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प्रह्लादेन शुक्रकोपसान्त्वनम् -
शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना -
व्यास उवाच इति सञ्चिन्त्य मनसा तानुवाच हसन्निव । वञ्चिता मत्स्वरूपेण दैत्याः किं गुरुणा किल ॥ १ ॥ अहं काव्यो गुरुश्चायं देवकार्यप्रसाधकः । अनेन वञ्चिता यूयं मद्याज्या नात्र संशयः ॥ २ ॥ मा श्रद्धध्वं वचोऽस्यार्या दाम्भिकोऽयं मदाकृतिः । अनुगच्छत मां याज्यास्त्यजतैनं बृहस्पतिम् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-मनमें ऐसा सोचकर उन दैत्योंसे शुक्राचार्यने हँसते हए कहा-हे दैत्यगण ! मेरा स्वरूप बनाये हुए इस देवगुरु बृहस्पतिने तुमलोगोंको ठग लिया क्या ? शुक्राचार्य मैं हैं और ये तो देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाले देवगुरु बृहस्पति हैं । हे मेरे यजमानो ! इन्होंने तुम सबको अवश्य ठग लिया । इसमें सन्देह नहीं है । हे आर्यों । इनकी बातोपर विश्वास मत करो । ये पाखण्डी हैं तथा मेरा स्वरूप बनाये हुए हैं । हे यजमानो ! तुमलोग मेरा अनुसरण करो और इन बृहस्पतिका त्याग कर दो ॥ १-३ ॥
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य दृष्ट्वा तौ सदृशौ पुनः । विस्मयं परमं जग्मुः काव्योऽयमिति निश्चिताः ॥ ४ ॥
उनका यह वचन सुनकर और फिर उन दोनोंको समान रूपवाला देखकर सभी दैत्य महान् आश्चर्यमें पड़ गये । पुनः उन्होंने विचार किया कि हो सकता है ये ही शुक्राचार्य हों ॥ ४ ॥
स तान्वीक्ष्य सुसम्भ्रान्तान्गुरुर्वाक्यमुवाच ह । गुरुर्वो वञ्चयत्येव मद्रूपोऽयं बृहस्पतिः ॥ ५ ॥ प्राप्तो वञ्चयितुं युष्मान्देवकार्यार्थसिद्धये । मा विश्वासं वचस्तस्य कुरुध्वं दैत्यसत्तमाः ॥ ६ ॥ प्राप्ता विद्या मया शम्भोर्युष्मानध्यापयामि ताम् । देवेभ्यो विजयं नूनं करिष्यामि न संशयः ॥ ७ ॥
इस प्रकार उन दैत्योंको अत्यन्त विस्मित देखकर [शुक्राचार्यरूपधारी] गुरु बृहस्पतिने यह बात कहीमेरा स्वरूप बनाये हुए ये देवगुरु बृहस्पति तुम सबको धोखा दे रहे हैं । ये देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके निमित्त तुमलोगोंको ठगनेके लिये आये हुए हैं । हे श्रेष्ठ दैत्यगण ! तुमलोग इनकी बातपर विश्वास मत करो । मैंने शंकरजीसे विद्या प्राप्त कर ली है और उसे तुम सबको पढ़ा रहा हूँ । इस प्रकार मैं तुम्हें देवताओंपर विजय दिला दूंगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५-७ ॥
इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं काव्यरूपधरस्य ते । विश्वासं परमं जग्मुः काव्योऽयमिति निश्चयात् ॥ ८ ॥ काव्येन बहुधा तत्र बोधिताः किल दानवाः । बुबुधुर्न गुरोर्मायामोहिताः कालपर्ययात् ॥ ९ ॥
शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले देवगुरु बृहस्पतिका यह वाक्य सुनकर उन दैत्योंको पूर्ण विश्वास हो गया कि ये ही निश्चितरूपसे [हमारे गुरु] शुक्राचार्य हैं । उस समय शुक्राचार्यने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया फिर भी समयके फेरसे गुरु वृहस्पतिकी मायासे मोहित होनेके कारण वे दैत्य समझ नहीं सके ॥ ८-९ ॥
एवं ते निश्चयं कृत्वा ततो भार्गवमब्रुवन् । अयं गुरुर्नो धर्मात्मा बुद्धिदश्च हिते रतः ॥ १० ॥ दशवर्षाणि सततमयं नः शास्ति भार्गवः । गच्छ त्वं कुहको भासि नास्माकं गुरुरप्युत ॥ ११ ॥
ऐसा निश्चय करनेके उपरान्त उन्होंने शुक्राचार्यसे कहा-ये ही हमारे गुरु हैं । ये धर्मात्मा हमें बुद्धि प्रदान करनेवाले हैं और हमारा हित करनेमें तत्पर हैं । इन शुक्राचार्यजीने हमें निरन्तर दस वर्षतक शिक्षा दी है । तुम चले जाओ, तुम धूर्त जान पड़ते हो तुम हमारे गुरु बिलकुल नहीं हो सकते ॥ १०-११ ॥
इत्युक्त्वा भार्गवं मूढा निर्भर्त्स्य च पुनः पुनः । जगृहुस्तं गुरुं प्रीत्या प्रणिपत्याभिवाद्य च ॥ १२ ॥
ऐसा कहकर उन मूर्ख दैत्योंने शुक्राचार्यको बार-बार फटकारा और बृहस्पतिको प्रेमपूर्वक प्रणाम तथा अभिवादन करके उन्हें ही अपना गुरु स्वीकार कर लिया ॥ १२ ॥
काव्यस्तु तन्मयान्दृष्ट्वा चुकोपाथ शशाप च । दैत्यान्विबोधितान्मत्वा गुरुणा चातिवञ्जितान् ॥ १३ ॥ यस्मान्मया बोधिता वै गृह्णीयुर्न च मे वचः । तस्मात्प्रनष्टसंज्ञा वै पराभवमवाप्स्यथ ॥ १४ ॥ मदवज्ञाफलं कामं स्वल्पे काले ह्यवाप्स्यथ । तदास्य कपटं सर्वं परिज्ञातं भविष्यति ॥ १५ ॥
देवगुरु बृहस्पतिने इन दैत्योंको पूर्णरूपसे सिखा-पढ़ा दिया है तथा इन्हें खूब ठगा है-ऐसा मानकर और इन्हें गुरु बृहस्पतिमें तन्मय देखकर शुक्राचार्य बहुत कुपित हुए और उन्होंने शाप दे दिया कि मेरे बार-बार समझानेपर भी तुमलोगोंने मेरी बात नहीं मानी, इसलिये नष्ट बुद्धिवाले तुम सब पराभवको प्राप्त होओगे । तुमलोग थोड़े ही समयमें मेरे तिरस्कारका फल पाओगे । तब इनका सारा कपट तुम सबको मालूम पड़ जायगा ॥ १३-१५ ॥
व्यास उवाच इत्युक्त्वासौ जगामाशु भार्गवः क्रोधसंयुतः । बृहस्पतिर्मुदं प्राप्य तस्थौ तत्र समाहितः ॥ १६ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर क्रोधमें भरे शुक्राचार्य तत्काल चल दिये और [शुक्राचार्यरूपधारी] बृहस्पति प्रसन्न होकर निश्चिन्तभावसे वहाँ रहने लगे ॥ १६ ॥
ततः शप्तान्गुरुर्ज्ञात्वा दैत्यांस्ताम्भार्गवेण हि । जगाम तरसा त्यक्त्वा स्वरूपं स्वं विधाय च ॥ १७ ॥ गत्वोवाच तदा शक्रं कृतं कार्यं मया धुवम् । शप्ताः शुक्रेण ते दैत्या मया त्यक्ताः पुनः किल ॥ १८ ॥ निराधाराः कृता नूनं यतध्वं सुरसत्तमाः । संग्रामार्थं महाभाग शापदग्धा मया कृताः ॥ १९ ॥
तदनन्तर शुक्राचार्यके द्वारा उन दैत्योंको शापित हुआ जानकर गुरु बृहस्पति तत्काल उन्हें छोड़कर अपना रूप धारणकर वहाँसे चल पड़े । उन्होंने जाकर इन्द्रसे कहा-मैंने [आपका] सम्पूर्ण कार्य भलीभाँति बना दिया है । शुक्राचार्यने उन दैत्योंको शाप दे दिया और बादमें मैंने भी उनका त्याग कर दिया । अब मैंने उन्हें पूर्णरूपसे असहाय बना दिया है । अतः हे श्रेष्ठ देवतागण ! आपलोग युद्धके लिये अब उद्योग करें । हे महाभाग ! मैंने उन दैत्योंको शापसे दग्ध कर दिया है । १७-१९ ॥
इति श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं मघवा मुदमाप्तवान् । जहृषुश्च सुराः सर्वे प्रतिपूज्य बृहस्पतिम् ॥ २० ॥ संग्रामाय मतिं चक्रुः संविचार्य मिथः पुनः । निर्ययुर्मिलिताः सर्वे दानवाभिमुखाः सुराः ॥ २१ ॥
गुरु बृहस्पतिका यह वचन सुनकर इन्द्र बहुत आनन्दित हुए और सभी देवता भी हर्षित हो उठे । तत्पश्चात् गुरु बृहस्पतिकी पूजा करके वे युद्धके लिये मन्त्रणा करने लगे । आपसमें भलीभाँति सोच-विचार करके सभी देवता एक साथ मिलकर दानवोंसे लड़नेके लिये वहाँसे निकल पड़े । २०-२१ ॥
सुरान्समुद्यताञ्ज्ञात्वा कृतोद्योगान्महाबलान् । अन्तर्हितं गुरुं चैव बभूवुश्चिन्तयान्विताः ॥ २२ ॥
उधर महाबली देवताओंको युद्धकी तैयारी करके आक्रमणके लिये उद्यत तथा शुक्राचार्यरूपधारी गुरु बृहस्पतिको अन्तर्हित जान करके दैत्यगण बहुत चिन्तित हुए ॥ २२ ॥
परस्परमथोचुस्ते मोहितास्तस्य मायया । सम्प्रसाद्यो महात्मा च यातोऽसौ रुष्टमानसः ॥ २३ ॥
अब उन देवगुरुको मायासे मोहित वे दैत्य आपसमें कहने लगे कि वे गुरु शुक्राचार्य कुपितमन होकर यहाँसे चले गये, अतः हमें उन महात्माको भलीभाँति मनाना चाहिये ॥ २३ ॥
वह पापी और कपटकार्यमें अत्यन्त प्रवीण देवगुरु हमें ठगकर चला गया । अपने भाईंकी पत्नीके साथ अनाचार करनेवाला वह भीतरसे कलुषित है तथा ऊपरसे पवित्र प्रतीत होता है ॥ २४ ॥
किं कुर्मः क्व च गच्छामः कथं काव्यं प्रकोपितम् । कुर्वीमहि सहायार्थं प्रसन्नं हृष्टमानसम् ॥ २५ ॥
अब हम क्या करें और कहाँ जायें ? अत्यन्त कुपित गुरु शुक्राचार्यको अपनी सहायताके लिये हम किस तरह हर्षित तथा प्रसन्नचित्त करें ॥ २५ ॥
इति सञ्चिन्त्य ते सर्वे मिलिता भयकम्पिताः । प्रह्लादं पुरतः कृत्वा जग्मुस्ते भार्गवं पुनः ॥ २६ ॥ प्रणेमुश्चरणौ तस्य मुनेर्मौनभृतस्तदा । भार्गवस्तानुवाचाथ रोषसंरक्तलोचनः ॥ २७ ॥
ऐसा विचार करके वे सब एकजुट हुए । प्रहादको आगे करके भयसे काँपते हुए वे दैत्य पुनः भृगुपुत्र शुक्राचार्यक पास गये । [वहाँ पहुँचकर] उन्होंने मौन धारण किये हुए उन मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया । तब क्रोधसे लाल नेत्रोंवाले शुक्राचार्य उनसे कहने लगे ॥ २६-२७ ॥
मया प्रबोधिता यूयं मोहिता गुरुमायया । न गृहीतं वचो योग्यं तदा याज्या हितं शुचि ॥ २८ ॥
हे यजमानो ! मैंने तुमलोगोंको बहुत समझाया, किंतु देवगुरुकी मायासे व्यामुग्ध रहनेके कारण तुम-लोगोंने मेरा उचित, हितकर और निष्कपट वचन नहीं माना ॥ २८ ॥
तुमलोगोंका सर्वस्व छिन गया । अब तुमलोग वहींपर चले जाओ; जहाँ वह कपटी, छली और देवताओंका कार्य सिद्ध करनेवाला बृहस्पति विद्यमान है; मैं उसकी तरह वंचक नहीं हूँ ॥ ३० ॥
व्यास उवाच एवं ब्रुवन्तं शुक्रं तु वाक्यसन्दिग्धया गिरा । प्रह्लादस्तं तदोवाच गहीत्वा चरणौ ततः ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार संदेहयुक्त वाणीमें बोलते हुए शुक्राचार्यके दोनों पैर पकड़कर प्रह्लाद उनसे कहने लगे- ॥ ३१ ॥
शान्तिसम्पन्न व्यक्ति किसीके द्वारा अनजानमें किये गये अपराधसे कुपित नहीं होता । आप तो सर्वज्ञ हैं, अतः जानते ही हैं कि हमलोगोंका चित्त सदा आपमें ही अनुरक्त रहता है ॥ ३४ ॥
अत: हे महामते ! अपने तपोबलसे हमलोगोंका भाव जानकर आप क्रोधका त्याग कर दीजिये; क्योंकि सभी मुनिगण कहा करते हैं कि साधुपुरुषोंका क्रोध क्षणभरके लिये ही होता है ॥ ३५ ॥
जल स्वभावसे शीतल होता है, किंतु अग्नि और धूपके संपर्कसे वह गर्म हो जाता है । वही जल आग तथा धूपका संयोग दूर होते ही पुनः शीतलता प्राप्त कर लेता है ॥ ३६ ॥
क्रोध चाण्डालरूप होता है । बुद्धिमान् लोगोंको इसका पूर्णरूपसे त्याग कर देना चाहिये । अतः हे सुव्रत ! क्रोध छोड़कर आप हमपर प्रसन्न हो जाइये ॥ ३७ ॥
यदि न त्यजसि क्रोधं त्यजस्यस्मान्सुदुःखितान् । त्वया त्यक्ता महाभाग गमिष्यामो रसातलम् ॥ ३८ ॥
हे महाभाग ! यदि आप क्रोधका त्याग नहीं करते बल्कि अत्यन्त दुःखित हमलोगोंका ही त्याग कर देते हैं, तो आपसे परित्यक्त होकर हम सब रसातलमें चले जायेंगे ॥ ३८ ॥
अब तुमलोगोंका समय-परिवर्तन उपस्थित हुआ है, ऐसा ब्रह्माजीने कहा था । कुछ दिनों पूर्व तुमलोगोंने सब प्रकारसे समृद्ध राज्यसुखका भोग किया था । उस समय देवताओंपर आक्रमण करके उनके मस्तकपर चरण रखकर तुमलोगोंने दैवयोगसे पूरे दस युगोंतक इस दिव्य त्रिलोकीपर शासन किया था ॥ ४४-४५ ॥
[अब आगे आनेवाले] सावर्णि मन्वन्तरमें तुम्हें वह राज्य पुनः प्राप्त होगा । तुम्हारा पौत्र बलि तीनों लोकोंमें विजयी होकर राज्यको पुनः प्राप्त कर लेगा ॥ ४६ ॥
जिस समय वामनरूप धारण करके भगवान् विष्णुने [ राजा बलिका राज्य] छीन लिया था, उस समय भगवान् विष्णुने आपके पौत्र बलिसे कहा था-हे बले ! मैंने तुम्हारा यह राज्य देवताओंकी अभिलाषा पूरी करनेके लिये छीना है, किंतु आगे सावर्णि मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर तुम इन्द्र होओगे ॥ ४७-४८ ॥
शुक्राचार्य बोले-हे प्रहाद ! भगवान् विष्णुके द्वारा ऐसा कहा गया तुम्हारा पौत्र बलि इस समय सभी प्राणियोंसे अदृश्य रहकर डरे हएकी भांति गुप्तरूपसे विचरण कर रहा है । ४९ ॥
एक समयकी बात है-इन्द्रसे भयभीत बलि गर्दभका रूप धारण करके एक सूने घरमें स्थित थे, तभी [वहाँ पहुँचकर] इन्द्र उन बलिसे बार-बार पूछने लगे-हे दैत्य श्रेष्ठ ! आपने गर्दभका रूप क्यों धारण किया है ? आप तो समस्त लोकोंका भोग करनेवाले और दैत्योंके शासक हैं । (हे राक्षसश्रेष्ठ ! क्या गर्दभका रूप धारण करनेमें आपको लज्जा नहीं लगती ?) ॥ ५०-५१.५ ॥
तब इन्द्रकी वह बात सुनकर बलिने इन्द्रसे यह वचन कहा-हे शतक्रतो ! इसमें शोक कैसा ? जैसे महान् तेजस्वी भगवान् विष्णुने मत्स्य और कच्छपका रूप धारण किया था, उसी प्रकार मैं भी समयके फेरसे गर्दभरूपसे स्थित हूँ । जिस प्रकार तुम ब्रह्महत्यासे दुःखी होकर कमलमें छिपकर पड़े रहे, उसी तरह मैं भी आज गर्दभका रूप धारण करके स्थित हूँ । हे पाकशासन ! दैवके अधीन रहनेवालोंको क्या दु:ख और क्या सुख ? दैव जिस रूपमें जो चाहता है, वैसा निश्चितरूपसे करता है । ५२-५५.५ ॥
शुक्राचार्य बोले-इस प्रकार बलि और देवराज इन्द्रने परस्पर उत्तम बातें करके परम सन्तुष्टि प्राप्त की और इसके बाद वे अपने-अपने स्थानको चले गये । यह मैंने तुमसे प्रारब्धकी बलवत्ताका भलीभाँति वर्णन कर दिया । देवताओं, असुरों और मानवोंसे युक्त सम्पूर्ण जगत् दैवके अधीन है ॥ ५६-५८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे प्रह्लादेन शुक्रकोपसान्त्वनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥