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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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अप्सरां नारायणसमीपे प्रार्थनाकरणम् -
कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना -


व्यास उवाच
प्रथमं तत्र सम्प्राप्तो वसन्तः पर्वतोत्तमे ।
पुष्पिताः पादपाः सर्वे द्विरेफालिविराजिताः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-सर्वप्रथम उस पर्वतश्रेष्ठ गन्धमादनपर वसन्त पहुँचा । उस पर्वतपर स्थित सभी वृक्ष पुष्पित हो गये और उनपर भ्रमरोंके समूह मँडराने लगे ॥ १ ॥

आम्राश्च बकुला रम्यास्तिलकाः किंशुकाः शुभा ।
सालास्तालास्तमालाश्च मधूकाः पुष्पिता बभुः ॥ २ ॥
आम, मौलसिरी, रम्य, तिलक, सुन्दर किंशुक, साल, ताल, तमाल तथा महुए-ये सब-के-सब फूलोंसे सुशोभित हो गये ॥ २ ॥

बभूवुः कोकिलालापा वृक्षाग्रेषु मनोहराः ।
वल्ल्योऽपि पुष्पिताः सर्वा आलिलिङ्गुर्नगोत्तमान् ॥ ३ ॥
वृक्षोंकी डालियोंपर कोयलोंकी मनोहारिणी कूक आरम्भ हो गयी । पुष्पोंसे लदी हुई सभी लताएँ ऊँ पर्वतोंपर चढ़ने लगीं ॥ ३ ॥

प्राणिनः स्वासु भार्यासु प्रेमयुक्ताः स्मरातुराः ।
बभूवुश्चातिमत्ताश्च क्रीडासक्ताः परस्परम् ॥ ४ ॥
सभी प्राणी अपनी-अपनी भार्याओंमें प्रेमासक्त हो गये तथा मत्त होकर परस्पर क्रीड़ा करने लगे ॥ ४ ॥

ववुर्मन्दाः सुगन्धाश्च सुस्पर्शा दक्षिणानिलाः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि मुनीनामपि चाभवन् ॥ ५ ॥
मन्द, सुगन्धयुक्त तथा सुखद स्पर्शवाली दक्षिण हवाएं चलने लगीं । उस समय मुनियोंकी भी वृत्तियाँ अतीव चंचल हो उठीं ॥ ५ ॥

रतियुक्तस्ततः कामः पूरयन्पञ्चमार्गणान् ।
चकार त्वरितस्तत्र वासं बदरिकाश्रमे ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् अपनी भार्या रतिके साथ कामदेव भं अपने पंचबाणोंको छोड़ता हुआ तत्काल बदरिकाश्रम पहुँचकर वहाँ रहने लगा ॥ ६ ॥

रम्भा तिलोत्तमाद्याश्च गत्वा तत्र वराश्रमे ।
गानं चकुः सुगीतज्ञाः स्वरतानसमन्वितम् ॥ ७ ॥
संगीतकलामें अत्यन्त प्रवीण रम्भा और तिलोत्तम आदि अप्सराएँ भी उस रमणीक बदरिकाश्रममें पहुँचकर स्वर तथा तानमें आबद्ध गीत गाने लगीं ॥ ७ ॥

तच्छ्रुत्वा मधुरोद्‌गीतं कोकिलानाञ्च कूजितम् ।
भ्रमरालिविरावञ्च प्रबुद्धौ तौ मुनीश्वरौ ॥ ८ ॥
उस मधुर गायन, कोयलोंकी कूक तथा भ्रमरसमूहोंका गुंजार सुनकर उन दोनों मुनिवरोंका ध्यान भंग हो गया । ॥ ८ ॥

ऋतुराजमकाले तु दृष्ट्वा तौ पुष्पितं वनम् ।
जातौ चिन्तापरौ तत्र नरनारायणावृषी ॥ ९ ॥
किमद्य शिशिरापायः संभृतः समयं विना ।
प्राणिनो विह्वलाः सर्वे लक्ष्यन्तेऽतिस्मरातुराः ॥ १० ॥
कालधर्मविपर्यासः कथमद्य दुरासदः ।
नरं नारायणः प्राह विस्मयोत्कुल्ललोचनः ॥ ११ ॥
असमयमें ही वसन्तका आगमन तथा सम्पूर्ण वनको पुष्पोंसे सुशोभित देखकर वे दोनों नर तथा नारायणऋषि चिन्तित हो उठे [वे सोचने लगे कि] क्या आज समय पूरा हुए बिना ही शिशिर ऋतु बीत गयी ? इस समय तो समस्त प्राणी कामसे पीड़ित होनेके कारण अत्यन्त विह्वल दिखायी पड़ रहे हैं । कालके स्वभाव तथा नियममें यह अद्भुत परिवर्तन आज कैसे हो गया ? विस्मयके कारण विस्फारित नेत्रोंवाले मुनि नारायण नरसे कहने लगे ॥ ९-११ ॥

नारायण उवाच
पश्य भ्रातरिमे वृक्षाः पुष्पिताः प्रतिभान्ति वै ।
कोकिलालापसङ्घुष्टा भ्रमरालिविराजिताः ॥ १२ ॥
नारायण बोले-हे भाई ! देखो, ये सभी वृक्ष पुष्पोंसे लदे हुए सुशोभित हो रहे हैं । इन वृक्षोंपर कोयलोंकी मधुर ध्वनि हो रही है तथा भ्रमरोंकी पंक्तियाँ विराजमान हैं ॥ १२ ॥

शिशिरं भीममातङ्गं दारयन्स्वखरैर्नखैः ।
वसन्तकेसरी प्राप्तः पलाशकुसुमैर्मुने ॥ १३ ॥
हे मुने ! यह वसन्तरूपी सिंह अपने पलाशपुष्परूपी तीखे नाखूनोंसे शिशिररूपी भयानक हाथीको विदीण करता हुआ यहाँ आ पहुंचा है ॥ १३ ॥

रक्ताशोककरा तन्वी देवर्षे किंशुकाङ्‌घ्रिका ।
नीलाशोककचा श्यामा विकासिकमलानना ॥ १४ ॥
नीलेन्दीवरनेत्रा सा बिल्ववृक्षफलस्तनी ।
प्रोस्फुल्लकुन्दरदना मञ्जरीकर्णशोभिता ॥ १५ ॥
बन्धुजीवाधरा शुभ्रा सिन्धुवारनखोद्‌भवा ।
पुंस्कोकिलस्वरा पुण्या कदम्बवसना शुभा ॥ १६ ॥
बर्हिवृन्दकलापा च सारसस्वननूपुरा ।
वासन्ती बद्धरशना मत्तहंसगतिस्तथा ॥ १७ ॥
पुत्रजीवांशुकन्यस्तरोमराजिविराजिता ।
वसन्तलक्ष्मीः सम्प्राप्ता ब्रह्मन् बदरिकाश्रमे ॥ १८ ॥
हे देवर्षे ! लाल अशोक जिसके हाथ हैं. किंशुकके पुष्प जिसके पैर हैं, नील अशोक जिसके केश हैं, विकसित श्याम कमल जिसका मुख हैं, नीले कमल जिसके नेत्र हैं, बिल्व-वृक्षके फल जिसके स्तन हैं, खिले हुए कुन्दके फूल जिसके दाँत हैं, आमके दौर जिसके कान हैं, बन्धुजीव (गुलदुपहरिया)-के पुष्प जिसके शुभ्र अधर हैं, सिन्धुवारके पुष्प जिसके नख हैं, कोयलके समान जिसका स्वर है, कदम्बके पुष्प जिस सुन्दरीके पावन वस्त्र हैं, मयूरपंखोंके समूह जिसके आभूषण हैं, सारसोंका स्वर जिसका नूपुर है, माधवी लता जिसकी करधनी है-ऐसी मत्त हंसके समान गतिवाली तथा इंगुदीके पत्तोंको रोमस्वरूप धारण की हुई वसन्त श्री इस बदरिकाश्रममें छायी हुई है ॥ १४-१८ ॥

अकाले किमियं प्राप्ता विस्मयोऽयं ममाधुना ।
तपोविघ्नकरा नूनं देवर्षे परिचिन्तय ॥ १९ ॥
मुझे तो यह महान् आश्चर्य हो रहा है कि असमयमें यह यहाँ क्यों आ गयी ? हे देवर्षे ! आप यह निश्चित समझिये कि इस समय यह हमलोगोंकी तपस्यामें विघ्न डालनेवाली है ॥ १९ ॥

श्रूयते सुरनारीणां गानं ध्यानविनाशनम् ।
आवयोस्तपिभङ्गाय कृतं मघवता किल ॥ २० ॥
ऋतुराडन्यथाकाले प्रीतिं सञ्जनयेत्कथम् ।
विघ्नोऽयं विहितो भाति भीतेनासुरशत्रुणा ॥ २१ ॥
वाताः सुगन्धाः शीताश्च समायान्ति मनोहराः ।
नान्यत्कारणमस्तीह शतक्रतुकृतिं विना ॥ २२ ॥
ध्यान भंग कर देनेवाला यह देवांगनाओंका गीत सुनायी दे रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि हम दोनोंका तप नष्ट करनेके लिये इन्द्रने ही यह उपक्रम रचा है । अन्यथा ऋतुराज वसन्त अकालमें कैसे प्रीति प्रकट कर सकता है ? जान पड़ता है कि भयभीत होकर असुरोंके शत्रु इन्द्रके द्वारा ही यह विघ्न उपस्थित किया गया है । सुरभित, शीतल एवं मनोहर हवाएं चल रही हैं । इसमें इन्द्रकी चालके अतिरिक्त अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २०-२२ ॥

इति ब्रुवति विप्राग्र्ये देवे नारायणे विभौ ।
सर्वे दृष्टिपथं प्राप्ता मन्मथप्रमुखास्तदा ॥ २३ ॥
ददर्श भगवान्सर्वान्नरो नारायणस्तथा ।
विस्मयाविष्टमनसौ बभूवतुरुभावपि ॥ २४ ॥
विप्रवर विभु भगवान् नारायण ऐसा कह ही रहे थे कि कामदेव आदि सभी दिखायी पड़ गये । भगवान् नर तथा नारायणने उन सबको प्रत्यक्ष देखा और इससे उन दोनोंके मनमें महान् आश्चर्य हुआ ॥ २३-२४ ॥

मन्मथं मेनकां चैव रम्भां चैव तिलोत्तमाम् ।
पुष्पगन्धां सुकेशीं च महाश्वेतां मनोरमाम् ॥ २५ ॥
प्रमद्वरां धृताचीञ्च गीतज्ञां चारुहासिनीम् ।
चन्द्रप्रभां च सोमां च कोकिलालापमण्डिताम् ॥ २६ ॥
विद्युन्मालाम्बुजाक्ष्यौ च तथा काञ्चनमालिनीम्।
एताश्चान्या वरारोहा दृष्टास्ताभ्यां तदान्तिके ॥ २७ ॥
तासां द्व्यष्टसहस्राणि पञ्चाशदधिकानि च ।
वीक्ष्य तौ विस्मितौ जातौ कामसैन्यं सुविस्तरम् ॥ २८ ॥
कामदेव, मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा, पुष्पगन्धा, सुकेशी, महाश्वेता, मनोरमा, प्रमद्वरा, गीतज्ञ और सुन्दर हास्य करनेवाली घृताची, चन्द्रप्रभा, कोकिलके समान आलाप करनेवाली सोमा, विद्युन्माला, अम्बुजाक्षी और कांचनमालिनी-इन्हें तथा अन्य भी बहुत-सी सुन्दर अप्सराओंको नर-नारायणने अपने पास उपस्थित देखा । उनकी संख्या सोलह हजार पचास थी, कामदेवकी उस विशाल सेनाको देखकर वे दोनों मुनि चकित हो गये ॥ २५-२८ ॥

प्रणम्याग्रे स्थिताः सर्वा देववाराङ्गनास्तदा ।
दिव्याभरणभूषाढ्या दिव्यमालोपशोभिताः ॥ २९ ॥
उस समय दिव्य वस्त्र तथा आभूषणोंसे विभूषिऔर दिव्य मालाओंसे सुशोभित देवलोककी वे अप्सराएं प्रणाम करके सामने खड़ी हो गयीं ॥ २९ ॥

जगुश्छलेन ताः सर्वाः पृथिव्यामतिदुर्लभम् ।
तत्तथावस्थितं दिव्यं मन्मथादिविवर्धनम् ॥ ३० ॥
शुश्राव भगवान्विष्णुर्नरो नारायणस्तदा ।
श्रुत्वा प्रोवाच तास्तत्र प्रीत्या नारायणो मुनिः ॥ ३१ ॥
आस्यतां सुखमत्रैव करोम्यातिथ्यमद्‌भुतम् ।
भवत्योऽतिथिधर्मेण प्राप्ताःस्वर्गात्सुमध्यमाः ॥ ३२ ॥
तत्पश्चात् वे अनेक प्रकारके हाव-भाव प्रदर्शित करती हुई छलपूर्वक पृथ्वीतलपर अत्यन्त दुर्लभ एवं कामवासनावर्धक गीत गाने लगी । भगवान् नरनारायणने उस गीतको सुना । तदनन्तर उसे सुनकर नारायणमुनिने प्रेमपूर्वक उनसे कहा-तुमलोग आनन्दसे बैठो, मैं तुम्हारा अद्भुत आतिथ्य-सत्कार करूँगा । है. सुन्दरियो ! तुमलोग स्वर्गसे यहाँ आयी हो, अतएव हमारी अतिथिस्वरूपा हो ॥ ३०-३२ ॥

व्यास उवाच
साभिमानस्तु सञ्चातस्तदा नारायणो मुनिः ।
इन्द्रेण प्रेषिता नूनं तथा विघ्नचिकीर्षया ॥ ३३ ॥
वराक्यः का इमाः सर्वाः सृजाम्यद्य नवाः किल ।
एताभ्यो दिव्यरूपाश्च दर्शयामि तपोबलम् ॥ ३४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उस समय मुनि नारायण अभिमानमें आकर सोचने लगे कि निश्चितरूपसे इन्द्रने हमारे तपमें बाधा डालनेकी इच्छासे इन्हें भेजा है । ये सब बेचारी क्या चीज हैं, मैं अभी अपना तपोबल दिखाता हूँ और इनसे भी अधिक दिव्य रूपवाली नवीन अप्सराएँ उत्पन्न करता हूँ ॥ ३३-३४ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा करेणोरुं प्रताड्य वै ।
तरसोत्पादयामास नारीं सर्वाङ्गसुन्दरीम् ॥ ३५ ॥
मनमें ऐसा विचार करके उन्होंने हाथसे अपनी जंघापर आघातकर तत्काल एक सर्वांगसुन्दरी स्त्री उत्पन्न कर दी ॥ ३५ ॥

नारायणोरुसम्भूता ह्युर्वशीति ततः शुभा ।
ददृशुस्ताः स्थितास्तत्र विस्मयं परमं ययुः ॥ ३६ ॥
वह सुन्दरी भगवान् नारायणके ऊरुदेश (जंघा)से उत्पन्न हुई थी, अत: उसका नाम उर्वशी पड़ा । वहाँ उपस्थित वे अप्सराएँ उर्वशीको देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं ॥ ३६ ॥

तासां च परिचर्यार्थं तावतीश्चातिसुन्दरीः ।
प्रादुश्चकार तरसा तदा मुनिरसम्भ्रमः ॥ ३७ ॥
गायन्त्यश्च हसन्त्यश्च नानोपायनपाणयः ।
प्रणेमुस्ता मुनी सर्वाः स्थिताः कृत्वाञ्जलिं पुरः ॥ ३८ ॥
तदनन्तर उन अप्सराओंकी सेवाके लिये मुनिने तत्काल उतनी ही अन्य अत्यन्त सुन्दर अप्सराएँ उत्पन्न कर दी । हाथमें विविध प्रकारके उपहार लिये हँसती हुई तथा मधुर गीत गाती हुई उन सब अप्सराओंने उन मुनियोंको प्रणाम किया और वे हाथ जोड़कर उनके समक्ष खड़ी हो गयीं ॥ ३७-३८ ॥

तां वीक्ष्य विभ्रमकरीं तपसो विभूतिं ॥
     देवाङ्गना हि मुमुहुः प्रविमोहयन्त्यः ।
ऊचुश्च तौ प्रमुदिताननपद्यशोभा
     रोमोद्‌गमोल्लसितचारुनिजाङ्गवल्ल्यः ॥ ३९ ॥
लोगोंको मोहमें डाल देनेवाली वे [इन्द्रप्रेषित] अप्सराएँ तपस्याकी विभूति उस विस्मयकारिणी उर्वशीको देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठी । उन अप्सराओंके मुखकमल आनन्दातिरेकसे खिल उठे तथा उनके मनोहर शरीररूपी वल्लरियोंपर रोमांचरूपी अंकुर निकल आये । वे अप्सराएँ उन दोनों मुनियोंसे कहने लगीं- ॥ ३९ ॥

कुर्युः कथं स्तुतिमहो तपसो महत्त्वं
     धैर्यं तथैव भवतामभिवीक्ष्य बालाः ।
अस्मत्कटाक्षविषदिग्धशरेण दग्धः
     को वा न तत्र भवतां मनसो व्यथा न ॥ ४० ॥
अहो ! हम मूर्ख अप्सराएँ आपकी स्तुति कैसे करें ? हम तो आपके धैर्य तथा तपके प्रभावको देखकर परम विस्मयमें पड़ गयी हैं । ऐसा कौन है जो हमलोगोंके कटाक्षरूपी विषसे बुझे बाणोंसे दग्ध न हो गया हो, फिर भी आपके मनको थोड़ी भी व्यथा नहीं हुई ॥ ४० ॥

ज्ञातौ युवां नरहरेः परमांशभूतौ
     देवौ मुनी शमदमादिनिधी सदैव ।
सेवानिमित्तमिह नो गमनं न कामं
     कार्यं हरेः शतमखस्य विधातुमेव ॥ ४१ ॥
अब हमलोगोंको ज्ञात हो गया कि आप दोनों देवस्वरूप मुनि साक्षात् भगवान् विष्णुके परम अंश हैं और सदा ही शम, दम आदि गुणोंके निधान हैं । आप दोनोंकी सेवाके लिये यहाँ हमारा आगमन नहीं हुआ है, अपितु देवराज इन्द्रका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही हम सब यहाँ आयी हुई हैं ॥ ४१ ॥

भाग्येन केन युवयोः किल दर्शनं नः
     सम्पादितं न विदितं खलु सञ्चितं तत् ।
चित्तं क्षमं निजजने विहितं युवाभ्या-
     मस्मद्विधे किल कृतागसि तापमुक्तम् ॥ ४२ ॥
कुर्वन्ति नैव विबुधास्तपसो व्ययं वै
     शापेन तुच्छफलदेन महानुभावाः ।
न जाने हमारे किस भाग्यसे आप दोनों मुनिवरोंके दर्शन हुए । हम यह नहीं जान पा रही हैं कि हमारे द्वारा सम्पादित किस संचित पुण्यकर्मका यह फल है । [शाप देनेमें समर्थ होते हुए भी] आप दोनों मुनियोंने हम जैसे अपराधीजनोंको स्वजन समझकर अपने चित्तको क्षमाशील बनाया और हमें सन्तापरहित कर दिया । विवेकशील महानुभाव तुच्छ फल देनेवाले शापको उपयोगमें लाकर अपने तपका अपव्यय नहीं करते ॥ ४२.५ ॥

व्यास उवाच
इत्थं निशम्य वचनं सुरकामिनीनां
     तावूचतुर्मुनिवरौ विनयानतानाम्॥ ४३ ॥
प्रीतौ प्रसन्नवदनौ जितकामलोभौ
     धर्मात्मजौ निजतपोरुचिशोभिताङ्गौ ।
व्यासजी बोले-उन अति विनम्र देवसुन्दरियोंका वचन सुनकर प्रसन्न मुखमण्डलवाले, काम तथा लोभको जीत लेनेवाले तथा अपनी तपस्याके प्रभावसे देदीप्यमान अंगोंवाले वे धर्मपुत्र मुनिवर नरनारायण प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ४३.५ ॥

नरनारायणावूचतुः
ब्रुवन्तु वाञ्छितान् कामान्ददावस्तुष्टमानसौ ॥ ४४ ॥
यान्तु स्वर्गं गहीत्वेमामुर्वशीं चारुलोचनाम् ।
उपायनमियं बाला गच्छत्वद्य मनोहरा ॥ ४५ ॥
नर-नारायण बोले-हम दोनों तुम सभीपर अत्यन्त प्रसन्न हैं । तुमलोग अपने वांछित मनोरथ बताओ, हम उसे देंगे । इस सुन्दर नयनोंवाली उर्वशीको भी अपने साथ लेकर तुम सब स्वर्गके लिये प्रस्थान करो । उपहारस्वरूप यह मनोहर युवती अब यहाँसे तुमलोगोंके साथ जाय ॥ ४४-४५ ॥

दत्तावाभ्यां मघवतः प्रीणनायोरुसम्भवा ।
स्वस्त्यस्तु सर्वदेवेभ्यो यथेष्टं प्रव्रजन्तु च ॥ ४६ ॥
( न कस्यापि तपोविघ्नं प्रकर्तव्यमतः परम् ।) ॥
देव्य ऊचुः
क्व गच्छामो महाभाग प्राप्तास्ते पादपङ्कजम् ।
नारायण सुरश्रेष्ठ भक्त्या परमया मुदा ॥ ४७ ॥
ऊरुसे प्रादुर्भूत इस उर्वशीको इन्द्रके प्रसन्नार्थ हमने उनको दे दिया है । सभी देवताओंका कल्याण हो और अब सभी लोग इच्छानुसार यहाँसे प्रस्थान करें ॥ ४६ ॥ (अब इसके बाद तुमलोग किसीकी तपस्यामें विघ्न मत उत्पन्न करना । ) देवियाँ बोलीं-हे महाभाग ! हे नारायण ! हे सुरश्रेष्ठ ! परमभक्तिके साथ प्रसन्नतापूर्वक हम सभी अप्सराएँ आपके चरणकमलोंका सांनिध्य प्राप्त कर चुकी हैं । अब हम सब कहाँ जायें ? ॥ ४७ ॥

वाञ्छितं चेद्वरं नाथ ददासि मधुसूदन ।
तुष्टः कमलपत्राक्ष ब्रवीमो मनसेप्सितम् ॥ ४८ ॥
हे नाथ ! हे मधुसूदन ! हे कमलपत्राक्ष ! यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न होकर वांछित वरदान देना चाहते हैं, तो हम अपने मनकी इच्छा प्रकट कर रही हैं ॥ ४८ ॥

पतिस्त्वं भव देवेश वरमेनं परन्तप ।
भवामः प्रीतियुक्तास्त्वां सेवितुं जगदीश्वर ॥ ४९ ॥
हे देवेश ! आप हमारे पति बन जायें । है परन्तप ! हमलोगोंके इसी वरदानको पूर्ण कीजिये हे जगदीश्वर ! आपकी सेवा करनेमें हम सभीक प्रसन्नता होगी ॥ ४९ ॥

त्वया चोत्पादिता नार्यः सन्त्यन्याश्चारुलोचनाः ।
उर्वश्याद्यास्तथा यान्तु स्वर्गं वै भवदाज्ञया ॥ ५० ॥
स्त्रीणां षोडशसाहस्रं तिष्ठत्वत्र शतार्धकम् ।
सेवां तेऽत्र करिष्यामो युवयोस्तापसोत्तमौ ॥ ५१ ॥
आपने जिन उर्वशी आदि सुन्दर नयनोंवालं अन्य रमणियोंको उत्पन्न किया है, वे अब आपक आज्ञासे स्वर्ग चली जायें । हे श्रेष्ठ तपस्वियो ! हम सोलह हजार पचास अप्सराएँ यहीं रहेंगी और यहाँ हम सब आप दोनोंकी सेवा करेंगी ॥ ५०-५१ ॥

वाञ्छितं देहि देवेश सत्यवाग्भव माधव ।
आशाभङ्गो हि नारीणां हिंसनं परिकीर्तितम् ॥ ५२ ॥
कामार्तानाञ्च मुनिभिर्धर्मज्ञैस्तत्त्वदर्शिभिः ।
भाग्ययोगादिह प्राप्ताः स्वर्गात्प्रेमपरिप्लुताः ॥ ५३ ॥
त्यक्तुं नार्हसि देवेश समर्थोऽसि जगत्पते ।
हे देवेश ! आप हमारा मनोवांछित बन दीजिये और अपने सत्यव्रतका पालन कीजिये । हे माधव ! धर्मज्ञ तथा तत्त्वदर्शी मुनियोंने प्रेमासक्त स्त्रियोंकी आशाको भंग करना हिंसा बताया है । दैवयोगसे हम अप्सराएँ भी स्वर्गसे यहाँ आकर आप दोनोंके प्रेमरससे संसिक्त हो गयी हैं । हे देवेश ! आप हमारा त्याग न कीजिये । हे जगत्पते ! आप तो सर्वसमर्थ हैं ॥ ५२-५३.५ ॥

नारायण उवाच
पूर्णं वर्षसहस्रं तु तपस्तप्तं मयात्र वै ॥ ५४ ॥
जितेन्द्रियेण चार्वङ्ग्यः कथं भङ्गं करोम्यतः ।
नेच्छा कामे सुखे काचित्सुखधर्मविनाशके ॥ ५५ ॥
पशूनामपि साधर्म्ये रमेत मतिमान्कथम् ।
नारायण बोले- इन्द्रियोंको जीतकर मैंने पूरे एक हजार वर्षांतक यहाँ तपस्या की है. अतएव हे सुन्दरियो ! उसे कैसे नष्ट कर दूं । सुख तथा धर्मका नाश करनेवाले वासनात्मक सुखमें मेरी कोई रुचि नहीं है । पाशविक धर्मके समान सुखमें विवेकशील पुरुष कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? ॥ ५४-५५.५ ॥

अप्सरस ऊचुः
शब्दादीनां च पञ्चानां मध्ये स्पर्शसुखं वरम् ॥ ५६ ॥
आनन्दरसमूलं वै नान्यदस्ति सुखं किल ।
अतोऽस्माकं महाराज वचनं कुरु सर्वथा ॥ ५७ ॥
अप्सराएँ बोलीं-शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इन पाँच सुखोंमें स्पर्श-सुख सर्वश्रेष्ठ है । यह आनन्दरसका मूल है और इससे बढ़कर अन्य कोः भी सुख नहीं है । अतः हे महाराज ! आप हमारी बात मान लीजिये ॥ ५६-५७ ॥

निर्भरं सुखमासाद्य चरस्व गन्धमादने ।
यदि वाञ्छसि नाकत्वं नाधिको गन्धमादनात् ॥ ५८ ॥
रमस्वात्र शुभे स्थाने प्राप्य सर्वाः सुराङ्गनाः ॥ ५९ ॥
पूर्ण आनन्द प्राप्त करते हुए आप गन्धमादनपर्वतपर विचरण कीजिये । यदि आप स्वर्ग-प्राप्तिकी आकांक्षा रखते हैं तो यह निश्चय जान लीजिये कि वह स्वर्ग इस गन्धमादनसे अच्छा नहीं है । अतः हम सभी अप्सराओंको अंगीकार करके आप इस दिव्य स्थानमें विहार कीजिये ॥ ५८-५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ॥
अप्सरसां नारायणसमीपे प्रार्थनाकरणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
छठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥


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