Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


प्रह्लादनारायणयोर्युद्धे विष्णोरागमनवर्णनम् -
प्रल्हादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रल्हादको नर-नारायणका परिचय देना -


व्यास उवाच
कुर्वंस्तीर्थविधिं तत्र हिरण्यकशिपोः सुतः ।
न्यग्रोधं सुमहच्छायमपश्यत्पुरतस्तदा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् !] इस प्रकार तीर्थके कृत्य सम्पन्न करते हुए हिरण्यकशिपुपुत्र प्रहादको अपने समक्ष एक विशाल छायासम्पन्न वटवृक्ष दिखायी पड़ा ॥ १ ॥

ददर्श बाणानपरान्नानाजातीयकांस्तदा ।
गृध्रपक्षयुतांस्तीव्राच्छिलाधौतान्महोज्वलान् ॥ २ ॥
वहाँपर प्रहादने गीधोंके पंखोंसे सुसज्जित, नुकीले तथा शिलापर घर्षित करके अत्यन्त दीप्त एवं उज्ज्वल बनाये गये अनेक प्रकारके बाण देखे ॥ २ ॥

चिन्तयामास मनसा कस्येमे विशिखास्त्विह ।
ऋषीणामाश्रमे पुण्ये तीर्थे परमपावने ॥ ३ ॥
उन्हें देखकर प्रह्लादने मनमें सोचा कि इस परम पवित्र तीर्थमें ऋषियोंके पुण्यमय आश्रममें ये बाण किसके हैं ? ॥ ३ ॥

एवं चिन्तयतानेन कृष्णाजिनधरौ मुनी ।
समुन्नतजटाभारौ दृष्टौ धर्मसुतौ तदा ॥ ४ ॥
इस प्रकार चिन्तन करते हुए प्रह्लादने कृष्णमृगचर्म धारण किये हुए तथा सिरपर विशाल जटाओंसे सुशोभित धर्मपुत्र नर-नारायण मुनियोंको देखा ॥ ४ ॥

तयोरग्रे धृते शुभ्रे धनुषी लक्षणान्विते ।
शार्ङ्गमाजगवञ्चैव तथाक्षय्यौ महेषुधी ॥ ५ ॥
उनके आगे धनुर्वेदोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न चमकीले शाई तथा आजगव नामक दो धनुष तथा दो अक्षय तरकस रखे हुए थे ॥ ५ ॥

ध्यानस्थौ तौ महाभागौ नरनारायणावृषी ।
दृष्ट्वा धर्मसुतौ तत्र दैत्यानामधिपस्तदा ॥ ६ ॥
क्रोधरक्तेक्षणस्तौ तु प्रोवाचासुरपालकः ।
किं भवद्‌भ्यां समारब्धो दम्भो धर्मविनाशनः ॥ ७ ॥
उन महाभाग धर्मपुत्र नर-नारायण ऋषियोंको उस समय ध्यानावस्थित देखकर क्रोधसे लाल आँखें किये हुए दैत्याधिपति असुररक्षक प्रहादने उनसे कहा-आप दोनोंने धर्मको नष्ट करनेवाला यह कैसा पाखण्ड कर रखा है ? ॥ ६-७ ॥

न श्रुतं नैव दृष्टं हि संसारेऽस्मिन्कदापि हि ।
तपसश्चरणं तीव्रं तथा चापस्य धारणम् ॥ ८ ॥
इस प्रकारकी घोर तपस्या तथा धनुष-धारण करना-ऐसा तो इस संसारमें न कभी सुना गया और न देखा ही गया ॥ ८ ॥

विरोधोऽयं युगे चाद्ये कथं युक्तं कलिप्रियम् ।
ब्राह्मणस्य तपो युक्तं तत्र किं चापधारणम् ॥ ९ ॥
ये तो परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं । कलियुगके लिये प्रिय यह विरोधभाव भला सत्ययुगमें किस प्रकार उचित है ? ब्राह्मणके लिये तो तपश्चरण ही उचित है, उन्हें धनुष-धारण करनेकी क्या आवश्यकता है ? ॥ ९ ॥

क्व जटाधारणं देहे क्वेषुधी च विडम्बनौ ।
धर्मस्याचरणं युक्तं युवयोर्दिव्यभावयोः ॥ १० ॥
कहाँ तो मस्तकपर जटा धारण करना और कहाँ यह तरकस रखना-ये दोनों बातें आडम्बरमात्र हैं । दिव्य भावनावाले आप दोनोंके लिये धर्मका आचरण ही उचित है ॥ १० ॥

व्यास उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा नरः प्रोवाच भारत ।
का ते चिन्तात्र दैत्येन्द्र वृथा तपसि चावयोः ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-हे भारत ! प्रहादका यह वचन सुनकर मुनिवर नरने कहा-हे दैत्येन्द्र ! हम दोनोंकी तपस्याके विषयमें आप यह व्यर्थ चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥

सामर्थ्ये सति यत्कुर्यात्तत्संपद्येत तस्य हि ।
आवां कार्यद्वये मन्द समर्थौ लोकविश्रुतौ ॥ १२ ॥
सामर्थ्यसम्पन्न हो जानेपर व्यक्ति जो कुछ करता है, उसका वह सब कुछ पूर्ण हो जाता है । हे मन्दबुद्धि ! हम इन दोनों प्रकारके कार्योंको [एक साथ] करनेमें समर्थ हैं; इसके लिये हम लोकमें प्रसिद्ध हैं ॥ १२ ॥

युद्धे तपसि सामर्थ्यं त्वं पुनः किं करिष्यसि ।
गच्छ मार्गे यथाकामं कस्मादत्र विकत्थसे ॥ १३ ॥
युद्ध तथा तपस्या दोनोंमें हम समान रूपसे समर्थ हैं । फिर इस विषयमें आप पूछकर क्या करेंगे ? आप इच्छानुसार अपने रास्ते चले जाइये, यहाँ व्यर्थकी बात क्यों कर रहे हैं ? ॥ १३ ॥

ब्रह्मतेजो दुराराध्यं न त्वं वेद विमोहितः ।
विप्रचर्चा न कर्तव्या प्राणिभिः सुखमीप्सुभिः ॥ १४ ॥
मोहग्रस्त होनेके कारण आप अत्यन्त कठिनतासे प्राप्त किये जानेवाले ब्रह्मतेजको नहीं जानते । सुखकी कामना करनेवाले प्राणियोंको ब्राह्मणोंसे बहस नहीं करनी चाहिये ॥ १४ ॥

प्रह्लाद उवाच
तापसौ मन्दबुद्धी स्थो मृषा वां गर्वमोहितौ ।
मयि तिष्ठति दैत्येन्द्रे धर्मसेतुप्रवर्तके ॥ १५ ॥
न युक्तमेतत्तीर्थेऽस्मिन्नधर्माचरणं पुनः ।
का शक्तिस्तव युद्धेऽस्ति दर्शयाद्य तपोधन ॥ १६ ॥
प्रह्लाद बोले-आप दोनों तपस्वी मन्द बुद्धिवाले हैं और व्यर्थ ही अहंकारके वशवर्ती हो गये हैं । धर्मसेतुका प्रवर्तन करनेवाले मुझ दैत्येन्द्र प्रह्लादके रहते इस पवित्र तीर्थमें इस प्रकारका अधर्मपूर्ण आचरण उचित नहीं है । हे तपोधन ! आपमें कितनी शक्ति है, इसे युद्धमें अभी प्रदर्शित कीजिये ॥ १५-१६ ॥

व्यास उवाच
तदाकर्ण्य वचस्तस्य नरस्तं प्रत्युवाच ह ।
युद्धस्वाद्य मया सार्धं यदि ते मतिरीदृशी ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-तब प्रह्लादका वचन सुनकर ऋषि नरने उनसे कहा-यदि आपकी ऐसी ही धारणा है तो मेरे साथ इसी समय युद्ध कर लीजिये । हे असुराधम ! आज मैं तुम्हारा सिर विदीर्ण कर डालूँगा (इसके बाद युद्ध करनेकी तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होगी) ॥ १७ ॥

अद्य ते स्फोटयिष्यामि मूर्धानमसुराधम ।
( युद्धे श्रद्धा न ते पश्चाद्‌भविष्यति कदाचन ।) ॥
व्यास उवाच
तन्निशम्य वचस्तस्य दैत्येन्द्रः कुपितस्तदा ॥ १८ ॥
प्रह्लादो बलवानत्र प्रतिज्ञामारुरोह सः ।
येन केनाप्युपायेन जेष्यामि तावुभावपि ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-तब ऋषि नरका वचन सुनकर दैत्यपति प्रह्लाद कुपित हो उठे । बलशाली उन प्रह्लादने प्रतिज्ञा की कि जिस किसी भी उपायसे मैं इन दोनों जितेन्द्रिय तथा परम तपस्वी नर-नारायण ऋषियोंको जीतकर रहूँगा ॥ १८-१९ ॥

नरनारायणौ दान्तावृषी तपिसमन्वितौ ।
व्यास उवाच
इत्युक्त्वा वचनं दैत्यः प्रतिगृह्य शरासनम् ॥ २० ॥
आकृष्य तरसा चापं ज्याशब्दञ्च चकार ह ।
नरोऽपि धनुरादाय शरांस्तीव्राञ्छिलाशितान् ॥ २१ ॥
मुमोच बहुशः कोधात्प्रह्लादोपरि पार्थिव ॥ २२ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा वचन बोलकर दैत्य प्रहादने धनुष उठाकर और शीघ्रतापूर्वक उसे खींचकर प्रत्यंचाकी टंकार की । हे राजन् ! मुनि नरने भी धनुष लेकर शिलापर घिसकर तेज किये हुए अनेक तीक्ष्ण वाण प्रह्लादके ऊपर क्रोधपूर्वक छोड़े ॥ २०-२२ ॥

तान्दैत्यराजस्तपनीयपुङ्खै-
     श्चिच्छेद बाणैस्तरसा समेत्य ।
समीक्ष्य छिन्नांश्च नरः स्वसृष्टा-
     नन्यान्मुमोचाशु रुषान्वितो वै ॥ २३ ॥
दैत्यराज प्रह्लादने अपने सुनहले पंखोंवाले बाणोंसे शीघ्र ही उन बाणोंको आते ही काट डाला । तब नर अपने द्वारा छोड़े गये बाणोंको प्रहादद्वारा छिन्न किया गया देखकर अत्यन्त कोपाविष्ट हो शीघ्रतासे उनपर अन्य बाणोंसे प्रहार करने लगे ॥ २३ ॥

दैत्याथिपस्तानपि तीव्रवेगै-
     श्छित्त्वा जघानोरसि तं मुनीन्द्रम् ।
नरोऽपि तं पञ्चभिराशुगैश्च
     कुद्धोऽहनद्दैत्यपतिं बाहुदेशे ॥ २४ ॥
दैत्यपति प्रहादने उन बाणोंको भी अपने द्रुतगामी बाणोंसे काटकर उन मुनिराज नरके वक्षःस्थलपर प्रहार किया । नरने भी क्रुद्ध होकर अपने तीव्रगामी पाँच बाणोंसे दैत्येन्द्र प्रह्लादके बाहुदेशपर प्रहार किया ॥ २४ ॥

सेन्द्राः सुरास्तत्र तयोर्हि युद्धं
     द्रष्टुं विमानैर्गगनस्थिताश्च ।
नरस्य वीर्यं युधि संस्थितस्य
     ते तुष्टुवुर्दैत्यपतेश्च भूयः ॥ २५ ॥
इन्द्रसहित सभी देवगण उन दोनोंका युद्ध देखनेके लिये विमानोंमें बैठकर आकाशमण्डलमें स्थित हो गये । वे कभी समरांगणमें विराजमान नरके पराक्रमकी प्रशंसा करते थे और फिर कभी दैत्यपति प्रह्लादके पराक्रमको प्रशंसा करने लगते थे ॥ २५ ॥

ववर्ष दैत्याधिप आत्तचापः
     शिलीमुखानम्बुधरो यथापः ।
आदाय शार्ङ्ग धनुरप्रमेयं
     मुमोच बाणाञ्छितहेमपुङ्खान् ॥ २६ ॥
धनुष धारण किये हुए दैत्यराज प्रह्लाद इस प्रकार बाणोंकी वर्षा कर रहे थे, मानो मेघ जल बरसा रहे हों । [ऋषि नर भी अपना] अप्रतिम शार्ज धनुष लेकर तीक्ष्ण तथा सुनहले पंखवाले बाण छोड़ रहे थे ॥ २६ ॥

बभूव युद्धं तुमुलं तयोस्तु
     जयैषिणोः पार्थिव देवदैत्ययोः ।
ववर्षुराकाशपथे स्थितास्ते
     पुष्पाणि दिव्यानि प्रहृष्टचित्ताः ॥ २७ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार एक-दूसरेको जीतनेके इच्छुक उन ऋषि नर तथा दैत्यराज प्रह्लादके बीच भीषण युद्ध होने लगा । आकाशमार्गमें स्थित वे [देवतागण] प्रसन्नचित्त होकर उनके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ २७ ॥

चुकोप दैत्याधिपतिर्हरौ स
     मुमोच बाणानतितीव्रवेगान् ।
चिच्छेद तान्धर्मसुतः सुतीक्ष्णै-
     र्धनुर्विमुक्तैर्विशिखैस्तदाऽऽशु ॥ २८ ॥
अचानक प्रह्लाद कुपित हो उठे और उन्होंने अति तीव्रगामी बाण ऋषि नारायणपर छोड़े । धर्मपुत्र नारायणने शीघ्र ही उन बाणोंको अपने धनुषसे छोड़े गये अत्यन्त तीक्ष्ण बापोंसे खण्ड-खण्ड कर डाला ॥ २८ ॥

ततो नारायणं बाणैः प्रह्लादश्चातिकर्षितैः ।
ववर्ष सुस्थितं वीरं धर्मपुत्रं सनातनम् ।
नारायणोऽपि तं वेगान्मुक्तैर्बाणैः शिलाशितैः ॥ २९ ॥
तुतोदातीव पुरतो दैत्यानामधिपं स्थितम् ।
सन्निपातोऽम्बरे तत्र दिदृक्षूणां बभूव ह ॥ ३० ॥
दैत्यराज प्रह्लाद समरांगणमें डटकर खड़े अतीव पराक्रमी तथा सनातन धर्मपुत्र नारायणपर अपने अति तीक्ष्ण बाण बरसाने लगे । नारायणने भी सानपर चढ़ाकर तेज किये गये अपने वेगपूर्वक छोड़े गये बाणोंके द्वारा सम्मुख खड़े दैत्यपति प्रह्लादको अत्यन्त भीषण चोट पहुँचायी । उस युद्धका अवलोकन करनेके इच्छुक देवताओं तथा दैत्योंका एक विशाल समूह अपने-अपने पक्षका जयघोष करते हुए आकाशमें एकत्र हो गया ॥ २९-३० ॥

देवानां दानवानाञ्च कुर्वतां जयघोषणम् ।
उभयोः शरवर्षेण छादिते गगने तदा ॥ ३१ ॥
दिवापि रात्रिसदृशं बभूव तिमिरं महत् ।
ऊचुः परस्परं देवा दैत्याश्चातीव विस्मिताः ॥ ३२ ॥
अदृष्टपूर्वं युद्धं वै वर्ततेऽद्य सुदारुणम् ।
देवर्षयोऽथ गन्धर्वा यक्षकिन्नरपन्नगाः ॥ ३३ ॥
विद्याधराश्चारणाश्च विस्मयं परमं ययुः ।
दोनों पक्षोंकी बाणवर्षासे आकाशके आच्छादित हो जानेपर उस समय इतना घना अन्धकार हो गया कि दिन भी रातके समान प्रतीत होने लगा । इससे अति आश्चर्यचकित होकर देवता तथा दैत्य परस्पर कहने लगे कि यह अत्यन्त भयावह संग्राम हो रहा है । ऐसा भीषण युद्ध तो पहले कभी नहीं देखा गया । बड़े-बड़े देवर्षि, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, विद्याधर तथा चारणगण इस युद्धको देखकर अत्यन्त विस्मयमें पड़ गये ॥ ३१-३३.५ ॥

नारदः पर्वतश्चैव प्रेक्षणार्थं स्थितौ मुनी ॥ ३४ ॥
नारदः पर्वतं प्राह नेदृशं चाभवत्पुरा ।
तारकासुरयुद्धञ्च तथा वृत्रासुरस्य च ॥ ३५ ॥
मधुकैटभयोर्युद्धं हरिणा चेदृशं कृतम् ।
प्रह्लादः प्रबलः शूरो यस्मान्नारायणेन च ॥ ३६ ॥
उस युद्धका अवलोकन करनेके लिये मनि नारद तथा पर्वत भी आये हुए थे । नारदमुनिने पर्वतसे कहा-ऐसा घोर संग्राम पहले नहीं हुआ था; तारकासुरयुद्ध, वृत्रासुरका युद्ध यहाँतक कि मधुकैटभका युद्ध भी वैसा नहीं हुआ था, जैसा कि इस समय नारायणके द्वारा किया गया । प्रह्लाद अत्यन्त वीर हैं जो कि वे अद्भत कर्मवाले सिद्धिसम्पन्न नारायणके साथ यह बराबरीका युद्ध कर रहे हैं ॥ ३४-३६ ॥

करोति सदृशं युद्धं सिद्धेनाद्‌भुतकर्मणा ।
व्यास उवाच
दिने दिने तथा रात्रौ कृत्वा कृत्वा पुनः पुनः ॥ ३७ ॥
चक्रतुः परमं युद्धं तौ तदा दैत्यतापसौ ।
नारायणस्तु चिच्छेद प्रह्लादस्य शरासनम् ॥ ३८ ॥
तरसैकेन बाणेन स चान्यद्धनुराददे ।
नारायणस्तु तरसा मुक्त्वान्यञ्च शिलीमुखम् ॥ ३९ ॥
तदैव मध्यतश्चापं चिच्छेद लघुहस्तकः ।
छिन्नं छिन्नं पुनर्दैत्यो धनुरन्यत्समाददे ॥ ४० ॥
नारायणस्तु चिच्छेद विशिखैराशु कोपितः ।
छिन्ने धनुषि दैत्येन्द्रः परिघं तु समाददे ॥ ४१ ॥
जघान धर्मजं तूर्णं बाह्वोर्मध्येऽतिकोपनः ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार प्रतिदिन तथा प्रतिरात्रि बार-बार युद्ध करते हुए वे दोनों दैत्य तथा तपस्वी घोर संग्राममें तत्पर रहे । नारायणने एक बाणसे प्रह्लादका धनुष काट दिया । तब प्रह्लादने तत्काल दूसरा धनुष ले लिया । नारायणने हस्तकौशल दिखाते हुए पुन: बड़ी शीघ्रतासे दूसरा बाण चलाकर उस धनुषको भी बीचोबीचसे काट डाला । इस प्रकार नारायण बार-बार धनुष काटते जाते थे और प्रहाद दूसरा धनुष लेते जाते थे । अन्तमें नारायणने कुपित होकर अपने बाणोंसे उसके धनुषको शीघ्रतासे पुनः काट दिया । उस धनुषके भी कट जानेपर दैत्यराज प्रह्लादने अपना परिघ उठा लिया और अत्यन्त क्रोधित होकर बड़ी फुर्तीसे धर्मपुत्र नारायणकी भुजाओंपर प्रहार किया ॥ ३७-४१.५ ॥

तमायान्तं स बलवान्मार्गणैर्नवभिर्मुनिः ॥ ४२ ॥
चिच्छेद परिघं घोरं दशभिस्तमताडयत् ।
प्रतापी नारायणने अपनी ओर आते हुए उस परिधको नौ बाणोंसे काट दिया और दस बाणोंसे प्रहादपर चोट की ॥ ४२.५ ॥

गदामादाय दैत्येन्द्रः सर्वायसमयीं दृढाम् ॥ ४३ ॥
जानुदेशे जघानाशु देवं नारायणं रुषा ।
तत्पश्चात् दैत्येन्द्र प्रह्लादने पूर्णतः लोहमयी सुदृढ़ गदा उठाकर क्रोधपूर्वक नारायणमुनिकी जाँघपर शीघ्रतापूर्वक प्रहार किया । ४३.५ ॥

गदया चापि गिरिवत्संस्थितः स्थिरमानसः ॥ ४४ ॥
धर्मपुत्रोऽतिबलवान्मुमोचाशु शिलीमुखान् ।
गदां चिच्छेद भगवांस्तदा दैत्यपतेर्दृढाम् ॥ ४५ ॥
विस्मयं परमं जग्मुः प्रेक्षका गगने स्थिताः ।
उस गदा-प्रहारसे भी धर्मपुत्र नारायण पर्वतकी भाँत अविचल भावसे स्थिरचित्त होकर खड़े रहे । तदनन्तर परम पराक्रमी भगवान् नारायणने बड़ी तेजीसे अनेक बाण छोड़े और दैत्यपति प्रह्लादकी सुदृढ़ गदाको खण्ड-खण्ड कर दिया । आकाशमें स्थित होकर युद्ध देखनेवाले बड़े आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ४४-४५.५ ॥

स तु शक्तिं समादाय प्रह्लादः परवीरहा ॥ ४६ ॥
चिक्षेप तरसा क्रुद्धो बलान्नारायणोरसि ।
तामापतन्तीं संवीक्ष्य बाणेनैकेन लीलया ॥ ४७ ॥
सप्तधा कृतवानाशु सप्तभिस्तं जघान ह ।
तत्पश्चात् शत्रुओंका दमन करनेवाले प्रह्लादने शक्ति उठाकर कुपित हो बलपूर्वक बड़ी तेजीसे नारायणके वक्षःस्थलपर प्रहार किया । तब सामने आती हुई उस शक्तिको देखकर नारायणने एक ही बाणसे बड़ी आसानीसे उसके सात खण्ड कर दिये और साथ ही सात बाणोंसे प्रह्लादपर प्रहार किया ॥ ४६-४७.५ ॥

दिव्यवर्षशतं चैव तद्युद्धं परमं तयोः ॥ ४८ ॥
जातं विस्मयदं राजन् सर्वेषां तत्र चाश्रमे ।
तदाऽऽजगाम तरसा पीतवासाश्चतुर्भुजः ॥ ४९ ॥
प्रह्लादस्याश्रमं तत्र जगाम च गदाधरः ।
चतुर्भुजो रमाकान्तो रथाङ्गदरपद्मभृत् ॥ ५० ॥
हे राजन् ! इस प्रकार सबको विस्मित कर देनेवाला वह युद्ध एक सौ दिव्य वर्षतक चलता रहा । तदनन्तर चार भुजाओंसे शोभा पानेवाले पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु शीघ्रतापूर्वक उस आश्रममें आ गये । तत्पश्चात् हाथोंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले वे चतुर्भुज लक्ष्मीपति विष्णु प्रह्लादके आश्रमपर पहुँचे ॥ ४८-५० ॥

दृष्ट्वा तमागतं तत्र हिरण्यकशिपोः सुतः ।
प्रणम्य परया भक्त्या प्राञ्जलिः प्रत्युवाच ह ॥ ५१ ॥

वहाँ उन्हें आये हुए देखकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रहाद बड़ी श्रद्धाके साथ उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ ५१ ॥

प्रह्लाद उवाच
देवदेव जगनाथ भक्तवत्सल माधव ।
कथं न जितवानाजावहमेतौ तपस्विनौ ।
संग्रामस्तु मया देव कृतः पूर्णं शतं समाः ॥ ५२ ॥
सुराणां न जितौ कस्मादिति मे विस्मयो महान् ।
प्रहाद बोले-हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भक्तवत्सल ! हे माधव ! मैं इन दोनों तपस्वियोंको युद्धमें क्यों नहीं जीत सका ? हे देव ! मैंने देवताओंके पूरे सौ वर्षतक इनके साथ युद्ध किया, फिर भी ये जीते न जा सके-मुझे यह महान् आश्चर्य है ! ॥ ५२.५ ॥

विष्णुरुवाच
सिद्धाविमौ मदंशौ च विस्मयः कोऽत्र मारिष ॥ ५३ ॥
तापसौ न जितात्मानौ नरनारायणौ जितौ ।
गच्छ त्वं वितलं राजन् कुरु भक्तिं ममाचलाम् ॥ ५४ ॥
नाभ्यां कुरु विरोधं त्वं तापसाभ्यां महामते ।
विष्णु बोले-हे आर्य ! ये दोनों सिद्ध पुरुष हैं और मेरे अंशसे आविर्भूत हैं; अत: [इन्हें न जीत पानेमें] आश्चर्य क्या ! नर-नारायण नामसे प्रसिद्ध इन जितात्मा तपस्वियोंको तुम नहीं जीत सकते । अत: हे राजन् ! तुम अपने वितललोकको चले जाओ और वहाँ मेरी अविचल भक्ति करो । हे महामते ! तुम इन दोनों तपस्वियोंसे विरोध मत करो ॥ ५३-५४.५ ॥

व्यास उवाच
इत्याज्ञप्तो दैत्यराजो निर्ययावसुरैः सह ॥ ५५ ॥
नरनारायणौ भूयस्तपोयुक्तौ बभूवतुः ॥ ५६ ॥
व्यासजी बोले- भगवान् विष्णुसे ऐसी आज्ञा पाकर दैत्यपति प्रहाद असुरोंके साथ वहाँसे प्रस्थित हो गये । तदनन्तर नर नारायण पुनः तपस्यामें संलग्न हो गये ॥ ५५-५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे प्रह्लादनारायणयोर्युद्धे विष्णोरागमनवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अध्याय नववाँ समाप्त ॥ ९ ॥


GO TOP