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प्रह्लादनारायणयोर्युद्धे विष्णोरागमनवर्णनम् -
प्रल्हादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रल्हादको नर-नारायणका परिचय देना -
व्यास उवाच कुर्वंस्तीर्थविधिं तत्र हिरण्यकशिपोः सुतः । न्यग्रोधं सुमहच्छायमपश्यत्पुरतस्तदा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् !] इस प्रकार तीर्थके कृत्य सम्पन्न करते हुए हिरण्यकशिपुपुत्र प्रहादको अपने समक्ष एक विशाल छायासम्पन्न वटवृक्ष दिखायी पड़ा ॥ १ ॥
ददर्श बाणानपरान्नानाजातीयकांस्तदा । गृध्रपक्षयुतांस्तीव्राच्छिलाधौतान्महोज्वलान् ॥ २ ॥
वहाँपर प्रहादने गीधोंके पंखोंसे सुसज्जित, नुकीले तथा शिलापर घर्षित करके अत्यन्त दीप्त एवं उज्ज्वल बनाये गये अनेक प्रकारके बाण देखे ॥ २ ॥
उन महाभाग धर्मपुत्र नर-नारायण ऋषियोंको उस समय ध्यानावस्थित देखकर क्रोधसे लाल आँखें किये हुए दैत्याधिपति असुररक्षक प्रहादने उनसे कहा-आप दोनोंने धर्मको नष्ट करनेवाला यह कैसा पाखण्ड कर रखा है ? ॥ ६-७ ॥
न श्रुतं नैव दृष्टं हि संसारेऽस्मिन्कदापि हि । तपसश्चरणं तीव्रं तथा चापस्य धारणम् ॥ ८ ॥
इस प्रकारकी घोर तपस्या तथा धनुष-धारण करना-ऐसा तो इस संसारमें न कभी सुना गया और न देखा ही गया ॥ ८ ॥
विरोधोऽयं युगे चाद्ये कथं युक्तं कलिप्रियम् । ब्राह्मणस्य तपो युक्तं तत्र किं चापधारणम् ॥ ९ ॥
ये तो परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं । कलियुगके लिये प्रिय यह विरोधभाव भला सत्ययुगमें किस प्रकार उचित है ? ब्राह्मणके लिये तो तपश्चरण ही उचित है, उन्हें धनुष-धारण करनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ९ ॥
क्व जटाधारणं देहे क्वेषुधी च विडम्बनौ । धर्मस्याचरणं युक्तं युवयोर्दिव्यभावयोः ॥ १० ॥
कहाँ तो मस्तकपर जटा धारण करना और कहाँ यह तरकस रखना-ये दोनों बातें आडम्बरमात्र हैं । दिव्य भावनावाले आप दोनोंके लिये धर्मका आचरण ही उचित है ॥ १० ॥
व्यास उवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा नरः प्रोवाच भारत । का ते चिन्तात्र दैत्येन्द्र वृथा तपसि चावयोः ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-हे भारत ! प्रहादका यह वचन सुनकर मुनिवर नरने कहा-हे दैत्येन्द्र ! हम दोनोंकी तपस्याके विषयमें आप यह व्यर्थ चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥
सामर्थ्ये सति यत्कुर्यात्तत्संपद्येत तस्य हि । आवां कार्यद्वये मन्द समर्थौ लोकविश्रुतौ ॥ १२ ॥
सामर्थ्यसम्पन्न हो जानेपर व्यक्ति जो कुछ करता है, उसका वह सब कुछ पूर्ण हो जाता है । हे मन्दबुद्धि ! हम इन दोनों प्रकारके कार्योंको [एक साथ] करनेमें समर्थ हैं; इसके लिये हम लोकमें प्रसिद्ध हैं ॥ १२ ॥
युद्धे तपसि सामर्थ्यं त्वं पुनः किं करिष्यसि । गच्छ मार्गे यथाकामं कस्मादत्र विकत्थसे ॥ १३ ॥
युद्ध तथा तपस्या दोनोंमें हम समान रूपसे समर्थ हैं । फिर इस विषयमें आप पूछकर क्या करेंगे ? आप इच्छानुसार अपने रास्ते चले जाइये, यहाँ व्यर्थकी बात क्यों कर रहे हैं ? ॥ १३ ॥
ब्रह्मतेजो दुराराध्यं न त्वं वेद विमोहितः । विप्रचर्चा न कर्तव्या प्राणिभिः सुखमीप्सुभिः ॥ १४ ॥
मोहग्रस्त होनेके कारण आप अत्यन्त कठिनतासे प्राप्त किये जानेवाले ब्रह्मतेजको नहीं जानते । सुखकी कामना करनेवाले प्राणियोंको ब्राह्मणोंसे बहस नहीं करनी चाहिये ॥ १४ ॥
प्रह्लाद उवाच तापसौ मन्दबुद्धी स्थो मृषा वां गर्वमोहितौ । मयि तिष्ठति दैत्येन्द्रे धर्मसेतुप्रवर्तके ॥ १५ ॥ न युक्तमेतत्तीर्थेऽस्मिन्नधर्माचरणं पुनः । का शक्तिस्तव युद्धेऽस्ति दर्शयाद्य तपोधन ॥ १६ ॥
प्रह्लाद बोले-आप दोनों तपस्वी मन्द बुद्धिवाले हैं और व्यर्थ ही अहंकारके वशवर्ती हो गये हैं । धर्मसेतुका प्रवर्तन करनेवाले मुझ दैत्येन्द्र प्रह्लादके रहते इस पवित्र तीर्थमें इस प्रकारका अधर्मपूर्ण आचरण उचित नहीं है । हे तपोधन ! आपमें कितनी शक्ति है, इसे युद्धमें अभी प्रदर्शित कीजिये ॥ १५-१६ ॥
व्यास उवाच तदाकर्ण्य वचस्तस्य नरस्तं प्रत्युवाच ह । युद्धस्वाद्य मया सार्धं यदि ते मतिरीदृशी ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-तब प्रह्लादका वचन सुनकर ऋषि नरने उनसे कहा-यदि आपकी ऐसी ही धारणा है तो मेरे साथ इसी समय युद्ध कर लीजिये । हे असुराधम ! आज मैं तुम्हारा सिर विदीर्ण कर डालूँगा (इसके बाद युद्ध करनेकी तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होगी) ॥ १७ ॥
अद्य ते स्फोटयिष्यामि मूर्धानमसुराधम । ( युद्धे श्रद्धा न ते पश्चाद्भविष्यति कदाचन ।) ॥ व्यास उवाच तन्निशम्य वचस्तस्य दैत्येन्द्रः कुपितस्तदा ॥ १८ ॥ प्रह्लादो बलवानत्र प्रतिज्ञामारुरोह सः । येन केनाप्युपायेन जेष्यामि तावुभावपि ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-तब ऋषि नरका वचन सुनकर दैत्यपति प्रह्लाद कुपित हो उठे । बलशाली उन प्रह्लादने प्रतिज्ञा की कि जिस किसी भी उपायसे मैं इन दोनों जितेन्द्रिय तथा परम तपस्वी नर-नारायण ऋषियोंको जीतकर रहूँगा ॥ १८-१९ ॥
नरनारायणौ दान्तावृषी तपिसमन्वितौ । व्यास उवाच इत्युक्त्वा वचनं दैत्यः प्रतिगृह्य शरासनम् ॥ २० ॥ आकृष्य तरसा चापं ज्याशब्दञ्च चकार ह । नरोऽपि धनुरादाय शरांस्तीव्राञ्छिलाशितान् ॥ २१ ॥ मुमोच बहुशः कोधात्प्रह्लादोपरि पार्थिव ॥ २२ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा वचन बोलकर दैत्य प्रहादने धनुष उठाकर और शीघ्रतापूर्वक उसे खींचकर प्रत्यंचाकी टंकार की । हे राजन् ! मुनि नरने भी धनुष लेकर शिलापर घिसकर तेज किये हुए अनेक तीक्ष्ण वाण प्रह्लादके ऊपर क्रोधपूर्वक छोड़े ॥ २०-२२ ॥
दैत्यराज प्रह्लादने अपने सुनहले पंखोंवाले बाणोंसे शीघ्र ही उन बाणोंको आते ही काट डाला । तब नर अपने द्वारा छोड़े गये बाणोंको प्रहादद्वारा छिन्न किया गया देखकर अत्यन्त कोपाविष्ट हो शीघ्रतासे उनपर अन्य बाणोंसे प्रहार करने लगे ॥ २३ ॥
दैत्यपति प्रहादने उन बाणोंको भी अपने द्रुतगामी बाणोंसे काटकर उन मुनिराज नरके वक्षःस्थलपर प्रहार किया । नरने भी क्रुद्ध होकर अपने तीव्रगामी पाँच बाणोंसे दैत्येन्द्र प्रह्लादके बाहुदेशपर प्रहार किया ॥ २४ ॥
सेन्द्राः सुरास्तत्र तयोर्हि युद्धं द्रष्टुं विमानैर्गगनस्थिताश्च । नरस्य वीर्यं युधि संस्थितस्य ते तुष्टुवुर्दैत्यपतेश्च भूयः ॥ २५ ॥
इन्द्रसहित सभी देवगण उन दोनोंका युद्ध देखनेके लिये विमानोंमें बैठकर आकाशमण्डलमें स्थित हो गये । वे कभी समरांगणमें विराजमान नरके पराक्रमकी प्रशंसा करते थे और फिर कभी दैत्यपति प्रह्लादके पराक्रमको प्रशंसा करने लगते थे ॥ २५ ॥
धनुष धारण किये हुए दैत्यराज प्रह्लाद इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे थे, मानो मेघ जल बरसा रहे हों । [ऋषि नर भी अपना] अप्रतिम शार्ज धनुष लेकर तीक्ष्ण तथा सुनहले पंखवाले बाण छोड़ रहे थे ॥ २६ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार एक-दूसरेको जीतनेके इच्छुक उन ऋषि नर तथा दैत्यराज प्रह्लादके बीच भीषण युद्ध होने लगा । आकाशमार्गमें स्थित वे [देवतागण] प्रसन्नचित्त होकर उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ २७ ॥
चुकोप दैत्याधिपतिर्हरौ स मुमोच बाणानतितीव्रवेगान् । चिच्छेद तान्धर्मसुतः सुतीक्ष्णै- र्धनुर्विमुक्तैर्विशिखैस्तदाऽऽशु ॥ २८ ॥
अचानक प्रह्लाद कुपित हो उठे और उन्होंने अति तीव्रगामी बाण ऋषि नारायणपर छोड़े । धर्मपुत्र नारायणने शीघ्र ही उन बाणोंको अपने धनुषसे छोड़े गये अत्यन्त तीक्ष्ण बापोंसे खण्ड-खण्ड कर डाला ॥ २८ ॥
दैत्यराज प्रह्लाद समरांगणमें डटकर खड़े अतीव पराक्रमी तथा सनातन धर्मपुत्र नारायणपर अपने अति तीक्ष्ण बाण बरसाने लगे । नारायणने भी सानपर चढ़ाकर तेज किये गये अपने वेगपूर्वक छोड़े गये बाणोंके द्वारा सम्मुख खड़े दैत्यपति प्रह्लादको अत्यन्त भीषण चोट पहुँचायी । उस युद्धका अवलोकन करनेके इच्छुक देवताओं तथा दैत्योंका एक विशाल समूह अपने-अपने पक्षका जयघोष करते हुए आकाशमें एकत्र हो गया ॥ २९-३० ॥
दोनों पक्षोंकी बाणवर्षासे आकाशके आच्छादित हो जानेपर उस समय इतना घना अन्धकार हो गया कि दिन भी रातके समान प्रतीत होने लगा । इससे अति आश्चर्यचकित होकर देवता तथा दैत्य परस्पर कहने लगे कि यह अत्यन्त भयावह संग्राम हो रहा है । ऐसा भीषण युद्ध तो पहले कभी नहीं देखा गया । बड़े-बड़े देवर्षि, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, विद्याधर तथा चारणगण इस युद्धको देखकर अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये ॥ ३१-३३.५ ॥
उस युद्धका अवलोकन करनेके लिये मनि नारद तथा पर्वत भी आये हुए थे । नारदमुनिने पर्वतसे कहा-ऐसा घोर संग्राम पहले नहीं हुआ था; तारकासुरयुद्ध, वृत्रासुरका युद्ध यहाँतक कि मधुकैटभका युद्ध भी वैसा नहीं हुआ था, जैसा कि इस समय नारायणके द्वारा किया गया । प्रह्लाद अत्यन्त वीर हैं जो कि वे अद्भत कर्मवाले सिद्धिसम्पन्न नारायणके साथ यह बराबरीका युद्ध कर रहे हैं ॥ ३४-३६ ॥
करोति सदृशं युद्धं सिद्धेनाद्भुतकर्मणा । व्यास उवाच दिने दिने तथा रात्रौ कृत्वा कृत्वा पुनः पुनः ॥ ३७ ॥ चक्रतुः परमं युद्धं तौ तदा दैत्यतापसौ । नारायणस्तु चिच्छेद प्रह्लादस्य शरासनम् ॥ ३८ ॥ तरसैकेन बाणेन स चान्यद्धनुराददे । नारायणस्तु तरसा मुक्त्वान्यञ्च शिलीमुखम् ॥ ३९ ॥ तदैव मध्यतश्चापं चिच्छेद लघुहस्तकः । छिन्नं छिन्नं पुनर्दैत्यो धनुरन्यत्समाददे ॥ ४० ॥ नारायणस्तु चिच्छेद विशिखैराशु कोपितः । छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रः परिघं तु समाददे ॥ ४१ ॥ जघान धर्मजं तूर्णं बाह्वोर्मध्येऽतिकोपनः ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार प्रतिदिन तथा प्रतिरात्रि बार-बार युद्ध करते हुए वे दोनों दैत्य तथा तपस्वी घोर संग्राममें तत्पर रहे । नारायणने एक बाणसे प्रह्लादका धनुष काट दिया । तब प्रह्लादने तत्काल दूसरा धनुष ले लिया । नारायणने हस्तकौशल दिखाते हुए पुन: बड़ी शीघ्रतासे दूसरा बाण चलाकर उस धनुषको भी बीचोबीचसे काट डाला । इस प्रकार नारायण बार-बार धनुष काटते जाते थे और प्रहाद दूसरा धनुष लेते जाते थे । अन्तमें नारायणने कुपित होकर अपने बाणोंसे उसके धनुषको शीघ्रतासे पुनः काट दिया । उस धनुषके भी कट जानेपर दैत्यराज प्रह्लादने अपना परिघ उठा लिया और अत्यन्त क्रोधित होकर बड़ी फुर्तीसे धर्मपुत्र नारायणकी भुजाओंपर प्रहार किया ॥ ३७-४१.५ ॥
उस गदा-प्रहारसे भी धर्मपुत्र नारायण पर्वतकी भाँत अविचल भावसे स्थिरचित्त होकर खड़े रहे । तदनन्तर परम पराक्रमी भगवान् नारायणने बड़ी तेजीसे अनेक बाण छोड़े और दैत्यपति प्रह्लादकी सुदृढ़ गदाको खण्ड-खण्ड कर दिया । आकाशमें स्थित होकर युद्ध देखनेवाले बड़े आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ४४-४५.५ ॥
तत्पश्चात् शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रह्लादने शक्ति उठाकर कुपित हो बलपूर्वक बड़ी तेजीसे नारायणके वक्षःस्थलपर प्रहार किया । तब सामने आती हुई उस शक्तिको देखकर नारायणने एक ही बाणसे बड़ी आसानीसे उसके सात खण्ड कर दिये और साथ ही सात बाणोंसे प्रह्लादपर प्रहार किया ॥ ४६-४७.५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार सबको विस्मित कर देनेवाला वह युद्ध एक सौ दिव्य वर्षतक चलता रहा । तदनन्तर चार भुजाओंसे शोभा पानेवाले पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु शीघ्रतापूर्वक उस आश्रममें आ गये । तत्पश्चात् हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले वे चतुर्भुज लक्ष्मीपति विष्णु प्रह्लादके आश्रमपर पहुँचे ॥ ४८-५० ॥
वहाँ उन्हें आये हुए देखकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रहाद बड़ी श्रद्धाके साथ उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ ५१ ॥
प्रह्लाद उवाच देवदेव जगनाथ भक्तवत्सल माधव । कथं न जितवानाजावहमेतौ तपस्विनौ । संग्रामस्तु मया देव कृतः पूर्णं शतं समाः ॥ ५२ ॥ सुराणां न जितौ कस्मादिति मे विस्मयो महान् ।
प्रहाद बोले-हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भक्तवत्सल ! हे माधव ! मैं इन दोनों तपस्वियोंको युद्धमें क्यों नहीं जीत सका ? हे देव ! मैंने देवताओंके पूरे सौ वर्षतक इनके साथ युद्ध किया, फिर भी ये जीते न जा सके-मुझे यह महान् आश्चर्य है ! ॥ ५२.५ ॥
विष्णु बोले-हे आर्य ! ये दोनों सिद्ध पुरुष हैं और मेरे अंशसे आविर्भूत हैं; अत: [इन्हें न जीत पानेमें] आश्चर्य क्या ! नर-नारायण नामसे प्रसिद्ध इन जितात्मा तपस्वियोंको तुम नहीं जीत सकते । अत: हे राजन् ! तुम अपने वितललोकको चले जाओ और वहाँ मेरी अविचल भक्ति करो । हे महामते ! तुम इन दोनों तपस्वियोंसे विरोध मत करो ॥ ५३-५४.५ ॥
व्यासजी बोले- भगवान् विष्णुसे ऐसी आज्ञा पाकर दैत्यपति प्रहाद असुरोंके साथ वहाँसे प्रस्थित हो गये । तदनन्तर नर नारायण पुनः तपस्यामें संलग्न हो गये ॥ ५५-५६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्रह्लादनारायणयोर्युद्धे विष्णोरागमनवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥