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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
पञ्चविंशोऽध्यायः

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ददेवीस्थापनवर्णनम् -
सुदर्शनका शत्रुजित्‌की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्यामें तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना -


व्यास उवाच
गत्वाऽयोध्यां नृपश्रेष्ठो गृहं राज्ञः सुहृद्‌वृतः ।
शत्रुजिन्मातरं प्राह प्रणम्य शोकसङ्कुलाम् ॥ १ ॥
मातर्न ते मया पुत्रः सङ्ग्रामे निहतः किल ।
न पिता ते युधाजिच्च शपे ते चरणौ तथा ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-अयोध्या पहुँचकर नृपश्रेष्ठ सुदर्शन अपने मित्रों के साथ राजभवनमें गये । वहाँपर शत्रुजित्की परम शोकाकुल माताको प्रणामकर उन्होंने कहा-हे माता ! मैं आपके चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ कि आपके पुत्र तथा आपके पिता युधाजित्को युद्ध में मैंने नहीं मारा है ॥ १-२ ॥

दुर्गया तौ हतौ संख्ये नापराधो ममात्र वै ।
अवश्यम्भाविभावेषु प्रतीकारो न विद्यते ॥ ३ ॥
स्वयं भगवती दुर्गाने रणभूमिमें उनका वध किया है । इसमें मेरा अपराध नहीं है । होनी तो अवश्य होकर रहती है, उसे टालनेका कोई उपाय नहीं है ॥ ३ ॥

न शोकोऽत्र त्वया कार्यो मृतपुत्रस्य मानिनि ।
स्वकर्मवशगो जीवो भुङ्क्ते भोगान्सुखासुखान् ॥ ४ ॥
हे मानिनि ! अपने मृत पुत्रके विषयमें आप शोक न करें; क्योंकि जीव अपने पूर्वकर्मोके अधीन होकर सुख-दुःखरूपी भोगोंको भोगता है ॥ ४ ॥

दासोऽस्मि तव भो मातर्यथा मम मनोरमा ।
तथा त्वमपि धर्मज्ञे न भेदोऽस्ति मनागपि ॥ ५ ॥
हे माता ! मैं आपका दास हूँ । जैसे मनोरमा मेरी माता हैं, वैसे ही आप भी मेरी माता हैं । हे धर्मज्ञे ! आपमें और उनमें मेरे लिये कुछ भी भेद नहीं है ॥ ५ ॥

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
तस्मान्न शोचितव्यं ते सुखे दुःखे कदाचन ॥ ६ ॥
अपने किये हुए शुभ तथा अशुभ कर्मोका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । अतएव सुख-दुःखके विषयमें आपको कभी भी शोक नहीं करना चाहिये ॥ ६ ॥

दुःखे दुःखाधिकान्पश्येत्सुखे पश्येत्सुखाधिकम् ।
आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ॥ ७ ॥
दैवाधीनमिदं सर्वं नात्माधीनं कदाचन ।
न शोकेन तदाऽऽत्मानं शोषयेन्मतिमान्नरः ॥ ८ ॥
मनुष्यको चाहिये कि दुःखकी स्थितिमें अधिक दुःखवालोंको तथा सुखकी स्थितिमें अधिक सुखवालोंको देखे; अपने आपको हर्ष-शोकरूपी शत्रुओंके अधीन न करे । यह सब दैवके अधीन है, अपने अधीन कभी नहीं । अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि शोकसे अपनी आत्माको न सुखाये ॥ ७-८ ॥

यथा दारुमयी योषा नटादीनां प्रचेष्टते ।
तथा स्वकर्मवशगो देही सर्वत्र वर्तते ॥ ९ ॥
जैसे कठपुतली नट आदिके संकेतपर नाचती है, उसी प्रकार जीवको भी अपने कर्मके अधीन होकर सर्वत्र रहना पड़ता है ॥ ९ ॥

अहं वनगतो मातर्नाभवं दुःखमानसः ।
चिन्तयन्स्वकृतं कर्म भोक्तव्यमिति वेद्मि च ॥ १० ॥
हे माता ! अपने किये हुए कर्मका फल भोगना ही पड़ता है-यह सोचते हुए मैं वनमें गया था, इसलिये मेरे मनमें दुःख नहीं हुआ । इस बातको मैं अभी भी जानता हूँ ॥ १० ॥

मृतो मातामहोऽत्रैव विधुरा जननी मम ।
भयातुरा गृहीत्वा मां निर्ययौ गहनं वनम् ॥ ११ ॥
लुण्ठिता तस्करैर्मार्गे वस्त्रहीना तथा कृता ।
पाथेयञ्च हृतं सर्वं बालपुत्रा निराश्रया ॥ १२ ॥
माता गृहीत्वा मां प्राप्ता भारद्वाजाश्रमं प्रति ।
विदल्लोऽयं समायातस्तथा धात्रेयिकाऽबला ॥ १३ ॥
इसी अयोध्या में मेरे नाना मारे गये, माता विधवा हो गयी । भयसे व्याकुल वह मुझे लेकर घोर वनमें चली गयी । रास्तेमें चोरोंने उसे लूट लिया, उसके वस्वतक उतार लिये और समस्त राह-सामग्री छीन ली । वह बालपुत्रा निराश्रय होकर मुझे लिये हुए भारद्धाजमुनिके आश्रमपर पहुँची । ये मन्त्री विदल्ल तथा अबला दासी हमारे साथ गये थे ॥ ११-१३ ॥

मुनिभिर्मुनिपत्‍नीभिर्दयायुक्तैः समन्ततः ।
पोषिताः फलनीवारैर्वयं तत्र स्थितास्त्रयः ॥ १४ ॥
आश्रमके मुनियों और मुनिपत्नियोंने दया करके नीवार तथा फलोंसे भलीभाँति हमारा पालन किया और हम तीनों वहीं रहने लगे ॥ १४ ॥

दुःखं नमे तदा ह्यासीत्सुखं नाद्य धनागमे ।
न वैरं न च मात्सर्यं मम चित्ते तु कर्हिचित् ॥ १५ ॥
उस समय निर्धन होनेके कारण न मुझे दुःख था और न अब धन आ जानेपर सुख ही है । मेरे मनमें कभी भी वैर तथा ईर्ष्याकी भावना नहीं रहती ॥ १५ ॥

नीवारभक्षणं श्रेष्ठं राजभोगात्परन्तपे ।
तदाशी नरकं याति न नीवाराशनः क्वचित् ॥ १६ ॥
हे परन्तपे ! राजसी भोजनकी अपेक्षा नीवारभक्षण श्रेष्ठ है; क्योंकि राजस अन्न खानेवाला नरकमें जा सकता है, किंतु नीवारभोजी कभी नहीं ॥ १६ ॥

धर्मस्याचरणं कार्यं पुरुषेण विजानता ।
सञ्जित्येन्द्रियवर्गं वै यथा न नरकं व्रजेत् ॥ १७ ॥
इन्द्रियोंपर सम्यक् नियन्त्रण करके विज्ञ परुषको धर्मका आचरण करना चाहिये, जिससे उसे नरकमें न जाना पड़े ॥ १७ ॥

मानुष्यं दुर्लभं मातः खण्डेऽस्मिन्भारते शुभे ।
आहारादि सुखं नूनं भवेत्सर्वासु योनिषु ॥ १८ ॥
हे माता ! इस पवित्र भारतवर्ष में मानवजन्म दुर्लभ है । आहारादिका सुख तो निश्चय ही सभी योनियोंमें मिल सकता है । स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले इस मनुष्यतनको पाकर धर्मसाधन करना चाहिये; क्योंकि अन्य योनियों में यह दुर्लभ है । १८-१९ ॥

प्राप्य तं मानुषं देहं कर्तव्यं धर्मसाधनम् ।
स्वर्गमोक्षप्रदं नॄणां दुर्लभं चान्ययोनिषु ॥ १९ ॥
व्यास उवाच
इत्युक्ता सा तदा तेन लीलावत्यतिलज्जिता ।
पुत्रशोकं परित्यज्य तमाहाश्रुविलोचना ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-उस सुदर्शनके यह कहनेपर लीलावती बहुत लज्जित हुई और पुत्रशोक त्यागकर आँखोंमें आँसू भरके बोली- ॥ २० ॥

सापराधाऽस्मि पुत्राहं कृता पित्रा युधाजिता ।
हत्या मातामहं तेऽत्र हृतं राज्यं तु येन वै ॥ २१ ॥
हे पुत्र ! मेरे पिता युधाजित्ने मुझे अपराधिनी बना दिया । उन्होंने ही तुम्हारे नानाका वध करके राज्यका हरण कर लिया था ॥ २१ ॥

न तं वारयितुं शक्ता तदाऽहं न सुतं मम ।
यत्कृतं कर्म तेनैव नापराधोऽस्ति मे सुत ॥ २२ ॥
हे तात ! उस समय मैं उन्हें तथा अपने पुत्रको रोकने में समर्थ नहीं थी । उन्होंने जो कुछ किया, उसमें मेरा अपराध नहीं था ॥ २२ ॥

तौ मृतौ स्वकृतेनैव कारणं त्वं तयोर्न च ।
नाहं शोचामि तं पुत्रं सदा शोचामि तत्कृतम् ॥ २३ ॥
वे दोनों अपने ही कर्मसे मृत्युको प्राप्त हुए हैं । उनकी मृत्युमें तुम कारण नहीं हो । अतएव मैं अपने उस पुत्रके लिये शोक नहीं करती । मैं सदा उसके किये कर्मकी चिन्ता करती रहती हूँ ॥ २३ ॥

पुत्र त्वमसि कल्याण भगिनी मे मनोरमा ।
न क्रोधो न च शोको मे त्वयि पुत्र मनागपि ॥ २४ ॥
हे कल्याण ! अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो और मनोरमा मेरी बहन है । हे पुत्र ! तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी शोक या क्रोध नहीं है ॥ २४ ॥

कुरु राज्यं महाभाग प्रजाः पालय सुव्रत ।
भगवत्याः प्रसादेन प्राप्तमेतदकण्टकम् ॥ २५ ॥
हे महाभाग ! अब तुम राज्य करो और प्रजाका पालन करो । हे सुव्रत ! भगवतीकी कृपासे ही तुम्हें यह अकंटक राज्य प्राप्त हुआ है ॥ २५ ॥

तदाकर्ण्य वचो मातुर्नत्वा तां नृपनन्दनः ।
जगाम भवनं रम्यं यत्र पूर्वं मनोरमा ॥ २६ ॥
न्यवसत्तत्र गत्वा तु सर्वानाहूय मन्त्रिणः ।
दैवज्ञानथ पप्रच्छ मुहूर्तं दिवसं शुभम् ॥ २७ ॥
सिंहासनं तथा हैमं कारयित्वा मनोहरम् ।
सिंहासने स्थितां देवीं पूजयिष्ये सदाऽप्यहम् ॥ २८ ॥
स्थापयित्वाऽऽसने देवीं धर्मार्थकाममोक्षदाम् ।
राज्यं पश्चात्करिष्यामि यथा रामादिभिः कृतम् ॥ २९ ॥
पूजनीया सदा देवी सर्वैर्नागरिकैर्जनैः ।
माननीया शिवा शक्तिः सर्वकामार्थसिद्धिदा ॥ ३० ॥
माता लीलावतीका वचन सुनकर उन्हें प्रणाम करके राजकुमार सुदर्शन उस भव्य भवनमें गये, जहाँ पहले उनकी माता मनोरमा रहा करती थीं । वहाँ जाकर उन्होंने सब मन्त्रियों तथा ज्योतिषियोंको बुलाकर शुभ दिन और मुहूर्त पूछा और कहा कि सोनेका सुन्दर सिंहासन बनवाकर उसपर विराजमान देवीका मैं नित्य पूजन करूंगा । उस सिंहासनपर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवतीकी स्थापना करनेके बाद ही मैं राज्यकार्य संचालित करूँगा, जैसा मेरे पूर्वज श्रीराम आदिने किया है । सभी नागरिकजनोंको चाहिये कि वे सभी प्रकारके काम, अर्थ और सिद्धि प्रदान करनेवाली कल्याणमयी भगवती आदिशक्तिका पूजन तथा सम्मान करते रहें ॥ २६-३० ॥

इत्युक्ता मन्त्रिणस्ते तु चक्रुर्वै राजशासनम् ।
प्रासादं कारयामासुः शिल्पिभिः सुमनोरमम् ॥ ३१ ॥
राजा सुदर्शनके ऐसा कहनेपर मन्त्रीगण राजाज्ञाके पालनमें तत्पर हो गये । उन्होंने शिल्पियोंद्वारा एक बहुत सुन्दर मन्दिर तैयार कराया ॥ ३१ ॥

प्रतिमां कारयित्वाऽथ मुहूर्तेऽथ शुभे दिने ।
द्विजानाहूय वेदज्ञान्स्थापयामास भूपतिः ॥ ३२ ॥
तदनन्तर राजाने देवीकी प्रतिमा बनवाकर शुभ दिन और शुभ मुहूर्तमें वैदिक विद्वानोंको बुलाकर उसकी स्थापना की ॥ ३२ ॥

हवनं विधिवत्कृत्वा पूजयित्वाऽथ देवताम् ।
प्रासादे मतिमान् देव्याः स्थापयामास भूमिपः ॥ ३३ ॥
तत्पश्चात् विधिवत् हवन तथा देवपूजन करके बुद्धिमान् राजाने उस मन्दिरमें देवीकी प्रतिमा स्थापित की ॥ ३३ ॥

उत्सवस्तत्र संवृत्तो वादित्राणाञ्च निःस्वनैः ।
ब्राह्मणानां वेदघोषैर्गानैस्तु विधिधैर्नृप ॥ ३४ ॥

हे राजन् ! उस समय ब्राह्मणोंके वेदघोष, विविध गानों तथा वाद्योंकी ध्वनिके साथ बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया ॥ ३४ ॥

व्यास उवाच
प्रतिष्ठाप्य शिवां देवीं विधिवद्वेदवादिभिः ।
पूजां नानाविधां राजा चकारातिविधानतः ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वेदवादी विद्वानोंद्वारा कल्याणमयी देवीकी विधिवत् स्थापना कराकर राजा सुदर्शनने बड़े विधानके साथ नाना प्रकारकी पूजा सम्पन्न की ॥ ३५ ॥

कृत्वा पूजाविधिं राजा राज्यं प्राप्य स्वपैतृकम् ।
विख्यातश्चाम्बिका देवी कोसलेषु बभूव ह ॥ ३६ ॥
इस प्रकार राजा सुदर्शन भगवतीकी पूजा करके अपना पैतृक राज्य प्राप्तकर विख्यात हो गये और कोसल देशमें अम्बिकादेवी भी विख्यात हो गयीं ॥ ३६ ॥

राज्यं प्राप्य नृपः सर्वं सामन्तकनृपानथ ।
वशे चक्रेऽतिधर्मिष्ठान्सद्धर्मविजयी नृपः ॥ ३७ ॥
सम्पूर्ण राज्य प्राप्त करनेके बाद सद्धर्मसे विजय प्राप्त करनेवाले राजा सुदर्शनने सभी धर्मात्मा सामन्त राजाओंको अपने अधीन कर लिया ॥ ३७ ॥

यथा रामः स्वराज्येऽभूद्‌दिलीपस्य रघुर्यथा ।
प्रजानां वै सुखं तद्वन्मर्यादाऽपि तथाऽभवत् ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार अपने राज्यमें राम हुए और जिस प्रकार दिलीपके पुत्र राजा रघु हुए उसी प्रकार सुदर्शन भी हुए । जैसे उनके राज्यमें प्रजाओंको सुख था और मर्यादा थी, वैसा ही राजा सुदर्शनके राज्यमें भी था ॥ ३८ ॥

धर्मो वर्णाश्रमाणां च चतुष्पादभवत्तथा ।
नाधर्मे रमते चित्तं केषामपि महीतले ॥ ३९ ॥
उनके राज्यमें वर्णाश्रमधर्म चारों चरणोंसे समृद्ध हुआ । उस समय धरतीतलपर किसीका भी मन अधर्ममें लिप्त नहीं होता था ॥ ३९ ॥

ग्रामे ग्रामे च प्रासादांश्चक्रुः सर्वे जनाधिपाः ।
देव्याः पूजा तदा प्रीत्या कोसलेषु प्रवर्तिता ॥ ४० ॥
कोसलदेशके सभी राजाओंने प्रत्येक ग्राममें देवीके मन्दिर बनवाये । तबसे समस्त कोसलदेशमें प्रेमपूर्वक देवीकी पूजा होने लगी ॥ ४० ॥

सुबाहुरपि काश्यां तु दुर्गायाः प्रतिमां शुभाम् ।
कारयित्वा च प्रासादं स्थापयामास भक्तितः ॥ ४१ ॥
महाराज सुबाहुने भी काशीमें मन्दिरका निर्माण कराकर भक्तिपूर्वक दुर्गादेवीकी दिव्य प्रतिमा स्थापित की ॥ ४१ ॥

तत्र तस्या जनाः सर्वे प्रेमभक्तिपरायणाः ।
पूजां चक्रुर्विधानेन यथा विश्वेश्वरस्य ह ॥ ४२ ॥
काशीके सभी लोग प्रेम और भक्तिमें तत्पर होकर विधिवत् दुर्गादेवीकी उसी प्रकार पूजा करने लगे, जैसे भगवान् विश्वनाथजीकी करते थे ॥ ४२ ॥

विख्याता सा बभूवाथ दुर्गादेवी धरातले ।
देशे देशे महाराज तस्या भक्तिर्व्यवर्धत ॥ ४३ ॥
सर्वत्र भारते लोके सर्ववर्णेषु सर्वथा ।
भजनीया भवानी तु सर्वेषामभवत्तदा ॥ ४४ ॥
हे महाराज ! तबसे इस धरातलपर देशदेशमें भगवती दुर्गा विख्यात हो गयीं और लोगोंमें उनकी भक्ति बढ़ने लगी । उस समय भारतवर्षमें सब जगह सभी वर्गों में भवानी ही सबकी पूजनीया हो गयीं ॥ ४३-४४ ॥

शक्तिभक्तिरताः सर्वे मानिनश्चाभवन्नृप ।
आगमोक्तैरथ स्तोत्रैर्जपध्यानपरायणाः ॥ ४५ ॥
नवरात्रेषु सर्वेषु चक्रुः सर्वे विधानतः ।
अर्चनं हवनं यागं देव्या भक्तिपरा जनाः ॥ ४६ ॥
हे नृप ! सभी लोग भगवती शक्तिको मानने लगे, उनकी भक्तिमें निरत रहने लगे और वेदवर्णित स्तोत्रों के द्वारा उनके जप तथा ध्यानमें तत्पर हो गये । इस प्रकार भक्तिपरायण लोग सभी नवरात्रों में विधानपूर्वक भगवतीका पूजन, हवन तथा यज्ञ करने लगे ॥ ४५-४६ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे देवीस्थापनवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
अध्याय पच्चिसवाँ समाप्त


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