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शुक्रमातुर्वधवर्णनम् -
मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध -
व्यास उवाच तथा गतेषु देवेषु काव्यस्तान्प्रत्युवाच ह । ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं यच्छ्रुणुध्वं दानवोत्तमाः ॥ १ ॥ विष्णुर्दैत्यवधे युक्तो हनिष्यति जनार्दनः । वाराहरूपं संस्थाय हिरण्याक्षो यथा हतः ॥ २ ॥ यथा नृसिंहरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः । तथा सर्वान्कृतोत्साहो हनिष्यति न चान्यथा ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-तत्पश्चात् देवताओंके चले जानेपर शुक्राचार्यने उन दैत्योंसे कहा-हे श्रेष्ठ दानवो ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे जो कहा था, उसे तुमलोग सुनो । दैत्योंके वधके लिये भगवान् विष्णु सदा प्रयत्नरत रहते हैं, वे दैत्योंका वध अवश्य करेंगे । जैसे वाराहका रूप धारण करके उन्होंने हिरण्याक्षका वध किया और नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुको मारा, उसी प्रकार उत्साहसम्पन्न होकर वे सब दैत्योंका संहार करेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १-३ ॥
न मे मन्त्रबलं सम्यक्प्रतिभाति यथा हरिम् । जेतुं यूयं समर्थाः स्थ मया त्राताः सुरानथ ॥ ४ ॥ तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं कियन्तं दानवोत्तमाः । अहमद्य महादेवं मन्त्रार्थं प्रव्रजामि वै ॥ ५ ॥ प्राप्य मन्त्रान्महादेवादागमिष्यामि साम्प्रतम् । युष्मभ्यं तान्प्रदास्यामि यथार्थं दानवोत्तमाः ॥ ६ ॥
मुझे जान पड़ता है कि वैसा समुचित मन्त्रबल अभी मेरे पास नहीं है, जिससे मेरे द्वारा सुरक्षित होकर तुमलोग इन्द्र तथा देवताओंको जीतनेमें समर्थ हो सको । अतः हे श्रेष्ठ दानवगण ! तुमलोग कुछ समयतक प्रतीक्षा करो । मैं मन्त्रसिद्धिके लिये आज ही भगवान् शिवके पास जा रहा हूँ । हे श्रेष्ठ दानवो ! महादेवजीसे मन्त्र लेकर मैं तत्काल आऊँगा और यथावत् रूपमें तुमलोगोंको सिखा दूंगा ॥ ४-६ ॥
दैत्या ऊचुः पराजिताः कथं स्थातुं पृथिव्यां मुनिसत्तम । शक्ता भवामोऽप्यबलास्तावत्कालं प्रतीक्षितुम् ॥ ७ ॥ निहता बलिनः सर्वे केचिच्छिष्टाश्च दानवाः । नाद्य युक्ताश्च संग्रामे स्थातुमेवं सुखावहाः ॥ ८ ॥
दैत्योंने कहा-हे मुनिश्रेष्ठ ! देवताओंसे पराजित होकर हमलोग अत्यन्त निर्बल हो गये हैं, अतः उतने समयतक प्रतीक्षा करनेके लिये हम पृथ्वीपर रहनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? सभी पराक्रमी दानव मारे जा चुके हैं और जो शेष बचे हुए हैं, सुखकी इच्छा करनेवाले वे अब युद्धमें ठहरने में समर्थ नहीं हैं ॥ ७-८ ॥
विद्वानोंने कहा है कि समयानुसार साम, दान आदिका प्रयोग करना चाहिये । बुद्धिमान् तथा वीर पुरुष देश, काल, बल, शक्ति और सेनाकी जानकारी करके ही अपना सामर्थ्य दिखाते हैं ॥ १० ॥
तदनन्तर दैत्योंने सत्यवादी, धैर्यवान् तथा देवताओंक विश्वासपात्र प्रह्लादको देवताओंके पास भेजा ॥ १५ ॥
प्रह्लादस्तु सुरान्प्राह प्रश्रयावनतो नृपः । असुरैः सहितस्तत्र वचनं नम्रतायुतम् ॥ १६ ॥ न्यस्तशस्त्रा वयं सर्वे निःसन्नाहास्तथैव च । देवास्तपश्चरिष्यामः संवृता वल्कलैर्युताः ॥ १७ ॥
असुरोंके साथ वहाँ जाकर राजा प्रहाद विनयसम्पन्न होकर देवताओंसे नम्रतायुक्त वचन बोले । हे देवताओ ! हम सभी लोगोंने शस्त्र रख दिये हैं और कवचका त्याग कर दिया है । अब हम वल्कल धारण करके तपस्या करेंगे ॥ १६-१७ ॥
प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा सत्याभिव्याहृतं तु तत् । ततो देवा न्यवर्तन्त विज्वरा मुदिताश्च ते ॥ १८ ॥
प्रह्लादका वचन सुनकर देवताओंने उसे सत्य मान लिया और इसके बाद वे निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे लौट गये ॥ १८ ॥
उस समय दैत्यगण पाखण्डका सहारा लेकर तपस्वीके रूपमें तपस्यारत होकर शुक्राचार्यके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए कश्यपमुनिके आश्रममें रहने लगे ॥ २० ॥
काव्यो गत्वाथ कैलासं महादेवं प्रणम्य च । उवाच विभुना पृष्टः किं ते कार्यमिति प्रभुः ॥ २१ ॥ मन्त्रानिच्छाम्यहं देव ये न सन्ति बृहस्पतौ । पराजयाय देवानामसुराणां जयाय च ॥ २२ ॥
उधर, मुनि शुक्राचार्यने कैलासपर्वतपर पहुँचकर शंकरजीको प्रणाम किया । भगवान् शिवके पूछनेपर कि 'आपका क्या कार्य है ?'-उन्होंने कहा-हे देव ! मैं देवताओंकी पराजय और असुरोंकी विजयके लिये उन मन्त्रोंको चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके भी पास न हों ॥ २१-२२ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सर्वज्ञः शङ्करः शिवः । चिन्तयामास मनसा किं कर्तव्यमतः परम् ॥ २३ ॥ सुरेषु द्रोहबुद्ध्यासौ मन्त्रार्थमिह साम्प्रतम् । प्राप्तः काव्यो गुरुस्तेषां दैत्यानां विजयाय च ॥ २४ ॥ रक्षणीया मया देवा इति सञ्चिन्त्य शङ्करः । दुष्करं व्रतमत्युग्रं तमुवाच महेश्वरः ॥ २५ ॥ पूर्णं वर्षसहस्रं तु कणधूममवाक्छिराः । यदि पास्यसि भद्रं ते ततो मन्त्रानवाप्स्यसि ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-उनका वचन सुनकर सर्वज्ञ और कल्याणकारी भगवान् शिव मनमें सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ये दैत्यगुरु शुक्राचार्य देवताओंके प्रति द्रोह-बुद्धिसे युक्त होकर उन दैत्योंकी विजयके लिये मन्त्रहेतु इस समय यहाँ आये हैं, अत: मुझे देवताओंकी रक्षा करनी चाहियेऐसा सोचकर शिवजीने उन्हें यह अत्यन्त कठोर और दुष्कर व्रत करनेको कहा-पूरे एक हजार वर्षांतक यदि आप सिर नीचे करके कणधूम (भूसीके धुएँ)का पान करेंगे, तभी आपका कल्याण होगा और आप मन्त्र प्राप्त कर सकेंगे ॥ २३-२६ ॥
इत्युक्तोऽसौ प्रणम्येशं बाढमित्यब्रवीद्वचः । व्रतं चराम्यहं देव त्वयाज्ञप्तः सुरेश्वर ॥ २७ ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर उन्होंने महेश्वरको प्रणाम करके यह वचन कहा-'बहुत अच्छा', हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपने मुझे जो आदेश दिया है, मैं उस व्रतका पालन करूँगा ॥ २७ ॥
व्यास उवाच इत्युक्त्वा शङ्करं काव्यश्चकार व्रतमुत्तमम् । धूमपानरतः शान्तो मन्त्रार्थं कृतनिश्चयः ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-शिवजीसे ऐसा कहकर मन्त्रप्राप्तिके लिये दृढ़संकल्प शुक्राचार्यजी शान्त होकर धुएँका सेवन करते हुए कठोर व्रत करने लगे ॥ २८ ॥
तब उस समय शुक्राचार्यको व्रतमें संलग्न तथा दैत्योंको [तपस्वी बनकर] पाखण्डमें निरत देखकर देवता लोग आपसमें मन्त्रणा करने लगे ॥ २९ ॥
विचार्य मनसा सर्वे संग्रामायोद्यता नृप । ययुर्धृतायुधास्तत्र यत्र ते दानवोत्तमाः ॥ ३० ॥
हे राजन् ! भलीभाँति विचार करके सभी देवता संग्रामके लिये उद्यत हो गये और शस्त्रास्त्र धारणकर वहाँ पहुँच गये, जहाँ वे बड़े-बड़े दानव विद्यमान थे ॥ ३० ॥
तानागतान्समीक्ष्याथ सायुधान्दंशितांस्तथा । आसंस्ते भयसंविग्ना दैत्या देवान्समन्ततः ॥ ३१ ॥
तदनन्तर दैत्यगण उन आये हुए देवताओंको आयुधोंसे सज्जित और कवच धारण किये तथा अपनेको उनसे सब ओरसे घिरा देखकर भयसे व्याकुल हो उठे ॥ ३१ ॥
उत्पेतुः सहसा ते वै सन्नद्धान्भयकर्शिताः । अब्रुवन्वचनं तथ्यं ते देवान्वलदर्पितान् ॥ ३२ ॥ न्यस्तशस्त्रे भयवति आचार्ये व्रतमास्थिते । दत्त्वाभयं पुरा देवाः सम्प्राप्ता नो जिघांसया ॥ ३३ ॥ सत्यं वः क्व गतं देवा धर्मश्च श्रुतिनोदितः । न्यस्तशस्त्रा न हन्तव्या भीताश्च शरणं गताः ॥ ३४ ॥
वे भयातुर दानव तुरंत उठकर खड़े हो गये और युद्धके लिये उद्यत बलाभिमानी देवताओंसे सारगर्भित वचन कहने लगे-हमने शस्त्र रख दिये हैं, हम भयभीत हैं और हमारे आचार्य इस समय व्रतमें संलग्न हैं । हे देवताओ ! पहले अभयदान देकर भी आप लोग हमें मारनेकी इच्छासे आ गये । हे देवगण ! आप लोगोंका सत्य और श्रुतिसम्मत वह धर्म कहाँ चला गया कि 'जो शस्त्र रख चुके हों, भयभीत हों और शरणागत हो गये हों, उन्हें नहीं मारना चाहिये' ॥ ३२-३४ ॥
देवा ऊचुः भवद्भिः प्रेषितः काव्यो मन्त्रार्थं कुहकेन च । तपो ज्ञातं हि युष्माकं तेन युध्याम एव हि ॥ ३५ ॥
देवता बोले-आप लोगोंने छलसे शुक्राचार्यको मन्त्र प्राप्त करनेके लिये भेजा है । हम आपलोगोंके तपको जान गये हैं, इसीलिये हमलोग युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए हैं ॥ ३५ ॥
अब क्षुब्ध हुए आपलोग भी हाथोंमें शस्त्र धारणकर युद्धके लिये तैयार हो जाइये । यह सनातन सिद्धान्त है कि जब शत्रु दुर्बल हो, तभी उसे मार डालना चाहिये ॥ ३६ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं दैत्या विचार्य च परस्परम् । पलायनपराः सर्वे निर्गता भयविह्वलाः ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-उनका वचन सुनकर सभी दैत्य आपसमें विचार करके भागनेके लिये तत्पर हो गये और भयसे व्याकुल होकर वहाँसे निकल भागे ॥ ३७ ॥
इस प्रकार देवताओंके द्वारा उन्हें मारे जाते हुए देखकर शुक्राचार्यकी माता बहुत काँपने लगीं और बोलीं-मैं अभी समस्त देवताओंको अपने तपके प्रभावसे निद्राग्रस्त कर दे रही हूँ ॥ ४३ ॥
ऐसा कहकर उन्होंने निद्राको प्रेरित किया । उस निद्राने देवताओंके पास आकर उनपर अपना प्रभाव डाल दिया, जिससे इन्द्रसहित सभी देवता निद्राके वशीभूत हो गये और गूंगेकी भाँति पड़े रहे ॥ ४४ ॥
इन्द्रं निद्राजितं दृष्ट्वा दीनं विष्णुरभाषत । मां त्वं प्रविश भद्रं ते नये त्वां च सुरोत्तम ॥ ४५ ॥
इन्द्रको निद्राके द्वारा नियन्त्रित तथा दीन देखकर भगवान् विष्णुने कहा-हे देवश्रेष्ठ ! तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें अन्यत्र पहुँचाता हूँ ॥ ४५ ॥
तब भगवान् विष्णुके द्वारा रक्षित इन्द्रको व्यथाशून्य देखकर शुक्राचार्यकी माता कुपित हो उठी और यह वचन बोली-हे इन्द्र ! सभी देवताओंके देखते-देखते मैं अपने तपोबलसे विष्णुसहित तुम्हें खा जाऊँगी; ऐसा मेरा तपोबल है ॥ ४७-४८ ॥
व्यास उवाच इत्युक्तौ तु तया देवौ विष्ण्विन्द्रौ योगविद्यया । अभिभूतौ महात्मानौ स्तब्धौ तौ सम्बभूवतुः ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर उन्होंने अपनी योगविद्याके द्वारा इन्द्र तथा विष्णुको आक्रान्त कर दिया और वे दोनों महात्मा स्तब्ध हो गये ॥ ४९ ॥
देवताओंको चीखते-चिल्लाते देखकर इन्द्रने विष्णुसे कहा-हे मधुसूदन ! मैं [इस समय] आपकी अपेक्षा अधिक आक्रान्त हूँ । अतः हे विष्णो ! हे प्रभो ! यह हमें जबतक भस्म न कर दे, आप तपस्याके अभिमानमें चूर इस दुष्टाको शीघ्रतापूर्वक मार डालिये । हे माधव ! अब आप सोच-विचार न करें ॥ ५१-५२ ॥
कीर्तिमान् इन्द्रके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने दया छोड़कर तत्काल सुदर्शन चक्रका स्मरण किया । विष्णुके वशमें रहनेवाला वह चक्र उनके स्मरण करते ही आ पहुँचा और इन्द्रसे प्रेरित होकर उन्होंने कुपित हो उसके वधके लिये चक्रको अपने हाथमें ले लिया ॥ ५३-५४ ॥
उस चक्रको हाथमें लेकर भगवान् विष्णुने बड़े वेगसे उसका सिर काट दिया । तब उसे मृत देखकर इन्द्र हर्षित हो उठे । सभी देवता भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विष्णुको जयकार करने लगे । वे प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और सन्तापरहित हो गये ॥ ५५-५६ ॥