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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः

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कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम् -
व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना -


सूत उवाच
एवं पृष्टः पुराणज्ञो व्यासः सत्यवतीसुतः ।
परीक्षितसुतं शान्तं ततो वै जनमेजयम् ॥ १ ॥
उवाच संशयच्छेत्तृ वाक्यं वाक्यविशारदः ।
सूतजी बोले-हे मुनियो ! ऐसा पूछे जानेपर पुराणवेत्ता, वाणीविशारद सत्यवती-पुत्र महर्षि व्यासने शान्त स्वभाववाले परीक्षित्-पुत्र जनमेजयसे उनके सन्देहोंको दूर करनेवाले वचन कहे- ॥ १.५ ॥

व्यास उवाच
राजन् किमेतद्वक्तव्यं कर्मणां गहना गतिः ॥ २ ॥
दुर्ज्ञेया किल देवानां मानवानां च का कथा ।
यदा समुत्थितं चैतद्ब्रह्माण्डं त्रिगुणात्मकम् ॥ ३ ॥
कर्मणैव समुत्पत्तिः सर्वेषां नात्र संशयः ।
अनादिनिधना जीवाः कर्मबीजसमुद्‌भवाः ॥ ४ ॥
नानायोनिषु जायन्ते म्रियन्ते च पुनः पुनः ।
कर्मणा रहितो देहसंयोगो न कदाचन ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस विषयमें क्या कहा जाय । कर्मोंकी बड़ी गहन गति होती है । कर्मकी गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानवोंकी क्या बात ! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्डका आविर्भाव हुआ, उसी समयसे कर्मके द्वारा सभीकी उत्पत्ति होती आ रही है, इस विषयमें सन्देह नहीं है । आदि तथा अन्तसे रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्मरूपी बीजसे उत्पन्न होते हैं । वे जीव नानाविध योनियोंमें बार-बार पैदा होते हैं और मरते हैं । कर्मसे रहित जीवका देह-संयोग कदापि सम्भव नहीं है ॥ २-५ ॥

शुभाशुभैस्तथा मिश्रैः कर्मभिर्वेष्टितं त्विदम् ।
त्रिविधानि हि तान्याहुर्बुधास्तत्त्वविदश्च ये ॥ ६ ॥
सञ्चितानि भविष्यन्ति प्रारब्धानि तथा पुनः ।
वर्तमानानि देहेऽस्मिंस्त्रैविध्यं कर्मणां किल ॥ ७ ॥
शुभ, अशुभ तथा मिश्र-इन कर्मोंसे यह जगत् सदा व्याप्त रहता है । तत्त्वोंके ज्ञाता जो विद्वान् हैं; उन्होंने संचित, प्रारब्ध तथा वर्तमान-ये तीन प्रकारके कर्म बताये हैं । कर्मोंका त्रैविध्य इस शरीरमें अवश्य विद्यमान रहता है ॥ ६-७ ॥

ब्रह्मादीनां च सर्वेषां तद्वशत्वं नराधिप ।
सुखं दुःखं जरामृत्युहर्षशोकादयस्तथा ॥ ८ ॥
कामक्रोधौ च लोभश्च सर्वे देहगता गुणाः ।
दैवाधीनाश्च सर्वेषां प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
हे राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्मके वशवर्ती होते हैं । सुख, दुःख, वृद्धावस्था, मृत्यु, हर्ष, शोक, काम, क्रोध, लोभ आदि-ये सभी देहगत गुण हैं । हे राजेन्द्र ! ये दैवके अधीन होकर सभी जीवोंको प्राप्त होते हैं ॥ ८-९ ॥

रागद्वेषादयो भावाः स्वर्गेऽपि प्रभवन्ति हि ।
देवानां मानवानाञ्च तिरश्चां च तथा पुनः ॥ १० ॥
राग, द्वेष आदि भाव स्वर्गमें भी होते हैं और इस प्रकार ये भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशुपक्षियोंमें भी विद्यमान रहते हैं ॥ १० ॥

विकाराः सर्व एवैते देहेन सह सङ्गताः ।
पूर्ववैरानुयोगेन स्नेहयोगेन वै पुनः ॥ ११ ॥
पूर्वजन्मके किये हुए वैर तथा स्नेहके कारण ये समस्त विकार शरीरके साथ सदा ही संलग्न रहते हैं ॥ ११ ॥

उत्पत्तिः सर्वजन्तूनां विना कर्म न विद्यते ।
कर्मणा भ्रमते सूर्यः शशाङ्कः क्षयरोगवान् ॥ १२ ॥
समस्त जीवोंकी उत्पत्ति कर्मके बिना हो ही नहीं सकती है । कर्मसे ही सूर्य नियमित रूपसे परिभ्रमण करता है और चन्द्रमा क्षयरोगसे ग्रस्त रहता है ॥ १२ ॥

कपाली च तथा रुद्रः कर्मणैव न संशयः ।
अनादिनिधनं चैतत्कारणं कर्म विद्यते ॥ १३ ॥
अपने कर्मके प्रभावसे ही रुद्रको मुण्डोंकी माला धारण करनी पड़ती है । इसमें कोई सन्देह नहीं है । आदि-अन्तरहित यह कर्म ही जगत्का कारण है ॥ १३ ॥

तेनेह शाश्वतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
नित्यानित्यविचारेऽत्र निमग्ना मुनयः सदा ॥ १४ ॥
न जानन्ति किमेतद्वै नित्यं वानित्यमेव च ।
मायायां विद्यमानायां जगन्नित्यं प्रतीयते ॥ १५ ॥
स्थावर-जंगमात्मक यह समन शाश्वत विश्व उसी कर्मक प्रभावसे नियन्त्रित है । सभी मुनिगण इस कर्ममय जगत्की नित्यता तथा अनित्यताके विचारमें सदा डूबे रहते हैं । फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत् नित्य है अथवा अनित्य । जबतक माया विद्यमान रहती है, तबतक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है ॥ १४-१५ ॥

कार्याभावः कथं वाच्यः कारणे सति सर्वथा ।
माया नित्या कारणञ्च सर्वेषां सर्वदा किल ॥ १६ ॥
कारणकी सर्वथा सत्ता रहनेपर कार्यका अभाव कैसे कहा जा सकता है ? माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है ॥ १६ ॥

कर्मबीजं ततोऽनित्यं चिन्तनीयं सदा बुधैः ।
भ्रमत्येव जगत्सर्वं राजन्कर्मनियन्त्रितम् ॥ १७ ॥
अतएव कर्मबीजकी अनित्यतापर बुद्धिमान् पुरुषोंको सदा चिन्तन करना चाहिये । हे राजन् ! सम्पूर्ण जगत् कर्मके द्वारा नियन्त्रित होकर सदा परिवर्तित होता रहता है ॥ १७ ॥

नानायोनिषु राजेन्द्र नानाधर्ममयेषु च ।
इच्छया च भवेञ्चन्म विष्णोरमिततेजसः ॥ १८ ॥
युगे युगेष्वनेकासु नीचयोनिषु तत्कथम् ।
त्यक्त्वा वैकुण्ठसंवासं सुखभोगाननेकशः ॥ १९ ॥
विण्मूत्रमन्दिरे वासं संत्रस्तः कोऽभिवाञ्छति ।
पुष्पावचयलीलां च जलकेलिं सुखासनम् ॥ २० ॥
त्यक्त्वा गर्भगृहे वासं कोऽभिवाच्छति बुद्धिमान् ।
तूलिकां मृदुसंयुक्तां दिव्यां शय्यां विनिर्मिताम् ॥ २१ ॥
त्यक्त्वाधोमुखवासं च कोऽभिवाञ्छति पण्डितः ।
गीतं नृत्यञ्च वाद्यञ्च नानाभावसमन्वितम् ॥ २२ ॥
मुक्त्वा को नरके वासं मनसापि विचिन्तयेत् ।
सिन्धुजाद्‌भुतभावानां रसं त्यक्त्वा सुदुस्त्वजम् ॥ २३ ॥
विण्मूत्ररसपानञ्ज क इच्छेन्मतिमान्नरः ।
गर्भवासात्परो नास्ति नरको भुवनत्रये ॥ २४ ॥
तद्‌भीताश्च प्रकुर्वन्ति मुनयो दुस्तरं तपः ।
हित्वा भोगञ्च राज्यञ्च वने यान्ति मनस्विनः ॥ २५ ॥
यद्‌भीतास्तु विमूढात्मा कस्तं सेवितुमिच्छति ।
हे राजेन्द्र ! यदि अमित तेजवाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छासे जन्म लेनेके लिये स्वतन्त्र होते तो वे नानाविध योनियोंमें, नानाविध धर्म-कर्मानुरूप युगोंमें तथा अनेक प्रकारकी निम्न योनियोंमें जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकारके सुखभोगों और वैकुण्ठपुरीका निवास छोड़कर मल-मूत्रवाले स्थान (उदर)-में भयभीत होकर भला कौन रहना चाहेगा ? फूल चुननेकी क्रीड़ा, जल-विहार तथा सुखदायक आसनका परित्यागकर कौन बुद्धिमान् गर्भगृहमें वास करना चाहेगा ? कोमल रूईसे निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्याको छोड़कर गर्भमें औंधे मुँह पड़े रहना भला कौन विद्वान् पुरुष पसन्द कर सकता है ? अनेक प्रकारके भावोंसे युक्त गीत, वाद्य तथा नृत्यका परित्याग करके गर्भरूपी नरकमें रहनेका मनमें विचारतक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान् व्यक्ति होगा जो लक्ष्मीके अद्भुत भावोंके अत्यन्त कठिनाईसे त्याग करनेयोग्य रसको छोड़कर मल-मूत्रका रस पीनेकी इच्छा करेगा ? अतएव तीनों लोकोंमें गर्भवाससे बढ़कर नरकस्वरूप अन्य कोई स्थल नहीं है । गर्भवाससे भयभीत होकर मुनिलोग कठिन तपस्या करते हैं । बड़े-बड़े मनस्वी पुरुष जिस गर्भवाससे डरकर राज्य तथा सुखका परित्याग करके वनमें चले जाते हैं, ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो उसके सेवनकी इच्छा करेगा ? ॥ १८-२५.५ ॥

गर्भे तुदन्ति कृमयो जठराग्निस्तपत्यधः ॥ २६ ॥
वपासंवेष्टनं कूरं किं सुखं तत्र भूपते ।
वरं कारागृहे वासो बन्धनं निगडैर्वरम् ॥ २७ ॥
अल्पमात्रं क्षणं नैव गर्भवासः क्वचिच्छुभः ।
गर्भवासे महद्दुःखं दशमासनिवासनम् ॥ २८ ॥
तथा निःसरणे दुःखं योनियन्त्रेऽतिदारुणे ।
बालभावे तदा दुःखं मूकाज्ञभावसंयुतम् ॥ २९ ॥
क्षुतृष्णावेदनाशक्तः परतन्त्रोऽतिकातरः ।
क्षुधिते रुदिते बाले माता चिन्तातुरा तदा ॥ ३० ॥
भेषजं पातुमिच्छन्ती ज्ञात्वा व्याधिव्यथां दृढाम् ।
नानाविधानि दुःखानि बालभावे भवन्ति वै ॥ ३१ ॥
किं सुखं विबुधा दृष्ट्वा जन्म वाञ्छन्ति चेच्छया ।
गर्भमें कीड़े काटते हैं और नीचेसे जठराग्नि तपाती रहती है । हे राजन् ! उस समय शरीरमें अतिशय दुर्गन्धयुक्त मज्जा लगी रहती है तो फिर वहाँ कौन-सा सुख है ? कारागारमें रहना और बेड़ियोंमें बँधे रहना अच्छा है, किंतु एक क्षणके अल्पांश कालतक भी गर्भमें रहना कदापि शुभ नहीं होता । गर्भवासमें जीवको अत्यधिक पीड़ा होती है; वहाँ दस महीनेतक रहना पड़ता है । इसके अतिरिक्त अत्यन्त दारुण योनि-यन्त्रसे बाहर आनेमें महान् कष्ट प्राप्त होता है । बाल्यावस्था में भी अज्ञानता तथा न बोल पानेके कारण बहुत कष्ट मिलता है । परतन्त्र तथा अत्यन्त भयभीत बालक भूख तथा प्यासकी पीड़ाके कारण अशक्त रहता है । भूखे बालकको रोता हुआ देखकर माता [रोनेका कारण जाननेके लिये] चिन्ताग्रस्त हो उठती है और पुनः किसी बड़े रोगजनित कष्टका अनुमान करके उसे दवा पिलानेकी इच्छा करने लगती है । इस प्रकार बाल्यावस्थामें अनेक प्रकारके कष्ट होते हैं, तब विवेकी पुरुष किस सुखको देखकर स्वयं जन्म लेनेकी इच्छा करते हैं ! ॥ २६-३१.५ ॥

संग्रामममरैः सार्धं सुखं त्यक्त्वा निरन्तरम् ॥ ३२ ॥
कर्तुमिच्छेच्च को मूढः श्रमदं सुखनाशनम् ।
सर्वथैव नृपश्रेष्ठ सर्वे ब्रह्मादयः सुराः ॥ ३३ ॥
कृतकर्मविपाकेन प्राप्नुवन्ति सुखासुखे ।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।
देहवद्‌भिर्नृभिर्देवैस्तिर्यग्भिश्च नृपोत्तम ॥ ३४ ॥
कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो देवताओंके साथ रहते हुए निरन्तर सुख-भोगका त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करनेकी इच्छा रखेगा; हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मादि सभी देवता भी अपने किये कर्मोके फलस्वरूप सुख-दुःख प्राप्त करते हैं । हे नृपोत्तम ! सभी देहधारी जीव चाहे मनुष्य, देवता या पशु-पक्षी हों, अपने-अपने किये कर्मका शुभाशुभ फल पाते हैं ॥ ३२-३४ ॥

तपसा दानयज्ञैश्च मानवश्चेन्द्रतां व्रजेत् ।
क्षीणे पुण्येऽथ शक्रोऽपि पतत्येव न संशयः ॥ ३५ ॥
मनुष्य तप, यज्ञ तथा दानके द्वारा इन्द्रत्वको प्राप्त हो जाता है और पुण्य क्षीण होनेपर इन्द्र भी च्युत हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं ॥ ३५ ॥

रामावतारयोगेन देवा वानरतां गताः ।
तथा कृष्णसहायार्थं देवा यादवतां गताः ॥ ३६ ॥
रामावतारके समय देवता कर्मबन्धनके कारण वानर बने थे और कृष्णावतारमें भी कृष्णकी सहायताके लिये देवता यादव बने थे ॥ ३६ ॥

एवं युगे युगे विष्णुरवताराननेकशः ।
करोति धर्मरक्षार्थं ब्रह्मणा प्रेरितो भृशम् ॥ ३७ ॥
इस प्रकार प्रत्येक युगमें धर्मकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णु ब्रह्माजीसे अत्यन्त प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं ॥ ३७ ॥

पुनः पुनर्हरेरेवं नानायोनिषु पार्थिव ।
अवतारा भवन्त्यन्ये रथचक्रवदद्‌भुताः ॥ ३८ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार रथचक्रकी भांति विविध प्रकारकी योनियों में भगवान् विष्णुके अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं ॥ ३८ ॥

दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।
अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९ ॥
तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।
स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥
महात्मा भगवान् विष्णु अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं । इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्णके जन्मकी पवित्र कथा कह रहा हूँ । वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ॥ ३९-४० ॥

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥
हे राजन् ! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालनका काम करते थे ॥ ४१ ॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥
हे महाराज ! हे पृथ्वीपते ! उन्हीं कश्यपमुनिकी दो पलिया-अदिति और सुरसाने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था । हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनोंने देवकी और रोहिणी नामक बहनोंके रूपमें जन्म लिया था । मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुणने उन्हें महान् शाप दिया था ॥ ४२-४३ ॥

राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
राजा बोले-हे महामते ! महर्षि कश्यपने कौन-सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियोंसहित शाप मिला; इसे मुझे बताइये ॥ ४४ ॥

कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णुको गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ॥ ४५ ॥

निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे ।
करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ, युगके आदि तथा सबको धारण करनेवाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेशसे व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं । इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ॥ ४६-४७ ॥

प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् ।
भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके हीन मनुष्य जन्ममें अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ॥ ४८ ॥

कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।
सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम् ॥ ५० ॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥ ५१ ॥
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दु:ख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य-जन्ममें विद्यमान रहते हैं ॥ ४९-५१ ॥

स कथं भगवान्विष्णुस्त्वक्त्या सुखमनश्वरम् ।
करोति मानुषं जन्म भावैस्तैस्तैरभिद्रुतम् ॥ ५२ ॥
किं सुखं मानुषं प्राप्य भुवि जन्म मुनीश्वर ।
किं निमित्तं हरिः साक्षाद्‌गर्भवासं करोति वै ॥ ५३ ॥
वे भगवान् विष्णु शाश्वत सुखका त्याग करके इन भावोंसे ग्रस्त मनुष्य-जन्म किसलिये धारण करते हैं ? हे मुनीश्वर ! इस पृथ्वीपर मानव-जन्म पाकर कौन-सा सुख मिल जाता है ? वे साक्षात् भगवान् विष्णु किस कारणसे गर्भवास करते हैं ? ॥ ५२-५३ ॥

गर्भदुःखं जन्मदुःखं बालभावे तथा पुनः ।
यौवने कामजं दुःखं गार्हस्त्येऽतिमहत्तरम् ॥ ५४ ॥
गर्भवासमें दुःख, जन्मग्रहणमें दुःख, बाल्यावस्थामें दुःख, यौवनावस्थामें कामजनित दुःख एवं गार्हस्थ्य जीवनमें तो बहुत बड़ा दुःख होता है ॥ ५४ ॥

दुःखान्येतान्यवाप्नोति मानुषे द्विजसत्तम ।
कथं स भगवान्विष्णुरवतारान्पुनः पुनः ॥ ५५ ॥
हे विप्रवर ! ये अनेक कष्ट मानव-जीवनमें प्राप्त होते हैं, तो फिर वे भगवान् विष्णु अवतार क्यों लेते हैं ? ॥ ५५ ॥

प्राप्य रामावतारं हि हरिणा ब्रह्मयोनिना ।
दुःखं महत्तरं प्राप्तं वनवासेऽतिदारुणे ॥ ५६ ॥
सीताविरहजं दुःखं संग्रामश्च पुनः पुनः ।
कान्तात्यागोऽप्यनेनैवमनुभूतो महात्मना ॥ ५७ ॥
ब्रह्मयोनि भगवान् विष्णुको रामावतार ग्रहण करके अत्यन्त दारुण वनवासकालमें घोर कष्ट प्राप्त हुआ था । उन्हें सीता-वियोगसे उत्पन्न महान् दुःख प्राप्त हुआ तथा अनेक बार राक्षसोंसे युद्ध करना पड़ा । अन्तमें महान् आत्मावाले इन श्रीरामको पत्नी-परित्यागकी असीम वेदना भी सहनी पड़ी ॥ ५६-५७ ॥

तथा कृष्णावतारेऽपि जन्म रक्षागृहे पुनः ।
गोकुले गमनं चैव गवां चारणमित्युत ॥ ५८ ॥
कंसस्य हननं कष्टाद्‌ द्वारकागमनं पुनः ।
नानासंसारदुःखानि भुक्तवान्भगवान् कथम् ॥ ५९ ॥
उसी प्रकार कृष्णावतारमें भी बन्दीगृहमें जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंसका वध और पुनः कष्टपूर्वक द्वारकाके लिये प्रस्थान-इन अनेकविध सांसारिक दुःखोंको भगवान् कृष्णने क्यों भोगा ? ॥ ५८-५९ ॥

स्वेच्छया कः प्रतीक्षेत मुक्तो दुःखानि ज्ञानवान् ।
संशयं छिन्धि सर्वज्ञ मम चित्तप्रशान्तये ॥ ६० ॥
ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छासे इन दुःखोंकी प्रतीक्षा करेगा ? हे सर्वज्ञ ! मेरे मनकी शान्तिके लिये सन्देहका निवारण कीजिये ॥ ६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अध्याय पहला समाप्त


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