हे महामते ! उस पूजनका क्या फल है और उसमें किस विधिका पालन करना चाहिये । हे द्विजवर ! कृपया विस्तारके साथ मुझे यह सब बताइये ॥ २ ॥
व्यास उवाच शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि नवरात्रव्रतं शुभम् । शरत्काले विशेषेण कर्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अब मैं पवित्र नवरात्रव्रतके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये । शरत्कालके नवरात्रमें विशेष करके यह व्रत करना चाहिये ॥ ३ ॥
वसन्ते च प्रकर्तव्यं तथैव प्रेमपूर्वकम् । द्वावृतू यमदंष्ट्राख्यौ नूनं सर्वजनेषु वै ॥ ४ ॥
उसी प्रकार प्रेमपूर्वक वसन्त ऋतुके नवरात्रमें भी इस व्रतको करे । ये दोनों ऋतुएँ सब प्राणियोंके लिये यमदंष्ट्रा कही गयी हैं ॥ ४ ॥
शरद्वसन्तनामानौ दुर्गमौ प्राणिनामिह । तस्माद्यत्नादिदं कार्यं सर्वत्र शुभमिच्छता ॥ ५ ॥
शरत् तथा वसन्त नामक ये दोनों ऋतुएँ संसारमें प्राणियोंके लिये दुर्गम हैं । अतएव आत्मकल्याणके इच्छुक व्यक्तिको बड़े यत्नके साथ यह नवरात्रव्रत करना चाहिये ॥ ५ ॥
ये वसन्त तथा शरद्-दोनों ही ऋतुएँ बड़ी भयानक हैं और मनुष्योंके लिये रोग उत्पन्न करनेवाली हैं । ये सबका विनाश कर देनेवाली हैं । अतएव हे राजन् ! बुद्धिमान् लोगोंको शुभ चैत्र तथा आश्विनमासमें भक्तिपूर्वक चण्डिकादेवीका पूजन करना चाहिये ॥ ६-७ ॥
अमावास्यां च सम्प्राप्य सम्भारं कल्पयेच्छुभम् । हविष्यं चाशनं कार्यमेकभुक्तं तु तद्दिने ॥ ८ ॥
अमावस्या आनेपर व्रतकी सभी शुभ सामग्री एकत्रित कर ले और उस दिन एकभुक्त व्रत करे और हविष्य ग्रहण करे ॥ ८ ॥
किसी समतल तथा पवित्र स्थानमें सोलह हाथ लम्बे-चौड़े और स्तम्भ तथा ध्वजाओंसे सुसज्जित मण्डपका निर्माण करना चाहिये ॥ ९ ॥
गौरमृद्गोमयाभ्यां च लेपनं कारयेत्ततः । तन्मध्ये वेदिका शुभ्रा कर्तव्या च समा स्थिरा ॥ १० ॥
उसको सफेद मिट्टी और गोबरसे लिपवा दे । तत्पश्चात् उस मण्डपके बीचमें सुन्दर, चौरस और स्थिर वेदी बनाये ॥ १० ॥
चतुर्हस्ता च हस्तोच्छ्रा पीठार्थं स्थानमुत्तमम् । तोरणानि विचित्राणि वितानञ्च प्रकल्पयेत् ॥ ११ ॥
वह वेदी चार हाथ लम्बी-चौड़ी और हाथभर ऊँची होनी चाहिये । पीठके लिये उत्तम स्थानका निर्माण करे तथा विविध रंगोंके तोरण लटकाये और ऊपर चाँदनी लगा दे ॥ ११ ॥
रात्रौ द्विजानथामन्त्र्य देवीतत्त्वविशारदान् । आचारनिरतान्दान्तान्वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ १२ ॥ प्रतिपद्दिवसे कार्यं प्रातःस्नानं विधानतः । नद्यां नदे तडागे वा वाप्यां कूपे गृहेऽथवा ॥ १३ ॥
रात्रिमें देवीका तत्त्व जाननेवाले, सदाचारी, संयमी और वेद-वेदांगके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करके प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल नदी, नद, तड़ाग, बावली, कुआँ अथवा घरपर ही विधिवत् स्नान करे ॥ १२-१३ ॥
सन्तुष्ट ब्राह्मणोंके द्वारा किया हुआ कर्म सम्यक् प्रकारसे परिपूर्ण होता है । देवीका पाठ करनेके लिये नौ, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्मण बताये गये हैं ॥ १६ ॥
देवीभागवतका पारायण करनेके कार्यमें किसी शान्त ब्राह्मणका वरण करे और वैदिक मन्त्रोंसे स्वस्तिवाचन कराये ॥ १७ ॥
वेद्यां सिंहासनं स्थाप्य क्षौमवस्त्रसमन्वितम् । तत्र स्थाप्याऽम्बिका देवी चतुर्हस्तायुधान्विता ॥ १८ ॥ रत्नभूषणसंयुक्ता मुक्ताहारविराजिता । दिव्याम्बरधरा सौम्या सर्वलक्षणसंयुता ॥ १९ ॥ शंखचक्रगदापद्मधरा सिंहे स्थिता शिवा । अष्टादशभुजा वाऽपि प्रतिष्ठाप्या सनातनी ॥ २० ॥
वेदीपर रेशमी वस्त्रसे आच्छादित सिंहासन स्थापित करे । उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उनमें आयुधोंसे युक्त देवीकी प्रतिमा स्थापित करे । भगवतीकी प्रतिमा रत्नमय भूषणोंसे युक्त, मोतियोंके हारसे अलंकृत, दिव्य वस्त्रोंसे सुसज्जित, शुभलक्षणसम्पन्न और सौम्य आकृतिकी हो । वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्रगदा-पद्य धारण किये हुए हों और सिंहपर सवार हों; अथवा अठारह भुजाओंसे सुशोभित सनातनी देवीको प्रतिष्ठित करे ॥ १८-२० ॥
अर्चाभावे तथा यन्त्रं नवार्णमन्त्रसंयुतम् । स्थापयेत्पीठपूजार्थं कलशं तत्र पार्श्वतः ॥ २१ ॥
भगवतीकी प्रतिमाके अभावमें नवार्णमन्त्रयुक्त यन्त्रको पीठपर स्थापित करे और पौठपूजाके लिये पासमें कलश भी स्थापित कर ले ॥ २१ ॥
पञ्चपल्लवसंयुक्तं वेदमन्त्रैः सुसंस्कृतम् । सुतीर्थजलसम्पूर्णं हेमरत्नैः समन्वितम् ॥ २२ ॥
वह कलश पंचपल्लवयुक्त, वैदिक मन्त्रोंसे भलीभाँति संस्कृत, उत्तम तीर्थक जलसे पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्नमय होना चाहिये ॥ २२ ॥
पार्श्वे पूजार्थसम्भारान्परिकल्प्य समन्ततः । गीतवादित्रनिर्घोषान्कारयेन्मङ्गलाय वै ॥ २३ ॥
पासमें पूजाकी सब सामग्रियाँ रखकर उत्सवके निमित्त गीत तथा वाद्योंकी ध्वनि भी करानी चाहिये ॥ २३ ॥
तिथौ हस्तान्वितायां च नन्दायां पूजनं वरम् । प्रथमे दिवसे राजन् विधिवत्कामदं नृणाम् ॥ २४ ॥
हस्तनक्षत्रयुक्त नन्दा (प्रतिपदा) तिथिमें पूजन श्रेष्ठ माना जाता है । हे राजन् ! पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्योंका मनोरथ पूर्ण करनेवाला होता है ॥ २४ ॥
नियमं प्रथमं कृत्वा पश्चात्पूजां समाचरेत् । उपवासेन नक्तेन चैकभुक्तेन वा पुनः ॥ २५ ॥
सबसे पहले उपवासव्रत, एकभुक्तव्रत अथवा नक्तव्रत-इनमेंसे किसी एक व्रतके द्वारा नियम करनेके पश्चात् ही पूजा करनी चाहिये ॥ २५ ॥
करिष्यामि व्रतं मातर्नवरात्रमनुत्तमम् । साहाय्यं कुरु मे देवि जगदम्ब ममाखिलम् ॥ २६ ॥
[पूजनके पहले प्रार्थना करते हुए कहे-] हे माता ! मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्रव्रत करूँगा । हे देवि ! हे जगदम्बे ! [इस पवित्र कार्यमें] आप मेरी सम्पूर्ण सहायता करें ॥ २६ ॥
उस अवसरपर अर्ध्य भी प्रदान करे । हे राजन् ! नारियल, बिजौरा नीबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुन्दर फलोंके साथ भक्तिपूर्वक अन्नका नैवेद्य एवं पवित्र बलि अर्पित करे ॥ ३०-३४ ॥
विविध प्रकारके सुन्दर द्रव्योंसे प्रतिदिन भगवतीका त्रिकाल (प्रातः-सायं-मध्याह) पूजन करना चाहिये और गायन, वादन तथा नृत्यके द्वारा महान् उत्सव मनाना चाहिये ॥ ३६ ॥
नित्यं भूमौ च शयनं कुमारीणां च पूजनम् । वस्त्रालङ्करणैर्दिव्यैर्भोजनैश्च सुधामयैः ॥ ३७ ॥
[व्रती] नित्य भूमिपर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृतके सदृश दिव्य भोजन आदिसे कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३७ ॥
एकैकां पूजयेन्नित्यमेकवृद्ध्या तथा पुनः । द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवकं च वा ॥ ३८ ॥
नित्य एक ही कुमारीका पूजन करे अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारीकी संख्याके वृद्धिक्रमसे पूजन करे अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुनेके वृद्धिक्रमसे और या तो प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३८ ॥
विभवस्यानुसारेण कर्तव्यं पूजनं किल । वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं राजञ्छक्तिमखे सदा ॥ ३९ ॥
अपने धन-सामर्थ्यके अनुसार भगवतीको पूजा करे, किंतु हे राजन् ! देवीके यज्ञमें धनकी कृपणता न करे ॥ ३९ ॥
एकवर्षा न कर्तव्या कन्या पूजाविधौ नृप । परमज्ञा तु भोगानां गन्धादीनां च बालिका ॥ ४० ॥ कुमारिका तु सा प्रोक्ता द्विवर्षा या भवेदिह । त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्दिका ॥ ४१ ॥ रोहिणी पञ्चवर्षा च षड्वर्षा कालिका स्मृता । चण्डिका सप्तवर्षा स्यादष्टवर्षा च शाम्भवी ॥ ४२ ॥ नववर्षा भवेद्दुर्गा सुभद्रा दशवार्षिकी । अत ऊर्ध्वं न कर्तव्या सर्वकार्यविगर्हिता ॥ ४३ ॥ एभिश्च नामभिः पूजा कर्तव्या विधिसंयुता । तासां फलानि वक्ष्यामि नवानां पूजने सदा ॥ ४४ ॥
हे राजन ! पूजाविधिमें एक वर्षको अवस्थावाली कन्या नहीं लेनी चाहिये, क्योंकि वह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थोंके स्वादसे बिलकुल अनभिज्ञ रहती है । कुमारी कन्या वह कही गयी है, जो दो वर्षकी हो चुकी हो । तीन वर्षकी कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्षकी कन्या कल्याणी. पाँच वर्षकी रोहिणी. छः वर्षकी कालिका, सात वर्षकी चण्डिका, आठ वर्षकी शाम्भवी, नौ वर्षकी दुर्गा और दस वर्षकी कन्या सुभद्रा कहलाती है । इससे ऊपरकी अवस्थावाली कन्याका पूजन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह सभी कार्योंमें निन्द्य मानी जाती है । इन नामोंसे कुमारीका विधिवत् पूजन सदा करना चाहिये । अब मैं इन नौ कन्याओंके पूजनसे प्राप्त होनेवाले फलोंको कहूँगा ॥ ४०-४४ ॥
जो सत्त्व आदि तीनों गुणोंसे तीन रूप धारण करती हैं, जिनके अनेक रूप हैं तथा जो तीनों कालोंमें सर्वत्र व्याप्त रहती हैं, उन भगवती 'त्रिमूर्ति' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५४ ॥
निरन्तर पूजित होनेपर जो भक्तोंका नित्य कल्याण करती हैं, सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन भगवती 'कल्याणी' का मैं भक्तिपूर्वक पूजन करता हूँ ॥ ५५ ॥
रोहयन्ती च बीजानि प्राग्जन्मसञ्चितानि वै । या देवी सर्वभूतानां रोहिणीं पूजयाम्यहम् ॥ ५६ ॥
जो देवी सम्पूर्ण जीवोंके पूर्वजन्मके संचित कर्मरूपी बीजोंका रोपण करती हैं, उन भगवती रोहिणीकी मैं उपासना करता हूँ ॥ ५६ ॥
जो देवी काली कल्पान्तमें चराचरसहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपने में विलीन कर लेती हैं, उन भगवती 'कालिका' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५७ ॥
तां चण्डपापहरणीं चण्डिकां पूजयाम्यहम् ॥ ५८ ॥
अत्यन्त उग्र स्वभाववाली, उग्ररूप धारण करनेवाली, चण्ड-मुण्डका संहार करनेवाली तथा घोर पापोंका नाश करनेवाली उन भगवती 'चण्डिका' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५८ ॥
वेद जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं वेदोंके द्वारा जिनकी उत्पत्ति अकारण बतायी गयी है, उन सुखदायिनी भगवती 'शाम्भवी' का मैं पूजन करता हूँ ॥ ५९ ॥
दुर्गात्त्रायति भक्तं या सदा दुर्गातिनाशिनी । दुर्ज्ञेया सर्वदेवानां तां दुर्गां पूजयाम्यहम् ॥ ६० ॥
जो अपने भक्तको सर्वदा संकटसे बचाती हैं, बड़े-बड़े विघ्नों तथा दुःखोंका नाश करती हैं और सभी देवताओंके लिये दुर्जेय हैं, उन भगवती 'दुर्गा' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६० ॥
सुभद्राणि च भक्तानां कुरुते पूजिता सदा । अभद्रनाशिनीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् ॥ ६१ ॥
जो पूजित होनेपर भक्तोंका सदा कल्याण करती हैं, उन अमंगलनाशिनी भगवती 'सुभद्रा' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६१ ॥