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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

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अहङ्कारावर्तनवर्णनम् -
अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना -


व्यास उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तासां धर्मपुत्रः प्रतापवान् ।
विमर्शमकरोच्चित्ते किं कर्तव्यं मयाधुना ॥ १ ॥
हास्योऽहं मुनिवृन्देषु भविष्याम्यद्य सङ्गमात् ।
अहंकारादिदं प्राप्तं दुःखं नात्र विचारणा ।
मूलं धर्मविनाशस्य प्रथमं यदहङ्कृतिः ॥ २ ॥
मूलं संसारवृक्षस्य यतः प्रोक्तो महात्मभिः ।
व्यासजी बोले-उन देवांगनाओंका वचन सुनकर धर्मपुत्र प्रतापी नारायण अपने मनमें विचार करने लगे कि इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं इस समय विषयभोगमें लिप्त होता हूँ तो मुनिसमुदायमें उपहासका पात्र बनूँगा । अहंकारसे ही मुझे यह दुःख प्राप्त हुआ है । इसमें कोई संशय नहीं । धर्मके विनाशका मूल तथा प्रधान कारण अहंकार है । अतः महात्माओंने उसे संसाररूपी वृक्षका मूल कहा है ॥ १-२.५ ॥

दृष्ट्वा मौनं समाधाय न स्थितोऽहं समागतम् ॥ ३ ॥
वाराङ्गनागणं जुष्टं तेनासं दुःखभाजनम् ।
उत्पादितास्तथा नार्यो मया धर्मव्ययेन वै ॥ ४ ॥
तास्तु मां बाधितुं वृत्ताः कामार्ताः प्रमदोत्तमाः ।
ऊर्णनाभिरिवाद्याहं जालेन स्वकृतेन वै ॥ ५ ॥
बद्धोऽस्मि सुदृढेनात्र किं कर्तव्यमतः परम् ।
यदि चिन्तां समुत्सृज्य सन्त्यजाम्यबला इमाः ॥ ६ ॥
शप्त्वा भ्रष्टा व्रजिष्यन्ति सर्वा भग्नमनोरथाः ।
मुक्तोऽहं सञ्चरिष्यामि विजने परमं तपः ॥ ७ ॥
तस्मात्क्रोधं समुत्पाद्य त्यक्ष्यामि सुन्दरीगणम् ।
इन वारांगनाओंके समूहको आया हुआ देखकर मैं मौन धारणकर स्थित नहीं रह सका और प्रसन्नतापूर्वक मैंने इनसे वार्तालाप किया, इसीलिये मैं दुःखका भाजन हुआ । अपने धर्मका व्यय करके मैंने उन उर्वशी आदि स्त्रियोंकी व्यर्थ रचना की । ये कामात अप्सराएँ मेरी तपस्या विघ्न डालनेमें प्रवृत्त हैं । मकड़ियोंके द्वारा बनाये गये जालकी भाँति अब अपने ही द्वारा उत्पादित सुदृढ़ जालमें मैं बुरी तरह फंस गया हूँ, अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि चिन्ता छोड़कर इन स्त्रियोंको अस्वीकार कर देता हूँ तो अपना मनोरथ निष्फल हुआ पाकर ये भ्रष्ट स्त्रियाँ मुझे शाप देकर चली जायेंगी । तब इनसे छुटकारा पाकर मैं निर्जन स्थानमें कठोर तप करूँगा । अतएव क्रोध उत्पन्न करके मैं इनका परित्याग कर दूंगा ॥ ३-७.५ ॥

व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्य मनसा मुनिर्नारायणस्तदा ॥ ८ ॥
विमर्शमकरोच्चित्ते सुखोत्पादनसाधने ।
द्वितीयोऽयं महाशत्रुः क्रोधः सन्तापकारकः ॥ ९ ॥
कामादप्यधिको लोके लोभादपि च दारुणः ।
क्रोधाभिभूतः कुरुते हिंसां प्राणविघातिनीम् ॥ १० ॥
दुःखदां सर्वभूतानां नरकारामदीर्घिकाम् ।
यथाग्निर्घर्षणाज्जातः पादपं प्रदहेत्तथा ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-मुनि नारायणने ऐसा निश्चय करके अपने मनमें विचार किया कि सुख प्राप्तिके समस्त साधनोंमें [अहंकारके बाद] यह क्रोध दूसरा प्रबल शत्रु है, जो अत्यन्त कष्ट प्रदान करता है । यह क्रोध संसारमें काम तथा लोभसे भी अधिक भयंकर है । क्रोधके वशीभूत प्राणी प्राणघातक हिंसातक कर डालता है, जो (हिंसा) सभी प्राणियोंके लिये दुःखदायिनी तथा नरकरूपी बगीचेकी बावलीके तुल्य है । जिस प्रकार वृक्षोंके परस्पर घर्षणसे उत्पन्न अग्नि वृक्षको ही जला डालती है, उसी प्रकार शरीरसे उत्पन्न भीषण क्रोध उसी शरीरको जला डालता है ॥ ८-११ ॥

देहोत्पन्नस्तथा क्रोधो देहं दहति दारुणः ।
व्यास उवाच
इति सञ्चिन्त्यमानं तं भ्रातरं दीनमानसम् ॥ १२ ॥
उवाच वचनं तथ्यं नरो धर्मसुतोऽनुजः ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार खिन्नमनस्क होकर चिन्तन करते हुए अपने भाई नारायणसे उनके लघु भ्राता धर्मपुत्र नरने यह तथ्यपूर्ण वचन कहा ॥ १२.५ ॥

नर उवाच
नारायण महाभाग कोपं यच्छ महामते ॥ १३ ॥
शान्तं भावं समाश्रित्य नाशयाहङ्कृतिं पराम् ।
पुराहङ्कारदोषेण तपो नष्टं किलावयोः ॥ १४ ॥
नर बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! हे महामते ! आप क्रोधका त्याग कीजिये और शान्तभावका आश्रय लेकर इस प्रबल अहंकारका नाश कीजिये; क्योंकि पूर्व समयमें इसी अहंकारके दोषसे हम दोनोंका तप विनष्ट हो गया था ॥ १३-१४ ॥

संग्रामश्चाभवत्ताभ्यां भावाभ्यामसुरेण ह ।
दिव्यवर्षसहस्रं तु प्रह्लादेन महाद्‌भुतम् ॥ १५ ॥
दुःखं बहुतरं प्राप्तं तत्रावाभ्यां सुरोत्तम ।
तस्मात्क्रोधं परित्यज्य शान्तो भव मुनीश्वर ॥ १६ ॥
अहंकार तथा क्रोध-इन्हीं दोनों भावोंके कारण हमलोगोंको असुरराज प्रह्लादके साथ एक हजार दिव्य वर्षातक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करना पड़ा था । हे सुरश्रेष्ठ ! उस युद्ध में हम दोनोंको महान् क्लेश मिला था । अतएव हे मुनीश्वर ! आप क्रोधका परित्याग करके शान्त हो जाइये (मुनियोंने शान्तिको तपस्याका मूल बतलाया है । ) ॥ १५-१६ ॥

( शान्तत्वं तपसो मूलं मुनिभिः परिकीर्तितम् ।) ॥
व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा शान्तोऽभूद्धर्मनन्दनः ।
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनकर धर्मपुत्र नारायण शान्त हो गये ॥ १६.५ ॥

जनमेजय उवाच
संशयोऽयं मुनिश्रेष्ठ प्रह्लादेन महात्मना ॥ १७ ॥
विष्णुभक्तेन शान्तेन कथं युद्धं कृतं पुरा ।
कृतवन्तौ कथं युद्धं नरनारायणावृषी ॥ १८ ॥
जनमेजय बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे मनमें यह सन्देह उत्पन्न हो गया है कि शान्त स्वभाववाले विष्णुभक्त महात्मा प्रह्लादने पूर्वकालमें यह युद्ध क्यों किया और ऋषि नर-नारायणने भी संग्राम क्यों किया ? ॥ १७-१८ ॥

तापसौ धर्मपुत्रौ द्वौ सुशान्तमानसावुभौ ।
समागमः कथं जातस्तयोर्दैत्यसुतस्य च ॥ १९ ॥
धर्मपुत्र नर-नारायण-ये दोनों ही अत्यन्त शान्त स्वभाववाले तपस्वी थे । ऐसी स्थितिमें दैत्यपुत्र प्रह्लाद तथा उन दोनों ऋषियोंका सम्पर्क कैसे हुआ ? ॥ १९ ॥

संग्रामस्तु कथं ताभ्यां कृतस्तेन महात्मना ।
प्रह्लादोऽप्यतिधर्मात्मा ज्ञानवान्विष्णुतत्परः ॥ २० ॥
प्रह्लाद भी अत्यन्त धर्मपरायण, ज्ञानसम्पन्न तथा विष्णुभक्त थे, तब महात्मा प्रह्लादने उन ऋषियोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ॥ २० ॥

नरनारायणौ तद्वत्तापसौ सत्त्वसंस्थितौ ।
तेन ताभ्यां समुद्‌भूतं वैरं यदि परस्परम् ॥ २१ ॥
तदा तपसि धर्मे च श्रम एव हि केवलम् ।
क्व जपः क्व तपश्चर्या पुरा सत्ययुगेऽपि च ॥ २२ ॥
तपस्वी नर-नारायण भी प्रह्लादकी ही भाँति सात्त्विक भावसे सम्पन्न थे । उन दोनों ऋषियों तथा प्रह्लादमें यदि परस्पर वैर उत्पन्न हो गया तो फिर उनकी तपस्या तथा धर्माचरणके पालनमें केवल परिश्रम ही उनके हाथ लगा । उस सत्ययुगमें भी उनके जप तथा घोर तप कहाँ चले गये थे ? ॥ २१-२२ ॥

तादृशैर्न जितं चित्तं क्रोधाहङ्कारसंवृतम् ।
न क्रोधो न च मात्सर्यमहङ्कारांकुरं विना ॥ २३ ॥
अहङ्कारात्समुत्पन्नाः कामक्रोधादयः किल ।
वर्षकोटिसहस्रं तु तपः कृत्वातिदारुणम् ॥ २४ ॥
अहङ्कारांकुरे जाते व्यर्थं भवति सर्वथा ।
यथा सूर्योदये जाते तमोरूपं न तिष्ठति ॥ २५ ॥
अहङ्कारांकुरस्याग्रे तथा पुण्यं न तिष्ठति ।
वैसे वे महात्मा भी क्रोध और अहंकारसे भरे अपने मनको वशमें नहीं कर सके । अहंकाररूपी बीजके अंकुरित हुए बिना क्रोध तथा मात्सर्य उत्पन्न नहीं होते हैं । यह निश्चित है कि काम-क्रोध आदि अहंकारसे ही उत्पन्न होते हैं । हजार करोड वर्षोंतक घोर तपस्या करनेके पश्चात् भी यदि अहंकारका अंकुरण हुआ तो फिर सब कुछ निरर्थक हो जाता है । जिस प्रकार सूर्योदय होनेपर अन्धकार नहीं ठहरता, उसी प्रकार अहंकाररूपी अंकुरके समक्ष पुण्य नहीं ठहर पाता है ॥ २३-२५.५ ॥

प्रह्लादोऽपि महाभाग हरिणा समयुध्यत ॥ २६ ॥
तदा व्यर्थं कृतं सर्वं सुकृतं किल भूतले ।
हे महाभाग ! प्रह्लादने भी भगवान् नर-नारायणके साथ संग्राम किया, जिसके कारण पृथ्वीपर उनके द्वारा अर्जित समस्त पुण्य व्यर्थ हो गया ॥ २६.५ ॥

नरनारायणौ शान्तौ विहाय परमं तपः ॥ २७ ॥
कृतवन्तौ यदा युद्धं क्व शमः सुकृतं पुनः ।
शान्त स्वभाववाले नर-नारायण भी अपनी कठिन तपस्या त्यागकर यदि युद्ध करनेमें तत्पर हुए तो फिर उनकी शान्तिवत्ति तथा पण्यशीलताका क्या महत्त्व रहा ? ॥ २७.५ ॥

ईदृग्भ्यां सत्त्वयुक्ताभ्यामजेया यद्यहङ्कृतिः ॥ २८ ॥
मादृशानाञ्ज का वार्ता मुनेऽहङ्कारसंक्षये ।
अहङ्कारपरित्यक्तो न कोऽप्यस्ति जगत्त्रये ॥ २९ ॥
न भूतो भविता नैव यस्त्यक्तस्तेन सर्वथा ।
हे मुने ! जब सात्त्विक भावोंसे सम्पन्न इस प्रकारके वे दोनों महात्मा भी अहंकारपर विजय प्राप्त करने में असमर्थ रहे, तब मेरे-जैसे व्यक्तियोंके लिये अहंकार नष्ट करनेकी बात ही क्या है ? इस त्रिलोकमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है जो अहंकारसे मुक्त हो, इसी तरह ऐसा कोई भी न तो हुआ है और न होगा, जो अहंकारसे पूर्णतया मुक्त हो ॥ २८-२९.५ ॥

मुच्यते लोहनिगडैर्बद्धः काष्ठमयैस्तथा ॥ ३० ॥
अहङ्कारनिबद्धस्तु न कदाचिद्विमुच्यते ।
अहङ्कारावृतं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ३१ ॥
काष्ठ तथा लोहेकी जंजीरमें बँधा हुआ व्यक्ति बन्धनमुक्त हो सकता है, किंतु अहंकारसे बँधा व्यक्ति कभी भी नहीं छूट सकता । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् अहंकारसे व्याप्त है ॥ ३०-३१ ॥

भ्रमत्येव हि संसारे विष्ठामूत्रप्रदूषिते ।
ब्रह्मज्ञानं कुतस्तावत्संसारे मोहसंवृते ॥ ३२ ॥
अहंकारी मनुष्य मल-मूत्रसे प्रदूषित इस संसार में चक्कर काटता रहता है, तो फिर इस मोहाच्छन्न संसारमें ब्रह्मज्ञानकी कल्पना ही कहाँ रह गयी ? ॥ ३२ ॥

मतं मीमांसकानां वै सम्मतं भाति सुव्रत ।
महान्तोऽपि सदा युक्ताः कामक्रोधादिभिर्मुने ॥ ३३ ॥
मादृशानां कलावस्मिन्का कथा मुनिसत्तम ।
हे सुव्रत ! मुझे तो मीमांसकोंका कर्म-सिद्धान्त ही उचित प्रतीत होता है । हे मुने ! जब महान्-सेमहान् लोग भी काम, क्रोध आदिसे सदा ग्रस्त रहते हैं, तब हे मुनिश्रेष्ठ ! इस कलियुगमें मुझ-जैसे लोगोंकी बात ही क्या ? ॥ ३३.५ ॥

व्यास उवाच
कार्यं वै कारणाद्‌भिन्नं कथं भवति भारत ॥ ३४ ॥
कटकं कुण्डलञ्चैव सुवर्णसदृशं भवेत् ।
अहङ्कारोद्‌भवं सर्वं ब्रह्माण्डं सचराचरम् ॥ ३५ ॥
पटस्तन्तुवशः प्रोक्तस्तद्वियुक्तः कथं भवेत् ।
मायागुणैस्त्रिभिः सर्वं रचितं स्थिरजङ्गमम् ॥ ३६ ॥
सतृणस्तम्बपर्यन्तं का तत्र परिदेवना ।
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रस्ते चाहङ्कारमोहिताः ॥ ३७ ॥
भ्रमन्त्यस्मिन्महागाधे संसारे नृपसत्तम ।
वसिष्ठनारदाद्याश्च मुनयो ज्ञानिनः परम् ॥ ३८ ॥
तेऽभिभूताः संसरन्ति संसारेऽस्मिन्पुनः पुनः ।
न कोऽप्यस्ति नृपश्रेष्ठ त्रिषु लोकेषु देहभृत् ॥ ३९ ॥
एभिर्मायागुणैर्मुक्तः शान्त आत्मसुखे स्थितः ।
कामक्रोधौ तथा लोभो मोहोऽहङ्कारसम्भवः ॥ ४० ॥
न मुञ्चन्ति नरं सर्वं देहवन्तं नृपोत्तम ।
व्यासजी बोले-हे भारत (जनमेजय) ! कारणसे कार्य भिन्न कैसे हो सकता है ? कड़ा तथा कुण्डल आकारमें भिन्न होते हुए भी स्वर्णके सदृश होते हैं । चराचरसहित समस्त ब्रह्माण्ड अहंकारसे उत्पन्न हुआ है । [धागेसे निर्मित होनेके कारण] वस्त्र उसके अधीन कहा गया है, अतएव वस्त्ररूपी कार्य तन्तुरूपी कारणसे पृथक् कैसे रह सकता है ? जब मायाके तीनों गुणोंद्वारा ही तिनकेसे लेकर पर्वततक स्थावर-जंगमात्मक यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विरचित है, तब सृष्टिके विषयमें खेद किस बातका ? हे नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव भी अहंकारसे मोहित होकर इस अत्यन्त अगाध संसारमें भ्रमण करते रहते हैं । वसिष्ठ, नारद आदि परम ज्ञानी मुनिगण भी अहंकारके वशवर्ती होकर इस संसारमें बार-बार आते-जाते रहते हैं । हे नृपश्रेष्ठ ! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई भी देहधारी नहीं है जो मायाके इन गुणोंसे मुक्त होकर शान्ति धारण करता हुआ आत्मसुखका अनुभव कर सके । हे नृपश्रेष्ठ ! अहंकारसे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ तथा मोह किसी भी देहधारी प्राणीको नहीं छोड़ते ॥ ३४-४०.५ ॥

अधीत्य वेदशास्त्राणि पुराणानि विचिन्त्य च ॥ ४१ ॥
कृत्वा तीर्थाटनं दानं ध्यानञ्चैव सुरार्चनम् ।
करोति विषयासक्तः सर्वं कर्म च चौरवत् ॥ ४२ ॥
विचारयति नो पूर्वं काममोहमदान्वितः ।
वेद-शास्त्रोंका अध्ययन, पुराणोंका पर्यालोचन, तीर्थभ्रमण, दान, ध्यान तथा देव-पूजन करके भी विषयासक्त प्राणी चोरोंकी भाँति सभी कर्म करता रहता है । काम, मोह और मदसे युक्त होनेके कारण प्राणी आरम्भमें कुछ विचार ही नहीं करता ॥ ४१-४२.५ ॥

कृते युगेऽपि त्रेतायां द्वापरे कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥
विद्धोऽत्रास्ति च धर्मोऽपि का कथाद्य कलौ पुनः ।
स्पर्धा सदैव सद्रोहा लोभामर्षौ च सर्वदा ॥ ४४ ॥
एवंविधोऽस्ति संसारो नात्र कार्या विचारणा ।
साधवो विरला लोके भवन्ति गतमत्सराः ॥ ४५ ॥
जितक्रोधा जितामर्षा दृष्टान्तार्थं व्यवस्थिताः ।
हे कुरुनन्दन ! सत्ययुग, त्रेता तथा द्वापरमें भी धर्मका विरोध किया गया था, तो आज कलियुगमें उसकी बात ही क्या ! इसमें तो द्रोह, स्पर्धा, लोभ तथा क्रोध सर्वदा ही विद्यमान हैं । संसार ऐसे ही स्वभाववाला है; इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये । संसारमें मत्सरहीन साधु पुरुष विरले ही होते हैं । क्रोध तथा ईर्ष्यापर विजय प्राप्त कर लेनेवाले तो दृष्टान्तमात्रके लिये मिलते हैं ॥ ४३-४५.५ ॥

राजोवाच
ते धन्याः कृतपुण्यास्ते मदमोहविवर्जिताः ॥ ४६ ॥
जितेन्द्रियाः सदाचारा जितं तैर्भुवनत्रयम् ।
दुनोमि पातकं स्मृत्वा पितुर्मम महात्मनः ॥ ४७ ॥
कृतस्तपस्विनः कण्ठे मृतसर्पो ह्यघं विना ।
अतस्तस्य मुनिश्रेष्ठ भविता किं ममाग्रतः ॥ ४८ ॥
न जाने बुद्धिसम्मोहात्किं वा कार्यं भविष्यति ।
मधु पश्यति मूढात्मा प्रपातं नैव पश्यति ॥ ४९ ॥
राजा बोले-वे लोग धन्य तथा पुण्यात्मा हैं, जिन्होंने मद तथा मोहसे छुटकारा प्राप्त कर लिया है । जो सदाचारपरायण तथा जितेन्द्रिय हैं, उन्होंने मानो तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त कर ली है । अपने महात्मा पिताके पापका स्मरण करके मैं दुःखित रहता हूँ । उन्होंने बिना किसी अपराधके एक तपस्वीके गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया । अतः हे मुनिवर ! अब मेरे आगे उनकी क्या गति होगी ? बुद्धिके मोहग्रस्त हो जानेपर क्या कार्य हो जायगा, यह मैं नहीं जानता । मूर्ख मनुष्य केवल मधु देखता है, किंतु उसके पास ही विद्यमान [गहरे] प्रपातकी ओर नहीं निहारता । वह निन्दनीय कर्म करता रहता है और नरकसे नहीं डरता ॥ ४६-४९ ॥

करोति निन्दितं कर्म नरकान्न बिभेति च ।
कथं युद्धं पुरा वृत्तं विस्तरात्तद्वदस्व मे ॥ ५० ॥
प्रह्लादेन यथा चोग्रं नरनारायणस्य वै ।
प्रह्लादस्तु कथं यातः पातालात्तद्वदस्व मे ॥ ५१ ॥
सारस्वते महातीर्थे पुण्ये बदरिकाश्रमे ।
नरनारायणौ शान्तौ तापसौ मुनिसत्तमौ ॥ ५२ ॥
कृतवन्तौ तथा युद्धं हेतुना केन मानद ।
[हे मुने !] अब आप मुझे विस्तारपूर्वक यह बताइये कि पूर्वकालमें प्रहादके साथ नरनारायणका घोर युद्ध क्यों हुआ था ? प्रह्लाद पाताललोकसे सारस्वत महातीर्थ पवित्र बदरिकाश्रममें कैसे पहुँचे, यह भी मुझे बताइये । शान्त स्वभाववाले मुनिश्रेष्ठ नर-नारायण तो महान तपस्वी थे तब हे मानद ! उन दोनोंने प्रह्लादके साथ युद्ध किस कारणसे किया ? ॥ ५०-५२.५ ॥

वैरं भवति वित्तार्थं दारार्थं वा परस्परम् ॥ ५३ ॥
एषणारहितौ कस्माच्चक्रतुः प्रधनं महत् ।
प्रह्लादोऽपि च धर्मात्मा ज्ञात्वा देवौ सनातनौ ॥ ५४ ॥
कृतवान्स कथं युद्धं नरनारायणौ मुनी ।
एतद्विस्तरतो ब्रह्मञ्छ्रोतुमिच्छामि कारणम् ॥ ५५ ॥
प्रायः धन अथवा स्त्रीके लिये लोगोंमें परस्पर शत्रुता होती है । तब हर प्रकारकी इच्छाओंसे रहित उन दोनोंने वह भीषण युद्ध क्यों किया और उन नरनारायणको सनातन देवता जानते हुए भी महात्मा प्रह्लादने उनके साथ युद्ध क्यों किया ? हे ब्रह्मन् ! मैं विस्तारपूर्वक इसका कारण सुनना चाहता हूँ ॥ ५३-५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे अहङ्कारावर्तनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
अध्याय सातवाँ समाप्त ॥ ७ ॥


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