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ददेवीस्थापनवर्णनम् -
सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्यामें तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना -
व्यास उवाच गत्वाऽयोध्यां नृपश्रेष्ठो गृहं राज्ञः सुहृद्वृतः । शत्रुजिन्मातरं प्राह प्रणम्य शोकसङ्कुलाम् ॥ १ ॥ मातर्न ते मया पुत्रः सङ्ग्रामे निहतः किल । न पिता ते युधाजिच्च शपे ते चरणौ तथा ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-अयोध्या पहुँचकर नृपश्रेष्ठ सुदर्शन अपने मित्रों के साथ राजभवनमें गये । वहाँपर शत्रुजित्की परम शोकाकुल माताको प्रणामकर उन्होंने कहा-हे माता ! मैं आपके चरणोंकी शपथ खाकर कहता हूँ कि आपके पुत्र तथा आपके पिता युधाजित्को युद्ध में मैंने नहीं मारा है ॥ १-२ ॥
दुर्गया तौ हतौ संख्ये नापराधो ममात्र वै । अवश्यम्भाविभावेषु प्रतीकारो न विद्यते ॥ ३ ॥
स्वयं भगवती दुर्गाने रणभूमिमें उनका वध किया है । इसमें मेरा अपराध नहीं है । होनी तो अवश्य होकर रहती है, उसे टालनेका कोई उपाय नहीं है ॥ ३ ॥
न शोकोऽत्र त्वया कार्यो मृतपुत्रस्य मानिनि । स्वकर्मवशगो जीवो भुङ्क्ते भोगान्सुखासुखान् ॥ ४ ॥
हे मानिनि ! अपने मृत पुत्रके विषयमें आप शोक न करें; क्योंकि जीव अपने पूर्वकर्मोके अधीन होकर सुख-दुःखरूपी भोगोंको भोगता है ॥ ४ ॥
दासोऽस्मि तव भो मातर्यथा मम मनोरमा । तथा त्वमपि धर्मज्ञे न भेदोऽस्ति मनागपि ॥ ५ ॥
हे माता ! मैं आपका दास हूँ । जैसे मनोरमा मेरी माता हैं, वैसे ही आप भी मेरी माता हैं । हे धर्मज्ञे ! आपमें और उनमें मेरे लिये कुछ भी भेद नहीं है ॥ ५ ॥
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । तस्मान्न शोचितव्यं ते सुखे दुःखे कदाचन ॥ ६ ॥
अपने किये हुए शुभ तथा अशुभ कर्मोका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है । अतएव सुख-दुःखके विषयमें आपको कभी भी शोक नहीं करना चाहिये ॥ ६ ॥
दुःखे दुःखाधिकान्पश्येत्सुखे पश्येत्सुखाधिकम् । आत्मानं शोकहर्षाभ्यां शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ॥ ७ ॥ दैवाधीनमिदं सर्वं नात्माधीनं कदाचन । न शोकेन तदाऽऽत्मानं शोषयेन्मतिमान्नरः ॥ ८ ॥
मनुष्यको चाहिये कि दुःखकी स्थितिमें अधिक दुःखवालोंको तथा सुखकी स्थितिमें अधिक सुखवालोंको देखे; अपने आपको हर्ष-शोकरूपी शत्रुओंके अधीन न करे । यह सब दैवके अधीन है, अपने अधीन कभी नहीं । अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि शोकसे अपनी आत्माको न सुखाये ॥ ७-८ ॥
यथा दारुमयी योषा नटादीनां प्रचेष्टते । तथा स्वकर्मवशगो देही सर्वत्र वर्तते ॥ ९ ॥
जैसे कठपुतली नट आदिके संकेतपर नाचती है, उसी प्रकार जीवको भी अपने कर्मके अधीन होकर सर्वत्र रहना पड़ता है ॥ ९ ॥
अहं वनगतो मातर्नाभवं दुःखमानसः । चिन्तयन्स्वकृतं कर्म भोक्तव्यमिति वेद्मि च ॥ १० ॥
हे माता ! अपने किये हुए कर्मका फल भोगना ही पड़ता है-यह सोचते हुए मैं वनमें गया था, इसलिये मेरे मनमें दुःख नहीं हुआ । इस बातको मैं अभी भी जानता हूँ ॥ १० ॥
मृतो मातामहोऽत्रैव विधुरा जननी मम । भयातुरा गृहीत्वा मां निर्ययौ गहनं वनम् ॥ ११ ॥ लुण्ठिता तस्करैर्मार्गे वस्त्रहीना तथा कृता । पाथेयञ्च हृतं सर्वं बालपुत्रा निराश्रया ॥ १२ ॥ माता गृहीत्वा मां प्राप्ता भारद्वाजाश्रमं प्रति । विदल्लोऽयं समायातस्तथा धात्रेयिकाऽबला ॥ १३ ॥
इसी अयोध्या में मेरे नाना मारे गये, माता विधवा हो गयी । भयसे व्याकुल वह मुझे लेकर घोर वनमें चली गयी । रास्तेमें चोरोंने उसे लूट लिया, उसके वस्वतक उतार लिये और समस्त राह-सामग्री छीन ली । वह बालपुत्रा निराश्रय होकर मुझे लिये हुए भारद्धाजमुनिके आश्रमपर पहुँची । ये मन्त्री विदल्ल तथा अबला दासी हमारे साथ गये थे ॥ ११-१३ ॥
मुनिभिर्मुनिपत्नीभिर्दयायुक्तैः समन्ततः । पोषिताः फलनीवारैर्वयं तत्र स्थितास्त्रयः ॥ १४ ॥
आश्रमके मुनियों और मुनिपत्नियोंने दया करके नीवार तथा फलोंसे भलीभाँति हमारा पालन किया और हम तीनों वहीं रहने लगे ॥ १४ ॥
दुःखं नमे तदा ह्यासीत्सुखं नाद्य धनागमे । न वैरं न च मात्सर्यं मम चित्ते तु कर्हिचित् ॥ १५ ॥
उस समय निर्धन होनेके कारण न मुझे दुःख था और न अब धन आ जानेपर सुख ही है । मेरे मनमें कभी भी वैर तथा ईर्ष्याकी भावना नहीं रहती ॥ १५ ॥
नीवारभक्षणं श्रेष्ठं राजभोगात्परन्तपे । तदाशी नरकं याति न नीवाराशनः क्वचित् ॥ १६ ॥
हे परन्तपे ! राजसी भोजनकी अपेक्षा नीवारभक्षण श्रेष्ठ है; क्योंकि राजस अन्न खानेवाला नरकमें जा सकता है, किंतु नीवारभोजी कभी नहीं ॥ १६ ॥
धर्मस्याचरणं कार्यं पुरुषेण विजानता । सञ्जित्येन्द्रियवर्गं वै यथा न नरकं व्रजेत् ॥ १७ ॥
इन्द्रियोंपर सम्यक् नियन्त्रण करके विज्ञ परुषको धर्मका आचरण करना चाहिये, जिससे उसे नरकमें न जाना पड़े ॥ १७ ॥
हे माता ! इस पवित्र भारतवर्ष में मानवजन्म दुर्लभ है । आहारादिका सुख तो निश्चय ही सभी योनियोंमें मिल सकता है । स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले इस मनुष्यतनको पाकर धर्मसाधन करना चाहिये; क्योंकि अन्य योनियों में यह दुर्लभ है । १८-१९ ॥
प्राप्य तं मानुषं देहं कर्तव्यं धर्मसाधनम् । स्वर्गमोक्षप्रदं नॄणां दुर्लभं चान्ययोनिषु ॥ १९ ॥ व्यास उवाच इत्युक्ता सा तदा तेन लीलावत्यतिलज्जिता । पुत्रशोकं परित्यज्य तमाहाश्रुविलोचना ॥ २० ॥
व्यासजी बोले-उस सुदर्शनके यह कहनेपर लीलावती बहुत लज्जित हुई और पुत्रशोक त्यागकर आँखोंमें आँसू भरके बोली- ॥ २० ॥
सापराधाऽस्मि पुत्राहं कृता पित्रा युधाजिता । हत्या मातामहं तेऽत्र हृतं राज्यं तु येन वै ॥ २१ ॥
हे पुत्र ! मेरे पिता युधाजित्ने मुझे अपराधिनी बना दिया । उन्होंने ही तुम्हारे नानाका वध करके राज्यका हरण कर लिया था ॥ २१ ॥
न तं वारयितुं शक्ता तदाऽहं न सुतं मम । यत्कृतं कर्म तेनैव नापराधोऽस्ति मे सुत ॥ २२ ॥
हे तात ! उस समय मैं उन्हें तथा अपने पुत्रको रोकने में समर्थ नहीं थी । उन्होंने जो कुछ किया, उसमें मेरा अपराध नहीं था ॥ २२ ॥
तौ मृतौ स्वकृतेनैव कारणं त्वं तयोर्न च । नाहं शोचामि तं पुत्रं सदा शोचामि तत्कृतम् ॥ २३ ॥
वे दोनों अपने ही कर्मसे मृत्युको प्राप्त हुए हैं । उनकी मृत्युमें तुम कारण नहीं हो । अतएव मैं अपने उस पुत्रके लिये शोक नहीं करती । मैं सदा उसके किये कर्मकी चिन्ता करती रहती हूँ ॥ २३ ॥
पुत्र त्वमसि कल्याण भगिनी मे मनोरमा । न क्रोधो न च शोको मे त्वयि पुत्र मनागपि ॥ २४ ॥
हे कल्याण ! अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो और मनोरमा मेरी बहन है । हे पुत्र ! तुम्हारे प्रति मेरे मनमें तनिक भी शोक या क्रोध नहीं है ॥ २४ ॥
हे महाभाग ! अब तुम राज्य करो और प्रजाका पालन करो । हे सुव्रत ! भगवतीकी कृपासे ही तुम्हें यह अकंटक राज्य प्राप्त हुआ है ॥ २५ ॥
तदाकर्ण्य वचो मातुर्नत्वा तां नृपनन्दनः । जगाम भवनं रम्यं यत्र पूर्वं मनोरमा ॥ २६ ॥ न्यवसत्तत्र गत्वा तु सर्वानाहूय मन्त्रिणः । दैवज्ञानथ पप्रच्छ मुहूर्तं दिवसं शुभम् ॥ २७ ॥ सिंहासनं तथा हैमं कारयित्वा मनोहरम् । सिंहासने स्थितां देवीं पूजयिष्ये सदाऽप्यहम् ॥ २८ ॥ स्थापयित्वाऽऽसने देवीं धर्मार्थकाममोक्षदाम् । राज्यं पश्चात्करिष्यामि यथा रामादिभिः कृतम् ॥ २९ ॥ पूजनीया सदा देवी सर्वैर्नागरिकैर्जनैः । माननीया शिवा शक्तिः सर्वकामार्थसिद्धिदा ॥ ३० ॥
माता लीलावतीका वचन सुनकर उन्हें प्रणाम करके राजकुमार सुदर्शन उस भव्य भवनमें गये, जहाँ पहले उनकी माता मनोरमा रहा करती थीं । वहाँ जाकर उन्होंने सब मन्त्रियों तथा ज्योतिषियोंको बुलाकर शुभ दिन और मुहूर्त पूछा और कहा कि सोनेका सुन्दर सिंहासन बनवाकर उसपर विराजमान देवीका मैं नित्य पूजन करूंगा । उस सिंहासनपर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली भगवतीकी स्थापना करनेके बाद ही मैं राज्यकार्य संचालित करूँगा, जैसा मेरे पूर्वज श्रीराम आदिने किया है । सभी नागरिकजनोंको चाहिये कि वे सभी प्रकारके काम, अर्थ और सिद्धि प्रदान करनेवाली कल्याणमयी भगवती आदिशक्तिका पूजन तथा सम्मान करते रहें ॥ २६-३० ॥
हे राजन् ! उस समय ब्राह्मणोंके वेदघोष, विविध गानों तथा वाद्योंकी ध्वनिके साथ बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया ॥ ३४ ॥
व्यास उवाच प्रतिष्ठाप्य शिवां देवीं विधिवद्वेदवादिभिः । पूजां नानाविधां राजा चकारातिविधानतः ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वेदवादी विद्वानोंद्वारा कल्याणमयी देवीकी विधिवत् स्थापना कराकर राजा सुदर्शनने बड़े विधानके साथ नाना प्रकारकी पूजा सम्पन्न की ॥ ३५ ॥
कृत्वा पूजाविधिं राजा राज्यं प्राप्य स्वपैतृकम् । विख्यातश्चाम्बिका देवी कोसलेषु बभूव ह ॥ ३६ ॥
इस प्रकार राजा सुदर्शन भगवतीकी पूजा करके अपना पैतृक राज्य प्राप्तकर विख्यात हो गये और कोसल देशमें अम्बिकादेवी भी विख्यात हो गयीं ॥ ३६ ॥
जिस प्रकार अपने राज्यमें राम हुए और जिस प्रकार दिलीपके पुत्र राजा रघु हुए उसी प्रकार सुदर्शन भी हुए । जैसे उनके राज्यमें प्रजाओंको सुख था और मर्यादा थी, वैसा ही राजा सुदर्शनके राज्यमें भी था ॥ ३८ ॥
हे महाराज ! तबसे इस धरातलपर देशदेशमें भगवती दुर्गा विख्यात हो गयीं और लोगोंमें उनकी भक्ति बढ़ने लगी । उस समय भारतवर्षमें सब जगह सभी वर्गों में भवानी ही सबकी पूजनीया हो गयीं ॥ ४३-४४ ॥
हे नृप ! सभी लोग भगवती शक्तिको मानने लगे, उनकी भक्तिमें निरत रहने लगे और वेदवर्णित स्तोत्रों के द्वारा उनके जप तथा ध्यानमें तत्पर हो गये । इस प्रकार भक्तिपरायण लोग सभी नवरात्रों में विधानपूर्वक भगवतीका पूजन, हवन तथा यज्ञ करने लगे ॥ ४५-४६ ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे देवीस्थापनवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥