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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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शुक्रमातुर्वधवर्णनम् -
मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध -


व्यास उवाच
तथा गतेषु देवेषु काव्यस्तान्प्रत्युवाच ह ।
ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं यच्छ्रुणुध्वं दानवोत्तमाः ॥ १ ॥
विष्णुर्दैत्यवधे युक्तो हनिष्यति जनार्दनः ।
वाराहरूपं संस्थाय हिरण्याक्षो यथा हतः ॥ २ ॥
यथा नृसिंहरूपेण हिरण्यकशिपुर्हतः ।
तथा सर्वान्कृतोत्साहो हनिष्यति न चान्यथा ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-तत्पश्चात् देवताओंके चले जानेपर शुक्राचार्यने उन दैत्योंसे कहा-हे श्रेष्ठ दानवो ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे जो कहा था, उसे तुमलोग सुनो । दैत्योंके वधके लिये भगवान् विष्णु सदा प्रयत्नरत रहते हैं, वे दैत्योंका वध अवश्य करेंगे । जैसे वाराहका रूप धारण करके उन्होंने हिरण्याक्षका वध किया और नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुको मारा, उसी प्रकार उत्साहसम्पन्न होकर वे सब दैत्योंका संहार करेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ १-३ ॥

न मे मन्त्रबलं सम्यक्प्रतिभाति यथा हरिम् ।
जेतुं यूयं समर्थाः स्थ मया त्राताः सुरानथ ॥ ४ ॥
तस्मात्कालं प्रतीक्षध्वं कियन्तं दानवोत्तमाः ।
अहमद्य महादेवं मन्त्रार्थं प्रव्रजामि वै ॥ ५ ॥
प्राप्य मन्त्रान्महादेवादागमिष्यामि साम्प्रतम् ।
युष्मभ्यं तान्प्रदास्यामि यथार्थं दानवोत्तमाः ॥ ६ ॥
मुझे जान पड़ता है कि वैसा समुचित मन्त्रबल अभी मेरे पास नहीं है, जिससे मेरे द्वारा सुरक्षित होकर तुमलोग इन्द्र तथा देवताओंको जीतनेमें समर्थ हो सको । अतः हे श्रेष्ठ दानवगण ! तुमलोग कुछ समयतक प्रतीक्षा करो । मैं मन्त्रसिद्धिके लिये आज ही भगवान् शिवके पास जा रहा हूँ । हे श्रेष्ठ दानवो ! महादेवजीसे मन्त्र लेकर मैं तत्काल आऊँगा और यथावत् रूपमें तुमलोगोंको सिखा दूंगा ॥ ४-६ ॥

दैत्या ऊचुः
पराजिताः कथं स्थातुं पृथिव्यां मुनिसत्तम ।
शक्ता भवामोऽप्यबलास्तावत्कालं प्रतीक्षितुम् ॥ ७ ॥
निहता बलिनः सर्वे केचिच्छिष्टाश्च दानवाः ।
नाद्य युक्ताश्च संग्रामे स्थातुमेवं सुखावहाः ॥ ८ ॥

दैत्योंने कहा-हे मुनिश्रेष्ठ ! देवताओंसे पराजित होकर हमलोग अत्यन्त निर्बल हो गये हैं, अतः उतने समयतक प्रतीक्षा करनेके लिये हम पृथ्वीपर रहनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? सभी पराक्रमी दानव मारे जा चुके हैं और जो शेष बचे हुए हैं, सुखकी इच्छा करनेवाले वे अब युद्धमें ठहरने में समर्थ नहीं हैं ॥ ७-८ ॥

शुक्र उवाच
यावदहं मन्त्रविद्यामानयिष्यामि शङ्करात् ।
तावद्‌भवद्‌भिः स्थातव्यं तपोयुक्तैः शमान्वितैः ॥ ९ ॥
शुक्राचार्य बोले-जबतक मैं शिवजीसे मन्चविद्या लेकर नहीं आता है, तबतक तुमलोग शान्ति और तपस्यासे युक्त होकर यहीं रुके रहो ॥ ९ ॥

सामदानादयः प्रोक्ता विद्वद्‌भिः समयोचिताः ।
देशं कालं बलं वीरैर्ज्ञात्वा शक्तिं बलं बुधैः ॥ १० ॥
विद्वानोंने कहा है कि समयानुसार साम, दान आदिका प्रयोग करना चाहिये । बुद्धिमान् तथा वीर पुरुष देश, काल, बल, शक्ति और सेनाकी जानकारी करके ही अपना सामर्थ्य दिखाते हैं ॥ १० ॥

सेवाथ समये कार्या शत्रूणां शुभकाम्यया ।
स्वशक्त्युपचये काले हन्तव्यास्ते मनीषिभिः ॥ ११ ॥
बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि अपने कल्याणकी इच्छासे समयपर शत्रुओंकी भी सेवा करे और अपनी शक्तिका संचय हो जानेपर उन्हें मार डाले ॥ ११ ॥

तदद्य विनयं कृत्वा सामपूर्वं छलेन वै ।
तिष्ठध्वं स्वनिकेतेषु मदागमनकाङ्क्षया ॥ १२ ॥
अतः देवताओंकी विनती करके छलपूर्वक सामनीतिका प्रयोग करते हुए मेरे लौटनेकी प्रतीक्षाके साथ अपने-अपने घरोंमें रहो ॥ १२ ॥

प्राप्य मन्त्रान्महादेवादागमिष्यामि दानवाः ।
युध्यामहे पुनर्देवान्मान्त्रमास्थाय वै बलम् ॥ १३ ॥
हे दानवो ! महादेवजीसे मन्त्र प्राप्त करके मैं आऊँगा और तब उसी मन्त्रबलका आश्रय लेकर हमलोग देवताओंसे युद्ध करेंगे ॥ १३ ॥

इत्युक्त्वाथ भृगुस्तेभ्यो जगाम कृतनिश्चयः ।
महादेवं महाराज मन्त्रार्थं मुनिसत्तमः ॥ १४ ॥
हे महाराज ! उन दानवोंसे ऐसा कहकर दृढ़ संकल्पवाले मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्य मन्त्रप्राप्तिके लिये शिवजीके पास चले गये ॥ १४ ॥

दानवाः प्रेषयामासुः प्रह्लादं सुरसन्निधौ ।
सत्यवादिनमव्यग्रं सुराणां प्रत्ययप्रदम् ॥ १५ ॥
तदनन्तर दैत्योंने सत्यवादी, धैर्यवान् तथा देवताओंक विश्वासपात्र प्रह्लादको देवताओंके पास भेजा ॥ १५ ॥

प्रह्लादस्तु सुरान्प्राह प्रश्रयावनतो नृपः ।
असुरैः सहितस्तत्र वचनं नम्रतायुतम् ॥ १६ ॥
न्यस्तशस्त्रा वयं सर्वे निःसन्नाहास्तथैव च ।
देवास्तपश्चरिष्यामः संवृता वल्कलैर्युताः ॥ १७ ॥
असुरोंके साथ वहाँ जाकर राजा प्रहाद विनयसम्पन्न होकर देवताओंसे नम्रतायुक्त वचन बोले । हे देवताओ ! हम सभी लोगोंने शस्त्र रख दिये हैं और कवचका त्याग कर दिया है । अब हम वल्कल धारण करके तपस्या करेंगे ॥ १६-१७ ॥

प्रह्लादस्य वचः श्रुत्वा सत्याभिव्याहृतं तु तत् ।
ततो देवा न्यवर्तन्त विज्वरा मुदिताश्च ते ॥ १८ ॥
प्रह्लादका वचन सुनकर देवताओंने उसे सत्य मान लिया और इसके बाद वे निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे लौट गये ॥ १८ ॥

न्यस्तशस्त्रेषु दैत्येषु विनिवृत्तास्तदा सुराः ।
विश्रब्धाः स्वगृहान्गत्वा क्रीडासक्ताः सुसंस्थिताः ॥ १९ ॥
तब दैत्योंके शस्त्र त्याग देनेपर देवता युद्धसे विरत हो गये और चिन्तारहित होकर अपने-अपने घर जाकर स्वस्थचित्त हो क्रीडाविलासमें संलग्न हो गये ॥ १९ ॥

दैत्या दम्भं समालम्ब्य तापसास्तपिसंयुताः ।
कश्यपस्याश्रमे वासं चक्रुः काव्यागमेच्छया ॥ २० ॥
उस समय दैत्यगण पाखण्डका सहारा लेकर तपस्वीके रूपमें तपस्यारत होकर शुक्राचार्यके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए कश्यपमुनिके आश्रममें रहने लगे ॥ २० ॥

काव्यो गत्वाथ कैलासं महादेवं प्रणम्य च ।
उवाच विभुना पृष्टः किं ते कार्यमिति प्रभुः ॥ २१ ॥
मन्त्रानिच्छाम्यहं देव ये न सन्ति बृहस्पतौ ।
पराजयाय देवानामसुराणां जयाय च ॥ २२ ॥
उधर, मुनि शुक्राचार्यने कैलासपर्वतपर पहुँचकर शंकरजीको प्रणाम किया । भगवान् शिवके पूछनेपर कि 'आपका क्या कार्य है ?'-उन्होंने कहा-हे देव ! मैं देवताओंकी पराजय और असुरोंकी विजयके लिये उन मन्त्रोंको चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके भी पास न हों ॥ २१-२२ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य सर्वज्ञः शङ्करः शिवः ।
चिन्तयामास मनसा किं कर्तव्यमतः परम् ॥ २३ ॥
सुरेषु द्रोहबुद्ध्यासौ मन्त्रार्थमिह साम्प्रतम् ।
प्राप्तः काव्यो गुरुस्तेषां दैत्यानां विजयाय च ॥ २४ ॥
रक्षणीया मया देवा इति सञ्चिन्त्य शङ्करः ।
दुष्करं व्रतमत्युग्रं तमुवाच महेश्वरः ॥ २५ ॥
पूर्णं वर्षसहस्रं तु कणधूममवाक्छिराः ।
यदि पास्यसि भद्रं ते ततो मन्त्रानवाप्स्यसि ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-उनका वचन सुनकर सर्वज्ञ और कल्याणकारी भगवान् शिव मनमें सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? ये दैत्यगुरु शुक्राचार्य देवताओंके प्रति द्रोह-बुद्धिसे युक्त होकर उन दैत्योंकी विजयके लिये मन्त्रहेतु इस समय यहाँ आये हैं, अत: मुझे देवताओंकी रक्षा करनी चाहियेऐसा सोचकर शिवजीने उन्हें यह अत्यन्त कठोर और दुष्कर व्रत करनेको कहा-पूरे एक हजार वर्षांतक यदि आप सिर नीचे करके कणधूम (भूसीके धुएँ)का पान करेंगे, तभी आपका कल्याण होगा और आप मन्त्र प्राप्त कर सकेंगे ॥ २३-२६ ॥

इत्युक्तोऽसौ प्रणम्येशं बाढमित्यब्रवीद्वचः ।
व्रतं चराम्यहं देव त्वयाज्ञप्तः सुरेश्वर ॥ २७ ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर उन्होंने महेश्वरको प्रणाम करके यह वचन कहा-'बहुत अच्छा', हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपने मुझे जो आदेश दिया है, मैं उस व्रतका पालन करूँगा ॥ २७ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा शङ्करं काव्यश्चकार व्रतमुत्तमम् ।
धूमपानरतः शान्तो मन्त्रार्थं कृतनिश्चयः ॥ २८ ॥
व्यासजी बोले-शिवजीसे ऐसा कहकर मन्त्रप्राप्तिके लिये दृढ़संकल्प शुक्राचार्यजी शान्त होकर धुएँका सेवन करते हुए कठोर व्रत करने लगे ॥ २८ ॥

ततो देवाः परिज्ञाय काव्यं व्रतरतं तदा ।
दैत्यान्दम्भरतांश्चैव बभूवुर्मन्त्रतत्पराः ॥ २९ ॥
तब उस समय शुक्राचार्यको व्रतमें संलग्न तथा दैत्योंको [तपस्वी बनकर] पाखण्डमें निरत देखकर देवता लोग आपसमें मन्त्रणा करने लगे ॥ २९ ॥

विचार्य मनसा सर्वे संग्रामायोद्यता नृप ।
ययुर्धृतायुधास्तत्र यत्र ते दानवोत्तमाः ॥ ३० ॥
हे राजन् ! भलीभाँति विचार करके सभी देवता संग्रामके लिये उद्यत हो गये और शस्त्रास्त्र धारणकर वहाँ पहुँच गये, जहाँ वे बड़े-बड़े दानव विद्यमान थे ॥ ३० ॥

तानागतान्समीक्ष्याथ सायुधान्दंशितांस्तथा ।
आसंस्ते भयसंविग्ना दैत्या देवान्समन्ततः ॥ ३१ ॥
तदनन्तर दैत्यगण उन आये हुए देवताओंको आयुधोंसे सज्जित और कवच धारण किये तथा अपनेको उनसे सब ओरसे घिरा देखकर भयसे व्याकुल हो उठे ॥ ३१ ॥

उत्पेतुः सहसा ते वै सन्नद्धान्भयकर्शिताः ।
अब्रुवन्वचनं तथ्यं ते देवान्वलदर्पितान् ॥ ३२ ॥
न्यस्तशस्त्रे भयवति आचार्ये व्रतमास्थिते ।
दत्त्वाभयं पुरा देवाः सम्प्राप्ता नो जिघांसया ॥ ३३ ॥
सत्यं वः क्व गतं देवा धर्मश्च श्रुतिनोदितः ।
न्यस्तशस्त्रा न हन्तव्या भीताश्च शरणं गताः ॥ ३४ ॥
वे भयातुर दानव तुरंत उठकर खड़े हो गये और युद्धके लिये उद्यत बलाभिमानी देवताओंसे सारगर्भित वचन कहने लगे-हमने शस्त्र रख दिये हैं, हम भयभीत हैं और हमारे आचार्य इस समय व्रतमें संलग्न हैं । हे देवताओ ! पहले अभयदान देकर भी आप लोग हमें मारनेकी इच्छासे आ गये । हे देवगण ! आप लोगोंका सत्य और श्रुतिसम्मत वह धर्म कहाँ चला गया कि 'जो शस्त्र रख चुके हों, भयभीत हों और शरणागत हो गये हों, उन्हें नहीं मारना चाहिये' ॥ ३२-३४ ॥

देवा ऊचुः
भवद्‌भिः प्रेषितः काव्यो मन्त्रार्थं कुहकेन च ।
तपो ज्ञातं हि युष्माकं तेन युध्याम एव हि ॥ ३५ ॥
देवता बोले-आप लोगोंने छलसे शुक्राचार्यको मन्त्र प्राप्त करनेके लिये भेजा है । हम आपलोगोंके तपको जान गये हैं, इसीलिये हमलोग युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए हैं ॥ ३५ ॥

सज्जा भवन्तु युद्धाय संरब्धाः शस्त्रपाणयः ।
शत्रुश्छिद्रेण हन्तव्य एष धर्मः सनातनः ॥ ३६ ॥
अब क्षुब्ध हुए आपलोग भी हाथोंमें शस्त्र धारणकर युद्धके लिये तैयार हो जाइये । यह सनातन सिद्धान्त है कि जब शत्रु दुर्बल हो, तभी उसे मार डालना चाहिये ॥ ३६ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं दैत्या विचार्य च परस्परम् ।
पलायनपराः सर्वे निर्गता भयविह्वलाः ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-उनका वचन सुनकर सभी दैत्य आपसमें विचार करके भागनेके लिये तत्पर हो गये और भयसे व्याकुल होकर वहाँसे निकल भागे ॥ ३७ ॥

शरणं दानवा जग्मुर्भीतास्ते काव्यमातरम् ।
दृष्ट्वा तानतिसन्तप्तानभयं च ददावथ ॥ ३८ ॥
वे भयभीत दैत्य शुक्राचार्यकी माताकी शरणमें गये । उन दैत्योंको बहुत सन्तप्त देखकर उन्होंने अभय प्रदान कर दिया ॥ ३८ ॥

काव्यमातोवाच
न भेतव्यं न भेतव्यं भयं त्यजत दानवाः ।
मत्सन्निधौ वर्तमानान्न भीर्भवितुमर्हति ॥ ३९ ॥
शुक्राचार्यकी माताने कहा-हे दानवगण ! डरो मत, डरो मत; तुम लोग भय छोड़ दो । मेरे पास रहनेवालोंको भय हो ही नहीं सकता ॥ ३९ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं दैत्याः स्थितास्तत्र गतव्यथाः ।
निरायुधा ह्यसंभ्रान्तास्तत्राश्रमवरेऽसुराः ॥ ४० ॥
यह वचन सुनकर दैत्योंकी व्यथा दूर हो गयी और वे शस्त्रास्त्र त्यागकर पूर्ण रूपसे निश्चिन्त हो वहींपर उनके उत्तम आश्रममें रहने लगे ॥ ४० ॥

देवास्तान्विद्रुतान्वीक्ष्य दानवास्ते पदानुगाः ।
अभिजग्मुः प्रसह्यैतानविचार्य बलाबलम् ॥ ४१ ॥
तब दैत्योंको पलायित देखकर वे देवता उनके पैरोंके चिह्नोंके पीछे-पीछे जाते हुए उनके बलाबलका बिना विचार किये हठात् उनके पास पहुँच गये ॥ ४१ ॥

तत्रागताः सुराः सर्वे हन्तुं दैत्यान्समुद्यताः ।
वारिताः काव्यमात्रापि जघ्नुस्तानाश्रमस्थितान् ॥ ४२ ॥
वहाँपर आये हुए सभी देवता आश्रममें रहनेवाले दैत्योंका वध करनेको उद्यत हो गये और शुक्राचार्यकी माताके रोकनेपर भी उन दैत्योंको मारने लगे ॥ ४२ ॥

हन्यमानान्सुरैर्दृष्ट्वा काव्यमातातिवेपिता ।
उवाच सर्वान्सनिद्रांस्तपसा वै करोम्यहम् ॥ ४३ ॥
इस प्रकार देवताओंके द्वारा उन्हें मारे जाते हुए देखकर शुक्राचार्यकी माता बहुत काँपने लगीं और बोलीं-मैं अभी समस्त देवताओंको अपने तपके प्रभावसे निद्राग्रस्त कर दे रही हूँ ॥ ४३ ॥

इत्युक्त्वा प्रेरिता निद्रा तानागत्य पपात च ।
सेन्द्रा निद्रावशं याता देवा मूकवदास्थिताः ॥ ४४ ॥
ऐसा कहकर उन्होंने निद्राको प्रेरित किया । उस निद्राने देवताओंके पास आकर उनपर अपना प्रभाव डाल दिया, जिससे इन्द्रसहित सभी देवता निद्राके वशीभूत हो गये और गूंगेकी भाँति पड़े रहे ॥ ४४ ॥

इन्द्रं निद्राजितं दृष्ट्वा दीनं विष्णुरभाषत ।
मां त्वं प्रविश भद्रं ते नये त्वां च सुरोत्तम ॥ ४५ ॥
इन्द्रको निद्राके द्वारा नियन्त्रित तथा दीन देखकर भगवान् विष्णुने कहा-हे देवश्रेष्ठ ! तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें अन्यत्र पहुँचाता हूँ ॥ ४५ ॥

एवमुक्तस्ततो विष्णुं प्रविवेश पुरन्दरः ।
निर्भयो गतनिद्रश्च बभूव हरिरक्षितः ॥ ४६ ॥
विष्णुके इस प्रकार कहनेपर इन्द्र उनमें प्रवेश कर गये और उन श्रीहरिसे रक्षित होकर वे निर्भय तथा निद्रारहित हो गये ॥ ४६ ॥

रक्षितं हरिणा दृष्ट्वा शक्रं तत्र गतव्यथम् ।
काव्यमाता ततः क्रुद्धा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ४७ ॥
मघवंस्त्वां भक्षयामि सविष्णुं वै तपोबलात् ।
पश्यतां सर्वदेवानामीदृशं मे तपोबलम् ॥ ४८ ॥
तब भगवान् विष्णुके द्वारा रक्षित इन्द्रको व्यथाशून्य देखकर शुक्राचार्यकी माता कुपित हो उठी और यह वचन बोली-हे इन्द्र ! सभी देवताओंके देखते-देखते मैं अपने तपोबलसे विष्णुसहित तुम्हें खा जाऊँगी; ऐसा मेरा तपोबल है ॥ ४७-४८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तौ तु तया देवौ विष्ण्विन्द्रौ योगविद्यया ।
अभिभूतौ महात्मानौ स्तब्धौ तौ सम्बभूवतुः ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर उन्होंने अपनी योगविद्याके द्वारा इन्द्र तथा विष्णुको आक्रान्त कर दिया और वे दोनों महात्मा स्तब्ध हो गये ॥ ४९ ॥

विस्मितास्तु तदा देवा दृष्ट्वा तावतिबाधितौ ।
चक्रुः किलकिलाशब्दं ततस्ते दीनमानसाः ॥ ५० ॥
उन दोनोंको बहुत बड़े संकटमें पड़ा देखकर देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ और वे दुःखीचित्त हो जोर-जोरसे चीखने-चिल्लाने लगे ॥ ५० ॥

क्रोशमानान्सुरान्दृष्ट्वा विष्णुं प्राह शचीपतिः ।
विशेषेणाभिभूतोऽस्मि त्वत्तोऽहं मधुसूदन ॥ ५१ ॥
जह्येनां तरसा विष्णो यावन्नौ न दहेत्प्रभो ।
तपसा दर्पितां दुष्टां मा विचारय माधव ॥ ५२ ॥
देवताओंको चीखते-चिल्लाते देखकर इन्द्रने विष्णुसे कहा-हे मधुसूदन ! मैं [इस समय] आपकी अपेक्षा अधिक आक्रान्त हूँ । अतः हे विष्णो ! हे प्रभो ! यह हमें जबतक भस्म न कर दे, आप तपस्याके अभिमानमें चूर इस दुष्टाको शीघ्रतापूर्वक मार डालिये । हे माधव ! अब आप सोच-विचार न करें ॥ ५१-५२ ॥

इत्युक्तो भगवान्विष्णुः शक्रेण प्रथितेन च ।
चक्रं सस्मार तरसा घृणां त्यक्त्वाथ माधवः ॥ ५३ ॥
स्मृतमात्रं तु सम्प्राप्तं चक्रं विष्णुवशानुगम् ।
दधार च करे क्रुद्धो वधार्थं शक्रनोदितः ॥ ५४ ॥
कीर्तिमान् इन्द्रके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने दया छोड़कर तत्काल सुदर्शन चक्रका स्मरण किया । विष्णुके वशमें रहनेवाला वह चक्र उनके स्मरण करते ही आ पहुँचा और इन्द्रसे प्रेरित होकर उन्होंने कुपित हो उसके वधके लिये चक्रको अपने हाथमें ले लिया ॥ ५३-५४ ॥

गृहीत्वा तत्करे चक्रं शिरश्चिच्छेद रंहसा ।
हतां दृष्ट्वा तु तां शक्रो मुदितश्चाभवत्तदा ॥ ५५ ॥
देवाश्चातीव सन्तुष्टा हरिं जय जयेति च ।
तुष्टुवुर्मुदिताः सर्वे सञ्जाता विगतज्वराः ॥ ५६ ॥
उस चक्रको हाथमें लेकर भगवान् विष्णुने बड़े वेगसे उसका सिर काट दिया । तब उसे मृत देखकर इन्द्र हर्षित हो उठे । सभी देवता भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विष्णुको जयकार करने लगे । वे प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और सन्तापरहित हो गये ॥ ५५-५६ ॥

इन्द्रविष्णू तु सञ्जातौ तत्क्षणाद्धृदयव्यथौ ।
स्त्रीवधाच्छंकमानौ तु भृगोः शापं दुरत्ययम् ॥ ५७ ॥
स्त्रीवधसे [होनेवाले पाप] तथा भृगुमुनिके भीषण शापकी शंका करते हुए वे भगवान् विष्णु तथा इन्द्र उसी समयसे दुःखीचित्त रहने लगे ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे शुक्रमातुर्वधवर्णनं नामेकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अध्याय ग्यारहवाँ समाप्त ॥ ११ ॥


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