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सुबाहुकृतदेवीस्तुतिवर्णनम् -
सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज-आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति -
व्यास उवाच तस्मै गौरवभोज्यानि विधाय विधिवत्तदा । वासराणि च षड्राजा भोजयामास भक्तितः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस समय राजा सुबाहुने छः दिनोंतक विविध प्रकारके भोजन बनवाकर सुदर्शनको प्रेमपूर्वक खिलाया ॥ १ ॥
एवं विवाहकार्याणि कृत्वा सर्वाणि पार्थिवः । पारिबर्हं प्रदत्वाऽथ मन्त्रयन्सचिवैः सह ॥ २ ॥ दूतैस्तु कथितं श्रुत्वा मार्गसंरोधनं कृतम् । बभूव विमना राजा सुबाहुरमितद्युतिः ॥ ३ ॥
इस प्रकार विवाहके सभी कृत्य करके राजा सुबाहु सुदर्शनको उपहार प्रदान करके सचिवोंके साथ मन्त्रणा कर रहे थे, उसी समय अपने दूतोंका यह कथन सुनकर कि विरोधी राजाओंने मार्ग रोक रखा है, वे अमित तेजवाले राजा सुबाहु खिन्नमनस्क हो गये ॥ २-३ ॥
हे राजन् ! भारद्वाजमुनिके पवित्र आश्रममें पहुँचनेपर वहीं सावधानीके साथ आगे रहनेके लिये विचार कर लिया जायगा ॥ ५ ॥
नृपेभ्यश्च न कर्तव्यं भयं किञ्चित्त्वयाऽनघ । जगन्माता भवानी मे साहाय्यं वै करिष्यति ॥ ६ ॥
अतः हे पुण्यात्मन् ! उन राजाओंसे आप कुछ भी भय न करें; क्योंकि जगज्जननी भगवती मेरी सहायता अवश्य करेंगी ॥ ६ ॥
व्यास उवाच तस्येति मतमाज्ञाय जामातुर्नुपसत्तमः । विससर्ज धनं दत्वा प्रतस्थे सोऽपि सत्वरः ॥ ७ ॥ बलेन महताऽऽविष्टो ययावनु नृपोत्तमः । सुदर्शनो वृतस्तत्र चचाल पथि निर्भयः ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-अपने जामाता सुदर्शनका ऐसा विचार जानकर नृपश्रेष्ठ सुबाहुने उन्हें धन देकर विदा कर दिया और वे सुदर्शन भी तत्काल चल पड़े । नृपश्रेष्ठ सुबाहु भी एक विशाल सेना लेकर उनके पीछे-पीछे चले । इस प्रकार उन सैनिकोंसे आवत सुदर्शन निर्भय होकर मार्गमें चले जा रहे थे ॥ ७-८ ॥
राजा सुबाहु भी उन सैनिकोंको देखकर चिन्तित हुए । तब सुदर्शनने विधिपूर्वक अपने मनमें भगवती जगदम्बाका ध्यान किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी शरण ली । उस समय सुदर्शन एकाक्षर कामराज नामक सर्वोत्तम मन्त्रका जप कर रहे थे, उसके प्रभावसे वे अपनी नवविवाहिता पत्नीके साथ निर्भय तथा चिन्तामुक्त थे ॥ १०-११ ॥
उस समय एक दूसरेको मार डालनेकी अभिलाषावाले महाराज सुबाहु तथा अन्य राजाओंकी सेनाओंमें शंख भेरी, नगाड़े और दुन्दुभि बजने लगे ॥ १४ ॥
शत्रुजित्तु सुसंवृत्तः स्थितस्तत्र जिघांसया । युधाजित्तत्सहायार्थं सन्नद्धः प्रबभूव ह ॥ १५ ॥ केचिच्च प्रेक्षकास्तस्य सहानीकैः स्थितास्तदा । युधाजिदग्रतो गत्वा सुदर्शनमुपस्थितः ॥ १६ ॥ शत्रुजित्तेन सहितो हन्तुं भ्रातरमानुजः । परस्परं ते बाणौघैस्ततक्षुः क्रोधमूर्छिताः ॥ १७ ॥ सम्मर्दः सुमहांस्तत्र सम्प्रवृत्तः सुमार्गणैः । काशीपतिस्तदा तूर्णं सैन्येन बहुना वृतः ॥ १८ ॥
सुदर्शनको मार डालनेकी इच्छासे शत्रुजित् सैन्य बलसे युक्त होकर बड़ी तत्परतासे तैयार खड़ा था और राजा युधाजित् भी उसकी सहायताके लिये सन्नद्ध थे । उनमें कुछ राजागण अपनी सेनाके साथ दर्शकके रूपमें खड़े थे । तभी युधाजित् आगे बढ़कर सुदर्शनके समक्ष जा डया । उसके साथ शत्रुजित् भी अपने भाईका वध करनेके लिये आ गया । तब क्रोधके वशीभूत होकर वे सब परस्पर एक-दूसरेपर बाणोंसे प्रहार करने लगे । इस प्रकार वहाँ बाणोंद्वारा बड़ा भारी संग्राम छिड़ गया । तब काशीनरेश सुबाहु एक विशाल सेना लेकर अपने सुप्रशंसित जामाताकी सहायताके लिये जा पहुँचे ॥ १५-१८ ॥
साहाय्यार्थं जगामाशु जामातरमनिन्दितम् । एवं प्रवृत्ते सङ्ग्रामे दारुणे लोमहर्षणे ॥ १९ ॥ प्रादुर्बभूव सहसा देवी सिंहोपरि स्थिता । नानायुधधरा रम्या वराभूषणभूषिता ॥ २० ॥
इस प्रकार भयानक लोमहर्षक संग्राम छिड़ जानेपर सहसा भगवती प्रकट हो गयीं । वे सिंहपर सवार थीं, विविध प्रकारके शस्त्रास्त्र धारण किये थीं, अत्यन्त मनोहर थीं तथा उत्तम आभूषणोंसे अलंकृत थीं, दिव्य वस्त्र पहने थी और मन्दारकी मालासे सुशोभित थीं ॥ १९-२० ॥
दिव्याम्बरपरीधाना मन्दारस्रक्सुसंयुता । तां दृष्ट्वा तेऽथ भूपाला विस्मयं परमं गताः ॥ २१ ॥ केयं सिंहसमारूढा कुतो वेति समुत्थिता । सुदर्शनस्तु तां वीक्ष्य सुबाहुमिति चाब्रवीत् ॥ २२ ॥ पश्य राजन्महादेवीमागतां दिव्यदर्शनाम् । अनुग्रहाय मे नूनं प्रादुर्भूता दयान्विता ॥ २३ ॥
उन्हें देखकर वे राजागण अत्यन्त चकित हो गये । वे कहने लगे कि सिंहपर सवार यह स्त्री कौन है और कहाँसे प्रकट हो गयी है ? उन्हें देखकर सुदर्शनने सुबाहुसे कहा-हे राजन् ! यहाँ प्रादुर्भूत हुई इन दिव्य दर्शनवाली महादेवीको आप देखें । ये दयामयी भगवती निश्चय ही मुझपर अनुग्रह करनेके लिये प्रकट हुई हैं । हे महाराज ! मैं निर्भय तो पहले ही था, किंतु अब और भी अधिक निर्भय हो गया ॥ २१-२३ ॥
निर्भयोऽहं महाराज जातोऽस्मि निर्भयादपि । सुदर्शनः सुबाहुश्च तामालोक्य वराननाम् ॥ २४ ॥ प्रणामं चक्रतुस्तस्या मुदितौ दर्शनेन च । ननाद च तदा सिंहो गजास्त्रस्ताश्चकम्पिरे ॥ २५ ॥ ववुर्वाता महाघोरा दिशश्चासन्सुदारुणाः ।
सुदर्शन और सुबाहुने उन सुमुखी भगवतीको देखकर उन्हें प्रणाम किया । उनके दर्शनसे वे दोनों प्रसन्न हो गये । उसी समय भगवतीके सिंहने भीषण गर्जन किया, जिससे उस रणभूमिमें विद्यमान सभी हाथी भयसे काँपने लगे । उस समय महाभीषण आँधी चलने लगी और सभी दिशाएँ अत्यन्त भयानक हो गयीं ॥ २४-२५.५ ॥
सुदर्शनस्तदा प्राह निजं सेनापतिं प्रति ॥ २६ ॥ मार्गे व्रज त्वं तरसा भूपाला यत्र संस्थिताः । किं करिष्यन्ति राजानः कुपिता दुष्टचेतसः ॥ २७ ॥ शरणार्थञ्च सम्प्राप्ता देवी भगवती हि नः । निरातङ्कैश्च गन्तव्यं मार्गेऽस्मिन्भूपसङ्कुले ॥ २८ ॥ स्मृता मया महादेवी रक्षणार्थमुपागता । तच्छ्रुत्वा वचनं सेनापतिस्तेन पथाऽव्रजत् ॥ २९ ॥
तब सुदर्शनने अपने सेनापतिसे कहा कि जहाँ ये राजागण [मार्ग रोककर खड़े हैं, उधर ही तुम वेगसे आगे बढ़ो । ये दुष्ट तथा कुपित राजालोग हमारा क्या कर लेंगे ? अब हमें शरण देनेके लिये स्वयं भगवती जगदम्बा आ गयी हैं । अतएव हमें निर्भय होकर राजाओंसे भरे इस मार्गपर आगे बढ़ना चाहिये । मेरे स्मरण करते ही मेरी रक्षाके लिये ये भगवती आ गयी हैं । सुदर्शनका वचन सुनकर सेनापति उसी मार्गसे आगे बढ़ा ॥ २६-२९ ॥
सिंहपर विराजमान उस स्त्रीको देखकर तुमलोग क्यों डरते हो ? हे महाभाग राजाओ ! इस समय सुदर्शनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये और अत्यन्त सावधान होकर इसका वध कर देना चाहिये ॥ ३२ ॥
अब वह कानतक धनुष खींचकर लोहकारके द्वारा सानपर चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए, शिलापर घिसकर तेज किये गये तथा समान पुच्छयुक्त बाणोंको शीघ्रतापूर्वक छोड़ने लगा ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उसके ऊपर प्रहार करके वह दुर्बुद्धि युधाजित् सुदर्शनको मार डालना चाहता था, किंतु सुदर्शनने उसके बाणोंको छूटते ही अपने बाणोंसे क्षणभरमें काट डाला ॥ ३६ ॥
एवं युद्धे प्रवृत्तेऽथ चुकोप चण्डिका भृशम् । दुर्गादेवी मुमोचाथ बाणान् युधाजितं प्रति ॥ ३७ ॥
वह भीषण युद्ध छिड़ जानेपर भगवती चण्डिका अत्यन्त क्रुद्ध हो उठी और युधाजित्पर बाण बरसाने लगीं ॥ ३७ ॥
आप शिवा और शान्तिदेवीको नमस्कार है । हे मोक्षदायिनि ! आप विद्यास्वरूपिणीको नमस्कार है । हे जगन्माता ! हे शिवे ! आप विश्वव्यापिनी तथा जगज्जननीको नमस्कार है ॥ ४३ ॥
हे देवि ! मैं सगुण प्राणी अपनी बुद्धिसे बहुत प्रकारसे चिन्तन करके भी आप निर्गुणा भगवतीकी गतिको नहीं जान पाता । हे विश्वजननि ! प्रत्यक्ष प्रभाववाली, भक्तोंकी पीड़ा दूर करने में तत्पर तथा परम शक्तिस्वरूपा आपकी स्तुति मैं कैसे करूं ? ॥ ४४ ॥
आप ही देवी सरस्वती हैं, आप ही बुद्धिरूपसे सबके भीतर विराजमान हैं, आप ही सब प्राणियोंकी विद्या, मति और गति हैं और आप ही सबके मनका नियन्त्रण करती हैं, तब मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ ? सर्वव्यापी आत्माके रूपकी भी स्तुति भला कभी की जा सकती है ? ॥ ४५ ॥
देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा, विष्णु और शिव निरन्तर आपकी स्तुति करते हुए भी आपके गुणोंके पार नहीं जा सके । तब हे अम्ब ! भेदबुद्धिवाला, सत्व आदि गुणोंसे आबद्ध तथा अप्रसिद्ध एक तुच्छ जीव मैं आपके चरित्रका वर्णन करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ ? ॥ ४६ ॥
अहो ! सत्संग कौन-सा मनोरथ पूर्ण नहीं कर देता ? आपके इस प्रासंगिक संगसे ही मेरा चित्त शुद्ध हो गया । [आपके भक्त] अपने इस जामाता सुदर्शनके संगके प्रभावसे मैंने अनायास आपका यह अद्भुत दर्शन पा लिया ॥ ४७ ॥
हे जननि ! ब्रह्मा, शिव, भगवान् विष्णु, इन्द्रसहित सभी देवता तथा तत्त्वज्ञानी मुनिलोग भी आपके जिस दर्शनको चाहते हैं, वह आपका दुर्लभ दर्शन मुझे बिना शम, दम तथा समाधि आदिके ही प्राप्त हो गया ॥ ४८ ॥
हे भवानि ! कहाँ अतिशय मन्दमति मैं और कहाँ भवरूपी रोगके लिये औषधिस्वरूप आपका यह शीघ्र अद्वितीय दर्शन ! हे देवि ! मुझे ज्ञात हो गया कि आप सदा भावनायुक्त रहती हैं । देवसमूहद्वारा पूजी जानेवाली आप अपने भक्तोंपर अनुकम्पा करती हैं ॥ ४९ ॥
हे देवि ! आपने इस भीषण संकटके समय जिस प्रकार इस सुदर्शनकी रक्षा की है, आपके इस चरित्रका मैं किस तरह वर्णन करूं ? आपने आज इसके दो बलवान् शत्रुओंको तत्काल मार डाला । भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाला आपका यह चरित्र परम पवित्र है ॥ ५० ॥
हे देवि ! विशेष विचार करनेपर ज्ञात होता है कि आपका ऐसा करना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि आप अखिल स्थावर-जंगम जगत्की रक्षा करती हैं । आपने शत्रुको मारकर दयालुतावश ध्रुवसन्धिके पुत्र इस सुदर्शनकी इस समय रक्षा की ॥ ५१ ॥
हे भवानि ! अपने सेवापरायण भक्तके यशको अत्यन्त उज्ज्वल बनानेके लिये ही आपने इस चरित्रकी रचना की है, नहीं तो मेरी कन्याका पाणिग्रहण करके यह असमर्थ सुदर्शन युद्धमें सकुशल जीवित कैसे बच सकता था ? ॥ ५२ ॥
जब आप अपने भक्तोंके जन्म-मरण आदि भयोंको नष्ट करने में समर्थ हैं, तब उसकी लौकिक अभिलाषा पूर्ण कर देना कौन बड़ी बात है ? हे जननि ! आप पाप-पुण्यसे रहित, सगुणा तथा निर्गुणा हैं । इसी कारण भक्तजन सदा आपके गुण गाते रहते हैं ॥ ५३ ॥
त्वद्दर्शनादहमहो सुकृती कृतार्थो जातोऽस्मि देवि भुवनेश्वरि धन्यजन्मा । बीजं न ते न भजनं किल वेद्मि मात- र्ज्ञातस्तवाद्य महिमा प्रकटप्रभावः ॥ ५४ ॥
हे देवि ! हे भुवनेश्वरि ! आज आपके दर्शनसे मैं पवित्र, कृतार्थ और धन्य जन्मवाला हो गया । है माता ! मैं न आपका भजन जानता हूँ और न तं बीजमन्त्र जानता हूँ । मैं आपकी प्रत्यक्ष प्रभाववाली महिमाको आज जान गया ॥ ५४ ॥
व्यास उवाच एवं स्तुता तदा देवी प्रसन्नवदना शिवा । उवाच च नृपं देवी वरं वरय सुव्रत ॥ ५५ ॥
व्यासजी बोले-महाराज सुबाहुके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती शिवाका मुखमण्डल प्रसन्नता भर गया । तब भगवतीने उन राजासे कहा-हे सुव्रत, तुम वर माँगो ॥ ५५ ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे सुबाहुकृतदेवीस्तुतिवर्णनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥