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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनम् -
महात्मा भृगद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना -


व्यास उवाच
तं दृष्ट्वा तु वधं घोरं चुक्रोध भगवान्भृगुः ।
वेपमानोऽतिदुःखार्तः प्रोवाच मधुसूदनम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस भयानक वधको देखकर भगवान् भृगु अत्यन्त कुपित हुए और दुःखसे व्याकुल होकर काँपते हुए वे मधुसूदन विष्णुसे कहने लगे ॥ १ ॥

भृगुरुवाच
अकृत्यं ते कृतं विष्णो जानन्पापं महामते ।
वधोऽयं विप्रजाताया मनसा कर्तुमक्षमः ॥ २ ॥
भृगु बोले-हे महाबुद्धिमान् विष्णो ! जो नहीं करना चाहिये वह पाप आपने जान-बूझकर कर डाला । विप्र-स्त्रीके इस वधकी तो मनसे कल्पना करना भी अनुचित है ॥ २ ॥

आख्यातस्त्वं सत्त्वगुणः स्मृतो ब्रह्मा च राजसः ।
तथासौ तामसः शम्भुर्विपरीतं कथं स्मृतम् ॥ ३ ॥
तामसस्त्वं कथं जातः कृतं कर्मातिनिन्दितम् ।
अवध्या स्त्री त्वया विष्णो हता कस्मान्निरागसा ॥ ४ ॥
आप तो सत्त्वगुणसे सम्पन्न कहे गये हैं, ब्रह्मा रजोगुणी और शिव तमोगुणी बताये गये हैं । तब आपने अपने गुणके विपरीत कार्य क्यों किया ? आप तामसी कैसे हो गये, जिससे आपने यह घोर निन्दनीय कर्म कर डाला ? हे विष्णो ! आपने उस अवध्य तथा निरपराध स्त्रीको क्यों मार डाला ? ॥ ३-४ ॥

शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत्प्रकरोमि ते ।
विधुरोऽहं कृतः पाप त्वयाहं शक्रकारणात् ॥ ५ ॥
न शपेऽहं तथा शक्रं शपे त्वां मधुसूदन ।
सदा छलपरोऽसि त्वं कीटयोनिर्दुराशयः ॥ ६ ॥
[उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा कि] अब मैं तुझ दुराचारीको शाप दे रहा हूँ, इसके अतिरिक्त तुम्हारा क्या प्रतीकार करूँ ? अरे पापी ! तुमने इन्द्रके हितके लिये मुझे विधुर बना दिया । हे मधुसूदन ! मैं इन्द्रको शाप नहीं दूंगा, बल्कि तुम्हें ही शाप दूँगा । कृष्ण सर्पसदृश दुरभिप्रायवाले तुम सदा छल करनेमें ही तत्पर रहते हो ॥ ५-६ ॥

ये च त्वां सात्त्विकं प्राहुस्ते मूर्खा मुनयः किल ।
तामसस्त्वं दुराचारः प्रत्यक्षं मे जनार्दन ॥ ७ ॥
अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसम्भवाः ।
प्रायो गर्भभवं दुःखं भुंक्ष्व पापाज्जनार्दन ॥ ८ ॥
हे जनार्दन ! जो मुनि तुम्हें सात्त्विक कहते हैं. वे निश्चय ही मूर्ख हैं । मैंने तो प्रत्यक्ष जान लिय कि तुम तमोगुणी तथा दुराचारी हो । अतः हे जनार्दन ! मेरे शापसे मृत्युलोकमें तुम्हारे अनेक अवतार हों और [इस स्त्री-वधजन्य] पापके कारण बारबार गर्भवाससे होनेवाले दुःखको भोगो ॥ ७-८ ॥

व्यास उवाच
ततस्तेनाथ शापेन नष्टे धर्मे पुनः पुनः ।
लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुषेष्विह ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-उसी शापके कारण भगवान विष्णु धर्मका ह्रास होनेपर संसारके कल्याणके लिये बार-बार मानवरूपोंमें प्रकट होते हैं ॥ ९ ॥

राजोवाच
भूगुभार्या हता तत्र चक्रेणामिततेजसा ।
गार्हस्थ्यञ्च पुनस्तस्य कथं जातं महात्मनः ॥ १० ॥

राजा बोले-[हे व्यासजी !] जब अमित तेजस्वी चक्रके द्वारा भूगुपत्नीका वध हो गया. उसके बाद महात्मा भृगुका गार्हस्थ्य-जीवन कैसे व्यतीत हुआ ? ॥ १० ॥

व्यास उवाच
इति शप्त्वा हरिं रोषात्तदादाय शिरस्त्वरन् ।
काये संयोज्य तरसा भृगुः प्रोवाच कार्यवित् ॥ ११ ॥
अद्य त्वां विष्णुना देवि हतां सञ्जीवयाम्यहम् ।
यदि कृत्स्नो मया धर्मो ज्ञायते चरितोऽपि वा ॥ १२ ॥
तेन सत्येन जीवेत यदि सत्यं ब्रवीम्यहम् ।
पश्यन्तु देवताः सर्वा मम तेजोबलं महत् ॥ १३ ॥
अद्‌भिस्त्वां प्रोक्ष्य शीताभिर्जीवयामि तपोबलात् ।
सत्यं शौचं तथा वेदा यदि मे तपसो बलम् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार रोषपूर्वक भगवान विष्णुको शाप देकर कार्यकुशल महर्षि भृगु तत्काल उस [कटे] सिरको लेकर शीघ्रतापूर्वक [अपनी पत्नीके] धड़में जोड़ करके बोले-हे देवि ! विष्णुक द्वारा तुम मारी जा चुकी हो, किंतु अब मैं तुम्हें फिरसे जीवित कर रहा हूँ । यदि मैं सम्पूर्ण धर्म जानता हूँ तथा उसका सम्यक् आचरण करता हूँ और सदा सत्य भाषण करता हूँ तो उसी सत्यके प्रभावसे तुम जीवित हो जाओ । सभी देवता मेरे महान् तेज-बलको देख लें । यदि मुझमें सत्य, पवित्रता, वेदाध्ययन तथा तपस्याका बल होगा तो मैं उन्हींके प्रभावसे शीतल जलसे तुम्हारा प्रोक्षण करके तुम्हें जीवित कर दूंगा ॥ ११-१४ ॥

व्यास उवाच
अद्‌भिः सम्प्रोक्षिता देवी सद्यः सञ्जीविता तदा ।
उत्थिता परमप्रीता भृगोर्भार्या शुचिस्मिता ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-तब जलसे प्रोक्षित करते ही मधुर मुसकानवाली वे भृगुपत्नी शीघ्र ही जीवित हो गयीं और बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उठकर खड़ी हो गयीं ॥ १५ ॥

ततस्तां सर्वभूतानि दृष्ट्वा सुप्तोत्थितामिव ।
साधु साध्विति तं तां तु तुष्टुवुः सर्वतो दिशम् ॥ १६ ॥
तब सोकर उठी हुईके समान उसे देखकर सब ओरसे लोग 'साधु-साधु'-ऐसा कहकर भृगमुनि तथा उनकी भार्या दोनोंकी स्तुति करने लगे ॥ १६ ॥

एवं सञ्चीविता तेन भृगुणा वरवर्णिनी ।
विस्मयं परमं जग्मुर्देवाः सेन्द्रा विलोक्य तत् ॥ १७ ॥
इस प्रकार उन महर्षि भृगुने उस सुन्दरीको जीवित कर दिया । यह देखकर इन्द्रसहित सभी देवता अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे ॥ १७ ॥

इन्द्रः सुरानथोवाच मुनिना जीविता सती ।
काव्यस्तप्त्वा तपो घोरं किं करिष्यति मन्त्रवित् ॥ १८ ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने देवताओंसे कहा-भृगुमुनिने अपनी साध्वी भार्याको जीवित कर दिया । साथ ही मन्त्रज्ञानी शुक्राचार्य कठोर तपस्या करके [शिवसे मन्त्र प्राप्तकर] पता नहीं क्या कर डालेंगे ! ॥ १८ ॥

व्यास उवाच
गता निद्रा सुरेन्द्रस्य देहेऽक्षेममभून्नृप ।
स्मृत्वा काव्यस्य वृत्तान्तं मन्त्रार्थमतिदारुणम् ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! मन्त्रप्राप्तिके लिये शुक्राचार्यके अत्यन्त कठोर तपका स्मरण करके इन्द्रकी नींद समाप्त हो गयी और उनके शरीरमें व्याकुलता होने लगी ॥ १९ ॥

विमृश्य मनसा शक्रो जयन्तीं स्वसुतां तदा ।
उवाच कन्यां चार्वङ्गीं स्मितपूर्वमिदं वचः ॥ २० ॥
गच्छ पुत्रि मया दत्ता काव्याय त्वं तपस्विने ।
समाराधय तन्वङ्‌गि मत्कृते तं वशं कुरु ॥ २१ ॥
उपचारैर्मुनिं तैस्तैः समाराध्य मनःप्रियैः ।
भयं मे तरसा गत्वा हर तत्र वराश्रमे ॥ २२ ।
तब मनमें भली-भाँत विचार करके इन्द्रने सुन्दर स्वरूपवाली अपनी पुत्री जयन्तीसे मुसकराते हुए कहा-हे पुत्रि ! मैंने तुम्हें तपस्वी शुक्राचार्यको सौंप दिया । अत: हे तन्वंगि ! अब तुम जाओ और मेरे कल्याणके लिये उनकी सेवा करो और उन्हें वशमें कर लो । उस उत्तम आश्रममें शीघ्र जाकर उनके मनको प्रिय लगनेवाले विविध उपचारोंसे उन्हें प्रसन्न करके मेरा भय दूर करो ॥ २०-२२ ॥

सा पितुर्वचनं श्रुत्वा तत्रागच्छन्मनोरमा ।
तमपश्यद्विशालाक्षी पिबन्तं धूममाश्रमे ॥ २३ ॥
विशाल नयनोंवाली वह सुन्दर कन्या पिताकी बात सुनकर [शुक्राचार्यके] आश्रममें गयी और वहाँपर उसने मुनिको [नीचेकी ओर सिर करके] धुएँका सेवन करते हुए देखा ॥ २३ ॥

तस्य देहं समालोक्य स्मृत्वा वाक्यं पितुस्तदा ।
कदलीदलमादाय वीजयामास तं मुनिम् ॥ २४ ॥
तब उनके [तपोरत] शरीरको देखकर और पिताकी बात याद करके वह केलेका एक पत्ता लेकर मुनिको पंखा झलने लगी ॥ २४ ॥

निर्मलं शीतलं वारि समानीय सुवासितम् ।
पानाय कल्पयामास भक्त्या परमया लघु ॥ २५ ॥
छायां वस्त्रातपत्रेण भास्करे मध्यगे सति ।
रचयामास तन्वङ्गी स्वयं धर्मे स्थिता सती ॥ २६ ॥
तबसे वह उनके पीनेके लिये अत्यन्त स्वच्छ, शीतल, सुगन्धित तथा रुचिकर जल ले आकर [उनके समक्ष] श्रद्धापूर्वक उपस्थित किया करती । सूर्यके मध्य आकाशमें होते ही वह सुन्दरी उनके ऊपर वस्त्रसे छतरी बनाकर छाया कर देती थी । वह साध्वी सदा पातिव्रत्य धर्मका पालन करती थी ॥ २५-२६ ॥

फलान्यानीय दिव्यानि पक्वानि मधुराणि च ।
मुमोचाग्रे मुनेस्तस्य भक्षार्थं विहितानि च ॥ २७ ॥
कुशाः प्रादेशमात्रा हि हरिताः शुकसन्निभाः ।
दधाराग्रेऽथ पुष्पाणि नित्यकर्मसमृद्धये ॥ २८ ॥
निद्रार्थं कल्पयामास संस्तरं पल्लवान्वितम् ।
तस्मिन्मुनौ चादरस्था चकार व्यजनं शनैः ॥ २९ ॥
वह शास्त्रविहित दिव्य, पके तथा मीठे फल लाकर खानेके लिये उन मुनिके समक्ष रख देती थी । वह कन्या उनके नित्यकर्मके सम्पादनार्थ पुष्प और तोतेके वर्णके समान प्रादेशमात्र मापवाले हरे-हरे कुश उनके आगे प्रस्तुत कर देती थी । उनके शयनके लिये वह कोमल-कोमल पत्तोंका बिछौना तैयार करती थी और फिर उन मुनिके प्रति आदरभाव रखकर धीरेधीरे पंखा झलने लगती थी ॥ २७-२९ ॥

हावभावादिकं किञ्चिद्विकारजननं च तत् ।
न चकार जयन्ती सा शापभीता मुनेस्तदा ॥ ३० ॥
मुनिके शापसे भयभीत होकर वह जयन्ती उनक मनमें विकार उत्पन्न करनेवाला कोई हाव-भाव प्रदर्शित नहीं करती थी ॥ ३० ॥

स्तुतिं चकार तन्वङ्गी गीर्भिस्तस्य महात्मनः ।
सुभाषिण्यनुकूलाभिः प्रीतिकर्त्रीभिरप्युत ॥ ३१ ॥
प्रबुद्धे जलमादाय दधाराचमनाय च ।
मनोऽनुकूलं सततं कुर्वन्ती व्यचरत्तदा ॥ ३२ ॥
सुकुमार अंगोंवाली तथा मृदुभाषण करनेवाली वह कन्या उन महात्माके मनके अनुकूल तथा प्रीति उत्पन्न करनेवाले शब्दोंसे उनकी स्तुति करती थी । तत्पश्चात् उनके जाग जानेपर आचमनके लिये जल लाकर रख देती थी । इस प्रकार सदा उनके मनके अनुकूल कार्य करती हुई उनके साथ व्यवहार करती थी ॥ ३१-३२ ॥

इन्द्रोऽपि सेवकांस्तत्र प्रेषयामास चातुरः ।
प्रवृत्तिं ज्ञातुकामो वै मुनेस्तस्य जितात्मनः ॥ ३३ ॥
चिन्तासे व्याकुल इन्द्र भी उन जितेन्द्रिय मुनिकी प्रवृत्ति जाननेकी इच्छासे अपने सेवक भेजते रहते थे ॥ ३३ ॥

एवं बहूनि वर्षाणि परिचर्यापराभवत् ।
निर्विकारा जितक्रोधा ब्रह्मचर्यपरा सती ॥ ३४ ॥
इस प्रकार वह साध्वी कन्या क्रोधपर विजय प्राप्त करके, निर्विकार होकर तथा ब्रह्मचर्यपरायण रहती हुई बहुत वर्षोंतक मुनिकी सेवामें संलग्न रही ॥ ३४ ॥

पूर्णे वर्षसहस्रे तु परितुष्टो महेश्वरः ।
वरेण छन्दयामास काव्यं प्रीतमना हरः ॥ ३५ ॥
तदनन्तर हजार वर्ष पूर्ण होनेपर महेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक वे शुक्राचार्यसे वर माँगनेके लिये कहने लगे ॥ ३५ ॥

ईश्वर उवाच
यच्च किञ्चिदपि ब्रह्मन्विद्यते भृगुनन्दन ।
प्रतिपश्यसि यत्सर्वं यच्च वाच्यं न कस्यचित् ॥ ३६ ॥
सर्वाभिभावकत्वेन भविष्यसि न संशयः ।
अवध्यः सर्वभूतानां प्रजेशश्च द्विजोत्तमः ॥ ३७ ॥
ईश्वर बोले-हे ब्रह्मन् ! हे भृगुनन्दन ! जगत्में जो कुछ भी विद्यमान है, आप जो सब देख रहे हैं तथा जो किसीकी भी वाणीका विषय नहीं है-उन सबके स्वामित्वसे आप युक्त हो जायेंगे; इसमें कोई सन्देह नहीं है । आप सभी प्राणियोंसे अवध्य होंगे । आप प्रजाओंके स्वामी तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे ॥ ३६-३७ ॥

व्यास उवाच
एवं दत्त्वा वराञ्छम्भुस्तत्रैवान्तरधीयत ।
काव्यस्तामथ संवीक्ष्य जयन्तीं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३८ ॥
कासि कस्यासि सुश्रोणि ब्रूहि किं ते चिकीर्षितम् ।
किमर्थमिह सम्प्राप्ता कार्यं वद वरोरु मे ॥ ३९ ॥
किं वाञ्छसि करोम्यद्य दुष्करं चेत्सुलोचने ।
प्रीतोऽस्मि त्वत्कृतेनाद्य वरं वरय सुव्रते ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वर प्रदान करके शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् जयन्तीको देखकर शुक्राचार्यने उससे कहा-हे सुश्रोणि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो; मुझे अपनी अभिलाषा बताओ । हे सुन्दरि ! तुम यहाँ किसलिये आयी हो, अपना कार्य बताओ । हे सुनयने ! तुम क्या चाहती हो; यदि वह कार्य दुष्कर भी हो तो भी मैं उसे अभी कर दूंगा । हे सुव्रते ! आज मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ, अतः वर माँग लो ॥ ३८-४० ॥

ततः सा तु मुनिं प्राह जयन्ती मुदितानना ।
चिकीर्षितं मे भगवंस्तपसा ज्ञातुमर्हसि ॥ ४१ ॥
तदनन्तर प्रसन्न मुखमण्डलवाली जयन्तीने मुनिसे कहा-हे भगवन् ! आप तो अपनी तपस्यासे मेरा अभिलषित जान लेने में समर्थ हैं ॥ ४१ ॥

शुक्र उवाच
ज्ञातं मया तथापि त्वं ब्रूहि यन्मनसेप्सितम् ।
करोमि सर्वथा भद्रं प्रीतोऽस्मि परिचर्यया ॥ ४२ ॥
शक्राचार्य बोले-वह तो मैंने जान लिया, फिर भी जो तुम्हारा मनोभिलषित है, उसे तुम मुझे बताओ । मैं हर तरहसे तुम्हारा कल्याण करूंगा; क्योंकि मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ ॥ ४२ ॥

जयन्त्युवाच
शक्रस्याहं सुता ब्रह्मन् पित्रा तुभ्यं समर्पिता ।
जयन्ती नामतश्चाहं जयन्तावरजा मुने ॥ ४३ ॥
जयन्ती बोली-हे ब्रह्मन् ! मैं इन्द्रकी पुत्री हूँ और पिताजीने मुझे आपको सौंप दिया है । हे मुने ! मेरा नाम जयन्ती है और मैं जयन्तकी छोटी बहन हूँ ॥ ४३ ॥

सकामास्मि त्वयि विभो वाञ्छितं कुरु मेऽधुना ।
रंस्ये त्वया महाभाग धर्मतः प्रीतिपूर्वकम् ॥ ४४ ॥
हे विभो ! मैं आपपर आसक्त हूँ, अतः मेरी अभिलाषा पूर्ण कीजिये । हे महाभाग ! मैं पातिव्रतधर्मके अनुसार प्रेमपूर्वक आपके साथ विहार करूँगी ॥ ४४ ॥

शुक्र उवाच
मया सह त्वं सुश्रोणि दशवर्षाणि भामिनि ।
सर्वैर्भूतैरदृश्या च रमस्वेह यदृच्छया ॥ ४५ ॥
शुक्राचार्य बोले-हे सुश्रोणि ! हे भामिनि ! तुम सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहती हुई दस वर्षांतक इच्छानुसार मेरे साथ यहाँ विहार करो ॥ ४५ ॥

व्यास उवाच
एवमुक्त्वा गृहं गत्वा जयन्त्याः पाणिमुद्वहन् ।
तया सहावसद्देव्या दशवर्षाणि भार्गवः ॥ ४६ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर शुक्राचार्यने घर जाकर जयन्तीके साथ विवाह किया । तत्पश्चात् मायासे आच्छादित होकर सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहते हुए वे ऐश्वर्यसम्पन्न मुनि शुक्राचार्य देवी जयन्तीके साथ दस वर्षांतक वहाँ रहे ॥ ४६ ॥

अदृश्यः सर्वभूतानां मायया संवृतः प्रभुः ।
दैत्यास्तमागतं श्रुत्वा कृतार्थं मन्त्रसंयुतम् ॥ ४७ ॥
अभिजग्मुर्गृहे तस्य मुदितास्ते दिदृक्षवः ।
नापश्यन् रममाणं ते जयन्त्या सह संयुतम् ॥ ४८ ॥
गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल हो मन्त्रसे युक्त होकर आया हुआ सुनकर सभी दैत्य उनके दर्शनकी इच्छासे प्रसन्नतापूर्वक उनके घर गये, किंतु वे उन्हें देख न सके; क्योंकि उस समय वे जयन्तीके साथ विहार कर रहे थे ॥ ४७-४८ ॥

तदा विमनसः सर्वे जाता भग्नोद्यमाश्च ते ।
चिन्तापरातिदीनाश्च वीक्षमाणाः पुनः पुनः ॥ ४९ ॥
अदृष्ट्वा तं तु संवृत्तं प्रतिजग्मुर्यथागतम् ।
स्वगृहान्दैत्यवर्यास्ते चिन्ताविष्टा भयातुराः ॥ ५० ॥
इससे उन सभी दैत्योंका मन उदास हो गया और उनके सभी उद्योग व्यर्थ हो गये । वे बहुत चिन्तित और दुःखी होकर उन्हें बार-बार खोजते रहे । अन्तमें [मायासे] आच्छादित उन मुनिको न देखकर वे चिन्तित तथा भयभीत दैत्य जैसे आये थे वैसे ही अपने घर लौट गये ॥ ४९-५० ॥

रममाणं तथा ज्ञात्वा शक्रः प्रोवाच तं गुरुम् ।
बृहस्पतिं महाभाग किं कर्तव्यमितः परम् ॥ ५१ ॥
तत्पश्चात् शुक्राचार्यको विहार करता हुआ जानकर इन्द्रने अपने गुरु महाभाग बृहस्पतिसे कहा-अब क्या किया जाय ? ॥ ५१ ॥

गच्छाद्य दानवान्ब्रह्मन्मायया त्वं प्रलोभय ।
अस्माकं कुरु कार्यं त्वं बुद्ध्या सञ्चिन्त्य मानद ॥ ५२ ॥
हे ब्रह्मन् ! आप दानवोंके पास जाइये और मायाके द्वारा उन्हें मोहमें डाल दीजिये । हे मानद. बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके आप हमारा कार्य सिद्ध कर दीजिये ॥ ५२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं काव्यं रममाणं सुसंवृतम् ।
ज्ञात्वा तद्‌रूपमास्थाय दैत्यान्मति ययौ गुरुः ॥ ५३ ॥
इन्द्रकी बात सुनकर देवगुरु बृहस्पति शुक्राचार्यको मायाच्छादित होनेके कारण [अदृश्य हो जयन्तीके साथ] क्रीडा करते जानकर उन्हींका रूप धारण करके दैत्योंके पास गये ॥ ५३ ॥

गत्वा तत्रातिभक्त्यासौ दानवान्समुपाह्वयत् ।
आगतास्तेऽसुराः सर्वे ददृशुः काव्यमग्रतः ॥ ५४ ॥
वहाँ पहुँचकर उन्होंने बड़े आदरके साथ दानवोंको बुलवाया । तब सभी दानव आ गये और उन्होंने शुक्राचार्यको अपने सम्मुख देखा ॥ ५४ ॥

प्रणम्य संस्थिताः सर्वे काव्यं मत्वातिमोहिताः ।
न विदुस्ते गुरोर्मायां काव्यरूपविभाविनीम् ॥ ५५ ॥
मायासे विमोहित सभी दैत्य [उन छद्मवेषधारी देवगुरु बृहस्पतिको ही] शुक्राचार्य समझकर उन्हें प्रणाम करके उनके समक्ष खड़े हो गये । वे शुक्राचार्यका कृत्रिम रूप प्रकट करनेवाली देवगुरु बृहस्पतिकी मायाको नहीं जान सके ॥ ५५ ॥

तानुवाच गुरुः काव्यरूपः प्रच्छन्नमायया ।
स्वागतं मम याज्यानां प्राप्तोऽहं वो हिताय वै ॥ ५६ ॥
अहं वो बोधयिष्यामि विद्यां प्राप्ताममायया ।
तपसा तोषितः शम्भुर्युष्मत्कल्याणहेतवे ॥ ५७ ॥
तत्पश्चात् छद्म मायासे शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले गुरु बृहस्पतिने उनसे कहा-मेरे यजमानोंका स्वागत है । मैं आपलोगोंके हितके लिये अब आ गया हूँ । मैंने आप सबके कल्याणके लिये तपस्याके द्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न कर लिया और अब मैं उनसे प्राप्त विद्याको निष्कपट भावसे आपलोगोंको बता दूँगा ॥ ५६-५७ ॥

तच्छ्रुत्वा प्रीतमनसो जातास्ते दानवोत्तमाः ।
कृतकार्यं गुरुं मत्वा जहृषुस्ते विमोहिताः ॥ ५८ ॥
प्रणेमुस्ते मुदा युक्ता निरातङ्का गतव्यथाः ।
देवेभ्यश्च भयं त्यक्त्वा तस्थुः सर्वे निरामयाः ॥ ५९ ॥
यह सुनकर वे श्रेष्ठ दानव प्रसन्नचित्त हो गये । गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल समझकर वे मोहग्रस्त दानव बहुत हर्षित हुए और उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें प्रणाम किया । वे भयमुक्त तथा सन्तापरहित हो गये । अब देवताओंका भय छोड़कर वे सभी दैत्य स्वस्थचित्त होकर रहने लगे ॥ ५८-५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
अध्याय बारहवाँ समाप्त ॥ १२ ॥


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