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जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनम् -
महात्मा भृगद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना -
व्यास उवाच तं दृष्ट्वा तु वधं घोरं चुक्रोध भगवान्भृगुः । वेपमानोऽतिदुःखार्तः प्रोवाच मधुसूदनम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस भयानक वधको देखकर भगवान् भृगु अत्यन्त कुपित हुए और दुःखसे व्याकुल होकर काँपते हुए वे मधुसूदन विष्णुसे कहने लगे ॥ १ ॥
भृगुरुवाच अकृत्यं ते कृतं विष्णो जानन्पापं महामते । वधोऽयं विप्रजाताया मनसा कर्तुमक्षमः ॥ २ ॥
भृगु बोले-हे महाबुद्धिमान् विष्णो ! जो नहीं करना चाहिये वह पाप आपने जान-बूझकर कर डाला । विप्र-स्त्रीके इस वधकी तो मनसे कल्पना करना भी अनुचित है ॥ २ ॥
आख्यातस्त्वं सत्त्वगुणः स्मृतो ब्रह्मा च राजसः । तथासौ तामसः शम्भुर्विपरीतं कथं स्मृतम् ॥ ३ ॥ तामसस्त्वं कथं जातः कृतं कर्मातिनिन्दितम् । अवध्या स्त्री त्वया विष्णो हता कस्मान्निरागसा ॥ ४ ॥
आप तो सत्त्वगुणसे सम्पन्न कहे गये हैं, ब्रह्मा रजोगुणी और शिव तमोगुणी बताये गये हैं । तब आपने अपने गुणके विपरीत कार्य क्यों किया ? आप तामसी कैसे हो गये, जिससे आपने यह घोर निन्दनीय कर्म कर डाला ? हे विष्णो ! आपने उस अवध्य तथा निरपराध स्त्रीको क्यों मार डाला ? ॥ ३-४ ॥
शपामि त्वां दुराचारं किमन्यत्प्रकरोमि ते । विधुरोऽहं कृतः पाप त्वयाहं शक्रकारणात् ॥ ५ ॥ न शपेऽहं तथा शक्रं शपे त्वां मधुसूदन । सदा छलपरोऽसि त्वं कीटयोनिर्दुराशयः ॥ ६ ॥
[उन्होंने क्रोधपूर्वक कहा कि] अब मैं तुझ दुराचारीको शाप दे रहा हूँ, इसके अतिरिक्त तुम्हारा क्या प्रतीकार करूँ ? अरे पापी ! तुमने इन्द्रके हितके लिये मुझे विधुर बना दिया । हे मधुसूदन ! मैं इन्द्रको शाप नहीं दूंगा, बल्कि तुम्हें ही शाप दूँगा । कृष्ण सर्पसदृश दुरभिप्रायवाले तुम सदा छल करनेमें ही तत्पर रहते हो ॥ ५-६ ॥
ये च त्वां सात्त्विकं प्राहुस्ते मूर्खा मुनयः किल । तामसस्त्वं दुराचारः प्रत्यक्षं मे जनार्दन ॥ ७ ॥ अवतारा मृत्युलोके सन्तु मच्छापसम्भवाः । प्रायो गर्भभवं दुःखं भुंक्ष्व पापाज्जनार्दन ॥ ८ ॥
हे जनार्दन ! जो मुनि तुम्हें सात्त्विक कहते हैं. वे निश्चय ही मूर्ख हैं । मैंने तो प्रत्यक्ष जान लिय कि तुम तमोगुणी तथा दुराचारी हो । अतः हे जनार्दन ! मेरे शापसे मृत्युलोकमें तुम्हारे अनेक अवतार हों और [इस स्त्री-वधजन्य] पापके कारण बारबार गर्भवाससे होनेवाले दुःखको भोगो ॥ ७-८ ॥
व्यास उवाच ततस्तेनाथ शापेन नष्टे धर्मे पुनः पुनः । लोकस्य च हितार्थाय जायते मानुषेष्विह ॥ ९ ॥
व्यासजी बोले-उसी शापके कारण भगवान विष्णु धर्मका ह्रास होनेपर संसारके कल्याणके लिये बार-बार मानवरूपोंमें प्रकट होते हैं ॥ ९ ॥
राजोवाच भूगुभार्या हता तत्र चक्रेणामिततेजसा । गार्हस्थ्यञ्च पुनस्तस्य कथं जातं महात्मनः ॥ १० ॥
राजा बोले-[हे व्यासजी !] जब अमित तेजस्वी चक्रके द्वारा भूगुपत्नीका वध हो गया. उसके बाद महात्मा भृगुका गार्हस्थ्य-जीवन कैसे व्यतीत हुआ ? ॥ १० ॥
व्यास उवाच इति शप्त्वा हरिं रोषात्तदादाय शिरस्त्वरन् । काये संयोज्य तरसा भृगुः प्रोवाच कार्यवित् ॥ ११ ॥ अद्य त्वां विष्णुना देवि हतां सञ्जीवयाम्यहम् । यदि कृत्स्नो मया धर्मो ज्ञायते चरितोऽपि वा ॥ १२ ॥ तेन सत्येन जीवेत यदि सत्यं ब्रवीम्यहम् । पश्यन्तु देवताः सर्वा मम तेजोबलं महत् ॥ १३ ॥ अद्भिस्त्वां प्रोक्ष्य शीताभिर्जीवयामि तपोबलात् । सत्यं शौचं तथा वेदा यदि मे तपसो बलम् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार रोषपूर्वक भगवान विष्णुको शाप देकर कार्यकुशल महर्षि भृगु तत्काल उस [कटे] सिरको लेकर शीघ्रतापूर्वक [अपनी पत्नीके] धड़में जोड़ करके बोले-हे देवि ! विष्णुक द्वारा तुम मारी जा चुकी हो, किंतु अब मैं तुम्हें फिरसे जीवित कर रहा हूँ । यदि मैं सम्पूर्ण धर्म जानता हूँ तथा उसका सम्यक् आचरण करता हूँ और सदा सत्य भाषण करता हूँ तो उसी सत्यके प्रभावसे तुम जीवित हो जाओ । सभी देवता मेरे महान् तेज-बलको देख लें । यदि मुझमें सत्य, पवित्रता, वेदाध्ययन तथा तपस्याका बल होगा तो मैं उन्हींके प्रभावसे शीतल जलसे तुम्हारा प्रोक्षण करके तुम्हें जीवित कर दूंगा ॥ ११-१४ ॥
व्यास उवाच अद्भिः सम्प्रोक्षिता देवी सद्यः सञ्जीविता तदा । उत्थिता परमप्रीता भृगोर्भार्या शुचिस्मिता ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-तब जलसे प्रोक्षित करते ही मधुर मुसकानवाली वे भृगुपत्नी शीघ्र ही जीवित हो गयीं और बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उठकर खड़ी हो गयीं ॥ १५ ॥
तत्पश्चात् इन्द्रने देवताओंसे कहा-भृगुमुनिने अपनी साध्वी भार्याको जीवित कर दिया । साथ ही मन्त्रज्ञानी शुक्राचार्य कठोर तपस्या करके [शिवसे मन्त्र प्राप्तकर] पता नहीं क्या कर डालेंगे ! ॥ १८ ॥
व्यास उवाच गता निद्रा सुरेन्द्रस्य देहेऽक्षेममभून्नृप । स्मृत्वा काव्यस्य वृत्तान्तं मन्त्रार्थमतिदारुणम् ॥ १९ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! मन्त्रप्राप्तिके लिये शुक्राचार्यके अत्यन्त कठोर तपका स्मरण करके इन्द्रकी नींद समाप्त हो गयी और उनके शरीरमें व्याकुलता होने लगी ॥ १९ ॥
विमृश्य मनसा शक्रो जयन्तीं स्वसुतां तदा । उवाच कन्यां चार्वङ्गीं स्मितपूर्वमिदं वचः ॥ २० ॥ गच्छ पुत्रि मया दत्ता काव्याय त्वं तपस्विने । समाराधय तन्वङ्गि मत्कृते तं वशं कुरु ॥ २१ ॥ उपचारैर्मुनिं तैस्तैः समाराध्य मनःप्रियैः । भयं मे तरसा गत्वा हर तत्र वराश्रमे ॥ २२ ।
तब मनमें भली-भाँत विचार करके इन्द्रने सुन्दर स्वरूपवाली अपनी पुत्री जयन्तीसे मुसकराते हुए कहा-हे पुत्रि ! मैंने तुम्हें तपस्वी शुक्राचार्यको सौंप दिया । अत: हे तन्वंगि ! अब तुम जाओ और मेरे कल्याणके लिये उनकी सेवा करो और उन्हें वशमें कर लो । उस उत्तम आश्रममें शीघ्र जाकर उनके मनको प्रिय लगनेवाले विविध उपचारोंसे उन्हें प्रसन्न करके मेरा भय दूर करो ॥ २०-२२ ॥
विशाल नयनोंवाली वह सुन्दर कन्या पिताकी बात सुनकर [शुक्राचार्यके] आश्रममें गयी और वहाँपर उसने मुनिको [नीचेकी ओर सिर करके] धुएँका सेवन करते हुए देखा ॥ २३ ॥
तब उनके [तपोरत] शरीरको देखकर और पिताकी बात याद करके वह केलेका एक पत्ता लेकर मुनिको पंखा झलने लगी ॥ २४ ॥
निर्मलं शीतलं वारि समानीय सुवासितम् । पानाय कल्पयामास भक्त्या परमया लघु ॥ २५ ॥ छायां वस्त्रातपत्रेण भास्करे मध्यगे सति । रचयामास तन्वङ्गी स्वयं धर्मे स्थिता सती ॥ २६ ॥
तबसे वह उनके पीनेके लिये अत्यन्त स्वच्छ, शीतल, सुगन्धित तथा रुचिकर जल ले आकर [उनके समक्ष] श्रद्धापूर्वक उपस्थित किया करती । सूर्यके मध्य आकाशमें होते ही वह सुन्दरी उनके ऊपर वस्त्रसे छतरी बनाकर छाया कर देती थी । वह साध्वी सदा पातिव्रत्य धर्मका पालन करती थी ॥ २५-२६ ॥
फलान्यानीय दिव्यानि पक्वानि मधुराणि च । मुमोचाग्रे मुनेस्तस्य भक्षार्थं विहितानि च ॥ २७ ॥ कुशाः प्रादेशमात्रा हि हरिताः शुकसन्निभाः । दधाराग्रेऽथ पुष्पाणि नित्यकर्मसमृद्धये ॥ २८ ॥ निद्रार्थं कल्पयामास संस्तरं पल्लवान्वितम् । तस्मिन्मुनौ चादरस्था चकार व्यजनं शनैः ॥ २९ ॥
वह शास्त्रविहित दिव्य, पके तथा मीठे फल लाकर खानेके लिये उन मुनिके समक्ष रख देती थी । वह कन्या उनके नित्यकर्मके सम्पादनार्थ पुष्प और तोतेके वर्णके समान प्रादेशमात्र मापवाले हरे-हरे कुश उनके आगे प्रस्तुत कर देती थी । उनके शयनके लिये वह कोमल-कोमल पत्तोंका बिछौना तैयार करती थी और फिर उन मुनिके प्रति आदरभाव रखकर धीरेधीरे पंखा झलने लगती थी ॥ २७-२९ ॥
हावभावादिकं किञ्चिद्विकारजननं च तत् । न चकार जयन्ती सा शापभीता मुनेस्तदा ॥ ३० ॥
मुनिके शापसे भयभीत होकर वह जयन्ती उनक मनमें विकार उत्पन्न करनेवाला कोई हाव-भाव प्रदर्शित नहीं करती थी ॥ ३० ॥
सुकुमार अंगोंवाली तथा मृदुभाषण करनेवाली वह कन्या उन महात्माके मनके अनुकूल तथा प्रीति उत्पन्न करनेवाले शब्दोंसे उनकी स्तुति करती थी । तत्पश्चात् उनके जाग जानेपर आचमनके लिये जल लाकर रख देती थी । इस प्रकार सदा उनके मनके अनुकूल कार्य करती हुई उनके साथ व्यवहार करती थी ॥ ३१-३२ ॥
तदनन्तर हजार वर्ष पूर्ण होनेपर महेश्वर शिव प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक वे शुक्राचार्यसे वर माँगनेके लिये कहने लगे ॥ ३५ ॥
ईश्वर उवाच यच्च किञ्चिदपि ब्रह्मन्विद्यते भृगुनन्दन । प्रतिपश्यसि यत्सर्वं यच्च वाच्यं न कस्यचित् ॥ ३६ ॥ सर्वाभिभावकत्वेन भविष्यसि न संशयः । अवध्यः सर्वभूतानां प्रजेशश्च द्विजोत्तमः ॥ ३७ ॥
ईश्वर बोले-हे ब्रह्मन् ! हे भृगुनन्दन ! जगत्में जो कुछ भी विद्यमान है, आप जो सब देख रहे हैं तथा जो किसीकी भी वाणीका विषय नहीं है-उन सबके स्वामित्वसे आप युक्त हो जायेंगे; इसमें कोई सन्देह नहीं है । आप सभी प्राणियोंसे अवध्य होंगे । आप प्रजाओंके स्वामी तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणके रूपमें प्रतिष्ठित होंगे ॥ ३६-३७ ॥
व्यास उवाच एवं दत्त्वा वराञ्छम्भुस्तत्रैवान्तरधीयत । काव्यस्तामथ संवीक्ष्य जयन्तीं वाक्यमब्रवीत् ॥ ३८ ॥ कासि कस्यासि सुश्रोणि ब्रूहि किं ते चिकीर्षितम् । किमर्थमिह सम्प्राप्ता कार्यं वद वरोरु मे ॥ ३९ ॥ किं वाञ्छसि करोम्यद्य दुष्करं चेत्सुलोचने । प्रीतोऽस्मि त्वत्कृतेनाद्य वरं वरय सुव्रते ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार वर प्रदान करके शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् जयन्तीको देखकर शुक्राचार्यने उससे कहा-हे सुश्रोणि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो; मुझे अपनी अभिलाषा बताओ । हे सुन्दरि ! तुम यहाँ किसलिये आयी हो, अपना कार्य बताओ । हे सुनयने ! तुम क्या चाहती हो; यदि वह कार्य दुष्कर भी हो तो भी मैं उसे अभी कर दूंगा । हे सुव्रते ! आज मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ, अतः वर माँग लो ॥ ३८-४० ॥
शक्राचार्य बोले-वह तो मैंने जान लिया, फिर भी जो तुम्हारा मनोभिलषित है, उसे तुम मुझे बताओ । मैं हर तरहसे तुम्हारा कल्याण करूंगा; क्योंकि मैं तुम्हारी सेवासे प्रसन्न हूँ ॥ ४२ ॥
शुक्राचार्य बोले-हे सुश्रोणि ! हे भामिनि ! तुम सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहती हुई दस वर्षांतक इच्छानुसार मेरे साथ यहाँ विहार करो ॥ ४५ ॥
व्यास उवाच एवमुक्त्वा गृहं गत्वा जयन्त्याः पाणिमुद्वहन् । तया सहावसद्देव्या दशवर्षाणि भार्गवः ॥ ४६ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर शुक्राचार्यने घर जाकर जयन्तीके साथ विवाह किया । तत्पश्चात् मायासे आच्छादित होकर सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहते हुए वे ऐश्वर्यसम्पन्न मुनि शुक्राचार्य देवी जयन्तीके साथ दस वर्षांतक वहाँ रहे ॥ ४६ ॥
गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल हो मन्त्रसे युक्त होकर आया हुआ सुनकर सभी दैत्य उनके दर्शनकी इच्छासे प्रसन्नतापूर्वक उनके घर गये, किंतु वे उन्हें देख न सके; क्योंकि उस समय वे जयन्तीके साथ विहार कर रहे थे ॥ ४७-४८ ॥
तदा विमनसः सर्वे जाता भग्नोद्यमाश्च ते । चिन्तापरातिदीनाश्च वीक्षमाणाः पुनः पुनः ॥ ४९ ॥ अदृष्ट्वा तं तु संवृत्तं प्रतिजग्मुर्यथागतम् । स्वगृहान्दैत्यवर्यास्ते चिन्ताविष्टा भयातुराः ॥ ५० ॥
इससे उन सभी दैत्योंका मन उदास हो गया और उनके सभी उद्योग व्यर्थ हो गये । वे बहुत चिन्तित और दुःखी होकर उन्हें बार-बार खोजते रहे । अन्तमें [मायासे] आच्छादित उन मुनिको न देखकर वे चिन्तित तथा भयभीत दैत्य जैसे आये थे वैसे ही अपने घर लौट गये ॥ ४९-५० ॥
हे ब्रह्मन् ! आप दानवोंके पास जाइये और मायाके द्वारा उन्हें मोहमें डाल दीजिये । हे मानद. बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके आप हमारा कार्य सिद्ध कर दीजिये ॥ ५२ ॥
इन्द्रकी बात सुनकर देवगुरु बृहस्पति शुक्राचार्यको मायाच्छादित होनेके कारण [अदृश्य हो जयन्तीके साथ] क्रीडा करते जानकर उन्हींका रूप धारण करके दैत्योंके पास गये ॥ ५३ ॥
मायासे विमोहित सभी दैत्य [उन छद्मवेषधारी देवगुरु बृहस्पतिको ही] शुक्राचार्य समझकर उन्हें प्रणाम करके उनके समक्ष खड़े हो गये । वे शुक्राचार्यका कृत्रिम रूप प्रकट करनेवाली देवगुरु बृहस्पतिकी मायाको नहीं जान सके ॥ ५५ ॥
तत्पश्चात् छद्म मायासे शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले गुरु बृहस्पतिने उनसे कहा-मेरे यजमानोंका स्वागत है । मैं आपलोगोंके हितके लिये अब आ गया हूँ । मैंने आप सबके कल्याणके लिये तपस्याके द्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न कर लिया और अब मैं उनसे प्राप्त विद्याको निष्कपट भावसे आपलोगोंको बता दूँगा ॥ ५६-५७ ॥
यह सुनकर वे श्रेष्ठ दानव प्रसन्नचित्त हो गये । गुरु शुक्राचार्यको अपने उद्देश्यमें सफल समझकर वे मोहग्रस्त दानव बहुत हर्षित हुए और उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें प्रणाम किया । वे भयमुक्त तथा सन्तापरहित हो गये । अब देवताओंका भय छोड़कर वे सभी दैत्य स्वस्थचित्त होकर रहने लगे ॥ ५८-५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे जयन्त्या शुक्रसहवासवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥