व्यासजी बोले-उन देवांगनाओंका वचन सुनकर धर्मपुत्र प्रतापी नारायण अपने मनमें विचार करने लगे कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इस समय विषयभोगमें लिप्त होता हूँ तो मुनिसमुदायमें उपहासका पात्र बनूँगा । अहंकारसे ही मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है । इसमें कोई संशय नहीं । धर्मके विनाशका मूल तथा प्रधान कारण अहंकार है । अतः महात्माओंने उसे संसाररूपी वृक्षका मूल कहा है ॥ १-२.५ ॥
दृष्ट्वा मौनं समाधाय न स्थितोऽहं समागतम् ॥ ३ ॥ वाराङ्गनागणं जुष्टं तेनासं दुःखभाजनम् । उत्पादितास्तथा नार्यो मया धर्मव्ययेन वै ॥ ४ ॥ तास्तु मां बाधितुं वृत्ताः कामार्ताः प्रमदोत्तमाः । ऊर्णनाभिरिवाद्याहं जालेन स्वकृतेन वै ॥ ५ ॥ बद्धोऽस्मि सुदृढेनात्र किं कर्तव्यमतः परम् । यदि चिन्तां समुत्सृज्य सन्त्यजाम्यबला इमाः ॥ ६ ॥ शप्त्वा भ्रष्टा व्रजिष्यन्ति सर्वा भग्नमनोरथाः । मुक्तोऽहं सञ्चरिष्यामि विजने परमं तपः ॥ ७ ॥ तस्मात्क्रोधं समुत्पाद्य त्यक्ष्यामि सुन्दरीगणम् ।
इन वारांगनाओंके समूहको आया हुआ देखकर मैं मौन धारणकर स्थित नहीं रह सका और प्रसन्नतापूर्वक मैंने इनसे वार्तालाप किया, इसीलिये मैं दुःखका भाजन हुआ । अपने धर्मका व्यय करके मैंने उन उर्वशी आदि स्त्रियोंकी व्यर्थ रचना की । ये कामात अप्सराएँ मेरी तपस्या विघ्न डालनेमें प्रवृत्त हैं । मकड़ियोंके द्वारा बनाये गये जालकी भाँति अब अपने ही द्वारा उत्पादित सुदृढ़ जालमें मैं बुरी तरह फंस गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि चिन्ता छोड़कर इन स्त्रियोंको अस्वीकार कर देता हूँ तो अपना मनोरथ निष्फल हुआ पाकर ये भ्रष्ट स्त्रियाँ मुझे शाप देकर चली जायेंगी । तब इनसे छुटकारा पाकर मैं निर्जन स्थानमें कठोर तप करूँगा । अतएव क्रोध उत्पन्न करके मैं इनका परित्याग कर दूंगा ॥ ३-७.५ ॥
व्यास उवाच इति सञ्चिन्त्य मनसा मुनिर्नारायणस्तदा ॥ ८ ॥ विमर्शमकरोच्चित्ते सुखोत्पादनसाधने । द्वितीयोऽयं महाशत्रुः क्रोधः सन्तापकारकः ॥ ९ ॥ कामादप्यधिको लोके लोभादपि च दारुणः । क्रोधाभिभूतः कुरुते हिंसां प्राणविघातिनीम् ॥ १० ॥ दुःखदां सर्वभूतानां नरकारामदीर्घिकाम् । यथाग्निर्घर्षणाज्जातः पादपं प्रदहेत्तथा ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-मुनि नारायणने ऐसा निश्चय करके अपने मनमें विचार किया कि सुख प्राप्तिके समस्त साधनोंमें [अहंकारके बाद] यह क्रोध दूसरा प्रबल शत्रु है, जो अत्यन्त कष्ट प्रदान करता है । यह क्रोध संसारमें काम तथा लोभसे भी अधिक भयंकर है । क्रोधके वशीभूत प्राणी प्राणघातक हिंसातक कर डालता है, जो (हिंसा) सभी प्राणियोंके लिये दुःखदायिनी तथा नरकरूपी बगीचेकी बावलीके तुल्य है । जिस प्रकार वृक्षोंके परस्पर घर्षणसे उत्पन्न अग्नि वृक्षको ही जला डालती है, उसी प्रकार शरीरसे उत्पन्न भीषण क्रोध उसी शरीरको जला डालता है ॥ ८-११ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार खिन्नमनस्क होकर चिन्तन करते हुए अपने भाई नारायणसे उनके लघु भ्राता धर्मपुत्र नरने यह तथ्यपूर्ण वचन कहा ॥ १२.५ ॥
नर उवाच नारायण महाभाग कोपं यच्छ महामते ॥ १३ ॥ शान्तं भावं समाश्रित्य नाशयाहङ्कृतिं पराम् । पुराहङ्कारदोषेण तपो नष्टं किलावयोः ॥ १४ ॥
नर बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! हे महामते ! आप क्रोधका त्याग कीजिये और शान्तभावका आश्रय लेकर इस प्रबल अहंकारका नाश कीजिये; क्योंकि पूर्व समयमें इसी अहंकारके दोषसे हम दोनोंका तप विनष्ट हो गया था ॥ १३-१४ ॥
अहंकार तथा क्रोध-इन्हीं दोनों भावोंके कारण हमलोगोंको असुरराज प्रह्लादके साथ एक हजार दिव्य वर्षातक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करना पड़ा था । हे सुरश्रेष्ठ ! उस युद्ध में हम दोनोंको महान् क्लेश मिला था । अतएव हे मुनीश्वर ! आप क्रोधका परित्याग करके शान्त हो जाइये (मुनियोंने शान्तिको तपस्याका मूल बतलाया है । ) ॥ १५-१६ ॥
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र नारायण शान्त हो गये ॥ १६.५ ॥
जनमेजय उवाच संशयोऽयं मुनिश्रेष्ठ प्रह्लादेन महात्मना ॥ १७ ॥ विष्णुभक्तेन शान्तेन कथं युद्धं कृतं पुरा । कृतवन्तौ कथं युद्धं नरनारायणावृषी ॥ १८ ॥
जनमेजय बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे मनमें यह सन्देह उत्पन्न हो गया है कि शान्त स्वभाववाले विष्णुभक्त महात्मा प्रह्लादने पूर्वकालमें यह युद्ध क्यों किया और ऋषि नर-नारायणने भी संग्राम क्यों किया ? ॥ १७-१८ ॥
तापसौ धर्मपुत्रौ द्वौ सुशान्तमानसावुभौ । समागमः कथं जातस्तयोर्दैत्यसुतस्य च ॥ १९ ॥
धर्मपुत्र नर-नारायण-ये दोनों ही अत्यन्त शान्त स्वभाववाले तपस्वी थे । ऐसी स्थितिमें दैत्यपुत्र प्रह्लाद तथा उन दोनों ऋषियोंका सम्पर्क कैसे हुआ ? ॥ १९ ॥
संग्रामस्तु कथं ताभ्यां कृतस्तेन महात्मना । प्रह्लादोऽप्यतिधर्मात्मा ज्ञानवान्विष्णुतत्परः ॥ २० ॥
प्रह्लाद भी अत्यन्त धर्मपरायण, ज्ञानसम्पन्न तथा विष्णुभक्त थे, तब महात्मा प्रह्लादने उन ऋषियोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ २० ॥
नरनारायणौ तद्वत्तापसौ सत्त्वसंस्थितौ । तेन ताभ्यां समुद्भूतं वैरं यदि परस्परम् ॥ २१ ॥ तदा तपसि धर्मे च श्रम एव हि केवलम् । क्व जपः क्व तपश्चर्या पुरा सत्ययुगेऽपि च ॥ २२ ॥
तपस्वी नर-नारायण भी प्रह्लादकी ही भाँति सात्त्विक भावसे सम्पन्न थे । उन दोनों ऋषियों तथा प्रह्लादमें यदि परस्पर वैर उत्पन्न हो गया तो फिर उनकी तपस्या तथा धर्माचरणके पालनमें केवल परिश्रम ही उनके हाथ लगा । उस सत्ययुगमें भी उनके जप तथा घोर तप कहाँ चले गये थे ? ॥ २१-२२ ॥
तादृशैर्न जितं चित्तं क्रोधाहङ्कारसंवृतम् । न क्रोधो न च मात्सर्यमहङ्कारांकुरं विना ॥ २३ ॥ अहङ्कारात्समुत्पन्नाः कामक्रोधादयः किल । वर्षकोटिसहस्रं तु तपः कृत्वातिदारुणम् ॥ २४ ॥ अहङ्कारांकुरे जाते व्यर्थं भवति सर्वथा । यथा सूर्योदये जाते तमोरूपं न तिष्ठति ॥ २५ ॥ अहङ्कारांकुरस्याग्रे तथा पुण्यं न तिष्ठति ।
वैसे वे महात्मा भी क्रोध और अहंकारसे भरे अपने मनको वशमें नहीं कर सके । अहंकाररूपी बीजके अंकुरित हुए बिना क्रोध तथा मात्सर्य उत्पन्न नहीं होते हैं । यह निश्चित है कि काम-क्रोध आदि अहंकारसे ही उत्पन्न होते हैं । हजार करोड वर्षोंतक घोर तपस्या करनेके पश्चात् भी यदि अहंकारका अंकुरण हुआ तो फिर सब कुछ निरर्थक हो जाता है । जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर अन्धकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार अहंकाररूपी अंकुरके समक्ष पुण्य नहीं ठहर पाता है ॥ २३-२५.५ ॥
हे महाभाग ! प्रह्लादने भी भगवान् नर-नारायणके साथ संग्राम किया, जिसके कारण पृथ्वीपर उनके द्वारा अर्जित समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया ॥ २६.५ ॥
नरनारायणौ शान्तौ विहाय परमं तपः ॥ २७ ॥ कृतवन्तौ यदा युद्धं क्व शमः सुकृतं पुनः ।
शान्त स्वभाववाले नर-नारायण भी अपनी कठिन तपस्या त्यागकर यदि युद्ध करनेमें तत्पर हुए तो फिर उनकी शान्तिवत्ति तथा पण्यशीलताका क्या महत्त्व रहा ? ॥ २७.५ ॥
ईदृग्भ्यां सत्त्वयुक्ताभ्यामजेया यद्यहङ्कृतिः ॥ २८ ॥ मादृशानाञ्ज का वार्ता मुनेऽहङ्कारसंक्षये । अहङ्कारपरित्यक्तो न कोऽप्यस्ति जगत्त्रये ॥ २९ ॥ न भूतो भविता नैव यस्त्यक्तस्तेन सर्वथा ।
हे मुने ! जब सात्त्विक भावोंसे सम्पन्न इस प्रकारके वे दोनों महात्मा भी अहंकारपर विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तब मेरे-जैसे व्यक्तियोंके लिये अहंकार नष्ट करनेकी बात ही क्या है ? इस त्रिलोकमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अहंकारसे मुक्त हो, इसी तरह ऐसा कोई भी न तो हुआ है और न होगा, जो अहंकारसे पूर्णतया मुक्त हो ॥ २८-२९.५ ॥
मुच्यते लोहनिगडैर्बद्धः काष्ठमयैस्तथा ॥ ३० ॥ अहङ्कारनिबद्धस्तु न कदाचिद्विमुच्यते । अहङ्कारावृतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ३१ ॥
काष्ठ तथा लोहेकी जंजीरमें बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनमुक्त हो सकता है, किंतु अहंकारसे बँधा व्यक्ति कभी भी नहीं छूट सकता । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् अहंकारसे व्याप्त है ॥ ३०-३१ ॥
अहंकारी मनुष्य मल-मूत्रसे प्रदूषित इस संसार में चक्कर काटता रहता है, तो फिर इस मोहाच्छन्न संसारमें ब्रह्मज्ञानकी कल्पना ही कहाँ रह गयी ? ॥ ३२ ॥
मतं मीमांसकानां वै सम्मतं भाति सुव्रत । महान्तोऽपि सदा युक्ताः कामक्रोधादिभिर्मुने ॥ ३३ ॥ मादृशानां कलावस्मिन्का कथा मुनिसत्तम ।
हे सुव्रत ! मुझे तो मीमांसकोंका कर्म-सिद्धान्त ही उचित प्रतीत होता है । हे मुने ! जब महान्-सेमहान् लोग भी काम, क्रोध आदिसे सदा ग्रस्त रहते हैं, तब हे मुनिश्रेष्ठ ! इस कलियुगमें मुझ-जैसे लोगोंकी बात ही क्या ? ॥ ३३.५ ॥
व्यास उवाच कार्यं वै कारणाद्भिन्नं कथं भवति भारत ॥ ३४ ॥ कटकं कुण्डलञ्चैव सुवर्णसदृशं भवेत् । अहङ्कारोद्भवं सर्वं ब्रह्माण्डं सचराचरम् ॥ ३५ ॥ पटस्तन्तुवशः प्रोक्तस्तद्वियुक्तः कथं भवेत् । मायागुणैस्त्रिभिः सर्वं रचितं स्थिरजङ्गमम् ॥ ३६ ॥ सतृणस्तम्बपर्यन्तं का तत्र परिदेवना । ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रस्ते चाहङ्कारमोहिताः ॥ ३७ ॥ भ्रमन्त्यस्मिन्महागाधे संसारे नृपसत्तम । वसिष्ठनारदाद्याश्च मुनयो ज्ञानिनः परम् ॥ ३८ ॥ तेऽभिभूताः संसरन्ति संसारेऽस्मिन्पुनः पुनः । न कोऽप्यस्ति नृपश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु देहभृत् ॥ ३९ ॥ एभिर्मायागुणैर्मुक्तः शान्त आत्मसुखे स्थितः । कामक्रोधौ तथा लोभो मोहोऽहङ्कारसम्भवः ॥ ४० ॥ न मुञ्चन्ति नरं सर्वं देहवन्तं नृपोत्तम ।
व्यासजी बोले-हे भारत (जनमेजय) ! कारणसे कार्य भिन्न कैसे हो सकता है ? कड़ा तथा कुण्डल आकारमें भिन्न होते हुए भी स्वर्णके सदृश होते हैं । चराचरसहित समस्त ब्रह्माण्ड अहंकारसे उत्पन्न हुआ है । [धागेसे निर्मित होनेके कारण] वस्त्र उसके अधीन कहा गया है, अतएव वस्त्ररूपी कार्य तन्तुरूपी कारणसे पृथक् कैसे रह सकता है ? जब मायाके तीनों गुणोंद्वारा ही तिनकेसे लेकर पर्वततक स्थावर-जंगमात्मक यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विरचित है, तब सृष्टिके विषयमें खेद किस बातका ? हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी अहंकारसे मोहित होकर इस अत्यन्त अगाध संसारमें भ्रमण करते रहते हैं । वसिष्ठ, नारद आदि परम ज्ञानी मुनिगण भी अहंकारके वशवर्ती होकर इस संसारमें बार-बार आते-जाते रहते हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी देहधारी नहीं है जो मायाके इन गुणोंसे मुक्त होकर शान्ति धारण करता हुआ आत्मसुखका अनुभव कर सके । हे नृपश्रेष्ठ ! अहंकारसे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ तथा मोह किसी भी देहधारी प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ ३४-४०.५ ॥
वेद-शास्त्रोंका अध्ययन, पुराणोंका पर्यालोचन, तीर्थभ्रमण, दान, ध्यान तथा देव-पूजन करके भी विषयासक्त प्राणी चोरोंकी भाँति सभी कर्म करता रहता है । काम, मोह और मदसे युक्त होनेके कारण प्राणी आरम्भमें कुछ विचार ही नहीं करता ॥ ४१-४२.५ ॥
कृते युगेऽपि त्रेतायां द्वापरे कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥ विद्धोऽत्रास्ति च धर्मोऽपि का कथाद्य कलौ पुनः । स्पर्धा सदैव सद्रोहा लोभामर्षौ च सर्वदा ॥ ४४ ॥ एवंविधोऽस्ति संसारो नात्र कार्या विचारणा । साधवो विरला लोके भवन्ति गतमत्सराः ॥ ४५ ॥ जितक्रोधा जितामर्षा दृष्टान्तार्थं व्यवस्थिताः ।
हे कुरुनन्दन ! सत्ययुग, त्रेता तथा द्वापरमें भी धर्मका विरोध किया गया था, तो आज कलियुगमें उसकी बात ही क्या ! इसमें तो द्रोह, स्पर्धा, लोभ तथा क्रोध सर्वदा ही विद्यमान हैं । संसार ऐसे ही स्वभाववाला है; इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये । संसारमें मत्सरहीन साधु पुरुष विरले ही होते हैं । क्रोध तथा ईर्ष्यापर विजय प्राप्त कर लेनेवाले तो दृष्टान्तमात्रके लिये मिलते हैं ॥ ४३-४५.५ ॥
राजा बोले-वे लोग धन्य तथा पुण्यात्मा हैं, जिन्होंने मद तथा मोहसे छुटकारा प्राप्त कर लिया है । जो सदाचारपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं, उन्होंने मानो तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है । अपने महात्मा पिताके पापका स्मरण करके मैं दुःखित रहता हूँ । उन्होंने बिना किसी अपराधके एक तपस्वीके गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया । अतः हे मुनिवर ! अब मेरे आगे उनकी क्या गति होगी ? बुद्धिके मोहग्रस्त हो जानेपर क्या कार्य हो जायगा, यह मैं नहीं जानता । मूर्ख मनुष्य केवल मधु देखता है, किंतु उसके पास ही विद्यमान [गहरे] प्रपातकी ओर नहीं निहारता । वह निन्दनीय कर्म करता रहता है और नरकसे नहीं डरता ॥ ४६-४९ ॥
करोति निन्दितं कर्म नरकान्न बिभेति च । कथं युद्धं पुरा वृत्तं विस्तरात्तद्वदस्व मे ॥ ५० ॥ प्रह्लादेन यथा चोग्रं नरनारायणस्य वै । प्रह्लादस्तु कथं यातः पातालात्तद्वदस्व मे ॥ ५१ ॥ सारस्वते महातीर्थे पुण्ये बदरिकाश्रमे । नरनारायणौ शान्तौ तापसौ मुनिसत्तमौ ॥ ५२ ॥ कृतवन्तौ तथा युद्धं हेतुना केन मानद ।
[हे मुने !] अब आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बताइये कि पूर्वकालमें प्रहादके साथ नरनारायणका घोर युद्ध क्यों हुआ था ? प्रह्लाद पाताललोकसे सारस्वत महातीर्थ पवित्र बदरिकाश्रममें कैसे पहुँचे, यह भी मुझे बताइये । शान्त स्वभाववाले मुनिश्रेष्ठ नर-नारायण तो महान तपस्वी थे तब हे मानद ! उन दोनोंने प्रह्लादके साथ युद्ध किस कारणसे किया ? ॥ ५०-५२.५ ॥
प्रायः धन अथवा स्त्रीके लिये लोगोंमें परस्पर शत्रुता होती है । तब हर प्रकारकी इच्छाओंसे रहित उन दोनोंने वह भीषण युद्ध क्यों किया और उन नरनारायणको सनातन देवता जानते हुए भी महात्मा प्रह्लादने उनके साथ युद्ध क्यों किया ? हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तारपूर्वक इसका कारण सुनना चाहता हूँ ॥ ५३-५५ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे अहङ्कारावर्तनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥