व्यासजी बोले-रावणका कुविचारपूर्ण वचन सुनकर सीता भयसे व्याकुल होकर काँप उठीं । पुनः मनको स्थिर करके उन्होंने कहा-हे पुलस्त्यके वंशज ! कामके वशीभूत होकर तुम ऐसा अनर्गल वचन क्यों कह रहे हो ? मैं स्वैरिणी नारी नहीं हूँ, बल्कि महाराज जनकके कुलमें उत्पन्न हुई हूँ ॥ १-२ ॥
गच्छ लङ्कां दशास्य त्वं राम त्वां वै हनिष्यति । मत्कृते मरणं तत्र भविष्यति न संशयः ॥ ३ ॥
हे दशकन्धर ! तुम लंका चले जाओ, नहीं तो श्रीराम निश्चय ही तुम्हें मार डालेंगे । मेरे लिये ही तुम्हारी मृत्यु होगी । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥
इतनेमें वह रावण अपना वास्तविक रूप धारण करके तुरन्त पर्णशालामें उनके पास जा पहुंचा और उसने भयसे व्याकुल होकर रोती हुई उस बाला सीताको बलपूर्वक पकड़ लिया ॥ ५ ॥
रामरामेति क्रन्दन्ती लक्ष्मणेति मुहुर्मुहुः । गृहीत्वा निर्गतः पापो रथमारोप्य सत्वरः ॥ ६ ॥ गच्छन्नरुणपुत्रेण मार्गे रुद्धो जटायुषा । सङ्ग्रामोऽभून्महारौद्रस्तयोस्तत्र वनान्तरे ॥ ७ ॥
हा राम ! हा राम ! हा लक्ष्मण !-ऐसा बारबार कहकर विलाप करती हुई सीताको पकड़कर और उन्हें अपने रथपर बैठाकर रावण शीघ्रतापूर्वक निकल गया । तब अरुणपुत्र जटायुने जाते हुए उस रावणको मार्गमें रोक दिया । उस वनमें दोनोंमें महाभयंकर युद्ध होने लगा ॥ ६-७ ॥
हत्वा तं तां गृहीत्वा च गतोऽसौ राक्षसाधिपः । लङ्कायां क्रन्दती तात कुररीव दुरात्मनः ॥ ८ ॥ अशोकवनिकायां सा स्थापिता राक्षसीयुता । स्ववृत्तान्नैव चलिता सामदानादिभिः किल ॥ ९ ॥
हे तात ! अन्तमें वह राक्षसराज रावण जटायुको मारकर और सीताको साथ लेकर चला गया । तदनन्तर उस दुष्टात्माने कुररी पक्षीकी भाँति क्रन्दन करती हुई सीताको लंकामें अशोकवाटिकामें रख दिया और उसकी रखवालीके लिये राक्षसियोंको नियुक्त कर दिया । उस राक्षसके साम-दान आदि उपायोंसे भी सीताजी अपने सतीत्वसे विचलित नहीं हुईं ॥ ८-९ ॥
उधर श्रीराम भी स्वर्ण-मृगको शीघ्र मारकर उसे लिये हुए प्रसन्नतापूर्वक [आश्रमकी ओर चल पड़े । मार्गमें आते हुए लक्ष्मणको देखकर वे बोले- भाई ! यह तुमने कैसा विषम कार्य कर दिया ? वहाँ प्रिया सीताको अकेली छोड़कर तथा इस पापीकी पुकार सुनकर तुम इधर क्यों चले आये ? ॥ १०-११ ॥
सौमित्रिस्त्वब्रवीद्वाक्यं सीतावाग्बाणपीडितः । प्रभोऽत्राहं समायातः कालयोगान्न संशयः ॥ १२ ॥
तब सीताके वचनरूपी बाणसे आहत लक्ष्मणने कहा-प्रभो ! मैं कालकी प्रेरणासे यहाँ चला आया हूँ; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १२ ॥
तदनन्तर वे दोनों पर्णशालामें जाकर वहाँकी स्थिति देखकर अत्यन्त दुःखित हुए और जानकीको खोजनेका प्रयल करने लगे ॥ १३ ॥
मार्गमाणौ तु सम्प्राप्तौ यत्रासौ पतितः खगः । जटायुः प्राणशेषस्तु पतितः पृथिवीतले ॥ १४ ॥ तेनोक्तं रावणेनाद्य हृताऽसौ जनकात्मजा । मया निरुद्धः पापात्मा पातितोऽहं मृधे पुनः ॥ १५ ॥
खोजते हुए वे उस स्थानपर पहुँचे जहाँ पक्षिराज 'जटायु' गिरा पड़ा था । वह पृथ्वीपर मृतप्राय पड़ा हुआ था । उसने बताया कि रावण जानकीको अभी हर ले गया है । मैंने उस पापीको रोका, किंतु उसने युद्धमें मुझे मारकर गिरा दिया ॥ १४-१५ ॥
वहींपर लक्ष्मणसहित श्रीरामने रावणके द्वारा अपहत अपनी प्रिया जानकीके विषयमें मनमें सोचते हुए वर्षाके चार मास व्यतीत किये ॥ १९ ॥
लक्ष्मणं प्राह रामस्तु सीताविरहपीडितः । सौमित्रे कैकयसुता जाता पूर्णमनोरथा ॥ २० ॥ न प्राप्ता जानकी नूनं नाहं जीवामि तां विना । नागमिष्याम्ययोध्यायामृते जनकनन्दिनीम् ॥ २१ ॥
सीताके विरहमें अत्यन्त दुःखित श्रीरामने एक दिन लक्ष्मणसे कहा-हे सौमित्रे ! कैकेयीकी कामना पूरी हो गयी । अभीतक जानकी नहीं मिली, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता । जनकतनया सीताके बिना मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा ॥ २०-२१ ॥
गतं राज्यं वने वासो मृतस्तातो हृता प्रिया । पीडयन्मां स दुष्टात्मा दैवोऽग्रे किं करिष्यति ॥ २२ ॥
राज्य चला गया, वनवास करना पड़ा, पिताजी मृत हो गये और प्रिया सीता भी हर ली गयी । इस प्रकार मुझे पीड़ित करता हुआ दुर्दैव आगे न जाने क्या करेगा ? ॥ २२ ॥
दुर्ज्ञेयं भवितव्यं हि प्राणिनां भरतानुज । आवयोः का गतिस्तात भविष्यति सुदुःखदा ॥ २३ ॥
हे भरतानुज ! प्राणियोंके प्रारब्धको जान पाना अत्यन्त कठिन है । हे तात ! अब हम दोनोंकी न जाने कौन-सी दुःखद गति होगी ? ॥ २३ ॥
प्राप्य जन्म मनोर्वंशे राजपुत्रावुभौ किल । वनेऽतिदुःखभोक्तारौ जातौ पूर्वकृतेन च ॥ २४ ॥
मनुके कुलमें जन्म पाकर हम राजकुमार हुए: फिर भी हमलोग पूर्वजन्ममें किये गये कर्मक कारण वनमें अत्यधिक दुःख भोग रहे हैं ॥ २४ ॥
हे सौमित्रे ! तुम भी भोगोंका परित्याग करके दैवयोगसे मेरे साथ निकल पड़े तो फिर अब यह कठिन कष्ट भोगो ॥ २५ ॥
न कोऽप्यस्मत्कुले पूर्वं मत्समो दुःखभाङ्नरः । अकिञ्चनोऽक्षमः क्लिष्टो न भूतो न भविष्यति ॥ २६ ॥
हमारे कुलमें मेरे समान दु:ख भोगनेवाला, अकिंचन, असमर्थ तथा क्लेशयुक्त व्यक्ति न हुआ है और न होगा ॥ २६ ॥
किं करोम्यद्य सौमित्रे मग्नोऽस्मि दुःखसागरे । न चास्ति तरणोपायो ह्यसहायस्य मे किल ॥ २७ ॥ न वित्तं न बलं वीर त्वमेकः सहचारकः । कोपं कस्मिन्करोम्यद्य भोगेस्मिन्स्वकृतेऽनुज ॥ २८ ॥
हे लक्ष्मण ! अब मैं क्या करूँ ? मैं शोकसागरमें डूब रहा हूँ, मुझ असहायको इससे पार होनेका कोई उपाय नहीं सूझता । हे वीर ! मेरे पास न धन है, न बल; एकमात्र तुम ही मेरा साथ देनेवाले हो । हे अनुज ! अपने ही द्वारा किये इस कर्मभोगके विषयमें अब मैं किसपर क्रोध करूँ ? ॥ २७-२८ ॥
गतं हस्तगतं राज्यं क्षणादिन्द्रासनोपमम् । वने वासस्तु सम्प्राप्तः को वेद विधिनिर्मितम् ॥ २९ ॥
इन्द्र और यमके राज्यकी तरह हाथमें आया हुआ राज्य क्षणभरमें चला गया और वनवास प्राप्त हुआ; विधिकी रचनाको कौन जान सकता है ? ॥ २९ ॥
हे भरतानुज ! वह मैथिली अधिक नियन्त्रण किये जानेपर अपने प्राण त्याग देगी, किंतु यह सुनिश्चित है कि वह रावणकी वशवर्तिनी नहीं होगी ॥ ३३ ॥
मृता चेज्जानकी वीर प्राणांस्त्यक्ष्याम्यसंशयम् । मृता चेदसितापाङ्गीं किं मे देहेन लक्ष्मण ॥ ३४ ॥
हे वीर ! यदि जानकी मर गयी तो मैं भी निस्सन्देह अपने प्राण त्याग दूंगा; क्योंकि हे लक्ष्मण ! श्यामनयना सीताके मृत हो जानेपर मुझे अपने देहसे क्या लाभ ? ॥ ३४ ॥
विपत्ति तथा सम्पत्ति- इन दोनों ही स्थितियोंमें धैर्य धारण करते हुए जो एक समान रहते हैं, वे ही धीर होते हैं, किंतु अल्प बुद्धिवाले लोग तो सम्पत्तिकी दशामें भी कष्टमें पड़े रहते हैं ॥ ३७ ॥
बहुतसे वानर हैं; वे चारों दिशाओंमें जायेंगे और जानकीकी खोज-खबर ले आयेंगे । [पता लग जानेपर] मार्गकी जानकारी करके मैं स्वयं वहाँ जाऊँगा और आक्रमण करके उस पापकर्मवाले रावणका वध करके जानकीजीको अवश्य ले आऊँगा ॥ ४१-४२ ॥
अथवा हे अग्रज ! यदि इससे कार्य न चलेगा, तो मैं भरत तथा शत्रुघ्नको भी सेनासमेत बुला लूँगा और हमलोग उस शत्रुको मार डालेंगे: आप वृथा क्यों चिन्ता कर रहे हैं ? ॥ ४३ ॥
रघुणैकरथेनैव जिताः सर्वा दिशः पुरा । तद्वंशजः कथं शोकं कर्तुमर्हसि राघव ॥ ४४ ॥
पूर्वकालमें राजा रघुने केवल एक रथसे ही चारों दिशाओंको जीत लिया था । हे राघवेन्द्र ! आप उसी वंशके होकर शोक क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४४ ॥
हे रघुनन्दन ! सुखके बाद दु:ख तथा दुःखके बाद सुख पहियेकी धुरीकी तरह आया-जाया करते हैं । सदा एक स्थिति नहीं रहती । सुख दुःखके आनेपर जिसका मन कातर हो जाता है, वह शोकसागरमें निमग्न रहता है और कभी सुखी नहीं रह सकता ॥ ४७-४८ ॥
हे राघव ! पूर्वकालमें इन्द्रके ऊपर भी विपत्ति आयी थी, तब सभी देवताओंने उनके स्थानपर राजा नहुषको स्थापित कर दिया था । उस समय इन्द्रने भयवश अपना पद त्यागकर बहुत दिनोंतक कमलवनमें छिपकर अज्ञातवास किया था । समय बदलनेपर उन्होंने पुनः अपना पद प्राप्त कर लिया और नहुषको शापवश अजगरके रूपमें होकर पृथ्वीपर गिरना पड़ा । ब्राह्मणोंका अपमान करके इन्द्राणीको पानेकी इच्छाके कारण ही अगस्त्यमुनिके कोपपूर्वक शाप देनेसे राजा नहुष सर्पदहवाले हो गये थे ॥ ४९-५२ ॥