अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ २ ॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् । याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥ ३ ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेवकी गौ ले आये । [यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्मके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ ४ ॥
किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् । शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे ॥ ५ ॥ भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते । यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥ मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले । कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है । अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें । मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी । इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ ५-७ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः । समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥ कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः । हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा-हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं । आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं ? ॥ ८-९ ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया । हे महामते ! आप तो सर्वज्ञ हैं, तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ १० ॥
अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति । लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
अहो ! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान्से-महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है । लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ ११ ॥
कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् । सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया ॥ १२ ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकने में समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ । अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ १२ ॥
धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च । वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ-आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ १३ ॥
संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा । कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है । महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ १४ ॥
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् । मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ॥ १५ ॥ अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले । भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि ॥ १६ ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पलियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ॥ १५-१६ ॥
व्यास उवाच एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा । अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ १७ ॥
तथा दित्यादितिः शप्ता शोकसन्तप्तया भृशम् । जाता जाता विनश्येरंस्तव पुत्रास्तु सप्त वै ॥ १८ ॥
उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदितिको शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायें ॥ १८ ॥
जनमेजय उवाच कस्माद्दित्या च भगिनी शप्तेन्द्रजननी मुने । कारणं वद शापे च शोकस्तु मुनिसत्तम ॥ १९ ॥
जनमेजय बोले-हे मुने ! दितिके द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्रकी माता अदिति क्यों शापित की गयी ? हे मुनिवर ! आप दितिके शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शापका कारण मुझे बताइये ॥ १९ ॥
जब अदितिके अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्रके लिये दितिके भी मनमें इच्छा जाग्रत् हुई ॥ २२ ॥
पतिमाहासितापाङ्गी पुत्रं मे देहि मानद । इन्द्रख्यबलं वीरं धर्मिष्ठं वीर्यवत्तमम् ॥ २३ ॥
उस समय सुन्दरी दितिने कश्यपजीसे प्रार्थना की-हे मानद ! इन्द्रके ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देनेकी कृपा करें ॥ २३ ॥
तब मुनि कश्यपने उनसे कहा-प्रिये ! धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रतको पूर्ण करनेके अनन्तर इन्द्रके समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ २४ ॥
सा तथेति प्रतिश्रुत्य चकार व्रतमुत्तमम् । निषिक्तं मुनिना गर्भं बिभ्राणा सुमनोहरम् ॥ २५ ॥ भूमौ चकार शयनं पयोव्रतपरायणा । पवित्रा धारणायुक्ता बभूव वरवर्णिनी ॥ २६ ॥ एवं जातः सुसंपूर्णो यदा गर्भोऽतिवीर्यवान् । शुभ्रांशुमतिदीप्ताङ्गीं दितिं दृष्ट्वा तु दुःखिता ॥ २७ ॥
कश्यपमुनिकी बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रतके पालनमें तत्पर हो गयी । उनके ओजसे सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रतमें स्थित रहकर भूमिपर सोती थी और पवित्रताका सदा ध्यान रखती थी । इस प्रकार क्रमश: जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगोंवाली दितिको देखकर अदिति दुःखित हुई ॥ २५-२७ ॥
[उसने अपने मनमें सोचा-] यदि दितिके गर्भसे इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ २८ ॥
इति चिन्तापरा पुत्रमिन्द्रं चोवाच मानिनी । शत्रुस्तेऽद्य समुत्पन्नो दितिगर्भेऽतिवीर्यवान् ॥ २९ ॥ उपायं कुरु नाशाय शत्रोरद्य विचिन्त्य च । उत्पत्तिरेव हन्तव्या दित्या गर्भस्य शोभन ॥ ३० ॥
इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदितिने अपने पुत्र इन्द्रसे कहा-प्रिय पुत्र ! इस समय दितिके गर्भमें तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है । हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रुके नाशका प्रयत्न करो, जिससे दितिकी गर्भोत्पत्ति ही विनष्ट हो जाय ॥ २९-३० ॥
जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोगकी भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रुको अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ ३२ ॥
हे देवेन्द्र ! दितिका वह गर्भ मेरे हृदयमें लोहेकी कीलके समान चुभ रहा है, अत: जिस किसी भी उपायसे तुम उसे नष्ट कर दो । हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदिके बलसे दितिके गर्भस्थ शिशुका संहार कर डालो ॥ ३३-३४ ॥
इन्द्र बोले-हे माता ! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं । अतः मैं आपकी सेवा करनेके लिये आया हूँ । मुझे बताइये, मैं क्या करूँ ? हे पतिव्रते ! मैं आपके चरण दबाऊँगा; क्योंकि बड़ोंकी सेवासे मनुष्य पुण्य तथा अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ ३७-३८ ॥
न मे किमपि भेदोऽस्ति तथादित्या शपे किल । इत्युक्त्वा चरणौ स्पृष्टा संवाहनपरोऽभवत् ॥ ३९ ॥
मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है । ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ॥ ३९ ॥
पादसंवाहनका सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दितिको नींद आने लगी । वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रतके कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्रपर विश्वास था, अतः वह सो गयी ॥ ४० ॥
यह सब बहन अदितिद्वारा किया गया हैऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दितिने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनोंको शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्रने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्नभिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवनका राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय । जिस प्रकार पापिनी अदितिने गुप्त पापके द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भको नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायेंगे और वह पुत्र-शोकसे अत्यन्त चिन्तित होकर कारागारमें रहेगी । अन्य जन्ममें भी इसकी सन्तानें मर जाया करेंगी ॥ ४६-४९.५ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यपने दितिप्रदत्त शापको सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा-हे कल्याणि ! तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे । वे सब उनचास मरुद् देवता होंगे, जो इन्द्रके मित्र बनेंगे । हे सुन्दरि ! अट्ठाईसवें द्वापरयुगमें तुम्हारा शाप सफल होगा । उस समय अदिति मनुष्ययोनिमें जन्म लेकर अपने किये कर्मका फल भोगेगी । इसी प्रकार दुःखित वरुणने भी उसे शाप दिया है । इन दोनों शापोंके संयोगसे यह अदिति मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होगी ॥ ५०-५३.५ ॥
व्यास उवाच पतिनाश्वासिता देवी सन्तुष्टा साभवत्तदा ॥ ५४ ॥ नोवाच विप्रियं किञ्चित्ततः सा वरवर्णिनी । इति ते कथितं राजन् पूर्वशापस्य कारणम् ॥ ५५ ॥ अदितिर्देवकी जाता स्वांशेन नृपसत्तम ॥ ५६ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार पति कश्यपके आश्वासन देनेपर दिति सन्तुष्ट हो गयी और वह पुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली । हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदितिके पूर्व शापका कारण बताया । हे नृपश्रेष्ठ ! वही अदिति अपने अंशसे देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई ॥ ५४-५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
इति श्रीमहेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्रया संहितायां चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शायदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥