामप्रदा, वृद्धि तथा सिद्धिदेवीको बार-बार नमस्कार है । सच्चिदानन्दरूपिणी तथा संसारकी योनिस्वरूपा देवीको नमस्कार है । आप पंचकृत्य विधात्री तथा श्रीभुवनेश्वरीदेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २७-२८ ॥

सर्वाधिष्टानरूपायै कूटस्थायै नमो नमः ।
अर्धमात्रार्थभूतायै हृल्लेखायै नमो नमः ॥ २९ ॥
समस्त संसारकी एकमात्र अधिष्ठात्री तथा कूटस्थरूपा देवीको बार-बार नमस्कार है । अर्धमात्राकी अर्थभूता एवं हल्लेखादेवीको बार-बार नमस्कार है ॥ २९ ॥

ज्ञातं मयाऽखिलमिदं त्वयि सन्निविष्टं
     त्वत्तोऽस्य सम्भवलयावपि मातरद्य ।
शक्तिश्च तेऽस्य करणे विततप्रभावा
     ज्ञाताऽधुना सकललोकमयीति नूनम् ॥ ३० ॥
विस्तार्य सर्वमखिलं सदसद्विकारं
     सन्दर्शयस्यविकलं पुरुषाय काले ।
तत्त्वैश्च षोडशभिरेव च सप्तभिश्च
     भासीन्द्रजालमिव नः किल रञ्जनाय ॥ ३१ ॥
हे जननि ! आज मैंने जान लिया कि यह समस्त विश्व आपमें समाहित है तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्डकी सृष्टि एवं संहार भी आप ही करती हैं । इस ब्रह्माण्डके निर्माणमें आपकी विस्तृत प्रभाववाली शक्ति ही मुख्य हेतु है, अतः मुझे यह ज्ञात हो गया कि आप ही सम्पूर्ण लोकमें व्याप्त हैं । इस सत् एवं असत् सम्पूर्ण जगत्का विस्तार करके उस चिद्ब्रह्म पुरुषको यथासमय आप इसे समग्ररूपसे प्रस्तुत करती हैं । अपनी प्रसन्नताके लिये सोलह तत्त्वों तथा महदादि अन्य सात तत्त्वोंके साथ आप हमें इन्द्रजालके समान प्रतीत होती हैं ॥ ३०-३१ ॥

न त्वामृते किमपि वस्तुगतं विभाति
     व्याप्यैव सर्वमखिलं त्वमवस्थिताऽसि ।
शक्तिं विना व्यवहृतो पुरुषोऽप्यशक्तो
     वम्भण्यते जननि बुद्धिमता जनेन ॥ ३२ ॥
हे जननि ! आपसे रहित यहाँ कोई भी वस्तु दिखायी नहीं देती, आप ही समस्त जगत्को व्याप्त करके स्थित रहती हैं । बुद्धिमान् पुरुषोंका कथन है कि आपकी शक्तिके बिना वह परमपुरुष कुछ भी करनेमें असमर्थ है ॥ ३२ ॥

प्रीणासि विश्वमखिलं सततं प्रभावैः
     स्वैस्तेजसा च सकलं प्रकटीकरोषि ।
अत्स्येव देवि तरसा किल कल्पकाले
     को वेद देवि चरितं तव वै भवस्य ॥ ३३ ॥
आप अपने कृपाप्रभावसे संसारका कल्याण करती हैं । हे देवि ! आप ही अपने तेजसे सृष्टिकालमें सम्पूर्ण जगत्को उत्पन्न करती हैं तथा प्रलयकालमें इसका शीघ्र ही संहार कर डालती हैं । हे देवि ! आपके वैभवके लीला-चरित्रको भलीभांति जानने में कौन समर्थ है ? ॥ ३३ ॥

त्राता वयं जननि ते मधुकैटभाभ्यां
     लोकाश्‍च ते सुवितताः खलु दर्शिता वै ।
नीताः सुखस्य भवने परमां च कोटिं
     यद्दर्शनं तव भवानि महाप्रभावम् ॥ ३४ ॥
हे जननि ! मधु-कैटभ नामक दोनों दानवोंसे आपने हमारी रक्षा की है, आपने ही हमलोगोंको अपने अनेक विस्तृत लोक दिखाये तथा अपने-अपने भवनमें हमें परमानन्दका अनुभव कराया । हे भवानि ! यह आपके दर्शनका ही महान् प्रभाव है ॥ ३४ ॥

नाहं भवो न च विरिंचि विवेद मातः
     कोऽन्यो हि वेत्ति चरितं तव दुर्विभाव्यम् ।
कानीह सन्ति भुवनानि महाप्रभावे
     ह्यस्मिन्भवानि रचिते रचनाकलापे ॥ ३५ ॥
हे माता ! जब मैं (विष्णु), शिव तथा ब्रह्मा भी आपके अपूर्व चरित्रको जानने में समर्थ नहीं हैं, तव अन्य कोई कैसे जान सकेगा ? हे महिमामयी भवानि ! आपके रचे हुए इस ब्रह्माण्ड-प्रपंचमें न जाने कितने ब्रह्माण्ड भरे पड़े हैं ! ॥ ३५ ॥

अस्माभिरत्र भुवने हरिरन्य एव
     दृष्टः शिवः कमलजः प्रथितप्रभावः ।
अन्येषु देवि भुवनेपु न सन्ति किं ते
     किं विद्म देवि विततं तव सुप्रभावम् ॥ ३६ ॥
हमलोगोंने आपके इस लोकमें अद्भुत प्रभाववाले दूसरे विष्णु, शिव तथा ब्रह्माको देखा है । हे देवि ! क्या वे देवता अन्यान्य लोकोंमें नहीं होंगे ? हमलोग आपकी इस अद्भुत महिमाको कैसे जान सकते हैं ? ॥ ३६ ॥

याचेऽम्ब तेऽङ्‌घ्रिकमलं प्रणिपत्य कामं
     चित्ते सदा वसतु रूपमिदं तवैतत् ।
नामापि वक्त्रकुहरे सततं तवैव
     सन्दर्शनं तव पदाम्बुजयोः सदैव ॥ ३७ ॥
हे जगदम्ब ! हमलोग आपके चरणोंमें मस्तक झुकाकर यही याचना करते हैं कि आपका यह दिव्य स्वरूप हमारे हृदयमें सदा विराजमान रहे, हमारे मुखसे सदा आपका ही नाम निकले और हमारे नेत्र प्रतिदिन आपके चरणकमलोंके दर्शन पाते रहें ॥ ३७ ॥

भृत्योऽयमस्ति सततं मयि भावनीयं
     त्वां स्वामिनीति मनसा ननु चिन्तयामि ।
एषाऽऽवयोरविरता किल देवि भूया-
     द्व्याप्तिः सदैव जननी सुतयोरिवार्थे ॥ ३८ ॥
हे माता ! आपकी यह भावना हमारे प्रति सर्वदा बनी रहे कि ये सब हमारे सेवक हैं और हम भी सर्वथा आपको मनसे अपनी स्वामिनी समझते रहें । हे आर्ये ! इस प्रकार हमारा और आपका माता-पुत्रका अनन्य सम्बन्ध सर्वदा बना रहे ॥ ३८ ॥

त्वं वेत्सि सर्वमखिलं भुवनप्रपञ्चं
     सर्वज्ञता परिसमाप्तिनितान्तभूमिः ।
किं पामरेण जगदम्ब निवेदनीयं
     यद्युक्तमाचर भवानि तवेङ्‌गितं स्यात् ॥ ३९ ॥
हे जगदम्बिके ! आप समस्त ब्रह्माण्ड-प्रपंचको पूर्ण रूपसे जानती हैं; क्योंकि जहाँ सर्वज्ञताकी समाप्ति होती है, उसकी अन्तिम सीमा आप ही हैं । हे भवानि ! मैं पामर कह ही क्या सकता हूँ ? आपको जो उचित लगे, आप वह करें; क्योंकि सब कुछ तो आपहीके संकेतपर होता है ॥ ३९ ॥

ब्रह्मा सृजत्यवति विष्णुरुमापतिश्च
     संहारकारक इयं तु जने प्रसिद्धिः ।
किं सत्यमेतदपि देवि तवेच्छया वै
     कर्तुं क्षमा वयमजे तव शक्तियुक्ताः ॥ ४० ॥
जगत्में ऐसी प्रसिद्धि है कि ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं, किंतु हे देवि ! क्या यह बात सत्य है ? हे अजे ! सच्चाई तो यह है कि आपकी इच्छासे तथा आपसे शक्ति प्राप्तकर हम अपना-अपना कार्य करने में समर्थ हो पाते हैं ॥ ४० ॥

धात्री धराधरसुते न जगद्‌बिभर्ति
     आधारशक्तिरखिलं तव वै बिभर्ति ।
सूर्योऽपि भाति वरदे प्रभया युतस्ते
     त्वं सर्वमेतदखिलं विरजा विभासि ॥ ४१ ॥
हे गिरिजे ! यह पृथ्वी इस जगत्को धारण नहीं करती है अपितु आपकी आधारशक्ति ही इस समस्त जगत्को धारण करती है । हे वरदे ! भगवान् सूर्य भी आपके ही आलोकसे युक्त होकर प्रकाशमान हैं । इस प्रकार आप विरजारूपसे इस सम्पूर्ण जगत्के रूपमें सुशोभित हो रही हैं ॥ ४१ ॥

ब्रह्माऽहमीश्वरवरः किल ते प्रभावा-
     त्सर्वे वयं जनियुता न यदा तु नित्याः ।
केऽन्ये सुराः शतमखप्रमुखाश्च नित्या
     नित्या त्वमेव जननी प्रकृतिः पुराणा ॥ ४२ ॥
ब्रह्मा, मैं (विष्णु) तथा शंकर हम सब आपके ही प्रभावसे उत्पन्न होते हैं । जब हम नित्य नहीं हैं तो फिर इन्द्र आदि प्रमुख देवता कैसे नित्य हो सकते हैं ? समस्त चराचर जगत्की जननी तथा सनातन प्रकृतिरूपा आप ही नित्य हैं । ४२ ॥

त्वं चेद्‌भवानि दयसे पुरुषं पुराणं
     जानेऽहमद्य तव संनिधिगः सदैव ।
नोचेदहं विभुरनादिरनीह ईशो
     विश्वात्मधीरिति तमःप्रकृतिः सदैव ॥ ४३ ॥
हे भवानि ! आपकी सन्निधिमें आनेपर आज मुझे ज्ञात हो गया कि आप मुझ पुराणपुरुषपर सर्वदा दयाभाव बनाये रखती हैं; अन्यथा मैं अपनेको सर्वव्यापी, आदिरहित, निष्काम, ईश्वर तथा विश्वात्मा मान बैठता और अहंकारयुक्त होकर सदाके लिये तमोगुणी प्रकृतिवाला हो जाता ॥ ४३ ॥

विद्या त्वमेव ननु बुद्धिमतां नराणां
     शक्तिस्त्वमेव किल शक्तिमतां सदैव ।
त्वं कीर्तिकान्तिकमलामलतुष्टिरूपा
     मुक्तिप्रदा विरतिरेव मनुष्यलोके ॥ ४४ ॥
आप निश्चय ही सदासे बुद्धिमान् पुरुषोंकी विद्या तथा शक्तिशाली पुरुषोंकी शक्ति हैं । आप इस मनुष्य-लोकमें कीर्ति, कान्ति, कमला, निर्मला तथा तुष्टिस्वरूपा हैं तथा प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाली विरक्तिस्वरूपा हैं ॥ ४४ ॥

गायत्र्यसि प्रथमवेदकला त्वमेव
     स्वाहा स्वधा भगवती सगुणार्धमात्रा ।
आम्नाय एव विहितो निगमो भवत्यै
     सञ्जीवनाय सततं सुरपूर्वजानाम् ॥ ४५ ॥
आप वेदोंकी प्रथम कला गायत्री हैं । आप ही स्वाहा, स्वधा, सगुणा तथा अर्धमात्रा भगवती हैं । आपने ही देवताओं और पूर्वजोंके संरक्षणके लिये आगम तथा निगमकी रचना की है ॥ ४५ ॥

मोक्षार्थमेव रचयस्यखिलं प्रपञ्चं
     तेषां गताः खलु यतो ननु जीवभावम् ।
अंशा अनादिनिधनस्य किलानघस्य
     पूर्णार्णवस्य वितता हि यथा तरङ्गाः ॥ ४६ ॥
जिस प्रकार पूर्ण महासमुद्रकी विस्तृत तरंगें उस समुद्रका ही अंश होती हैं, उसी प्रकार आदि-अन्तसे हीन निष्कलंक ब्रह्मके जीवरूपी अंशोंको मोक्ष प्राप्त करानेके उद्देश्यसे ही आपने सम्पूर्ण जगत्-प्रपंचका निर्माण किया है ॥ ४६ ॥

जीवो यदा तु परिवेत्ति तवैव कृत्यं
     त्वं संहरस्यखिलमेतदिति प्रसिद्धम् ।
नाट्यं नटेन रचितं वितथेऽन्तरङ्गे
     कार्ये कृते विरमसे प्रथितप्रभावा ॥ ४७ ॥
जीवको जब यह विदित हो जाता है कि सम्पूर्ण विश्वप्रपंच आपहीका कृत्य है, तब अमित प्रभाववाली आप उसका उपसंहार कर देती हैं और अपने द्वारा किये गये मिथ्या, किंतु रहस्यपूर्ण कार्यपर उसी प्रकार प्रमुदित होती हैं जिस प्रकार मनोहारी नाटककी रचनापर सफल नट सन्तुष्ट होता है ॥ ४७ ॥

त्राता त्वमेव मम मोहमयाद्‌भवाब्धे-
     स्त्वामम्बिके सततमेमि महार्तिदे च ।
रागादिभिर्विरचिते वितथे किलान्ते
     मामेव पाहि बहुदुःखकरे च काले ॥ ४८ ॥
हे अम्बिके ! आप ही इस मोहमय भव-सागरसे मेरी रक्षा कर सकती हैं । राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंके कारण अत्यन्त कष्टदायक तथा दुःखप्रद मिथ्या अन्तकालमें मेरी रक्षा कीजियेगा, मैं आपके शरणागत हूँ ॥ ४८ ॥

नमो देवि महाविद्ये नमामि चरणौ तव ।
सदा ज्ञानप्रकाशं मे देहि सर्वार्थदे शिवे ॥ ४९ ॥
हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे महाविद्ये ! मैं आपके चरणोंमें नमन करता हूँ । हे सर्वार्थदात्री शिवे ! आप ज्ञानरूपी प्रकाशसे मेरे हदयको आलोक प्रदान कीजिये ॥ ४९ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे विष्णुना कृतं देवीस्तोत्रं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अध्याय चौथा समाप्त


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