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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
त्रिंशोऽध्यायः

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रामाय देवीवरदानम् -
श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रततकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना -


व्यास उवाच
एवं तौ संविदं कृत्वा यावत्तूष्णीं बभूवतुः ।
आजगाम तदाऽऽकाशान्नारदो भगवानृषिः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार राम और लक्ष्मण परस्परमें परामर्श करके ज्यों ही चुप हुए, त्यों ही आकाशमार्गसे देवर्षि नारद वहाँ आ गये ॥ १ ॥

रणयन्महतीं वीणां स्वरग्रामविभूषिताम् ।
गायन्बृहद्रथं साम तदा तमुपतस्थिवान् ॥ २ ॥
उस समय वे स्वर तथा ग्रामसे विभूषित अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा बृहद्रथन्तर सामका गायन करते हुए उनके समीप पहुँचे ॥ २ ॥

दृष्ट्वा तं राम उत्थाय ददावथ वृषं शुभम् ।
आसनं चार्घ्यपाद्यञ्च कृतवानमितद्युतिः ॥ ३ ॥
उन्हें देखते ही अमित तेजवाले श्रीरामने उठकर उन्हें श्रेष्ठ पवित्र आसन प्रदान किया और तत्पश्चात् अर्घ्य तथा पाद्यसे उनकी पूजा की ॥ ३ ॥

पूजां परमिकां कृत्वा कृताञ्जलिरुपस्थितः ।
उपविष्टः समीपे तु कृताज्ञो मुनिना हरिः ॥ ४ ॥
भलीभांति पूजा करनेके बाद भगवान् श्रीराम हाथ जोड़कर खड़े हो गये और फिर मुनिके आज्ञा देनेपर उनके पास ही बैठ गये ॥ ४ ॥

उपविष्टं तदा रामं सानुजं दुःखमानसम् ।
पप्रच्छ नारदः प्रीत्या कुशलं मुनिसत्तमः ॥ ५ ॥
तब अपने अनुज लक्ष्मणके साथ बैठे हुए खिन्न-मनस्क रामसे मुनीन्द्र नारदजी प्रेमपूर्वक कुशलक्षेम पूछने लगे ॥ ५ ॥

कथं राघव शोकार्तो यथा वै प्राकृतो नरः ।
हृतां सीतां च जानामि रावणेन दुरात्मना ॥ ६ ॥
सुरसद्मगतश्चाहं श्रुतवाञ्जनकात्मजाम् ।
पौलस्त्येन हृतां मोहान्मरणं स्वमजानता ॥ ७ ॥
नारदजी बोले-हे राघव ! आप इस समय साधारण मनुष्यके समान शोकाकुल क्यों हैं ? मैं यह जानता हूँ कि दुष्ट रावण सीताको हर ले गया है । जब मैं देवलोकमें गया था, तभी मैंने वहाँ सुना कि अपनी मृत्युको न जाननेसे ही मोहके वशीभूत होकर रावणने जनकनन्दिनीका हरण कर लिया है ॥ ६-७ ॥

तव जन्म च काकुत्स्थ पौलस्त्यनिधनाय वै ।
मैथिलीहरणं जातमेतदर्थं नराधिप ॥ ८ ॥
हे काकुत्स्थ ! आपका जन्म ही रावणके निधनके लिये हुआ है । हे नराधिप ! इसी कार्यसिद्धिके लिये सीताका हरण हुआ है ॥ ८ ॥

पूर्वजन्मनि वैदेही मुनिपुत्री तपस्विनी ।
रावणेन वने दृष्टा तपस्यन्ती शुचिस्मिता ॥ ९ ॥
प्रार्थिता रावणेनासौ भव भार्येति राघव ।
तिरस्कृतस्तयाऽसौ वै जग्राह कबरं बलात् ॥ १० ॥
पूर्वजन्ममें ये वैदेही एक मुनिकी तपस्विनी कन्या थीं । उस पवित्र मुसकानवाली कन्याको रावणने वनमें तप करते हुए देखा । हे राघव ! तब रावणने उससे प्रार्थना की कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ । इसपर उसके द्वारा तिरस्कृत किये गये रावणने बलपूर्वक उसके केश पकड़ लिये ॥ ९-१० ॥

शशाप तत्क्षणं राम रावणं तापसी भृशम् ।
कुपिता त्यक्तुमिच्छन्ती देहं संस्पर्शदूषितम् ॥ ११ ॥
दुरात्मंस्तव नाशार्थं भविष्यामि धरातले ।
अयोनिजा वरा नारी त्यक्त्वा देहं जहावपि ॥ १२ ॥
हे राम ! रावणके स्पर्शसे दूषित अपनी देहको त्यागनेकी आकांक्षा रखती हुई उस तापसी मुनिकन्याने अत्यन्त कुपित होकर उसे तत्काल यह घोर शाप दे दिया कि हे दुरात्मन् ! तुम्हारे विनाशके लिये मैं भूतलपर गर्भसे जन्म न लेकर एक श्रेष्ठ स्त्रीके रूपमें प्रकट होऊँगी-ऐसा कहकर उस तापसीने अपना शरीर त्याग दिया ॥ ११-१२ ॥

सेयं रमांशसम्भूता गृहीता तेन रक्षसा ।
विनाशार्थं कुलस्यैव व्याली स्रगिव सम्भ्रमात् ॥ १३ ॥
लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न यह सीता वही है; जिसे भ्रमवश माला समझकर नागिनको धारण करनेवाले व्यक्तिकी भाँति रावणने अपने ही वंशका नाश करनेके लिये हर लिया है ॥ १३ ॥

तव जन्म च काकुत्स्थ तस्य नाशाय चामरैः ।
प्रार्थितस्य हरेरंशादजवंशेऽप्यजन्मनः ॥ १४ ॥
हे काकुत्स्थ ! आपका भी जन्म उसी रावणके नाशके लिये देवताओंके प्रार्थना करनेपर अनादि भगवान् विष्णुके अंशसे अजवंशमें हुआ है ॥ १४ ॥

कुरु धैर्यं महाबाहो तत्र सा वर्ततेऽवशा ।
सती धर्मरता सीता त्वां ध्यायन्ती दिवानिशम् ॥ १५ ॥
हे महाबाहो ! आप धैर्य धारण करें; वे किसी दूसरेके वशमें नहीं हो सकतीं ! वे सतीधर्मपरायण सीता लंकामें दिन-रात आपका ध्यान करती हुई रह रही हैं ॥ १५ ॥

कामधेनुपयः पात्रे कृत्वा मघवता स्वयम् ।
पानार्थं प्रेषितं तस्याः पीतं चैवामृतं यथा ॥ १६ ॥
सुरभीदुग्धपानात्सा क्षुत्तुड्‌दुःखविवर्जिता ।
जाता कमलपत्राक्षी वर्तते वीक्षिता मया ॥ १७ ॥
स्वयं इन्द्रने एक पात्रमें कामधेनुका दूध सौताको पीनेके लिये भेजा था, उस अमृततुल्य दूधको उन्होंने पी लिया है । वे कामधेनुके दुग्धपानसे भूख-प्यासके दुःखसे रहित हो गयी हैं । मैंने उन कमलनयनीको स्वयं देखा है ॥ १६-१७ ॥

उपायं कथयाम्यद्य तस्य नाशाय राघव ।
व्रतं कुरुष्व श्रद्धावानाश्विने मासि साम्प्रतम् ॥ १८ ॥
हे राघवेन्द्र ! मैं उस रावणके नाशका उपाय बताता हूँ । अब आप इसी आश्विनमासमें श्रद्धापूर्वक नवरात्रव्रत कीजिये ॥ १८ ॥

नवरात्रोपवासञ्च भगवत्याः प्रपूजनम् ।
सर्वसिद्धिकरं राम जपहोमविधानतः ॥ १९ ॥
मेघ्यैश्च पशुभिर्देव्या बलिं दत्त्वा विशंसितैः ।
दशांशं हवनं कृत्वा सशक्तस्त्वं भविष्यसि ॥ २० ॥
हेराम ! नवरात्रमें उपवास तथा जप-होमके विधानसे किया गया भगवती-पूजन समस्त सिद्धियोंको प्रदान करनेवाला है । देवीको पवित्र बलि देकर तथा दशांश हवन करके आप पूर्ण शक्तिशाली बन जायेंगे ॥ १९-२० ॥

विष्णुना चरितं पूर्वं महादेवेन ब्रह्मणा ।
तथा मघवता चीर्णं स्वर्गमध्यस्थितेन वै ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा स्वर्ग-लोकमें विराजमान इन्द्रने भी इसका अनुष्ठान किया था ॥ २१ ॥

सुखिना राम कर्तव्यं नवरात्रव्रतं शुभम् ।
विशेषेण च कर्तव्यं पुंसा कष्टगतेन वै ॥ २२ ॥
हे राम ! सुखी मनुष्यको इस व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये और कष्टमें पड़े हुए मनुष्यको तो यह व्रत विशेषरूपसे करना चाहिये ॥ २२ ॥

विश्वामित्रेण काकुत्स्थ कृतमेतन्न संशयः ।
भृगुणाऽथ वसिष्ठेन कश्यपेन तथैव च ॥ २३ ॥
गुरुणा हृतदारेण कृतमेतन्महाव्रतम् ।
तस्मात्त्वं कुरु राजेन्द्र रावणस्य वधाय च ॥ २४ ॥
इन्द्रेण वृत्रनाशाय कृतं व्रतमनुत्तमम् ।
त्रिपुरस्य विनाशाय शिवेनापि पुरा कृतम् ॥ २५ ॥
हरिणा मधुनाशाय कृतं मेरौ महामते ।
विधिवत्कुरु काकुत्स्थ व्रतमेतदतन्द्रितः ॥ २६ ॥
हे काकुत्स्थ ! विश्वामित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप भी इस व्रतको कर चुके हैं । इसमें सन्देह नहीं है । इसी प्रकार हरण की गयी पत्नीवाले गुरु बृहस्पतिने भी इस व्रतको किया था । इसलिये हे राजेन्द्र ! रावणके वध तथा सीताकी प्राप्तिके लिये आप इस व्रतको कीजिये । पूर्वकालमें इन्द्रने वृत्रासुरके वधके लिये तथा शिवने त्रिपुरदैत्यके वधके लिये यह सर्वश्रेष्ठ व्रत किया था । हे महामते ! इसी प्रकार भगवान् विष्णुने भी मधुदैत्यके वधके लिये सुमेरुपर्वतपर यह व्रत किया था, अतः हे काकुत्स्थ ! आप भी आलस्यरहित होकर विधिपूर्वक यह व्रत कीजिये ॥ २३-२६ ॥

श्रीराम उवाच
का देवी किं प्रभावा सा कुतो जाता किमाह्वया ।
व्रतं किं विधिवद्‌ब्रूहि सर्वज्ञोऽसि दयानिधे ॥ २७ ॥
श्रीराम बोले-हे दयानिधे ! आप सर्वज्ञ हैं, अतः मुझे विधिपूर्वक बताइये कि वे कौन देवी हैं, उनका प्रभाव क्या है, वे कहाँसे उत्पन्न हुई हैं, उनका नाम क्या है तथा वह व्रत कौन-सा है ? ॥ २७ ॥

नारद उवाच
शृणु राम सदा नित्या शक्तिराद्या सनातनी ।
सर्वकामप्रदा देवी पूजिता दुःखनाशिनी ॥ २८ ॥
नारदजी बोले-हे राम ! सुनिये-वे देवी नित्य, सनातनी और आद्याशक्ति हैं, वे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देती हैं और अपनी आराधनासे सभी प्रकारके कष्ट दूर कर देती हैं ॥ २८ ॥

कारणं सर्वजन्तूनां ब्रह्मादीनां रघूद्वह ।
तस्याः शक्तिं विना कोऽपि स्पन्दितुं न क्षमो भवेत् ॥ २९ ॥
है रघुनन्दन ! वे ब्रह्मा आदि देवताओं तथा समस्त जीवोंकी कारणस्वरूपा हैं । उनसे शक्ति पाये बिना कोई हिल-डुल सकनेमें भी समर्थ नहीं है ॥ २९ ॥

विष्णोः पालनशक्तिः सा कर्तृशक्तिः पितुर्मम ।
रुद्रस्य नाशशक्तिः सा त्वन्याशक्तिः परा शिवा ॥ ३० ॥
वे ही मेरे पिता ब्रह्माकी सृष्टि-शक्ति हैं, विष्णुकी पालन-शक्ति हैं तथा शंकरकी संहारशक्ति हैं । वे कल्याणमयी पराम्बा अन्य शक्तिरूपा भी हैं ॥ ३० ॥

यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्‌भुवनत्रये ।
तस्य सर्वस्य या शक्तिस्तदुत्पत्तिः कुतो भवेत् ॥ ३१ ॥
इन तीनों लोकोंमें जो कुछ भी कहीं भी सत् या असत् पदार्थ है, उसकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण इस देवीके अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? ॥ ३१ ॥

न ब्रह्मा न यदा विष्णुर्न रुद्रो न दिवाकरः ।
न चेन्द्राद्याः सुराः सर्वे न धरा न धराधराः ॥ ३२ ॥
तदा सा प्रकृतिः पूर्णा पुरुषेण परेण वै ।
संयुता विहरत्येव युगादौ निर्गुणा शिवा ॥ ३३ ॥
इस सृष्टिके आरम्भमें जब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्रादि देवता, पृथ्वी और पर्वत आदि कुछ भी नहीं रहता, तब उस समय वे निर्गुणा, कल्याणमयी, परा प्रकृति ही परमपुरुषके साथ विहार करती हैं ॥ ३२-३३ ॥

सा भूत्वा सगुणा पश्चात्करोति भुवनत्रयम् ।
पूर्वं संसृज्य ब्रह्मादीन्दत्त्वा शक्तीश्च सर्वशः ॥ ३४ ॥
वे ही बादमें सगुणा शक्ति बनकर सर्वप्रथम ब्रह्मा आदिका सृजन करके और उन्हें शक्तियाँ प्रदानकर तीनों भुवनोंकी सम्यक् रचना करती हैं ॥ ३४ ॥

तां ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ।
सा विद्या परमा ज्ञेया वेदाद्या वेदकारिणी ॥ ३५ ॥
उन आदिशक्तिको जानकर प्राणी संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है । विद्यास्वरूपा, वेदोंकी आदिकारण, वेदोंको प्रकट करनेवाली तथा परमा उन भगवतीको अवश्य जानना चाहिये ॥ ३५ ॥

असंख्यातानि नामानि तस्या ब्रह्मादिभिः किल ।
गुणकर्मविधानैस्तु कल्पितानि च किं ब्रुवे ॥ ३६ ॥
अकारादिक्षकारान्तैः स्वरैर्वर्णैस्तु योजितैः ।
असंख्येयानि नामानि भवन्ति रघुनन्दन ॥ ३७ ॥

ब्रह्मादि देवताओंने गुण-कर्मके विधानानुसार उनके असंख्य नाम कल्पित किये हैं, मैं कहाँतक बताऊँ ? हे रघुनन्दन ! 'अ' कारसे लेकर 'क्ष' पर्यन्त सभी स्वरों तथा वर्णोक संयोगसे उनके असंख्य नाम बनते हैं ॥ ३६-३७ ॥

राम उवाच
विधिं मे ब्रूहि विप्रर्षे व्रतस्यास्य समासतः ।
करोम्यद्यैव श्रद्धावाञ्छ्रीदेव्याः पूजनं तथा ॥ ३८ ॥
श्रीराम बोले-हे देवर्षे ! इस नवरात्रव्रतका विधान मुझे संक्षेपमें बताइये; मैं आज ही श्रद्धापूर्वक श्रीदेवीका विधिवत् पूजन करूँगा ॥ ३८ ॥

नारद उवाच
पीठं कृत्वा समे स्थाने संस्थाप्य जगदम्बिकाम् ।
उपवासान्नवैव त्वं कुरु राम विधानतः ॥ ३९ ॥
आचार्योऽहं भविष्यामि कर्मण्यस्मिन्महीपते ।
देवकार्यविधानार्थमुत्साहं प्रकरोम्यहम् ॥ ४० ॥
नारदजी बोले-हे राम ! किसी समतल भूमिपर पीठासन बनाकर उसपर भगवती जगदम्बिकाकी स्थापना करके विधानपूर्वक नौ दिन उपवास कीजिये । हे राजन् ! इस कार्यमें मैं आचार्य बनूँगा; क्योंकि देवताओंके कार्य करनेमें मैं अधिक उत्साह रखता हूँ ॥ ३९-४० ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं सत्यं मत्वा रामः प्रतापवान् ।
कारयित्वा शुभं पीठं स्थापयित्वाम्बिकां शिवाम् ॥ ४१ ॥
विधिवत्पूजनं तस्याश्चकार व्रतवान् हरिः ।
सम्प्राप्ते चाश्विने मासि तस्मिन्गिरिवरे तदा ॥ ४२ ॥
उपवासपरो रामः कृतवान्व्रतमुत्तमम् ।
होमञ्च विधिवत्तत्र बलिदानञ्च पूजनम् ॥ ४३ ॥
भ्रातरौ चक्रतुः प्रेम्णा व्रतं नारदसम्मतम् ।
अष्टम्यां मध्यरात्रे तु देवी भगवती हि सा ॥ ४४ ॥
सिंहारूढा ददौ तत्र दर्शनं प्रतिपूजिता ।
गिरिशृङ्गे स्थितोवाच राघवं सानुजं गिरा ॥ ४५ ॥
मेघगम्भीरया चेदं भक्तिभावेन तोषिता ।
व्यासजी बोले-नारदजीका वचन सुनकर प्रतापी श्रीरामने उसे सत्य मानकर तदनुसार एक सुन्दर पीठासन बनवाकर उसपर अम्बिकाकी स्थापना की । व्रतधारी भगवान् श्रीरामने आश्विनमास लगनेपर उस श्रेष्ठ पर्वतपर उन भगवतीका पूजन किया । उपवासपरायण श्रीरामने यह श्रेष्ठ व्रत करते हुए विधिवत् होम, बलिदान और पूजन किया । इस प्रकार दोनों भाइयोंने नारदजीके द्वारा बताये गये इस व्रतको प्रेमपूर्वक सम्पन्न किया । उनसे सम्यक पूजित होकर अष्टमीकी मध्यरात्रिकी वेलामें भगवती दुर्गाने सिंहपर सवार होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । तदनन्तर भक्तिभावसे प्रसन्न उन भगवतीने पर्वतके शिखरपर स्थित होकर लक्ष्मणसहित रामसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ४१-४५.५ ॥

देव्युवाच
राम राम महाबाहो तुष्टाऽस्म्यद्म व्रतेन ते ॥ ४६ ॥
प्रार्थयस्व वरं कामं यत्ते मनसि वर्तते ।
नारायणांशसम्भूतस्त्वं वंशे मानवेऽनघे ॥ ४७ ॥
रावणस्य वधायैव प्रार्थितस्त्वमरैरसि ।
पुरा मत्स्यतनुं कृत्वा हत्वा घोरञ्च राक्षसम् ॥ ४८ ॥
त्वया वै रक्षिता वेदाः सुराणां हितमिच्छता ।
भूत्वा कच्छपरूपस्तु धृतवान्मन्दरं गिरिम् ॥ ४९ ॥
अकूपारं प्रमन्थानं कृत्वा देवानपोषयः ।
कोलरूपं परं कृत्वा दशनाग्रेण मेदिनीम् ॥ ५० ॥
धृतवानसि यद्‌राम हिरण्याक्षं जघान च ।
नारसिंहीं तनुं कृत्वा हिरण्यकशिपुं पुरा ॥ ५१ ॥
प्रह्लादं राम रक्षित्वा हतवानसि राघव ।
वामनं वपुरास्थाय पुरा छलितवान्बलिम् ॥ ५२ ॥
भूत्वेन्द्रस्यानुजः कामं देवकार्यप्रसाधकः ।
जमदग्निसुतस्त्वं मे विष्णोरंशेन सङ्गतः ॥ ५३ ॥
कृत्वान्तं क्षत्रियाणां तु दानं भूमेरदाद्‌द्विजे ।
तथेदानीं तु काकुत्स्थ जातो दशरथात्मज ॥ ५४ ॥
देवी बोलीं-हे राम ! हे महाबाहो ! इस समय मैं आपके व्रतसे सन्तुष्ट है । आपके मनमें जो भी हो, उस अभिलषित वरको माँग लीजिये । आप पवित्र मनुवंशमें नारायणके अंशसे उत्पन्न हुए हैं । हे राम ! देवताओंके प्रार्थना करनेपर रावणके वधके लिये आप अवतरित हुए हैं । पूर्वकालमें मत्स्यरूप धारणकर भयानक राक्षसका वध करके देवताओंके हितकी इच्छावाले आपने ही वेदोंकी रक्षा की थी । पुनः कच्छपके रूपमें अवतार लेकर मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया, जिससे समुद्रका मन्थन करके [अमृतपान कराकर] देवताओंका पोषण किया था । हे राम ! आपने वराहका रूप धारणकर अपने दाँतोंकी नोंकपर पृथ्वीको रख लिया और हिरण्याक्षका वध किया था । हे राघव ! हे राम ! पूर्वकालमें नरसिंहका रूप धारणकर प्रह्लादकी रक्षा करके आपने हिरण्यकशिपुका वध किया था । इसी प्रकार पूर्वकालमें वामनका रूप धारण करके आपने बलिको छला था । उस समय इन्द्रका लघु भ्राता बनकर आपने देवताओंका महान् कार्य सिद्ध किया था । पुनः भगवान् विष्णुके अंशसे जमदग्निके पुत्र परशुरामके रूपमें अवतरित होकर क्षत्रियोंका अन्त करके आपने सारी पृथ्वी ब्राह्मणोंको दे दी थी । उसी प्रकार हे काकुत्स्थ ! रावणके द्वारा अत्यधिक सताये गये सभी देवताओंके प्रार्थना करनेपर इस समय आप ही दशरथपुत्र श्रीरामके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६-५४ ॥

प्रार्थितस्तु सुरैः सर्वै रावणेनातिपीडितैः ।
कपयस्ते सहाया वै देवांशा बलवत्तराः ॥ ५५ ॥
भविष्यन्ति नरव्याघ्र मच्छक्तिसंयुता ह्यमी ।
शेषांशोऽप्यनुजस्तेऽयं रावणात्मजनाशकः ॥ ५६ ॥
_हे नरोत्तम ! देवताओंके अंशसे उत्पन्न ये परम बलशाली वानर मेरी शक्तिसे सम्पन्न होकर आपके सहायक होंगे । शेषनागके अंशस्वरूप आपके ये अनुज लक्ष्मण रावणके पुत्र मेघनादका वध करनेवाले होंगे । हे अनघ ! इस विषयमें आपको सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ५५-५६ ॥

भविष्यति न सन्देहः कर्तव्योऽत्र त्वयाऽनघ ।
वसन्ते सेवनं कार्यं त्वया तत्रातिश्रद्धया ॥ ५७ ॥
हत्वाऽथ रावणं पापं कुरु राज्यं यथासुखम् ।
एकादश सहस्राणि वर्षाणि पृथिवीतले ॥ ५८ ॥
कृत्वा राज्यं रघुश्रेष्ठ गन्ताऽसि त्रिदिवं पुनः ।
वसन्त ऋतुके नवरात्रमें आप परम श्रद्धाके साथ [पुनः] मेरी पूजा कीजिये । तत्पश्चात् पापी रावणका वध करके आप सुखपूर्वक राज्य कीजिये । हे रघुश्रेष्ठ ! इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षातक भूतलपर राज्य करके पुनः आप देवलोकके लिये प्रस्थान करेंगे ॥ ५७-५८.५ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी रामस्तु प्रीतमानसः ॥ ५९ ॥
समाप्य तद्‌व्रतं चक्रे प्रयाणं दशमीदिने ।
विजयापूजनं कृत्वा दत्त्वा दानान्यनेकशः ॥ ६० ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर भगवती दुर्गा वहीं अन्तर्धान हो गयीं और श्रीरामचन्द्रजीने प्रसन्न मनसे उस व्रतका समापन करके दशमी तिथिको विजयापूजन करके तथा अनेकविध दान देकर वहाँसे प्रस्थान कर दिया ॥ ५९-६० ॥

कपिपतिबलयुक्तः सानुजः श्रीपतिश्च
     प्रकटपरमशक्त्या प्रेरितः पूर्णकामः ।
उदधितटगतोऽसौ सेतुबन्धं विधाया-
     प्यहनदमरशत्रुं रावणं गीतकीर्तिः ॥ ६१ ॥
वानरराज सुग्रीवकी सेनाके साथ अपने अनुजसहित विख्यात यशवाले तथा पूर्णकाम लक्ष्मीपति श्रीराम साक्षात् परमा शक्तिको प्रेरणासे समुद्रतटपर पहुँचे । वहाँ सेतु-बन्धन करके उन्होंने देवशत्रु रावणका संहार किया ॥ ६१ ॥

यः शृणोति नरो भक्त्या देव्याश्चरितमुत्तमम् ।
स भुक्त्वा विपुलान्भोगान्प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ६२ ॥
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवीके उत्तम चरित्रका श्रवण करता है, वह अनेक सुखोंका उपभोग करके परमपद प्राप्त कर लेता है । ६२ ॥

सन्त्यन्यानि पुराणानि विस्तराणि बहूनि च ।
श्रीमद्‌भागवतस्यास्य न तुल्यानीति मे मतिः ॥ ६३ ॥
यद्यपि अन्य बहुतसे विस्तृत पुराण हैं, किंतु वे इस श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणके तुल्य नहीं हैं, ऐसी मेरी धारणा है ॥ ६३ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे रामाय देवीवरदानं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
तृतीय स्कन्धः समाप्तः
अध्याय तीसवाँ समाप्त ॥ तृतीयः स्कन्धः समाप्तः ॥


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