विप्रको अपमानित करनेके परिणामस्वरूप पापके कारण यमलोकको प्राप्त अपने उन पिताके उद्धारके लिये वे निरन्तर अपने मनमें अनेक प्रकारके उपाय सोचा करते थे ॥ ३ ॥
पुन्नामनरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं स्वकम् । पुत्रेति नाम सार्थं स्यात्तेन तस्य मुनीश्वराः ॥ ४ ॥
हे मुनीश्वरो ! जय पुत्र अपने पिताकी 'पुम्' नामक नरकसे रक्षा कर देता है, तभी उसका 'पुत्र' नाम सार्थक होता है ॥ ४ ॥
सर्पदष्टं नृपं श्रुत्वा हर्म्योपरि मृतं तथा । विप्रशापादौत्तरेयं स्नानदानविवर्जितम् ॥ ५ ॥ पितुर्गतिं निशम्यासौ निर्वेदं गतवान्नृपः । पारीक्षितो महाभागः सन्तप्तो भयविह्वलः ॥ ६ ॥
जब उन्हें यह विदित हुआ कि एक महलकी ऊपरी मंजिलमें स्नान-दान किये बिना ही विपके शापवश सर्प-दंशसे महाराज परीक्षित्की मृत्यु हुई थी, तब अपने पिताकी दुर्गति सुनकर वे राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखित हुए और शोकसे सन्तप्त तथा भयसे व्याकुल हो उठे ॥ ५-६ ॥
ब्राह्मणलोग तपश्चरण, धर्मानुष्ठान तथा तीर्थाटनमें तत्पर हो गये; वैश्यसमुदाय अपने-अपने व्यावसायिक कार्यों में लग गये तथा शूद्रगण सेवापरायण हो गये ॥ १० ॥
नृसिंहेन च पाताले स्थापितः सोऽथ दैत्यराट् । राज्यं चकार तत्रैव प्रजापालनतत्परः ॥ ११ ॥
नसिंहभगवान्ने उस दैत्यराज प्रहादको पाताललोकके राजसिंहासनपर स्थापित कर दिया था और वे वहींपर प्रजापालनमें तत्पर होकर राज्य करने लगे ॥ ११ ॥
तदनन्तर उन महामुनि च्यवनको वह नागराज खींचकर पाताललोकमें ले गया । तब उन भयाक्रान्त मुनिने मन-ही-मन देवाधिदेव जनार्दन विष्णुका स्मरण किया ॥ १४ ॥
संस्मृते पुण्डरीकाक्षे निर्विषोऽभून्महोरगः । न प्राप च्यवनो दुःखं नीयमानो रसातलम् ॥ १५ ॥
मुनि च्यवनके द्वारा हृदयसे कमलनयन भगवान् विष्णुका स्मरण किये जानेपर वह भयंकर सर्प विषहीन हो गया । अतएव रसातलमें ले जाये गये उन मुनिको कष्ट नहीं हुआ ॥ १५ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! क्या दैत्योंके प्रति द्वेष-भाव रखनेवाले इन्द्रने मेरे राज्यके विषयमें जानकारीके लिये आपको यहाँ भेजा है ? आप मुझे सच-सच बताइये ॥ २० ॥
च्यवन उवाच किं मे मघवता राजन् यदहं प्रेषितः पुनः । दूतकार्यं प्रकुर्वाणः प्राप्तवान्नगरे तव ॥ २१ ॥
च्यवन बोले-हे राजन् ! इन्द्रसे मेरा क्या प्रयोजन है, जो कि वे मुझे यहाँ भेजें और मैं उनके दूतका कार्य करता हुआ आपके नगरमें घूमता फिरूँ ? ॥ २१ ॥
विद्धि मां भृगुपुत्रं तं स्वनेत्रं धर्मतत्परम् । मा शङ्कां कुरु दैत्येन्द्र वासवप्रेषितस्य वै ॥ २२ ॥
हे दैत्यराज ! आप मुझे महर्षि भृगुका धर्मनिष्ठ तथा ज्ञाननेत्रसम्पन्न पुत्र च्यवन जानिये । आप मेरे प्रति इन्द्रके द्वारा भेजे गये किसी दूतकी शंका मत करें ॥ २२ ॥
हे राजेन्द्र ! यहाँ आनेसे मुझे आपका दर्शन प्राप्त हो गया । हे दैत्यराज ! आप भगवान् विष्णुके भक्त हैं और मुझे भी उनका भक्त ही समझिये ॥ २५ ॥
व्यास उवाच तन्निशम्य वचः श्लक्ष्णं हिरण्यकशिपोः सुतः । पप्रच्छ परया प्रीत्या तीर्थानि विविधानि च ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले- महर्षि च्यवनका मधुर वचन सुनकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लाद अत्यन्त प्रेमपूर्वक नानाविध तीर्थोके विषयमें उनसे पूछने लगे ॥ २६ ॥
प्रह्लाद उवाच पृथिव्यां कानि तीर्थानि पुण्यानि मुनिसत्तम । पाताले च तथाकाशे तानि नो वद विस्तरात् ॥ २७ ॥
प्रह्लाद बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! पृथ्वी, पाताल तथा आकाशमें कौन-कौनसे पवित्र तीर्थ हैं ? उनके सम्बन्ध विस्तारपूर्वक मुझे बताइये ॥ २७ ॥
च्यवन उवाच मनोवाक्कायशुद्धानां राजंस्तीर्थं पदे पदे । तथा मलिनचित्तानां गङ्गापि कीकटाधिका ॥ २८ ॥
च्यवन बोले-हे राजन् ! मन, वचन तथा कर्मसे शुद्ध प्राणियोंके लिये तो पद-पदपर तीर्थ हैं, किंतु दूषित मनवाले प्राणियोंके लिये गंगा भी मगधसे अधिक अपवित्र हो जाती हैं ॥ २८ ॥
प्रथमं चेन्मनः शुद्धं जातं पापविवर्जितम् । तदा तीर्थानि सर्वाणि पावनानि भवन्ति वै ॥ २९ ॥ गङ्गातीरे हि सर्वत्र वसन्ति नगराणि च । व्रजाश्चैवाकरा ग्रामाः सर्वे खेटास्तथापरे ॥ ३० ॥ निषादानां निवासाश्च कैवर्तानां तथापरे । हूणबङ्गखसानां च म्लेच्छानां दैत्यसत्तम ॥ ३१ ॥ पिबन्ति सर्वदा गाङ्गं जलं ब्रह्मोपमं सदा । स्नानं कुर्वन्ति दैत्येन्द्र त्रिकालं स्वेच्छया जनाः ॥ ३२ ॥ तत्रैकोऽपि विशुद्धात्मा न भवत्येव मारिष । किं फलं तर्हि तीर्थस्य विषयोपहतात्मसु ॥ ३३ ॥
यदि मनुष्यका मन शुद्ध तथा पापरहित हो गया तो उसके लिये सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं । गंगाके तटपर तो सर्वत्र नानाविध नगर, गोष्ठ (गायोंका बाड़ा), बाजार, गाँव तथा अनेक कस्बे वहाँ बसे हैं । हे दैत्यराज ! निषादों, धीवरों, हूणों, बंगों, खसों तथा म्लेच्छ जातियोंका निवास भी वहाँ रहता है । हे दैत्येन्द्र ! वे सदैव ब्रह्मसदृश गंगाजलका पान करते हैं और अपनी इच्छासे त्रिकाल गंगा-स्नान भी करते हैं । किंतु हे धर्मात्मन् ! उनमेंसे कोई एक भी शुद्ध अन्त:करणवाला नहीं हो पाता । तब नानाविध वासनाओंसे प्रदुषित चित्तवाले लोगोंके लिये तीर्थका क्या फल हो सकता है ? ॥ २९-३३ ॥
हे राजन् ! आप यह निश्चित समझिये कि मन ही इसमें प्रमुख कारण है; इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं । अत: शुद्धिकी इच्छा रखनेवाले प्राणीको निरन्तर अपने मनको शुद्ध बनाये रखना चाहिये ॥ ३४ ॥
जिस प्रकार इन्द्रवारुणका फल पक जानेपर भी मीठा नहीं होता, उसी प्रकार दूषित भावनाओंवाला मनुष्य तीर्थमें करोड़ों बार स्नान करके भी पवित्र नहीं हो पाता ॥ ३६ ॥
अतः कल्याणकी कामना करनेवाले पुरुषको सर्वप्रथम अपने मनको शुद्ध कर लेना चाहिये । मनके शुद्ध हो जानेपर द्रव्यशुद्धि स्वतः हो जाती है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ॥ ३७ ॥
उसी प्रकार आचार-शुद्धि भी आवश्यक है; इसके अनन्तर ही तीर्थयात्राकी पूर्ण सिद्धि होती है । इसके विपरीत उसका किया हुआ सारा कर्म उसी क्षण व्यर्थ हो जाता है ॥ ३८ ॥
(तीर्थमें पहुँचकर नीच प्राणीके संसर्गका सर्वदाके लिये त्याग कर देना चाहिये । ) कर्म तथा बुद्धिसे प्राणियोंके प्रति सदा दयाभाव रखना चाहिये । फिर भी हे राजेन्द्र ! यदि आप पूछते ही हैं तो मैं आपको प्रमुख तीर्थोके विषयमें बता रहा हूँ ॥ ३९ ॥
प्रथमं नैमिषं पुण्यं चक्रतीर्थं च पुष्करम् । अन्येषां चैव तीर्थानां संख्या नास्ति महीतले ॥ ४० ॥ पावनानि च स्थानानि बहूनि नृपसत्तम । व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं राजा नैमिषं गन्तुमुद्यतः ॥ ४१ ॥ नोदयामास दैत्यान्वै हर्षनिर्भरमानसः ।
प्रथम श्रेणीका तीर्थ पुण्यमय नैमिषारण्य है । इसी प्रकार चक्रतीर्थ, पुष्करतीर्थ तथा अन्य भी अनेक तीर्थ पृथ्वीलोकमें हैं, जिनकी संख्या निश्चित नहीं है । हे नृपश्रेष्ठ ! और भी बहुत-से पवित्र व्यासजी बोले-च्यवनऋषिका वचन सुनकर राजा प्रहाद नैमिषारण्यतीर्थ जानेको तैयार हो गये । हर्षातिरेकसे परिपूर्ण हृदयवाले प्रहादने अन्य दैत्योंको भी चलनेकी आज्ञा दी ॥ ४१.५ ॥
प्रहाद बोले-हे महाभाग दैत्यगण ! आपलोग उठिये, हम सभी लोग आज नैमिषारण्य चलेंगे । वहाँ हमलोग पीताम्बर धारण करनेवाले कमलनयन भगवान् अच्युत (विष्णु)-का दर्शन करेंगे ॥ ४२ ॥
व्यासजी बोले-विष्णभक्त प्रहादके ऐसा कहनेपर वे समस्त दानव परम प्रसन्नतापूर्वक उनके साथ पाताललोकसे निकल पड़े । उन महाबली दैत्यों तथा दानवोंने एक साथ नैमिषारण्य पहुँचकर आनन्दपूर्वक स्नान किया । दैत्योंके साथ वहाँकै तीर्थों में भ्रमण करते हुए प्रहादने स्वच्छ जलसे परिपूर्ण तथा महापुण्यदायिनी सरस्वतीनदीका दर्शन किया । हे नृपश्रेष्ठ ! उस पवित्र तीर्थमें सरस्वतीके जलमें स्नान करनेसे महात्मा प्रह्लादका मन प्रसन्न हो गया । दैत्येन्द्र प्रहादने उस शुभ तथा परम पावन तीर्थमें प्रसन्न मनसे स्नान, दान आदि कर्म विधिवत् सम्पन्न किये ॥ ४३-४८ ॥