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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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शुक्ररूपेण गुरुणा दैत्यवञ्चनावर्णनम् -
शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना -


राजोवाच
किं कृतं गुरुणा पश्चाद्‌भृगुरूपेण वर्तता ।
छलेनैव हि दैत्यानां पौरोहित्येन धीमता ॥ १ ॥
राजा बोले-[हे व्यासजी !] तत्पश्चात् शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले बुद्धिमान् गुरु बृहस्पतिने छलपूर्वक दैत्योंका पुरोहित बनकर क्या किया ? ॥ १ ॥

गुरुः सुराणामनिशं सर्वविद्यानिधिस्तथा ।
सुतोऽङ्‌गिरस एवासौ स कथं छलकृन्मुनिः ॥ २ ॥
वे तो देवताओंके गुरु हैं, सदासे सभी विद्याओंके निधान हैं और महर्षि अंगिराके पुत्र हैं; तब उन मुनिने छल क्यों किया ? ॥ २ ॥

धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु सत्यं धर्मस्य कारणम् ।
कथितं मुनिभिर्येन परमात्मापि लभ्यते ॥ ३ ॥
मुनियोंने समस्त धर्मशास्त्रोंमें सत्यको ही धर्मका मूल बताया है, जिससे परमात्मातक प्राप्त किये जा सकते हैं ॥ ३ ॥

वाचस्पतिस्तथा मिथ्यावक्ता चेद्दानवान्प्रति ।
कः सत्यवक्ता संसारे भविष्यति गृहाश्रमी ॥ ४ ॥
जब बृहस्पति भी दानवोंसे झूठ बोले, तब संसारमें कौन गृहस्थ सत्य बोलनेवाला हो सकेगा ? ॥ ४ ॥

आहारादधिकं भोज्यं ज्रह्माण्डविभवेऽपि न ।
तदर्थं मुनयो मिथ्या प्रवर्तन्ते कथं मुने ॥ ५ ॥
हे मुने ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका वैभव पासमें हो जानेपर भी [कोई व्यक्ति अपने] आहारसे अधिक नहीं खा सकता, तब उसीके निमित्त मुनिलोग भी मिथ्या भाषणमें किसलिये प्रवृत्त हो जाते हैं ? ॥ ५ ॥

शब्दप्रमाणमुच्छेदं शिष्टाभावे गतं न किम् ।
छलकर्मप्रवृत्ते वाविगीतत्वं गुरौ कथम् ॥ ६ ॥
इस प्रकारके अशिष्ट आचरणसे देवगुरु बृहस्पतिके वचनोंकी प्रामाणिकता क्या नष्ट नहीं हो गयी और इस छलकर्ममें लिप्त होनेसे उन्हें निष्कलंक कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ६ ॥

देवाः सत्त्वसमुद्‌भूता राजसा मानवाः स्मृताः ।
तिर्यञ्चस्तामसाः प्रोक्ता उत्पत्तौ मुनिभिः किल ॥ ७ ॥
मुनियोंने देवताओंको सत्त्वगुणसे, मनुष्योंको रजोगुणसे तथा पशु-पक्षियोंको तमोगुणसे उत्पन्न बतलाया है ॥ ७ ॥

अमराणां गुरुः साक्षान्मिथ्यावादी स्वयं यदि ।
तदा कः सत्यवक्ता स्याद्‌राजसस्तामसः पुनः ॥ ८ ॥
यदि स्वयं देवगुरु बृहस्पति ही साक्षात् मिथ्याभाषणमें प्रवृत्त हो गये, तब रजोगुण तथा तमोगुणसे युक्त कौन प्राणी सत्यवादी हो सकेगा ? ॥ ८ ॥

क्व स्थितिस्तस्य धर्मस्य सन्देहोऽयं ममात्मनः ।
का गतिः सर्वजन्तूनां मिथ्याभूते जगत्त्रये ॥ ९ ॥
इस प्रकार तीनों लोकोंके मिथ्यापरायण हो जानेपर धर्मकी स्थिति कहाँ होगी और सभी प्राणियोंकी क्या दशा होगी ? यही मेरा संदेह है ॥ ९ ॥

हरिर्ब्रह्मा शचीकान्तस्तथान्ये सुरसत्तमाः ।
सर्वे छलविधौ दक्षा मनुष्याणाञ्च का कथा ॥ १० ॥
भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र तथा और भी दूसरे महान् देवतागण-सब छलकार्यमें निपुण हैं, तब मनुष्योंकी बात ही क्या ? ॥ १० ॥

कामक्रोधाभिसन्तप्ता लोभोपहतचेतसः ।
छले दक्षाः सुराः सर्वे मुनयश्च तपोधनाः ॥ ११ ॥
सभी देवता और तपोधन मुनिगण भी काम तथा क्रोधसे सन्तप्त और लोभसे व्याकुलचित्त होकर छल-प्रपंचमें तत्पर रहते हैं ॥ ११ ॥

वसिष्ठो वामदेवश्च विश्वामित्रो गुरुस्तथा ।
एते पापरताः कात्र गतिर्धर्मस्य मानद ॥ १२ ॥
हे मानद ! जब वसिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र और गुरु बृहस्पति-ये लोग भी पाप कर्ममें संलग्न हो गये, तब धर्मकी क्या दशा होगी ? ॥ १२ ॥

इन्द्रोऽग्निश्चन्द्रमा वेधाः परदाराभिलम्पटाः ।
आर्यत्वं भुवनेष्वेषु स्थितं कुत्र मुने वद ॥ १३ ॥
इन्द्र, अग्नि, चन्द्रमा और ब्रह्मातक कामके वशीभूत हो गये, तब हे मुने ! आप ही बतायें कि इन भुवनोंमें शिष्टता कहाँ रह गयी ? ॥ १३ ॥

वचनं कस्य मन्तव्यमुपदेशधियानघ ।
सर्वे लोभाभिभूतास्ते देवाश्च मुनयस्तदा ॥ १४ ॥
हे पुण्यात्मन् ! जब वे सब देवता और मुनिलो भी लोभके वशीभूत हैं, तब उपदेश ग्रहण करने विचारसे किसका वचन प्रमाण माना जाय ? ॥ १४ ॥

व्यास उवाच
किं विष्णुः किं शिवो ब्रह्मा मघवा किं बृहस्पतिः ।
देहवान् प्रभवत्येव विकारैः संयुतस्तदा ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] चाहे विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र और बृहस्पति ही क्यों न होंदेहधारी तो विकारोंसे युक्त रहता ही है ॥ १५ ॥

रागी विष्णुः शिवो रागी ब्रह्मापि रागसंयुतः ।
(रागवान्किमकृत्यं वै न करोति नराधिप) ॥
रागवानपि चातुर्याद्विदेह इव लक्ष्यते ॥ १६ ॥
सम्प्राप्ते संकटे सोऽपि गुणैः सम्बाध्यते किल ।
कारणाद्‌रहितं कार्यं कथं भवितुमर्हति ॥ १७ ॥
ब्रह्मादीनां च सर्वेषां गुणा एव हि कारणम् ।
पञ्चविंशत्समुद्‌भूता देहास्तेषां न चान्यथा ॥ १८ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेशतक आसक्तिसे ग्रस्त हैं । (हे राजन् ! आसक्त प्राणी कौन-सा अनर्थ नहीं कर बैठता) आसक्तिसे युक्त प्राणी भी चतुराईके कारण विरक्तकी भाँति दिखायी पड़ता है, किंतु संकट उपस्थित होनेपर वह [सत्त्व, रज, तम] गुणोंसे आबद्ध हो जाता है । कोई भी कार्य बिना कारणके कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंके भी मूल कारण गुण ही हैं । उनके भी शरीर पचीस तत्त्वोंसे बने हैं, इसमें सन्देह नहीं है । हे राजन् ! समय आ जानेपर वे भी मृत्युको प्राप्त होते हैं, इसमें आपको संशय कैसा ? ॥ १६-१८ ॥

काले मरणधर्मास्ते सन्देहः कोऽत्र ते नृप ।
परोपदेशे विस्पष्टं शिष्टाः सर्वे भवन्ति च ॥ १९ ॥
विप्लुतिर्ह्यविशेषेण स्वकार्ये समुपस्थिते ।
कामः क्रोधस्तथा लोभद्रोहाहङ्कारमत्सराः ॥ २० ॥
देहवान्कः परित्यक्तुमीशो भवति तान्पुनः ।
संसारोऽयं महाराज सदैवैवंविधः स्मृतः ॥ २१ ॥
नान्यथा प्रभवत्येव शुभाशुभमयः किल ।
यह पूर्णरूपसे स्पष्ट है कि दूसरोंको उपदेश देने में सभी लोग शिष्ट बन जाते हैं, किंतु अपना कार्य पड़नेपर उस उपदेशका पूर्णतः लोप हो जाता है । जो काम, क्रोध, लोभ, द्रोह, अहंकार और डाह आदि विकार हैं; उन्हें छोड़नेमें कौन-सा देहधारी प्राणी समर्थ हो सकता है ? हे महाराज ! यह संसार सदासे ही इसी प्रकार शुभाशुभसे युक्त कहा गया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १९-२१.५॥

कदाचिद्‌भगवान्विष्णुस्तपश्चरति दारुणम् ॥ २२ ॥
कदाचिद्विविधान्यज्ञान्वितनोति सुराधिपः ।
कदाचित्तु रमारङ्गरञ्जितः परमेश्वरः ॥ २३ ॥
रमते किल वैकुण्ठे तद्वशस्तरुणो विभुः ।
कदाचिद्दानवैः सार्धं युद्धं परमदारुणम् ॥ २४ ॥
करोति करुणासिन्धुस्तद्‌बाणापीडितो भृशम् ।
कदाचिज्जयमाप्नोति दैवात्सोऽपि पराजयम् ॥ २५ ॥
सुखदुःखाभिभूतोऽसौ भवत्येव न संशयः ।
शेषे शेते कदाचिद्वै योगनिद्रासमावृतः ॥ २६ ॥
कभी भगवान् विष्णु घोर तपस्या करते हैं, कभी वे ही सुरेश्वर अनेक प्रकारके यज्ञ करते हैं, कभी वे परमेश्वर विष्णु लक्ष्मीके प्रेम-रसमें सिक्त होकर उनके वशीभूत हो वैकुण्ठमें विहार करते हैं । वे करुणासागर विष्णु कभी दानवोंके साथ अत्यन्त भीषण युद्ध करते हैं और उनके बाणोंसे आहत हो जाते हैं । [उस युद्धमें] वे कभी विजयी होते हैं और कभी दैववश पराजित भी हो जाते हैं । इस प्रकार वे भी सुख तथा दुःखसे प्रभावित होते हैं । इसमें सन्देह नहीं है । वे विश्वात्मा कभी योगनिद्राके वशवर्ती होकर शेषशय्यापर शयन करते हैं और कभी सृष्टिकाल आनेपर योगमायासे प्रेरित होकर जाग भी जाते हैं ॥ २२-२६ ॥

काले जागर्ति विश्वात्मा स्वभावप्रतिबोधितः ।
शर्वो ब्रह्मा हरिश्चेति इन्द्राद्या ये सुरास्तथा ॥ २७ ॥
मुनयश्च विनिर्माणैः स्वायुषो विचरन्ति हि ।
निशावसाने सञ्जाते जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ २८ ॥
म्रियते नात्र सन्देहो नृप किञ्चित्कदापि च ।
स्वायुषोऽन्ते पद्यजाद्याः क्षयमृच्छन्ति पार्थिव ॥ २९ ॥
प्रभवन्ति पुनर्विष्णुहरशक्रादयः सुराः ।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र आदि जो देवता तथा मुनिगण हैं-वे भी अपनी आयुके परिमाणकालतक ही जीवित रहते हैं । हे राजन् ! अन्तकाल आनेपर स्थावर-जंगमात्मक यह जगत् भी विनष्ट हो जाता है, इसमें कभी भी कुछ भी सन्देह नहीं करना चाहिये । हे भूपाल ! अपनी आयुका अन्त हो जानेपर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि देवता भी विनष्ट हो जाते हैं और [सृष्टिकाल आनेपर] पुनः ये उत्पन्न भी हो जाते हैं । २७-२९.५ ॥

तस्मात्कामादिकान्भावान्देहवान्प्रतिपद्यते ॥ ३० ॥
नात्र ते विस्मयः कार्यः कदाचिदपि पार्थिव ।
संसारोऽयं तु सन्दिग्धः कामक्रोधादिभिर्नृप ॥ ३१ ॥
अतएव देहधारी प्राणी काम आदि भावोंसे ग्रस्त हो ही जाता है; हे राजन् ! इस विषयमें आपको कभी भी विस्मय नहीं करना चाहिये । हे राजन् ! यह संसार तो काम, क्रोध आदिसे ओतप्रोत है । इनसे पूर्णतः मुक्त तथा परम तत्त्वको जाननेवाला पुरुष दुर्लभ है । ३०-३१ ॥

दुर्लभस्तद्विनिर्मुक्तः पुरुषः परमार्थवित् ।
यो बिभेतीह संसारे स दारान्न करोत्यपि ॥ ३२ ॥
विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विचरत्यविशङ्‌कितः ।
तस्माद्‌बृहस्पतेर्भार्या शशिना लम्भिता पुनः ॥ ३३ ॥
गुरूणा लम्भिता भार्या तथा भ्रातुर्यवीयसः ।
एवं संसारचक्रेऽस्मिन् रागलोभादिभिर्वृतः ॥ ३४ ॥
गार्हस्थ्यञ्च समास्थाय कथं मुक्तो भवेन्नरः ।
जो इस संसारमें [काम, क्रोध आदि विकारोंसे] डरता है, वह विवाह नहीं करता । वह समस्त प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर निर्भीकतापूर्वक विचरता है । इसके विपरीत संसारसे आबद्ध रहनेके कारण ही बृहस्पतिकी पत्नीको चन्द्रमाने रख लिया था और देवगुरु बृहस्पतिने अपने छोटे भाईकी पत्नीको अपना लिया था । इस प्रकार इस संसार-चक्रमें राग, लोभ आदिसे जकड़ा हुआ मनुष्य गृहस्थीमें आसक्त रहकर भला मुक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ३२-३४.५ ॥

तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन हित्वा संसारसारताम् ॥ ३५ ॥
आराधयेन्महेशानीं सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
तन्मायागुणतश्छन्नं जगदेतच्चराचरम् ॥ ३६ ॥
भ्रमत्युन्मत्तवत्सर्वं मदिरामत्तवन्नृप ।
अतः पूर्ण प्रयत्नके साथ संसारमें आसक्तिका त्याग करके सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती महेश्वरीकी आराधना करनी चाहिये । हे राजन् ! यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उन्हींके मायारूपी गुणसे आच्छादित होकर उन्मत्त तथा मदिरापान करके मतवाले मनुष्यकी भाँति चक्कर काटता रहता है ॥ ३५-३६.५ ॥

तस्या आराधनेनैव गुणान्सर्वान्विमृद्य च ॥ ३७ ॥
मुक्तिं भजेत मतिमान्नान्यः पन्थास्त्वितः परः ।
आराधिता महेशानी न यावत्कुरुते कृपाम् ॥ ३८ ॥
तावद्‌भवेत्सुखं कस्मात्कोऽन्योऽस्ति दयया युतः ।
करुणासागरामेतां भजेत्तस्मादमायया ॥ ३९ ॥
उन्हींकी आराधनाके द्वारा [सत्त्व आदि] सभी गुणोंको पराभूत करके बुद्धिमान् मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है । आराधित होकर महेश्वरी जबतक कृपा नहीं करतीं, तबतक सुख कैसे हो सकता है ? उनके सदृश दयावान् दूसरा कौन है ? अतः निष्कपट भावसे करुणासागर भगवतीकी आराधना करनी चाहिये, जिनके भजनसे मनुष्य जीतेजी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । ३७-३९ ॥

यस्यास्तु भजनेनैव जीवन्मुक्तत्वमश्नुते ।
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य सेविता न महेश्वरी ॥ ४० ॥
निःश्रेणिकाग्रात्पतिता अध इत्येव विद्महे ।
अहङ्कारावृतं विश्वं गुणत्रयसमन्वितम् ॥ ४१ ॥
असत्येनापि सम्बद्धं मुच्यते कथमन्यथा ।
हित्वा सर्वं ततः सर्वेः संसेव्या भुवनेश्वरी ॥ ४२ ॥

दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जिसने उन महेश्वरीकी उपासना नहीं की, वह मानो अन्तिम सीढ़ीसे फिसलकर गिर गया-मैं तो यही धारणा रखता हूँ । सम्पूर्ण विश्व अहंकारसे आच्छादित है, तीनों गुणोंसे युक्त है तथा असत्यसे बंधा हुआ है, तब प्राणी मुक्त कैसे हो सकता है ? अतः सब कुछ छोड़कर सभी लोगोंको भगवती भुवनेश्वरीकी उपासना करनी चाहिये ॥ ४०-४२ ॥

राजोवाच
किं कृतं गुरूणा तत्र काव्यरूपधरेण च ।
कदा शुक्रः समायातस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ४३ ॥
राजा बोले-हे पितामह ! शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले देवगुरु बृहस्पतिने वहाँ दैत्योंके पास पहुँचकर क्या किया और शुक्राचार्य पुनः कब लौटे ? वह हमें बताइये ॥ ४३ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि यत्कृतं गुरुणा तदा ।
कृत्वा काव्यस्वरूपञ्च प्रच्छन्नेन महात्मना ॥ ४४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! तब गोपनीय ढंगसे शुक्राचार्यका स्वरूप बनाकर देवगुरुने जो कुछ किया, वह मैं बताता हूँ, आप सुनिये ॥ ४४ ॥

गुरुणा बोधिता दैत्या मत्वा काव्यं स्वकं गुरुम् ।
विश्वासं परमं कृत्वा बभूवुस्तन्मयास्तदा ॥ ४५ ॥
देवगुरु बृहस्पतिने दैत्योंको बोध प्रदान किया । तब शुक्राचार्यको अपना गुरु समझकर और उनपर पूर्ण विश्वास करके सभी दैत्य उन्हींके कथनानुसार व्यवहार करने लगे ॥ ४५ ॥

विद्यार्थं शरणं प्राप्ता भृगुं मत्वातिमोहिताः ।
गुरुणा विप्रलब्धास्ते लोभात्को वा न मुह्यति ॥ ४६ ॥
अत्यधिक मोहितचित्त वे दैत्य बृहस्पतिको शुक्राचार्य समझकर विद्याप्राप्तिके लिये उनके शरणागत हुए । देवगुरु बृहस्पतिने भी उन्हें बहुत ठगा । [यह सत्य है कि] लोभसे कौन-सा प्राणी मोहमें नहीं पड़ जाता ॥ ४६ ॥

दशवर्षात्मके काले सम्पूर्णसमये तदा ।
जयन्त्या सह क्रीडित्वा काव्यो याज्यानचिन्तयत् ॥ ४७ ॥
आशया मम मार्गं ते पश्यन्तः संस्थिताः किल ।
गत्वा तान्वै प्रपश्येऽहं याज्यानतिभयातुरान् ॥ ४८ ॥
मा देवेभ्यो भयं तेषां मद्‌भक्तानां भवेदिति ।
तब जयन्तीके साथ क्रीडा करते-करते निर्धारित प्रतिज्ञासम्बन्धी दस वर्षको अवधि पूर्ण हो जानेपर शुक्राचार्य अपने यजमानोंके विषयमें विचार करने लगे कि मेरी राह देखते हुए वे आशान्वित हो बैठे होंगे । अतः अब मैं चलकर अपने उन अत्यन्त भयभीत यजमानोंको देखें । कहीं ऐसा न हो कि मेरे उन भक्तोंके सम्मुख देवताओंसे कोई भय उत्पन्न हो गया हो ॥ ४७-४८.५ ॥

सञ्चिन्त्य बुद्धिमास्थाय जयन्तीं प्रत्युवाच ह ॥ ४९ ॥
देवानेवोपसंयान्ति पुत्रा मे चारुलोचने ।
समयस्तेऽद्य सम्पूर्णो जातोऽयं दशवार्षिकः ॥ ५० ॥
तस्माद्‌ गच्छाम्यहं देवि द्रष्टुं याज्यान्सुमध्यमे ।
पुनरेवागमिष्यामि तवान्तिकमनुद्रुतः ॥ ५१ ॥
यह सोचकर अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने जयन्तीसे कहा-हे सुनयने ! मेरे पुत्रसदृश दैत्यगण देवताओंके पास कालक्षेप कर रहे हैं । प्रतिज्ञानुसार तुम्हारे साथ रहनेका दस वर्षका समय पूरा हो चुका है, अतः हे देवि ! अब मैं अपने यजमानोंसे मिलने जा रहा हूँ । हे सुमध्यमे ! मैं पुन: तुम्हारे पास शीघ्र ही लौट आऊँगा ॥ ४९-५१ ॥

तथेति तमुवाचाथ जयन्ती धर्मवित्तमा ।
यथेष्टं गच्छ धर्मज्ञ न ते धर्मं विलोपये ॥ ५२ ॥
परम धर्मपरायणा जयन्तीने उनसे कहा-हे धर्मज्ञ ! बहुत ठीक है, आप स्वेच्छापूर्वक जाइये । मैं आपका धर्म लुप्त नहीं होने दूंगी ॥ ५२ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं काव्यो जगाम त्वरितस्ततः ।
अपश्यद्दानवानां च पार्श्वे वाचस्पतिं तदा ॥ ५३ ॥
छद्मरूपधरं सौम्यं बोधयन्तं छलेन तान् ।
जैनं धर्मं कृतं स्वेन यज्ञनिन्दापरं तथा ॥ ५४ ॥
भो देवरिपवः सत्यं ब्रवीमि भवतां हितम् ।
अहिंसा परमो धर्मोऽहन्तव्या ह्याततायिनः ॥ ५५ ॥
द्विजैर्भोगरतैर्वेदे दर्शितं हिंसनं पशोः ।
जिह्वास्वादपरैः काममहिंसैव परा मता ॥ ५६ ॥
उसका यह वचन सुनकर शुक्राचार्य वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चल पड़े । वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि दैत्योंके पास विराजमान होकर बृहस्पति छद्मरूप धारण करके शान्तचित्त हो छलसे उन्हें अपने द्वारा रचित जिन-धर्म तथा यज्ञनिन्दापरक वचनोंकी शिक्षा इस प्रकार दे रहे हैं-'हे देवताओंके शत्रुगण ! मैं सत्य तथा आपलोगोंके हितकी बात बता रहा हूँ कि अहिंसा सर्वोपरि धर्म है । आततायियोंको भी नहीं मारना चाहिये । भोगपरायण तथा अपनी जिह्यके स्वादके लिये सदा तत्पर रहनेवाले द्विजोंने वेदमें पशुहिंसाका उल्लेख कर दिया है, किंतु सच्चाई यह है कि अहिंसाको ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है' ॥ ५३-५६ ॥

एवंविधानि वाक्यानि वेदशास्त्रपराणि च ।
ब्रुवाणं गुरुमाकर्ण्य विस्मितोऽसौ भृगोः सुतः ॥ ५७ ॥
चिन्तयामास मनसा मम द्वेष्यो गुरुः किल ।
वञ्चिताः किल धूर्तेन याज्या मे नात्र संशयः ॥ ५८ ॥
इस प्रकारकी चेद-शास्त्रविरोधी बातें कहते हुए देवगुरु बृहस्पतिको देखकर वे भृगुपुत्र शुक्राचार्य आश्चर्यचकित हो गये । वे मन-ही-मन सोचने लगे कि यह देवगुरु तो मेरा शत्रु है । इस धूर्तने मेरे यजमानोंको अवश्य ठग लिया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५७-५८ ॥

धिग्लोभं पापबीजं वै नरकद्वारमूर्जितम् ।
गुरुरप्यनृतं ब्रूते प्रेरितो येन पाप्मना ॥ ५९ ॥
नरकके द्वारस्वरूप तथा पापके बीजरूप उस उग्र लोभको धिक्कार है, जिस लोभरूप पापसे प्रेरित होकर देवगुरु बृहस्पति भी झूठ बोल रहे हैं ॥ ५९ ॥

प्रमाणं वचनं यस्य सोऽपि पाखण्डधारकः ।
गुरुः सुराणां सर्वेषां धर्मशास्त्रप्रवर्तकः ॥ ६० ॥
जिनका वचन प्रमाण माना जाता है और जो समस्त देवताओंके गुरु तथा धर्मशास्त्रोंके प्रवर्तक हैं, वे भी पाखण्डके पोषक हो गये हैं ॥ ६० ॥

किं किं न लभते लोभान्मलिनीकृतमानसः ।
अन्योऽपि गुरुरप्येवं जातः पाखण्डपण्डितः ॥ ६१ ॥
शैलूषचेष्टितं सर्वं परिगृह्य द्विजोत्तमः ।
वञ्जयत्यतिसम्मूढान्दैत्यान्याज्यान्ममाप्यसौ ॥ ६२ ॥
लोभसे विकृत मनवाला प्राणी क्या-क्या नहीं कर डालता । दूसरोंकी क्या बात, जबकि साक्षात् देवगुरु ही इस प्रकारके पाखण्डके पण्डित हो गये हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी ये धूतौकी सारी भावभंगिमाएँ बनाकर मेरे इन घोर अज्ञानी दैत्य यजमानोंको ठग रहे हैं । ६१-६२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे शुक्ररूपेण गुरुणा दैत्यवञ्चनावर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अध्याय तेरहवाँ समाप्त ॥ १३ ॥


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