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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
द्वाविंशोऽध्यायः

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सुदर्शनशशिकलयोर्विवाहवर्णनम् -
शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना -


व्यास उवाच
श्रुत्वा सुतावाक्यमनिन्दितात्मा
     नृपांश्च गत्वा नृपतिर्जगाद ।
व्रजन्तु कामं शिविराणि भूपाः
     श्‍वो वा विवाहं किल संविधास्ये ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-पवित्र अन्त:करणवाले राजा सुबाहु कन्याकी बात सुनकर राजाओंके पास जाकर बोले-हे महाराजाओ ! आपलोग इस समय अपनेअपने शिविरमें जायें, मैं कन्याका विवाह कल करूँगा ॥ १ ॥

भक्ष्याणि पेयानि मयाऽर्पितानि
     गृह्णन्तु सर्वे मयि सुप्रसन्नाः ।
श्‍वो भावि कार्यं किल मण्डपेऽत्र
     समेत्य सर्वैरिह संविधेयम् ॥ २ ॥
आपलोग मुझपर कृपा करके मेरे द्वारा अर्पित की गयी भोज्य वस्तुएँ स्वीकार करें । अब यह विवाहकार्य कल पुनः इसी स्वयंवर-मण्डपमें होगा । हम सब मिलकर उसे सम्पन्न करेंगे ॥ २ ॥

नायाति पुत्री किल मण्डपेऽद्य
     करोमि किं भूपतयोऽत्र कामम् ।
प्रातः समाश्वास्य सुतां नयिष्ये
     गच्छन्तु तस्माच्छिविराणि भूपाः ॥ ३ ॥
न विग्रहो बुद्धिमतां निजाश्रिते
     कृपा विधेया सततं ह्यपत्ये ।
विधाय तां प्रातारिहानयिष्ये
     सुतां तु गच्छन्तु नृपा यथेष्टम् ॥ ४ ॥
हे नृपतिगण ! आज मेरी पुत्री मण्डपमें नहीं आ रही है । मैं क्या करूँ ? कल प्रातः पुत्रीको समझाबुझाकर अवश्य लाऊँगा । अब सभी राजागण अपनेअपने शिविरमें चलें । बुद्धिमानोंको अपने आश्रितजनोंके प्रति विरोधभाव नहीं रखना चाहिये और अपनी सन्तानपर तो निरन्तर विशेष कृपा करनी चाहिये । हे नृपगण ! प्रात:काल समझा-बुझाकर मैं अपनी पुत्रीको यहाँ ले आऊँगा; इस समय आपलोग जायें । ३-४ ॥

इच्छापणं वा परिचिन्त्य चित्ते
     प्रातः करिष्याम्यथ संविवाहम् ।
सर्वैः समेत्यात्र नृपैः समेतैः
     स्वयंवरः सर्वमतेन कार्यः ॥ ५ ॥
मैं इच्छास्वयंवरकी बातको भलीभाँति सोचकर प्रातः कन्याका विवाह कर दूंगा । एक साथ सभी राजाओंके उपस्थित हो जानेपर सबकी सम्मतिसे स्वयंवरका कार्य सम्पन्न होगा ॥ ५ ॥

श्रुत्वा नृपास्तेऽवितथं विदित्वा
     वचो ययुः स्वानि निकेतनानि ।
विधाय पार्श्वे नगरस्य रक्षां
     चक्रुः क्रिया मध्यदिनोदिताश्च ॥ ६ ॥
सुबाहुकी वाणी सुनकर सभी राजागण उसे सच मानकर अपने-अपने शिविरमें चले गये और नगरके आस-पास रक्षाका सम्यक् प्रबन्ध करके वे मध्याह्नकालकी क्रियाओंमें संलग्न हो गये ॥ ६ ॥

सुबाहुरप्यार्यजनैः समेत-
     श्चकार कार्याणि विवाहकाले ।
पुत्रीं समाहूय गृहे सुगुप्ते
     पुरोहितैर्वेदविदां वरिष्ठैः ॥ ७ ॥
उधर राजा सुबाहु भी श्रेष्ठजनोंके साथ अपने अन्तःपुरके एक गुप्त स्थानमें अपनी पुत्रीको बुलाकर वरिष्ठ वैदिक पुरोहितोंद्वारा विवाह-कृत्य सम्पन्न करनेका प्रयत्न करने लगे ॥ ७ ॥

स्नानादिकं कर्म वरस्य कृत्वा
     विवाहभूषाकरणं तथैव ।
आनाय्य वेदीरचिते गृहे वै
     तस्यार्हणां भूमिपतिश्चकार ॥ ८ ॥
वरको स्नानादि कर्म कराकर उसे विवाहके योग्य वस्त्राभूषण पहनाकर और उसे वेदीरचित गृहमें ले आकर राजा सुबाहुने उसका पूजन किया ॥ ८ ॥

सविष्टरं चाचमनीयमर्घ्यं
     वस्त्रद्वयं गामथ कुण्डले द्वे ।
समर्प्य तस्मै विधिवन्नरेन्द्र
     ऐच्छत्सुतादानमहीनसत्त्वः ॥ ९ ॥
वरको विष्टर, आचमन, अयं, दो वस्त्र, गौ और दो कुण्डल विधिवत् प्रदान करके महामनस्वी राजा सुबाहुने कन्यादान कर दिया ॥ ९ ॥

सोऽप्यग्रहीत्सर्वमदीनचेताः
     शशाम चिन्ताऽथ मनोरमायाः ।
कन्यां सुकेशीं निधिकन्यकासमां
     मेने तदाऽऽत्मानमनुत्तमञ्च ॥ १० ॥
उदार हृदयवाले सुदर्शनने भी सभी वस्तुएँ स्वीकार कर ली । अब मनोरमाकी चिन्ता दूर हो गयी । उस समय कुबेरपुत्रीके समान उस सुन्दर केशोंवाली शशिकलाको पाकर सुदर्शनने अपने आपको परम धन्य समझा ॥ १० ॥

सुपूजितं भूषणवस्त्रदानै-
     र्वरोत्तमं तं सचिवास्तदानीम् ।
निन्युश्च ते कौतुकमण्डपान्त-
     र्मुदान्विता वीतभयाश्च सर्वे ॥ ११ ॥
उस समय आनन्दित एवं निर्भीक सभी मन्त्री राजाद्वारा आभूषण तथा वस्त्र देकर सम्यक् रूपसे पूजित श्रेष्ठ वर सुदर्शनको कौतुकमण्डपमें ले गये ॥ ११ ॥

समाप्तभूषां विधिवद्विधिज्ञाः
     स्त्रियश्च तां राजसुतां सुयाने ।
आरोप्य निन्युर्वरसन्निधानण्
     चतुष्कयुक्ते किल मण्डपे वै ॥ १२ ॥
तदनन्तर विधिकी जानकार स्त्रियाँ राजकुमारीको वस्त्राभूषणोंसे विधिवत् सुसज्जित करके उसे सुन्दर पालकीमें बिठाकर चौकोर वेदीसे युक्त मण्डपमें वरके पास ले गयीं ॥ १२ ॥

अग्निं समाधाय पुरोहितः स
     हुत्वा यथावच्च तदन्तराले ।
आह्वाययत्तौ कृतकौतुकौ तु
     वधूवरौ प्रेमयुतौ निकामम् ॥ १३ ॥
लाजाविसर्गं विधिवद्विधाय
     कृत्वा हुताशस्य प्रदक्षिणाञ्च ।
तौ चक्रतुस्तत्र यथोचित्तं तत्
     सर्वं विधानं कुलगोत्रजातम् ॥ १४ ॥
उस वेदीपर पुरोहितने अग्नि-स्थापन करके और विधिवत् घृताहुति देकर कौतुकागारमें कौतुक किये हुए प्रेमरससे अत्यन्त सिक्त वर-वधूको बुलाया । उन दोनोंने विधिवत् लाजाहोम करनेके बाद अग्निकी प्रदक्षिणा करके अपने-अपने कुल तथा गोत्रकी समस्त रीतियाँ सम्पन्न की ॥ १३-१४ ॥

शतद्वयं चाश्चयुजां रथानां
     सुभूषितं चापि शरौघसंयुतम् ।
ददौ नृपेन्द्रस्तु सुदर्शनाय
     सुपूजितं पारिबर्हं विवाहे ॥ १५ ॥
मदोत्कटान्हेमविभूषितांश्च
     गजान्गिरेः शृङ्गसमानदेहान् ।
शतं सपादं नृपसूनवेऽसौ
     ददावथ प्रेमयुतो नृपेन्द्रः ॥ १६ ॥
महाराज सुबाहुने घोड़ोंसे जुते तथा अत्यधिक बाणोंसे लदे हुए दो सौ सुसज्जित रथ सुदर्शनको विवाहमें उपहारस्वरूप दिये । उन्होंने मदमत्त, सुवर्णके भूषणोंसे विभूषित तथा पर्वतके शिखरके समान शरीरवाले सवा सौ हाथी राजकुमार सुदर्शनको प्रेमपूर्वक प्रदान किये ॥ १५-१६ ॥

दासीशतं काञ्चनभूषितं च
     करेणुकानां च शतं सुचारु ।
समर्पयामास वराय राजा
     विवाहकाले मुदितोऽनुवेलम् ॥ १७ ॥
अदात्पुनर्दाससहस्रमेकं
     सर्वायुधैः सम्भृतभूषितञ्च ।
रत्‍नानि वासांसि यथोचितानि
     दिव्यानि चित्राणि तथाविकानि ॥ १८ ॥
विवाहके समय राजाने स्वर्णाभूषणोंसे अलंकृत सौ दासियाँ और सुन्दर-सुन्दर सौ हथिनियाँ प्रसन्नतापूर्वक बार-बार वरको समर्पित की । उन्होंने सब प्रकारके आयुधों और आभूषणोंसे सुसज्जित एक हजार सेवक, बहुत-से रत्न, रंग-बिरंगे दिव्य सूती तथा ऊनी वस्त्र यथोचित रूपसे दिये ॥ १७-१८ ॥

ददौ पुनर्वासगृहाणि तस्मै
     रम्याणि दीर्घाणि विचित्रितानि ।
सिन्धूद्‌भवानां तुरगोत्तमाना-
     मदात्सहस्रद्वितयं सुरम्यम् ॥ १९ ॥
क्रमेलकानाञ्च शतत्रयं वै
     प्रत्यादिशद्‌भारभृतां सुचारु ।
शतद्वयं वै शकटोत्तमानां
     तस्मै ददौ धान्यरसैः प्रपूरितम् ॥ २० ॥
निवासके लिये रंग-बिरंगे, सुन्दर और विशाल भवन, सिन्धुदेशके उत्तम दो हजार घोड़े, भार ढोने में कुशल सुन्दर तीन सौ ऊँट, अन्न एवं रससे परिपूर्ण दो सौ उत्तम बैलगाड़ियाँ भी प्रदान की ॥ १९-२० ॥

मनोरमां राजसुतां प्रणम्य
     जगाद वाक्यं विहिताञ्जलिः पुरः ।
दासोऽस्मि ते राजसुते वरिष्ठे
     तद्‍ब्रूहि यत्स्यात्तु मनोगतं ते ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् राजा सुबाहुने हाथ जोड़कर राजमाता मनोरमाको प्रणाम करके कहा-हे राजकुमारी ! मैं आपका सेवक हूँ, अत: आपका जो मनोवांछित हो उसे कहिये ॥ २१ ॥

तं चारुवाक्यं निजगाद सापि
     स्वस्त्यस्तु ते भूप कुलस्य वृद्धिः ।
सम्मानिताऽहं मम सूनवे त्वया
     दत्ता यतो रत्‍नवरा स्वकन्या ॥ २२ ॥
तब उस मनोरमाने भी सुबाहुसे मधुर वाणीमें कहा-हे राजन् ! आपका कल्याण हो, आपके वंशकी वृद्धि हो । आपने मेरा बहुत सम्मान किया, क्योंकि आपने अपनी रत्नमयी कन्या मेरे पुत्रको प्रदान की है ॥ २२ ॥

न बन्दिपुत्री नृप मागधी वा
     स्तौ‍मीह किं त्वां स्वजनं महत्तरम् ।
सुमेरुतुल्यस्तु कृतः सुतोऽद्य मे
     सम्बन्धिना भूपतिनोत्तमेन ॥ २३ ॥
अहोऽतिचित्रं नृपतेश्चरित्रं
     परं पवित्रं तव किं वदामि ।
यद्‌भ्रष्टराज्याय सुताय मेऽद्य
     दत्ता त्वया पूज्यसुता वरिष्ठा ॥ २४ ॥
वनाधिवासाय किलाधनाय
     पित्रा विहीनाय विसैन्यकाय ।
सर्वानिमान्भूमिपतीन्विहाय
     फलाशनायार्थविवर्जिताय ॥ २५ ॥
हे राजन् ! मैं [यश गानेमें कुशल] बन्दीजन और मागधोंकी पुत्री नहीं हूँ, [जो भलीभांति आपकी प्रशंसा कर सकूँ । ] आप तो अपने ही हैं, अतः आप श्रेष्ठ स्वजनकी मैं क्या स्तुति करूँ ? आप एक उत्तम नरेश हैं और मेरे सम्बन्धी हो गये हैं; आपने मेरे पुत्रको सुमेरुके समान बना दिया है । अहो ! महान् आश्चर्य है । आप-जैसे राजाके पवित्र चरित्रका वर्णन कहाँतक करूँ, जो कि आपने इन सभी राजाओंको छोड़कर राज्यसे च्युत, वनमें निवास करनेवाले, धनहीन, पिताविहीन, सेनारहित, फलके आहारपर ही रहनेवाले तथा सम्पत्तिहीन मेरे पुत्रको अपनी प्रिय तथा कुलीन कन्या प्रदान कर दी ॥ २३-२५ ॥

समानवित्तेऽथ कुले बले च
     ददाति पुत्रीं नृपतिश्च भूयः ।
न कोऽपि मे भूपसुतेऽर्थहीने
     गुणान्वितां रूपवतीञ्च दद्यात् ॥ २६ ॥
अपने समान धन, कुल और बलवालेको ही कोई अपनी पुत्री प्रदान करता है । हे राजन् ! आपको छोड़कर कोई भी राजा मेरे धनहीन पुत्रको अपनी रूपगुणसम्पना पुत्री नहीं दे सकता ॥ २६ ॥

वैरं तु सर्वैः सह संविधाय
     नृपैर्वरिष्ठैर्बलसंयुतैश्च ।
सुदर्शनायाथ सुताऽर्पिता मे
     किं वर्णये धैर्यमिदं त्वदीयम् ॥ २७ ॥
सभी महान् तथा बलशाली राजाओंसे शत्रुता लेकर आपने मेरे सुदर्शनको अपनी कन्या अर्पित की है-हे राजन् ! मैं आपके इस धैर्यका वर्णन क्या करूँ ? ॥ २७ ॥

निशम्य वाक्यानि नृपः प्रहृष्टः
     कृताञ्जलिर्वाक्यमुवाच भूयः ।
गृहाण राज्यं मम सुप्रसिद्धं
     भवामि सेनापतिरद्य चाहम् ॥ २८ ॥
नोचेत्तदर्धं प्रतिगृह्य चात्र
     सुतान्वितो राज्यफलानि भुङ्क्ष्व ।
विहाय वाराणसिकानिवासं
     वने पुरे वासमतो न मेऽस्ति ॥ २९ ॥
इस प्रकार मनोरमाके [कृतज्ञतापूर्ण] वचन सुनकर महाराज सुबाहुने प्रसन्नतापूर्वक हाथ जोड़कर पुन: यह वचन कहा-मेरा यह अति प्रसिद्ध राज्य आप ले लीजिये और आजसे मैं आपका सेनापति हो जा रहा हूँ नहीं तो आप आधा राज्य ही ले लें और अपने पुत्रके साथ यहीं रहकर राजसी भोग भोगें क्योंकि अब काशीमें निवास छोड़कर किसी वन या ग्राममें आपलोग रहें-ऐसा मेरा विचार नहीं है ॥ २८-२९ ॥

नृपास्तु सन्त्येव रुषान्विता वै
     गत्वा करिष्ये प्रथमं तु सान्त्वनम् ।
ततः परं द्वावपरावुपायौ
     नोचेत्ततो युद्धमहं करिष्ये ॥ ३० ॥
सभी उपस्थित भूपगण मुझपर अत्यन्त रुष्ट हैं । मैं जाकर पहले उन्हें शान्त करूँगा । इसके बाद दान एवं भेदनीतिका विधान करूँगा । यदि इसपर भी वे अनुकूल न होंगे तो उनसे युद्ध करूँगा । ॥ ३० ॥

जयाजयो दैववशो तथापि
     धर्मे जयो नैव कृतेऽप्यधर्मे ।
तेषां किलाधर्मवतां नृपाणां
     कथं भविष्यत्यनुचिन्तितं वै ॥ ३१ ॥
यद्यपि हार और जीत तो दैवाधीन हैं तथापि जिस पक्षमें धर्म रहता है, उसकी विजय होती है; अधर्मके पक्षवालेको कभी नहीं । अतः अधर्मसे युक्त उन राजाओंका अपना सोचा हुआ कैसे हो सकता है ? ॥ ३१ ॥

आकर्ण्य तद्‌भाषितमर्थवच्च
     जगाद वाक्यं हितकारकं तम् ।
मनोरमा मानमवाप्य तस्मात्
     सर्वात्मना मोदयुता प्रसन्ना ॥ ३२ ॥
राजञ्छिवं तेऽस्तु कुरुष्व राज्यं
     त्यक्त्वा भयं त्वं स्वसुतैः समेतः ।
सुतोऽपि मे नूनमवाप्य राज्यं
     साकेतपुर्यां प्रचरिष्यतीह ॥ ३३ ॥
उन सुबाहुसे सम्मान पाकर पूर्णरूपसे आनन्दमग्न मनोरमा उनकी सारगर्भित वाणी सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर उनसे हितकर वचन कहने लगी-हे राजन् ! आपका कल्याण हो । आप निर्भय होकर अपने पुत्रोंके साथ राज्य कीजिये । मेरा पुत्र भी निश्चय ही अपना राज्य पाकर साकेतपुरी अयोध्यामें शासन करेगा ॥ ३२-३३ ॥

विसर्जयास्मान्निजसद्म गन्तुं
     शिवं भवानी तव संविधास्यति ।
न काऽपि चिन्ता मम भूप वर्तते
     सञ्चिन्तयन्त्या परमाम्बिकां वै ॥ ३४ ॥
हे राजन् ! अब आप हमलोगोंको अपने घर जानेके लिये आज्ञा दीजिये । भगवती दुर्गा आपका कल्याण करेंगी । हे राजन् ! मुझे अब कोई चिन्ता नहीं है । क्योंकि मैं पराम्बा भगवतीका भलीभाँति चिन्तन करती रहती हूँ ॥ ३४ ॥

दोषा गता विविधवाक्यपदै रसालै-
     रन्योन्यभाषणपदैरमृतोपमैश्च ।
प्रातर्नृपाः समधिगम्य कृतं विवाहं
     रोषान्विता नगरबाह्यगतास्तथोचुः ॥ ३५ ॥
इस प्रकार उन दोनोंमें विविध वाक्योंद्वारा अमृतके समान मधुर वार्तालापमें रात बीत गयी । प्रात:काल होनेपर सभी राजा विवाह हो जानेकी बात जानकर कुपित हो उठे और नगरके बाहर निकलकर आपसमें कहने लगे- ॥ ३५ ॥

अद्यैव तं नृपकलङ्कधरञ्च हत्वा
     बालं तथैव किल तं न विवाहयोग्यम् ।
गृह्णीम तां शशिकलां नृपतेश्च लक्ष्मीं
     लज्जामवाप्य निजसद्म कथं व्रजेम ॥ ३६ ॥
हम आज ही उस कलंकी राजा सुबाहु तथा विवाहकी योग्यता न रखनेवाले उस कुमार सुदर्शनको मारकर राज्यलक्ष्मीसहित उस शशिकलाको छीन लेंगे, अन्यथा लज्जित होकर हमलोग कैसे अपने घर जायँगे ? ॥ ३६ ॥

शृण्वन्तु तूर्यनिनदान्किल वाद्यमाना-
     ञ्छङ्खस्वनानभिभवन्ति मृदङ्गशब्दाः ।
गीतध्वनिं च विविधं निगमस्वनञ्च
     मन्यामहे नृपतिना‍ऽत्र कृतो विवाहः ॥ ३७ ॥
आप सब लोग बजायी जा रही तरहियों तथा शंखोंके निनाद, गीतध्वनि तथा अनेक प्रकारकी वेदध्वनि सुन लें । मृदंगोंके भी शब्द हो रहे हैं । हमलोग तो ऐसा मानते हैं कि राजा सुबाहुने विवाह सम्पन्न कर दिया ॥ ३७ ॥

अस्मान्प्रतार्य वचनैर्विधिवच्चकार
     वैवाहिकेन विधिना करपीडनं वै ।
कर्तव्यमद्य किमहो प्रविचिन्तयन्तु
     भूपाः परस्परमतिं च समर्थयन्तु ॥ ३८ ॥
राजाने हमें बातोंसे ठगकर वैवाहिक विधिसे पाणिग्रहण-संस्कार अवश्य कर दिया । हे राजाओ ! अब हमलोगोंको क्या करना चाहिये, इस विषयमें आपलोग सोचें और आपसमें विचार करके एक निर्णय लें ॥ ३८ ॥

एवं वदत्सु नृपतिष्वथ कन्याकायाः
     कृत्वा विवाहविधिमप्रतिमप्रभावः ।
भूपान्निमन्त्रयितुमाशु जगाम राजा
     काशीपतिः स्वसुहृदैः प्रथितप्रभावैः ॥ ३९ ॥
इस प्रकार राजाओंमें परस्पर बातचीत हो ही रही थी कि इतनेमें अप्रतिम प्रभाववाले काशीपति महाराज सुबाहु कन्याका पाणिग्रहणसंस्कार सम्पन्न करके प्रसिद्ध तेजवाले अपने मित्रोंको साथ लेकर उन राजाओंको निमन्त्रित करनेके लिये शीघ्र उनके पास गये ॥ ३९ ॥

आगच्छन्तं च तं दृष्ट्वा नृपाः काशीपतिं तदा ।
नोचुः किञ्चिदपि क्रोधान्मौनमाधाय संस्थिताः ॥ ४० ॥
काशीराज सुबाहुको आते देखकर उपस्थित नरेशोंने क्रोधके कारण कुछ नहीं कहा । वे मौन साधकर बैठे रहे ॥ ४० ॥

स गत्वा प्रणिपत्याह कृताञ्जलिरभाषत ।
आगन्तव्यं नृपैः सर्वैर्भोजनार्थं गृहे मम ॥ ४१ ॥
कन्ययाऽसौ वृतो भूपः किं करोमि हिताहितम् ।
भवद्‌भिस्तु शुभः कार्यो महान्तो हि दयालवः ॥ ४२ ॥
राजा सुबाहु उनके पास जाकर हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहने लगे कि सभी राजागण भोजन करनेके लिये मेरे घर आयें । कन्याने तो उस राजकुमार सुदर्शनका पतिरूपमें वरण कर लिया है । मैं इस विषयमें अच्छाबुरा क्या कर सकता हूँ ? अब आपलोग शान्त हो जायें; क्योंकि महान् लोग दयालु होते हैं ॥ ४१-४२ ॥

तन्निशम्य वचस्तस्य नृपाः क्रोधपरिप्लुताः ।
प्रत्यूचुर्भुक्तमस्माभिः स्वगृहं नृपते व्रज ॥ ४३ ॥
कुरु कार्याण्यशेषाणि यथेष्टं सुकृतं कृतम् ।
नृपाः सर्वे प्रयान्त्वद्य स्वानि स्वानि गृहाणि वै ॥ ४४ ॥
राजा सुबाहुकी बात सुनकर सभी राजा क्रोधसे तमतमा उठे । उन्होंने कहा-राजन् ! हमलोग भोजन कर चुके, अब आप अपने घर जाइये । आपको जो अच्छा लगा, उसे आपने कर लिया । जो कार्य शेष हों उन सबको भी जाकर कर लीजिये । अब सभी राजागण अपने-अपने घर चले जायेंगे ॥ ४३-४४ ॥

सुबाहुरपि तच्छ्रुत्वा जगाम शङ्‌कितो गृहम् ।
किं करिष्यन्ति संविग्नाः क्रोधयुक्ता नृपोत्तमाः ॥ ४५ ॥
सुबाहु भी यह सुनकर घर चले गये और शंका करने लगे कि ये क्षुब्ध तथा कुपित राजागण अब न जाने क्या कर डालेंगे ॥ ४५ ॥

गते तस्मिन्महीपालाश्चक्रुश्च समयं पुनः ।
रुद्‌ध्वा मार्गं ग्रहीष्यामः कन्यां हत्वा सुदर्शनम् ॥ ४६ ॥
राजा सुबाहुके चले जानेपर उन नरेशोंने यह निश्चय किया कि अब हमलोग मार्ग रोककर सुदर्शनको मारकर कन्याको छीन लेंगे ॥ ४६ ॥

केचनोचुः किमस्माकं हन्त तेन नृपेण वै ।
दृष्ट्वा तु कौतुकं सर्वं गमिष्यामो यथागतम् ॥ ४७ ॥
उनमेंसे कुछ राजाओंने कहा-अरे ! उस राजकुमार सुदर्शनसे हमारा क्या वैर ? हमने यहाँका सब कौतुक देख लिया । अब हम जैसे आये थे, वैसे ही घर लौट चलें ॥ ४७ ॥

इत्युक्त्वा ते नृपाः सर्वे मार्गमाक्रम्य संस्थिताः ।
चकारोत्तरकार्याणि सुबाहुः स्वगृहं गतः ॥ ४८ ॥
ऐसा कहकर वे सब [विरोधी] राजागण मार्ग रोककर खड़े हो गये और राजा सुबाहु अपने भवन पहुँचकर आगेके कृत्य सम्पादित करने लगे ॥ ४८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
सुदर्शनशशिकलयोर्विवाहवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
अध्याय बाईसवाँ समाप्त


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