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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
षड्‌विंशोऽध्यायः

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कुमारीपूजावर्णनम् -
नवरात्रव्रत-विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन -


जनमेजय उवाच
नवरात्रे तु सम्प्राप्ते किं कर्तव्यं द्विजोत्तम ।
विधानं विधिवद्‌ब्रूहि शरत्काले विशेषतः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे द्विजश्रेष्ठ ! नवरात्रके आनेपर और विशेष करके शारदीय नवरात्रमें क्या करना चाहिये ? उसका विधान आप मुझे भलीभाँति बताइये ॥ १ ॥

किं फलं खलु कस्तत्र विधिः कार्यो महामते ।
एतद्विस्तरतो ब्रूहि कृपया द्विजसत्तम ॥ २ ॥

हे महामते ! उस पूजनका क्या फल है और उसमें किस विधिका पालन करना चाहिये । हे द्विजवर ! कृपया विस्तारके साथ मुझे यह सब बताइये ॥ २ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन्प्रवक्ष्यामि नवरात्रव्रतं शुभम् ।
शरत्काले विशेषेण कर्तव्यं विधिपूर्वकम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अब मैं पवित्र नवरात्रव्रतके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये । शरत्कालके नवरात्रमें विशेष करके यह व्रत करना चाहिये ॥ ३ ॥

वसन्ते च प्रकर्तव्यं तथैव प्रेमपूर्वकम् ।
द्वावृतू यमदंष्ट्राख्यौ नूनं सर्वजनेषु वै ॥ ४ ॥
उसी प्रकार प्रेमपूर्वक वसन्त ऋतुके नवरात्रमें भी इस व्रतको करे । ये दोनों ऋतुएँ सब प्राणियोंके लिये यमदंष्ट्रा कही गयी हैं ॥ ४ ॥

शरद्वसन्तनामानौ दुर्गमौ प्राणिनामिह ।
तस्माद्यत्‍नादिदं कार्यं सर्वत्र शुभमिच्छता ॥ ५ ॥
शरत् तथा वसन्त नामक ये दोनों ऋतुएँ संसारमें प्राणियोंके लिये दुर्गम हैं । अतएव आत्मकल्याणके इच्छुक व्यक्तिको बड़े यत्नके साथ यह नवरात्रव्रत करना चाहिये ॥ ५ ॥

द्वावेव सुमहाघोरावृतू रोगकरौ नृणाम् ।
वसन्तशरदावेव सर्वनाशकरावुभौ ॥ ६ ॥
तस्मात्तत्र प्रकर्तव्यं चण्डिकापूजनं बुधैः ।
चैत्राश्विने शुभे मासे भक्तिपूर्वं नराधिप ॥ ७ ॥
ये वसन्त तथा शरद्-दोनों ही ऋतुएँ बड़ी भयानक हैं और मनुष्योंके लिये रोग उत्पन्न करनेवाली हैं । ये सबका विनाश कर देनेवाली हैं । अतएव हे राजन् ! बुद्धिमान् लोगोंको शुभ चैत्र तथा आश्विनमासमें भक्तिपूर्वक चण्डिकादेवीका पूजन करना चाहिये ॥ ६-७ ॥

अमावास्यां च सम्प्राप्य सम्भारं कल्पयेच्छुभम् ।
हविष्यं चाशनं कार्यमेकभुक्तं तु तद्दिने ॥ ८ ॥
अमावस्या आनेपर व्रतकी सभी शुभ सामग्री एकत्रित कर ले और उस दिन एकभुक्त व्रत करे और हविष्य ग्रहण करे ॥ ८ ॥

मण्डपस्तु प्रकर्तव्यः समे देशे शुभे स्थले ।
हस्तषोडशमानेन स्तम्भध्वजसमन्वितः ॥ ९ ॥
किसी समतल तथा पवित्र स्थानमें सोलह हाथ लम्बे-चौड़े और स्तम्भ तथा ध्वजाओंसे सुसज्जित मण्डपका निर्माण करना चाहिये ॥ ९ ॥

गौरमृद्‌गोमयाभ्यां च लेपनं कारयेत्ततः ।
तन्मध्ये वेदिका शुभ्रा कर्तव्या च समा स्थिरा ॥ १० ॥
उसको सफेद मिट्टी और गोबरसे लिपवा दे । तत्पश्चात् उस मण्डपके बीचमें सुन्दर, चौरस और स्थिर वेदी बनाये ॥ १० ॥

चतुर्हस्ता च हस्तोच्छ्रा पीठार्थं स्थानमुत्तमम् ।
तोरणानि विचित्राणि वितानञ्च प्रकल्पयेत् ॥ ११ ॥
वह वेदी चार हाथ लम्बी-चौड़ी और हाथभर ऊँची होनी चाहिये । पीठके लिये उत्तम स्थानका निर्माण करे तथा विविध रंगोंके तोरण लटकाये और ऊपर चाँदनी लगा दे ॥ ११ ॥

रात्रौ द्विजानथामन्त्र्य देवीतत्त्वविशारदान् ।
आचारनिरतान्दान्तान्वेदवेदाङ्गपारगान् ॥ १२ ॥
प्रतिपद्दिवसे कार्यं प्रातःस्नानं विधानतः ।
नद्यां नदे तडागे वा वाप्यां कूपे गृहेऽथवा ॥ १३ ॥
रात्रिमें देवीका तत्त्व जाननेवाले, सदाचारी, संयमी और वेद-वेदांगके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करके प्रतिपदाके दिन प्रातःकाल नदी, नद, तड़ाग, बावली, कुआँ अथवा घरपर ही विधिवत् स्नान करे ॥ १२-१३ ॥

प्रातर्नित्यं पुरः कृत्वा द्विजानां वरणं ततः ।
अर्घ्यपाद्यादिकं सर्वं कर्तव्यं मधुपूर्वकम् ॥ १४ ॥
प्रात:कालके समय नित्यकर्म करके ब्राह्मणोंका वरण-कर उन्हें मधुपर्क तथा अर्ध्य-पाद्य आदि अर्पण करे ॥ १४ ॥

वस्त्रालङ्करणादीनि देयानि च स्वशक्तितः ।
वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं विभवे सति कर्हिचित् ॥ १५ ॥
अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें वस्त्र, अलंकार आदि प्रदान करे । धन रहते हुए इस काममें कभी कृपणता न करे ॥ १५ ॥

विप्रैः सन्तोषितैः कार्यं सम्पूर्णं सर्वथा भवेत् ।
नव पञ्च त्रयश्चैको देव्याः पाठे द्विजाः स्मृताः ॥ १६ ॥
सन्तुष्ट ब्राह्मणोंके द्वारा किया हुआ कर्म सम्यक् प्रकारसे परिपूर्ण होता है । देवीका पाठ करनेके लिये नौ, पाँच, तीन अथवा एक ब्राह्मण बताये गये हैं ॥ १६ ॥

वरयेद्‌ब्राह्मणं शान्तं पारायणकृते तदा ।
स्वस्तिवाचनकं कार्यं वेदमन्त्रविधानतः ॥ १७ ॥
देवीभागवतका पारायण करनेके कार्यमें किसी शान्त ब्राह्मणका वरण करे और वैदिक मन्त्रोंसे स्वस्तिवाचन कराये ॥ १७ ॥

वेद्यां सिंहासनं स्थाप्य क्षौ‍मवस्त्रसमन्वितम् ।
तत्र स्थाप्याऽम्बिका देवी चतुर्हस्तायुधान्विता ॥ १८ ॥
रत्‍नभूषणसंयुक्ता मुक्ताहारविराजिता ।
दिव्याम्बरधरा सौ‌म्या सर्वलक्षणसंयुता ॥ १९ ॥
शंखचक्रगदापद्मधरा सिंहे स्थिता शिवा ।
अष्टादशभुजा वाऽपि प्रतिष्ठाप्या सनातनी ॥ २० ॥
वेदीपर रेशमी वस्त्रसे आच्छादित सिंहासन स्थापित करे । उसके ऊपर चार भुजाओं तथा उनमें आयुधोंसे युक्त देवीकी प्रतिमा स्थापित करे । भगवतीकी प्रतिमा रत्नमय भूषणोंसे युक्त, मोतियोंके हारसे अलंकृत, दिव्य वस्त्रोंसे सुसज्जित, शुभलक्षणसम्पन्न और सौम्य आकृतिकी हो । वे कल्याणमयी भगवती शंख-चक्रगदा-पद्य धारण किये हुए हों और सिंहपर सवार हों; अथवा अठारह भुजाओंसे सुशोभित सनातनी देवीको प्रतिष्ठित करे ॥ १८-२० ॥

अर्चाभावे तथा यन्त्रं नवार्णमन्त्रसंयुतम् ।
स्थापयेत्पीठपूजार्थं कलशं तत्र पार्श्वतः ॥ २१ ॥
भगवतीकी प्रतिमाके अभावमें नवार्णमन्त्रयुक्त यन्त्रको पीठपर स्थापित करे और पौठपूजाके लिये पासमें कलश भी स्थापित कर ले ॥ २१ ॥

पञ्चपल्लवसंयुक्तं वेदमन्त्रैः सुसंस्कृतम् ।
सुतीर्थजलसम्पूर्णं हेमरत्‍नैः समन्वितम् ॥ २२ ॥
वह कलश पंचपल्लवयुक्त, वैदिक मन्त्रोंसे भलीभाँति संस्कृत, उत्तम तीर्थक जलसे पूर्ण और सुवर्ण तथा पंचरत्नमय होना चाहिये ॥ २२ ॥

पार्श्वे पूजार्थसम्भारान्परिकल्प्य समन्ततः ।
गीतवादित्रनिर्घोषान्कारयेन्मङ्गलाय वै ॥ २३ ॥
पासमें पूजाकी सब सामग्रियाँ रखकर उत्सवके निमित्त गीत तथा वाद्योंकी ध्वनि भी करानी चाहिये ॥ २३ ॥

तिथौ हस्तान्वितायां च नन्दायां पूजनं वरम् ।
प्रथमे दिवसे राजन् विधिवत्कामदं नृणाम् ॥ २४ ॥
हस्तनक्षत्रयुक्त नन्दा (प्रतिपदा) तिथिमें पूजन श्रेष्ठ माना जाता है । हे राजन् ! पहले दिन विधिवत् किया हुआ पूजन मनुष्योंका मनोरथ पूर्ण करनेवाला होता है ॥ २४ ॥

नियमं प्रथमं कृत्वा पश्चात्पूजां समाचरेत् ।
उपवासेन नक्तेन चैकभुक्तेन वा पुनः ॥ २५ ॥
सबसे पहले उपवासव्रत, एकभुक्तव्रत अथवा नक्तव्रत-इनमेंसे किसी एक व्रतके द्वारा नियम करनेके पश्चात् ही पूजा करनी चाहिये ॥ २५ ॥

करिष्यामि व्रतं मातर्नवरात्रमनुत्तमम् ।
साहाय्यं कुरु मे देवि जगदम्ब ममाखिलम् ॥ २६ ॥
[पूजनके पहले प्रार्थना करते हुए कहे-] हे माता ! मैं सर्वश्रेष्ठ नवरात्रव्रत करूँगा । हे देवि ! हे जगदम्बे ! [इस पवित्र कार्यमें] आप मेरी सम्पूर्ण सहायता करें ॥ २६ ॥

यथाशक्ति प्रकर्तव्यो नियमो व्रतहेतवे ।
पश्चात्पूजा प्रकर्तव्या विधिवन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ २७ ॥
इस व्रतके लिये यथाशक्ति नियम रखे । उसके बाद मन्त्रोच्चारणपूर्वक विधिवत् भगवतीका पूजन करे ॥ २७ ॥

चन्दनागुरुकर्पूरैः कुसुमैश्च सुगन्धिभिः ।
मन्दारकरजाशोकचम्पकैः करवीरकैः ॥ २८ ॥
मालतीब्रह्मकापुष्पैस्तथा बिल्वदलैः शुभैः ।
पूजयेज्जगतां धात्रीं धूपैर्दीपैर्विधानतः ॥ २९ ॥
चन्दन, अगरु, कपूर तथा मन्दार, करंज, अशोक, चम्पा, कनैल, मालती, ब्राह्मी आदि सुगन्धित पुष्यों, सुन्दर बिल्वपत्रों और धूप-दीपसे विधिवत् भगवती जगदम्बाका पूजन करना चाहिये ॥ २८-२९ ॥

फलैर्नानाविधैरर्घ्यं प्रदातव्यं च तत्र वै ।
नारिकेलैर्मातुलुङ्गैर्दाडिमीकदलीफलैः ॥ ३० ॥
नारङ्गैः पनसैश्चैव तथा पूर्णफलैः शुभैः ।
अन्नदानं प्रकर्तव्यं भक्तिपूर्वं नराधिप ॥ ३१ ॥
मांसाशनं ये कुर्वन्ति तैः कार्यं पशुहिंसनम् ।
महिषाजवराहाणां बलिदानं विशिष्यते ॥ ३२ ॥
देव्यग्रे निहता यान्ति पशवः स्वर्गमव्ययम् ।
न हिंसा पशुजा तत्र निघ्नतां तत्कृतेऽनघ ॥ ३३ ॥
अहिंसा याज्ञिकी प्रोक्ता सर्वशास्त्रविनिर्णये ।
देवतार्थे विसृष्टानां पशूनां स्वर्गतिर्ध्रुवा ॥ ३४ ॥
उस अवसरपर अर्ध्य भी प्रदान करे । हे राजन् ! नारियल, बिजौरा नीबू, दाडिम, केला, नारंगी, कटहल तथा बिल्वफल आदि अनेक प्रकारके सुन्दर फलोंके साथ भक्तिपूर्वक अन्नका नैवेद्य एवं पवित्र बलि अर्पित करे ॥ ३०-३४ ॥

होमार्थं चैव कर्तव्यं कुण्डं चैव त्रिकोणकम् ।
स्थण्डिलं वा प्रकर्तव्यं त्रिकोणं मानतः शुभम् ॥ ३५ ॥
होमके लिये त्रिकोण कुण्ड बनाना चाहिये अथवा त्रिकोणके मानके अनुरूप उत्तम वेदी बनानी चाहिये ॥ ३५ ॥

त्रिकालं पूजनं नित्यं नानाद्रव्यैर्मनोहरैः ।
गीतवादित्रनृत्यैश्च कर्तव्यश्च महोत्सवः ॥ ३६ ॥
विविध प्रकारके सुन्दर द्रव्योंसे प्रतिदिन भगवतीका त्रिकाल (प्रातः-सायं-मध्याह) पूजन करना चाहिये और गायन, वादन तथा नृत्यके द्वारा महान् उत्सव मनाना चाहिये ॥ ३६ ॥

नित्यं भूमौ च शयनं कुमारीणां च पूजनम् ।
वस्त्रालङ्करणैर्दिव्यैर्भोजनैश्च सुधामयैः ॥ ३७ ॥
[व्रती] नित्य भूमिपर सोये और वस्त्र, आभूषण तथा अमृतके सदृश दिव्य भोजन आदिसे कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३७ ॥

एकैकां पूजयेन्नित्यमेकवृद्ध्या तथा पुनः ।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवकं च वा ॥ ३८ ॥
नित्य एक ही कुमारीका पूजन करे अथवा प्रतिदिन एक-एक कुमारीकी संख्याके वृद्धिक्रमसे पूजन करे अथवा प्रतिदिन दुगुने-तिगुनेके वृद्धिक्रमसे और या तो प्रत्येक दिन नौ कुमारी कन्याओंका पूजन करे ॥ ३८ ॥

विभवस्यानुसारेण कर्तव्यं पूजनं किल ।
वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं राजञ्छक्तिमखे सदा ॥ ३९ ॥
अपने धन-सामर्थ्यके अनुसार भगवतीको पूजा करे, किंतु हे राजन् ! देवीके यज्ञमें धनकी कृपणता न करे ॥ ३९ ॥

एकवर्षा न कर्तव्या कन्या पूजाविधौ नृप ।
परमज्ञा तु भोगानां गन्धादीनां च बालिका ॥ ४० ॥
कुमारिका तु सा प्रोक्ता द्विवर्षा या भवेदिह ।
त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्दिका ॥ ४१ ॥
रोहिणी पञ्चवर्षा च षड्‌वर्षा कालिका स्मृता ।
चण्डिका सप्तवर्षा स्यादष्टवर्षा च शाम्भवी ॥ ४२ ॥
नववर्षा भवेद्‌दुर्गा सुभद्रा दशवार्षिकी ।
अत ऊर्ध्वं न कर्तव्या सर्वकार्यविगर्हिता ॥ ४३ ॥
एभिश्च नामभिः पूजा कर्तव्या विधिसंयुता ।
तासां फलानि वक्ष्यामि नवानां पूजने सदा ॥ ४४ ॥
हे राजन ! पूजाविधिमें एक वर्षको अवस्थावाली कन्या नहीं लेनी चाहिये, क्योंकि वह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थोंके स्वादसे बिलकुल अनभिज्ञ रहती है । कुमारी कन्या वह कही गयी है, जो दो वर्षकी हो चुकी हो । तीन वर्षकी कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्षकी कन्या कल्याणी. पाँच वर्षकी रोहिणी. छः वर्षकी कालिका, सात वर्षकी चण्डिका, आठ वर्षकी शाम्भवी, नौ वर्षकी दुर्गा और दस वर्षकी कन्या सुभद्रा कहलाती है । इससे ऊपरकी अवस्थावाली कन्याका पूजन नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह सभी कार्योंमें निन्द्य मानी जाती है । इन नामोंसे कुमारीका विधिवत् पूजन सदा करना चाहिये । अब मैं इन नौ कन्याओंके पूजनसे प्राप्त होनेवाले फलोंको कहूँगा ॥ ४०-४४ ॥

कुमारी पूजिता कुर्याद्‌दुःखदारिद्रयनाशनम् ।
शत्रुक्षयं धनायुष्यं बलवृद्धिं करोति वै ॥ ४५ ॥
'कुमारी' नामकी कन्या पूजित होकर दुःख तथा दरिद्रताका नाश करती है; वह शत्रुओंका क्षय और धन, आयु तथा बलकी वृद्धि करती है ॥ ४५ ॥

त्रिमूर्तिपूजनादायुस्त्रिवर्गस्य फलं भवेत् ।
धनधान्यागमश्चैव पुत्रपौत्रादिवृद्धयः ॥ ४६ ॥
'त्रिमूर्ति' नामकी कन्याका पूजन करनेसे धर्मअर्थ-कामकी पूर्ति होती है, धन-धान्यका आगम होता है और पुत्र-पौत्र आदिकी वृद्धि होती है ॥ ४६ ॥

विद्यार्थी विजयार्थी च राज्यार्थी यश्च पार्थिवः ।
सुखार्थी पूजयेन्नित्यं कल्याणीं सर्वकामदाम् ॥ ४७ ॥
जो राजा विद्या, विजय, राज्य तथा सुखकी कामना करता हो, उसे सभी कामनाएँ प्रदान करनेवाली 'कल्याणी' नामक कन्याका नित्य पूजन करना चाहिये । ४७ ॥

कालिकां शत्रुनाशार्थं पूजयेद्‌भक्तिपूर्वकम् ।
ऐश्वर्यधनकामश्च चण्डिकां परिपूजयेत् ॥ ४८ ॥
शत्रुओंका नाश करनेके लिये भक्तिपूर्वक 'कालिका' कन्याका पूजन करना चाहिये । धन तथा ऐश्वर्यकी अभिलाषा रखनेवालेको चण्डिका' कन्याकी सम्यक् अर्चना करनी चाहिये ॥ ४८ ॥

पूजयेच्छाम्भवीं नित्यं नृपसंमोहनाय च ।
दुःखदारिद्र्यनाशाय सङ्ग्रामे विजयाय च ॥ ४९ ॥
हे राजन् ! सम्मोहन, दुःख-दारिद्रयके नाश तथा संग्राममें विजयके लिये 'शाम्भवी' कन्याकी नित्य पूजा करनी चाहिये ॥ ४९ ॥

क्रूरशत्रुविनाशार्थं तथोग्रकर्मसाधने ।
दुर्गाञ्च पूजयेद्‌भक्त्या परलोकसुखाय च ॥ ५० ॥
क्रूर शत्रुके विनाश एवं उग्र कर्मकी साधनाके निमित्त और परलोकमें सुख पानेके लिये 'दुर्गा' नामक कन्याकी भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिये ॥ ५० ॥

वाञ्छितार्थस्य सिद्ध्यर्थं सुभद्रां पूजयेत्सदा ।
रोहिणीं रोगनाशाय पूजयेद्विधिवन्नरः ॥ ५१ ॥
मनुष्य अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये 'सुभद्रा' की सदा पूजा करे और रोगनाशके निमित्त रोहिणी' की विधिवत् आराधना करे ॥ ५१ ॥

श्रीरस्त्विति च मन्त्रेण पूजयेद्‌भक्तितत्परः ।
श्रीयुक्तमन्त्रैरथवा बीजमन्त्रैरथापि वा ॥ ५२ ॥
'श्रीरस्तु' इस मन्त्रसे अथवा किन्हीं भी श्रीयुक्त देवीमन्त्रसे अथवा बीजमन्त्रसे भक्तिपूर्वक भगवतीकी पूजा करनी चाहिये ॥ ५२ ॥

कुमारस्य च तत्त्वानि या सृजत्यपि लीलया ।
कादीनपि च देवांस्तां कुमारीं पूजयाम्यहम् ॥ ५३ ॥
जो भगवती कुमारके रहस्यमय तत्त्वों और ब्रह्मादि देवताओंकी भी लीलापूर्वक रचना करती हैं, उन 'कुमारी' का मैं पूजन करता हूँ ॥ ५३ ॥

सत्त्वादिभिस्त्रिमूर्तिर्या तैर्हि नानास्वरूपिणी ।
त्रिकालव्यापिनी शक्तिस्त्रिमूर्तिं पूजयाम्यहम् ॥ ५४ ॥
जो सत्त्व आदि तीनों गुणोंसे तीन रूप धारण करती हैं, जिनके अनेक रूप हैं तथा जो तीनों कालोंमें सर्वत्र व्याप्त रहती हैं, उन भगवती 'त्रिमूर्ति' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५४ ॥

कल्याणकारिणी नित्यं भक्तानां पूजिताऽनिशम् ।
पूजयामि च तां भक्त्या कल्याणीं सर्वकामदाम् ॥ ५५ ॥
निरन्तर पूजित होनेपर जो भक्तोंका नित्य कल्याण करती हैं, सब प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन भगवती 'कल्याणी' का मैं भक्तिपूर्वक पूजन करता हूँ ॥ ५५ ॥

रोहयन्ती च बीजानि प्राग्जन्मसञ्चितानि वै ।
या देवी सर्वभूतानां रोहिणीं पूजयाम्यहम् ॥ ५६ ॥
जो देवी सम्पूर्ण जीवोंके पूर्वजन्मके संचित कर्मरूपी बीजोंका रोपण करती हैं, उन भगवती रोहिणीकी मैं उपासना करता हूँ ॥ ५६ ॥

काली कालयते सर्वं ब्रह्माण्डं सचराचरम् ।
कल्पान्तसमये या तां कालिकां पूजयाम्यहम् ॥ ५७ ॥
जो देवी काली कल्पान्तमें चराचरसहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको अपने में विलीन कर लेती हैं, उन भगवती 'कालिका' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५७ ॥

तां चण्डपापहरणीं चण्डिकां पूजयाम्यहम् ॥ ५८ ॥
अत्यन्त उग्र स्वभाववाली, उग्ररूप धारण करनेवाली, चण्ड-मुण्डका संहार करनेवाली तथा घोर पापोंका नाश करनेवाली उन भगवती 'चण्डिका' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ५८ ॥

अकारणात्समुत्पत्तिर्यन्मयैः परिकीर्तिता ।
यस्यास्तां सुखदां देवीं शाम्भवीं पूजयाम्यहम् ॥ ५९ ॥
वेद जिनके स्वरूप हैं, उन्हीं वेदोंके द्वारा जिनकी उत्पत्ति अकारण बतायी गयी है, उन सुखदायिनी भगवती 'शाम्भवी' का मैं पूजन करता हूँ ॥ ५९ ॥

दुर्गात्त्रायति भक्तं या सदा दुर्गातिनाशिनी ।
दुर्ज्ञेया सर्वदेवानां तां दुर्गां पूजयाम्यहम् ॥ ६० ॥
जो अपने भक्तको सर्वदा संकटसे बचाती हैं, बड़े-बड़े विघ्नों तथा दुःखोंका नाश करती हैं और सभी देवताओंके लिये दुर्जेय हैं, उन भगवती 'दुर्गा' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६० ॥

सुभद्राणि च भक्तानां कुरुते पूजिता सदा ।
अभद्रनाशिनीं देवीं सुभद्रां पूजयाम्यहम् ॥ ६१ ॥
जो पूजित होनेपर भक्तोंका सदा कल्याण करती हैं, उन अमंगलनाशिनी भगवती 'सुभद्रा' की मैं पूजा करता हूँ ॥ ६१ ॥

एभिर्मन्त्रैः पूजनीयाः कन्यकाः सर्वदा बुधैः ।
वस्त्रालङ्करणैर्माल्यैर्गन्धैरुच्चावचैरपि ॥ ६२ ॥
विद्वानोंको चाहिये कि वस्त्र, भूषण, माला, गन्ध आदि श्रेष्ठ उपचारोंसे इन मन्त्रोंके द्वारा सर्वदा कन्याओंका पूजन करें ॥ ६२ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे कुमारीपूजावर्णनं नाम षड्‌विंशोऽध्यायः ॥ २६ ॥
अध्याय छब्बीसवाँ समाप्त


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