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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
एकोनत्रिंशोऽध्यायः

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लक्ष्मणकृतरामशोकसान्त्वनम् -
सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना -


व्यास उवाच
तदाकर्ण्य वचो दुष्टं जानकी भयविह्वला ।
वेपमाना स्थिरं कृत्वा मनो वाचमुवाच ह ॥ १ ॥
पौलस्त्य किमसद्वाक्यं त्वमात्थ स्मरमोहितः ।
नाहं वै स्वैरिणी किन्तु जनकस्य कुलोद्‌भवा ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-रावणका कुविचारपूर्ण वचन सुनकर सीता भयसे व्याकुल होकर काँप उठीं । पुनः मनको स्थिर करके उन्होंने कहा-हे पुलस्त्यके वंशज ! कामके वशीभूत होकर तुम ऐसा अनर्गल वचन क्यों कह रहे हो ? मैं स्वैरिणी नारी नहीं हूँ, बल्कि महाराज जनकके कुलमें उत्पन्न हुई हूँ ॥ १-२ ॥

गच्छ लङ्कां दशास्य त्वं राम त्वां वै हनिष्यति ।
मत्कृते मरणं तत्र भविष्यति न संशयः ॥ ३ ॥
हे दशकन्धर ! तुम लंका चले जाओ, नहीं तो श्रीराम निश्चय ही तुम्हें मार डालेंगे । मेरे लिये ही तुम्हारी मृत्यु होगी । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥

इत्युक्त्वा पर्णशालायां गता सा वह्निसन्निधौ ।
गच्छ गच्छेति वदती रावणं लोकरावणम् ॥ ४ ॥
ऐसा कह करके वे सीताजी जगतको रुलानेवाले रावणके प्रति 'चले जाओ, चले जाओ' इस प्रकार बोलती हुई पर्णशालामें अग्निकुण्डके पास चली गयीं ॥ ४ ॥

सोऽथ कृत्वा निजं रूपं जगामोटजमन्तिकम् ।
बलाज्जग्राह तां बालां रुदती भयविह्वलाम् ॥ ५ ॥
इतनेमें वह रावण अपना वास्तविक रूप धारण करके तुरन्त पर्णशालामें उनके पास जा पहुंचा और उसने भयसे व्याकुल होकर रोती हुई उस बाला सीताको बलपूर्वक पकड़ लिया ॥ ५ ॥

रामरामेति क्रन्दन्ती लक्ष्मणेति मुहुर्मुहुः ।
गृहीत्वा निर्गतः पापो रथमारोप्य सत्वरः ॥ ६ ॥
गच्छन्नरुणपुत्रेण मार्गे रुद्धो जटायुषा ।
सङ्ग्रामोऽभून्महारौद्रस्तयोस्तत्र वनान्तरे ॥ ७ ॥
हा राम ! हा राम ! हा लक्ष्मण !-ऐसा बारबार कहकर विलाप करती हुई सीताको पकड़कर और उन्हें अपने रथपर बैठाकर रावण शीघ्रतापूर्वक निकल गया । तब अरुणपुत्र जटायुने जाते हुए उस रावणको मार्गमें रोक दिया । उस वनमें दोनोंमें महाभयंकर युद्ध होने लगा ॥ ६-७ ॥

हत्वा तं तां गृहीत्वा च गतोऽसौ राक्षसाधिपः ।
लङ्कायां क्रन्दती तात कुररीव दुरात्मनः ॥ ८ ॥
अशोकवनिकायां सा स्थापिता राक्षसीयुता ।
स्ववृत्तान्नैव चलिता सामदानादिभिः किल ॥ ९ ॥
हे तात ! अन्तमें वह राक्षसराज रावण जटायुको मारकर और सीताको साथ लेकर चला गया । तदनन्तर उस दुष्टात्माने कुररी पक्षीकी भाँति क्रन्दन करती हुई सीताको लंकामें अशोकवाटिकामें रख दिया और उसकी रखवालीके लिये राक्षसियोंको नियुक्त कर दिया । उस राक्षसके साम-दान आदि उपायोंसे भी सीताजी अपने सतीत्वसे विचलित नहीं हुईं ॥ ८-९ ॥

रामोऽपि तं मृगं हत्वा जगामादाय निर्वृतः ।
आयान्तं लक्ष्मणं वीक्ष्य किं कृतं तेऽनुजासमम् ॥ १० ॥
एकाकिनीं प्रियां हित्वा किमर्थं त्वमिहागतः ।
श्रुत्वा स्वनं तु पापस्य राघवस्त्वब्रवीदिदम् ॥ ११ ॥
उधर श्रीराम भी स्वर्ण-मृगको शीघ्र मारकर उसे लिये हुए प्रसन्नतापूर्वक [आश्रमकी ओर चल पड़े । मार्गमें आते हुए लक्ष्मणको देखकर वे बोले- भाई ! यह तुमने कैसा विषम कार्य कर दिया ? वहाँ प्रिया सीताको अकेली छोड़कर तथा इस पापीकी पुकार सुनकर तुम इधर क्यों चले आये ? ॥ १०-११ ॥

सौ‌मित्रिस्त्वब्रवीद्वाक्यं सीतावाग्बाणपीडितः ।
प्रभोऽत्राहं समायातः कालयोगान्न संशयः ॥ १२ ॥
तब सीताके वचनरूपी बाणसे आहत लक्ष्मणने कहा-प्रभो ! मैं कालकी प्रेरणासे यहाँ चला आया हूँ; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १२ ॥

तदा तौ पर्णशालायां गत्वा वीक्ष्यातिदुःखितौ ।
जानक्यन्वेषणे यत्‍नमुभौ कर्तुं समुद्यतौ ॥ १३ ॥
तदनन्तर वे दोनों पर्णशालामें जाकर वहाँकी स्थिति देखकर अत्यन्त दुःखित हुए और जानकीको खोजनेका प्रयल करने लगे ॥ १३ ॥

मार्गमाणौ तु सम्प्राप्तौ यत्रासौ पतितः खगः ।
जटायुः प्राणशेषस्तु पतितः पृथिवीतले ॥ १४ ॥
तेनोक्तं रावणेनाद्य हृता‍‍ऽसौ जनकात्मजा ।
मया निरुद्धः पापात्मा पातितोऽहं मृधे पुनः ॥ १५ ॥
खोजते हुए वे उस स्थानपर पहुँचे जहाँ पक्षिराज 'जटायु' गिरा पड़ा था । वह पृथ्वीपर मृतप्राय पड़ा हुआ था । उसने बताया कि रावण जानकीको अभी हर ले गया है । मैंने उस पापीको रोका, किंतु उसने युद्धमें मुझे मारकर गिरा दिया ॥ १४-१५ ॥

इत्युक्त्वाऽसौ गतप्राणः संस्कृतो राघवेण वै ।
कृत्वौर्घ्वदैहिकं रामलक्ष्मणौ निर्गतौ ततः ॥ १६ ॥
ऐसा कहकर वह जटायु मर गया । तब श्रीरामने उसका दाह-संस्कार किया । उसकी समस्त औज़दैहिक क्रिया सम्पन्न करके श्रीराम और लक्ष्मण वहाँसे आगे बढ़े ॥ १६ ॥

कबन्धं घातयित्वासौ शापाच्चामोचयत्प्रभुः ।
वचनात्तस्य हरिणा सख्यं चक्रेऽथ राघवः ॥ १७ ॥
मार्गमें कबन्धका वध करके भगवान् श्रीरामने उसे शापसे छुड़ाया और उसीके कथनानुसार उन्होंने सुग्रीवसे मित्रता की ॥ १७ ॥

हत्वा च वालिनं वीरं किष्किन्धाराज्यमुत्तमम् ।
सुग्रीवाय ददौ रामः कृतसख्याय कार्यतः ॥ १८ ॥
तदनन्तर पराक्रमी वालीका वध करके श्रीरामने कार्यसाधनहेतु किष्किन्धाका उत्तम राज्य अपने सखा सुग्रीवको दे दिया ॥ १८ ॥

तत्रैव वार्षिकान्मासांस्तस्थौ लक्ष्मणसंयुतः ।
चिन्तयञ्जानकीं चित्ते दशाननहृतां प्रियाम् ॥ १९ ॥
वहींपर लक्ष्मणसहित श्रीरामने रावणके द्वारा अपहत अपनी प्रिया जानकीके विषयमें मनमें सोचते हुए वर्षाके चार मास व्यतीत किये ॥ १९ ॥

लक्ष्मणं प्राह रामस्तु सीताविरहपीडितः ।
सौ‌मित्रे कैकयसुता जाता पूर्णमनोरथा ॥ २० ॥
न प्राप्ता जानकी नूनं नाहं जीवामि तां विना ।
नागमिष्याम्ययोध्यायामृते जनकनन्दिनीम् ॥ २१ ॥
सीताके विरहमें अत्यन्त दुःखित श्रीरामने एक दिन लक्ष्मणसे कहा-हे सौमित्रे ! कैकेयीकी कामना पूरी हो गयी । अभीतक जानकी नहीं मिली, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता । जनकतनया सीताके बिना मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा ॥ २०-२१ ॥

गतं राज्यं वने वासो मृतस्तातो हृता प्रिया ।
पीडयन्मां स दुष्टात्मा दैवो‍ऽग्रे किं करिष्यति ॥ २२ ॥
राज्य चला गया, वनवास करना पड़ा, पिताजी मृत हो गये और प्रिया सीता भी हर ली गयी । इस प्रकार मुझे पीड़ित करता हुआ दुर्दैव आगे न जाने क्या करेगा ? ॥ २२ ॥

दुर्ज्ञेयं भवितव्यं हि प्राणिनां भरतानुज ।
आवयोः का गतिस्तात भविष्यति सुदुःखदा ॥ २३ ॥
हे भरतानुज ! प्राणियोंके प्रारब्धको जान पाना अत्यन्त कठिन है । हे तात ! अब हम दोनोंकी न जाने कौन-सी दुःखद गति होगी ? ॥ २३ ॥

प्राप्य जन्म मनोर्वंशे राजपुत्रावुभौ किल ।
वनेऽतिदुःखभोक्तारौ जातौ पूर्वकृतेन च ॥ २४ ॥
मनुके कुलमें जन्म पाकर हम राजकुमार हुए: फिर भी हमलोग पूर्वजन्ममें किये गये कर्मक कारण वनमें अत्यधिक दुःख भोग रहे हैं ॥ २४ ॥

त्यक्त्वा त्वमपि भोगांस्तु मया सह विनिर्गतः ।
दैवयोगाच्च सौ‌मित्रे भुंक्ष्व दुःखं दुरत्ययम् ॥ २५ ॥
हे सौमित्रे ! तुम भी भोगोंका परित्याग करके दैवयोगसे मेरे साथ निकल पड़े तो फिर अब यह कठिन कष्ट भोगो ॥ २५ ॥

न कोऽप्यस्मत्कुले पूर्वं मत्समो दुःखभाङ्नरः ।
अकिञ्चनोऽक्षमः क्लिष्टो न भूतो न भविष्यति ॥ २६ ॥
हमारे कुलमें मेरे समान दु:ख भोगनेवाला, अकिंचन, असमर्थ तथा क्लेशयुक्त व्यक्ति न हुआ है और न होगा ॥ २६ ॥

किं करोम्यद्य सौ‌मित्रे मग्नोऽस्मि दुःखसागरे ।
न चास्ति तरणोपायो ह्यसहायस्य मे किल ॥ २७ ॥
न वित्तं न बलं वीर त्वमेकः सहचारकः ।
कोपं कस्मिन्करोम्यद्य भोगेस्मिन्स्वकृतेऽनुज ॥ २८ ॥
हे लक्ष्मण ! अब मैं क्या करूँ ? मैं शोकसागरमें डूब रहा हूँ, मुझ असहायको इससे पार होनेका कोई उपाय नहीं सूझता । हे वीर ! मेरे पास न धन है, न बल; एकमात्र तुम ही मेरा साथ देनेवाले हो । हे अनुज ! अपने ही द्वारा किये इस कर्मभोगके विषयमें अब मैं किसपर क्रोध करूँ ? ॥ २७-२८ ॥

गतं हस्तगतं राज्यं क्षणादिन्द्रासनोपमम् ।
वने वासस्तु सम्प्राप्तः को वेद विधिनिर्मितम् ॥ २९ ॥
इन्द्र और यमके राज्यकी तरह हाथमें आया हुआ राज्य क्षणभरमें चला गया और वनवास प्राप्त हुआ; विधिकी रचनाको कौन जान सकता है ? ॥ २९ ॥

बालभावाच्च वैदेही चलिता चावयोः सह ।
नीता दैवेन दुष्टेन श्यामा दुःखतरां दशाम् ॥ ३० ॥
बाल-स्वभावके कारण सीता भी हम दोनोंके साथ चली आयी । दुष्ट दैवने उस सुन्दरीको अत्यधिक दुःखपूर्ण स्थितिमें पहुंचा दिया ॥ ३० ॥

लङ्केशस्य गृहे श्यामा कथं दुःखं भविष्यति ।
पतिव्रता सुशीला च मयि प्रीतियुता भृशम् ॥ ३१ ॥
वह सुन्दरी जानकी लंकापति रावणके घरमें किस प्रकार दुःखित जीवन व्यतीत करती होगी ? वह पतिव्रता है, शीलवती है और मुझसे अत्यधिक अनुराग रखती है ॥ ३१ ॥

न च लक्ष्मण वैदेही सा तस्य वशगा भवेत् ।
स्वैरिणीव वरारोहा कथं स्याज्जनकात्मजा ॥ ३२ ॥
हे लक्ष्मण ! वह जनकनन्दिनी उस रावणके वशमें कभी नहीं हो सकती, सुन्दर शरीरवाली वह विदेहतनया सीता स्वैरिणीकी भाँति भला किस प्रकार आचरण करेगी ? ॥ ३२ ॥

त्यजेत्प्राणान्नियन्तृत्वे मैथिली भरतानुज ।
न रावणस्य वशगा भवेदिति सुनिश्चितम् ॥ ३३ ॥
हे भरतानुज ! वह मैथिली अधिक नियन्त्रण किये जानेपर अपने प्राण त्याग देगी, किंतु यह सुनिश्चित है कि वह रावणकी वशवर्तिनी नहीं होगी ॥ ३३ ॥

मृता चेज्जानकी वीर प्राणांस्त्यक्ष्याम्यसंशयम् ।
मृता चेदसितापाङ्गीं किं मे देहेन लक्ष्मण ॥ ३४ ॥
हे वीर ! यदि जानकी मर गयी तो मैं भी निस्सन्देह अपने प्राण त्याग दूंगा; क्योंकि हे लक्ष्मण ! श्यामनयना सीताके मृत हो जानेपर मुझे अपने देहसे क्या लाभ ? ॥ ३४ ॥

एवं विलपमानं तं रामं कमललोचनम् ।
लक्ष्मणः प्राह धर्मात्मा सान्त्वयन्नृतया गिरा ॥ ३५ ॥
इस प्रकार विलाप करते हुए उन कमलनयन रामको सत्यपूर्ण वाणीसे सान्त्वना प्रदान करते हुए धर्मात्मा लक्ष्मणने कहा- ॥ ३५ ॥

धैर्यं कुरु महाबाहो त्यक्त्वा कातरतामिह ।
आनयिष्यामि वैदेहीं हत्वा तं राक्षसाधमम् ॥ ३६ ॥
हे महाबाहो ! आप इस समय दैन्यभाव छोड़कर धैर्य धारण कीजिये । मैं उस अधम राक्षसको मारकर जानकीको वापस ले आऊँगा ॥ ३६ ॥

आपदि सम्पदि तुल्या धैर्याद्‌भवन्ति ते धीराः ।
अल्पधियस्तु निमग्नाः कष्टे भवन्ति विभवेऽपि ॥ ३७ ॥
विपत्ति तथा सम्पत्ति- इन दोनों ही स्थितियोंमें धैर्य धारण करते हुए जो एक समान रहते हैं, वे ही धीर होते हैं, किंतु अल्प बुद्धिवाले लोग तो सम्पत्तिकी दशामें भी कष्टमें पड़े रहते हैं ॥ ३७ ॥

संयोगो विप्रयोगश्च दैवाधीनावुभावपि ।
शोकस्तु कीदृशस्तत्र देहेनात्मनि च क्वचित् ॥ ३८ ॥
संयोग तथा वियोग-ये दोनों ही दैवके अधीन होते हैं । शरीर तो आत्मासे भिन्न है, अतः उसके लिये शोक कैसा ? ॥ ३८ ॥

राज्याद्यथा वने वासो वैदेह्या हरणं यथा ।
तथा काले समीचीने संयोगोऽपि भविष्यति ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार [प्रतिकूल समय आनेपर राज्यसे निर्वासित होकर हमें वनवास भोगना पड़ा तथा सीताहरण हुआ, उसी प्रकार अनुकूल समय आनेपर संयोग भी हो जायगा ॥ ३९ ॥

प्राप्तव्यं सुखदुःखानां भोगान्निर्वर्तनं क्वचित् ।
नान्यथा जानकीजाने तस्माच्छोकं त्यजाधुना ॥ ४० ॥
हे सीतापते ! सुखों तथा दु:खोंक भोगसे छुटकारा कहाँ ? वह तो निःसन्देह भोगना ही पड़ता है । अतः आप इस समय शोकका त्याग कर दीजिये ॥ ४० ॥

वानराः सन्ति भूयांसो गमिष्यन्ति चतुर्दिशम् ।
शुद्धिं जनकनन्दिन्या आनयिष्यन्ति ते किल ॥ ४१ ॥
ज्ञात्वा मार्गस्थितिं तत्र गत्वा कृत्वा पराक्रमम् ।
हत्वा तं पापकर्माणमानयिष्यामि मैथिलीम् ॥ ४२ ॥
बहुतसे वानर हैं; वे चारों दिशाओंमें जायेंगे और जानकीकी खोज-खबर ले आयेंगे । [पता लग जानेपर] मार्गकी जानकारी करके मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा और आक्रमण करके उस पापकर्मवाले रावणका वध करके जानकीजीको अवश्य ले आऊँगा ॥ ४१-४२ ॥

ससैन्यं भरतं वाऽपि समाहूय सहानुजम् ।
हनिष्यामो वयं शत्रुं किं शोचसि वृथाग्रज ॥ ४३ ॥
अथवा हे अग्रज ! यदि इससे कार्य न चलेगा, तो मैं भरत तथा शत्रुघ्नको भी सेनासमेत बुला लूँगा और हमलोग उस शत्रुको मार डालेंगे: आप वृथा क्यों चिन्ता कर रहे हैं ? ॥ ४३ ॥

रघुणैकरथेनैव जिताः सर्वा दिशः पुरा ।
तद्वंशजः कथं शोकं कर्तुमर्हसि राघव ॥ ४४ ॥
पूर्वकालमें राजा रघुने केवल एक रथसे ही चारों दिशाओंको जीत लिया था । हे राघवेन्द्र ! आप उसी वंशके होकर शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४४ ॥

एकोऽहं सकलाञ्जेतुं समर्थोऽस्मि सुरासुरान् ।
किं पुनः ससहायो वै रावणं कुलपांसनम् ॥ ४५ ॥
अकेला मैं सभी देवताओं तथा दानवोंको जीतनेमें समर्थ हूँ, तब फिर आप जैसे सहायकके रहते उस कुलकलंकी रावणका वध करनेमें क्या कठिनाई है ? ॥ ४५ ॥

जनकं वा समानीय साहाय्ये रघुनन्दन ।
हनिष्यामि दुराचारं रावणं सुरकण्टकम् ॥ ४६ ॥
अथवा हे रघुनन्दन ! मैं महाराज जनकको सहायताके लिये बुलाकर देवताओंके कण्टकस्वरूप उस दुराचारी रावणका वध कर डालूँगा ॥ ४६ ॥

सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ।
चक्रनेमिरिवैकं यन्न भवेद्‌रघुनन्दन ॥ ४७ ॥
मनोऽतिकातरं यस्य सुखदुःखसमुद्‌भवे ।
स शोकसागरे मग्नो न सुखी स्यात्कदाचन ॥ ४८ ॥
हे रघुनन्दन ! सुखके बाद दु:ख तथा दुःखके बाद सुख पहियेकी धुरीकी तरह आया-जाया करते हैं । सदा एक स्थिति नहीं रहती । सुख दुःखके आनेपर जिसका मन कातर हो जाता है, वह शोकसागरमें निमग्न रहता है और कभी सुखी नहीं रह सकता ॥ ४७-४८ ॥

इन्द्रेण व्यसनं प्राप्तं पुरा वै रघुनन्दन ।
नहुषः स्थापितो देवैः सर्वैर्मघवतः पदे ॥ ४९ ॥
स्थितः पङ्कजमध्ये च बहुवर्षगणानपि ।
अज्ञातवासं मघवा भीतस्त्यक्त्वा निजं पदम् ॥ ५० ॥
पुनः प्राप्तं निजस्थानं काले विपरिवर्तिते ।
नहुषः पतितो भूमौ शापादजगराकृतिः ॥ ५१ ॥
इन्द्राणीं कामयानस्तु ब्राह्मणानवमन्य च ।
अगस्तिकोपात्सञ्जातः सर्पदेहो महीपतिः ॥ ५२ ॥
हे राघव ! पूर्वकालमें इन्द्रके ऊपर भी विपत्ति आयी थी, तब सभी देवताओंने उनके स्थानपर राजा नहुषको स्थापित कर दिया था । उस समय इन्द्रने भयवश अपना पद त्यागकर बहुत दिनोंतक कमलवनमें छिपकर अज्ञातवास किया था । समय बदलनेपर उन्होंने पुनः अपना पद प्राप्त कर लिया और नहुषको शापवश अजगरके रूपमें होकर पृथ्वीपर गिरना पड़ा । ब्राह्मणोंका अपमान करके इन्द्राणीको पानेकी इच्छाके कारण ही अगस्त्यमुनिके कोपपूर्वक शाप देनेसे राजा नहुष सर्पदहवाले हो गये थे ॥ ४९-५२ ॥

तस्माच्छोको न कर्तव्यो व्यसने सति राघव ।
उद्यमे चित्तमास्थाय स्थातव्यं वै विपश्चिता ॥ ५३ ॥
अतः हे राघव ! दुःख आनेपर शोक नहीं करना चाहिये । विज्ञ पुरुषको चाहिये कि ऐसी परिस्थितिमें मनको उद्यमशील बनाकर समयकी प्रतीक्षा करता रहे ॥ ५३ ॥

सर्वज्ञोऽसि महाभाग समर्थोऽसि जगत्पते ।
किं प्राकृत इवात्यर्थं कुरुषे शोकमात्मनि ॥ ५४ ॥
हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ हैं । हे जगत्पते ! आप सर्वसमर्थ हैं; तब एक प्राकृत पुरुषकी भाँति आप अपने मनमें अत्यन्त शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ५४ ॥

व्यास उवाच
इति लक्ष्मणवाक्येन बोधितो रघुनन्दनः ।
त्यक्त्वा शोकं तथात्यर्थं बभूव विगतज्वरः ॥ ५५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार लक्ष्मणकी बातोंसे रघुनन्दन श्रीरामचन्द्रजीको सान्त्वना मिली और वे शोक त्यागकर बिलकुल निश्चिन्त हो गये ॥ ५५ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
लक्ष्मणकृतरामशोकसान्त्वनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
अध्याय उनतीसवाँ समाप्त


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