जब बृहस्पति भी दानवोंसे झूठ बोले, तब संसारमें कौन गृहस्थ सत्य बोलनेवाला हो सकेगा ? ॥ ४ ॥
आहारादधिकं भोज्यं ज्रह्माण्डविभवेऽपि न । तदर्थं मुनयो मिथ्या प्रवर्तन्ते कथं मुने ॥ ५ ॥
हे मुने ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका वैभव पासमें हो जानेपर भी [कोई व्यक्ति अपने] आहारसे अधिक नहीं खा सकता, तब उसीके निमित्त मुनिलोग भी मिथ्या भाषणमें किसलिये प्रवृत्त हो जाते हैं ? ॥ ५ ॥
शब्दप्रमाणमुच्छेदं शिष्टाभावे गतं न किम् । छलकर्मप्रवृत्ते वाविगीतत्वं गुरौ कथम् ॥ ६ ॥
इस प्रकारके अशिष्ट आचरणसे देवगुरु बृहस्पतिके वचनोंकी प्रामाणिकता क्या नष्ट नहीं हो गयी और इस छलकर्ममें लिप्त होनेसे उन्हें निष्कलंक कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ६ ॥
हे पुण्यात्मन् ! जब वे सब देवता और मुनिलो भी लोभके वशीभूत हैं, तब उपदेश ग्रहण करने विचारसे किसका वचन प्रमाण माना जाय ? ॥ १४ ॥
व्यास उवाच किं विष्णुः किं शिवो ब्रह्मा मघवा किं बृहस्पतिः । देहवान् प्रभवत्येव विकारैः संयुतस्तदा ॥ १५ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] चाहे विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र और बृहस्पति ही क्यों न होंदेहधारी तो विकारोंसे युक्त रहता ही है ॥ १५ ॥
रागी विष्णुः शिवो रागी ब्रह्मापि रागसंयुतः । (रागवान्किमकृत्यं वै न करोति नराधिप) ॥ रागवानपि चातुर्याद्विदेह इव लक्ष्यते ॥ १६ ॥ सम्प्राप्ते संकटे सोऽपि गुणैः सम्बाध्यते किल । कारणाद्रहितं कार्यं कथं भवितुमर्हति ॥ १७ ॥ ब्रह्मादीनां च सर्वेषां गुणा एव हि कारणम् । पञ्चविंशत्समुद्भूता देहास्तेषां न चान्यथा ॥ १८ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और महेशतक आसक्तिसे ग्रस्त हैं । (हे राजन् ! आसक्त प्राणी कौन-सा अनर्थ नहीं कर बैठता) आसक्तिसे युक्त प्राणी भी चतुराईके कारण विरक्तकी भाँति दिखायी पड़ता है, किंतु संकट उपस्थित होनेपर वह [सत्त्व, रज, तम] गुणोंसे आबद्ध हो जाता है । कोई भी कार्य बिना कारणके कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा आदि समस्त देवताओंके भी मूल कारण गुण ही हैं । उनके भी शरीर पचीस तत्त्वोंसे बने हैं, इसमें सन्देह नहीं है । हे राजन् ! समय आ जानेपर वे भी मृत्युको प्राप्त होते हैं, इसमें आपको संशय कैसा ? ॥ १६-१८ ॥
काले मरणधर्मास्ते सन्देहः कोऽत्र ते नृप । परोपदेशे विस्पष्टं शिष्टाः सर्वे भवन्ति च ॥ १९ ॥ विप्लुतिर्ह्यविशेषेण स्वकार्ये समुपस्थिते । कामः क्रोधस्तथा लोभद्रोहाहङ्कारमत्सराः ॥ २० ॥ देहवान्कः परित्यक्तुमीशो भवति तान्पुनः । संसारोऽयं महाराज सदैवैवंविधः स्मृतः ॥ २१ ॥ नान्यथा प्रभवत्येव शुभाशुभमयः किल ।
यह पूर्णरूपसे स्पष्ट है कि दूसरोंको उपदेश देने में सभी लोग शिष्ट बन जाते हैं, किंतु अपना कार्य पड़नेपर उस उपदेशका पूर्णतः लोप हो जाता है । जो काम, क्रोध, लोभ, द्रोह, अहंकार और डाह आदि विकार हैं; उन्हें छोड़नेमें कौन-सा देहधारी प्राणी समर्थ हो सकता है ? हे महाराज ! यह संसार सदासे ही इसी प्रकार शुभाशुभसे युक्त कहा गया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १९-२१.५॥
कदाचिद्भगवान्विष्णुस्तपश्चरति दारुणम् ॥ २२ ॥ कदाचिद्विविधान्यज्ञान्वितनोति सुराधिपः । कदाचित्तु रमारङ्गरञ्जितः परमेश्वरः ॥ २३ ॥ रमते किल वैकुण्ठे तद्वशस्तरुणो विभुः । कदाचिद्दानवैः सार्धं युद्धं परमदारुणम् ॥ २४ ॥ करोति करुणासिन्धुस्तद्बाणापीडितो भृशम् । कदाचिज्जयमाप्नोति दैवात्सोऽपि पराजयम् ॥ २५ ॥ सुखदुःखाभिभूतोऽसौ भवत्येव न संशयः । शेषे शेते कदाचिद्वै योगनिद्रासमावृतः ॥ २६ ॥
कभी भगवान् विष्णु घोर तपस्या करते हैं, कभी वे ही सुरेश्वर अनेक प्रकारके यज्ञ करते हैं, कभी वे परमेश्वर विष्णु लक्ष्मीके प्रेम-रसमें सिक्त होकर उनके वशीभूत हो वैकुण्ठमें विहार करते हैं । वे करुणासागर विष्णु कभी दानवोंके साथ अत्यन्त भीषण युद्ध करते हैं और उनके बाणोंसे आहत हो जाते हैं । [उस युद्धमें] वे कभी विजयी होते हैं और कभी दैववश पराजित भी हो जाते हैं । इस प्रकार वे भी सुख तथा दुःखसे प्रभावित होते हैं । इसमें सन्देह नहीं है । वे विश्वात्मा कभी योगनिद्राके वशवर्ती होकर शेषशय्यापर शयन करते हैं और कभी सृष्टिकाल आनेपर योगमायासे प्रेरित होकर जाग भी जाते हैं ॥ २२-२६ ॥
काले जागर्ति विश्वात्मा स्वभावप्रतिबोधितः । शर्वो ब्रह्मा हरिश्चेति इन्द्राद्या ये सुरास्तथा ॥ २७ ॥ मुनयश्च विनिर्माणैः स्वायुषो विचरन्ति हि । निशावसाने सञ्जाते जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ २८ ॥ म्रियते नात्र सन्देहो नृप किञ्चित्कदापि च । स्वायुषोऽन्ते पद्यजाद्याः क्षयमृच्छन्ति पार्थिव ॥ २९ ॥ प्रभवन्ति पुनर्विष्णुहरशक्रादयः सुराः ।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र आदि जो देवता तथा मुनिगण हैं-वे भी अपनी आयुके परिमाणकालतक ही जीवित रहते हैं । हे राजन् ! अन्तकाल आनेपर स्थावर-जंगमात्मक यह जगत् भी विनष्ट हो जाता है, इसमें कभी भी कुछ भी सन्देह नहीं करना चाहिये । हे भूपाल ! अपनी आयुका अन्त हो जानेपर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि देवता भी विनष्ट हो जाते हैं और [सृष्टिकाल आनेपर] पुनः ये उत्पन्न भी हो जाते हैं । २७-२९.५ ॥
तस्मात्कामादिकान्भावान्देहवान्प्रतिपद्यते ॥ ३० ॥ नात्र ते विस्मयः कार्यः कदाचिदपि पार्थिव । संसारोऽयं तु सन्दिग्धः कामक्रोधादिभिर्नृप ॥ ३१ ॥
अतएव देहधारी प्राणी काम आदि भावोंसे ग्रस्त हो ही जाता है; हे राजन् ! इस विषयमें आपको कभी भी विस्मय नहीं करना चाहिये । हे राजन् ! यह संसार तो काम, क्रोध आदिसे ओतप्रोत है । इनसे पूर्णतः मुक्त तथा परम तत्त्वको जाननेवाला पुरुष दुर्लभ है । ३०-३१ ॥
दुर्लभस्तद्विनिर्मुक्तः पुरुषः परमार्थवित् । यो बिभेतीह संसारे स दारान्न करोत्यपि ॥ ३२ ॥ विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो विचरत्यविशङ्कितः । तस्माद्बृहस्पतेर्भार्या शशिना लम्भिता पुनः ॥ ३३ ॥ गुरूणा लम्भिता भार्या तथा भ्रातुर्यवीयसः । एवं संसारचक्रेऽस्मिन् रागलोभादिभिर्वृतः ॥ ३४ ॥ गार्हस्थ्यञ्च समास्थाय कथं मुक्तो भवेन्नरः ।
जो इस संसारमें [काम, क्रोध आदि विकारोंसे] डरता है, वह विवाह नहीं करता । वह समस्त प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर निर्भीकतापूर्वक विचरता है । इसके विपरीत संसारसे आबद्ध रहनेके कारण ही बृहस्पतिकी पत्नीको चन्द्रमाने रख लिया था और देवगुरु बृहस्पतिने अपने छोटे भाईकी पत्नीको अपना लिया था । इस प्रकार इस संसार-चक्रमें राग, लोभ आदिसे जकड़ा हुआ मनुष्य गृहस्थीमें आसक्त रहकर भला मुक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ३२-३४.५ ॥
अतः पूर्ण प्रयत्नके साथ संसारमें आसक्तिका त्याग करके सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती महेश्वरीकी आराधना करनी चाहिये । हे राजन् ! यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उन्हींके मायारूपी गुणसे आच्छादित होकर उन्मत्त तथा मदिरापान करके मतवाले मनुष्यकी भाँति चक्कर काटता रहता है ॥ ३५-३६.५ ॥
उन्हींकी आराधनाके द्वारा [सत्त्व आदि] सभी गुणोंको पराभूत करके बुद्धिमान् मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है । आराधित होकर महेश्वरी जबतक कृपा नहीं करतीं, तबतक सुख कैसे हो सकता है ? उनके सदृश दयावान् दूसरा कौन है ? अतः निष्कपट भावसे करुणासागर भगवतीकी आराधना करनी चाहिये, जिनके भजनसे मनुष्य जीतेजी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । ३७-३९ ॥
दुर्लभ मनुष्य-जन्म पाकर जिसने उन महेश्वरीकी उपासना नहीं की, वह मानो अन्तिम सीढ़ीसे फिसलकर गिर गया-मैं तो यही धारणा रखता हूँ । सम्पूर्ण विश्व अहंकारसे आच्छादित है, तीनों गुणोंसे युक्त है तथा असत्यसे बंधा हुआ है, तब प्राणी मुक्त कैसे हो सकता है ? अतः सब कुछ छोड़कर सभी लोगोंको भगवती भुवनेश्वरीकी उपासना करनी चाहिये ॥ ४०-४२ ॥
राजा बोले-हे पितामह ! शुक्राचार्यका रूप धारण करनेवाले देवगुरु बृहस्पतिने वहाँ दैत्योंके पास पहुँचकर क्या किया और शुक्राचार्य पुनः कब लौटे ? वह हमें बताइये ॥ ४३ ॥
देवगुरु बृहस्पतिने दैत्योंको बोध प्रदान किया । तब शुक्राचार्यको अपना गुरु समझकर और उनपर पूर्ण विश्वास करके सभी दैत्य उन्हींके कथनानुसार व्यवहार करने लगे ॥ ४५ ॥
विद्यार्थं शरणं प्राप्ता भृगुं मत्वातिमोहिताः । गुरुणा विप्रलब्धास्ते लोभात्को वा न मुह्यति ॥ ४६ ॥
अत्यधिक मोहितचित्त वे दैत्य बृहस्पतिको शुक्राचार्य समझकर विद्याप्राप्तिके लिये उनके शरणागत हुए । देवगुरु बृहस्पतिने भी उन्हें बहुत ठगा । [यह सत्य है कि] लोभसे कौन-सा प्राणी मोहमें नहीं पड़ जाता ॥ ४६ ॥
तब जयन्तीके साथ क्रीडा करते-करते निर्धारित प्रतिज्ञासम्बन्धी दस वर्षको अवधि पूर्ण हो जानेपर शुक्राचार्य अपने यजमानोंके विषयमें विचार करने लगे कि मेरी राह देखते हुए वे आशान्वित हो बैठे होंगे । अतः अब मैं चलकर अपने उन अत्यन्त भयभीत यजमानोंको देखें । कहीं ऐसा न हो कि मेरे उन भक्तोंके सम्मुख देवताओंसे कोई भय उत्पन्न हो गया हो ॥ ४७-४८.५ ॥
यह सोचकर अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने जयन्तीसे कहा-हे सुनयने ! मेरे पुत्रसदृश दैत्यगण देवताओंके पास कालक्षेप कर रहे हैं । प्रतिज्ञानुसार तुम्हारे साथ रहनेका दस वर्षका समय पूरा हो चुका है, अतः हे देवि ! अब मैं अपने यजमानोंसे मिलने जा रहा हूँ । हे सुमध्यमे ! मैं पुन: तुम्हारे पास शीघ्र ही लौट आऊँगा ॥ ४९-५१ ॥
तथेति तमुवाचाथ जयन्ती धर्मवित्तमा । यथेष्टं गच्छ धर्मज्ञ न ते धर्मं विलोपये ॥ ५२ ॥
परम धर्मपरायणा जयन्तीने उनसे कहा-हे धर्मज्ञ ! बहुत ठीक है, आप स्वेच्छापूर्वक जाइये । मैं आपका धर्म लुप्त नहीं होने दूंगी ॥ ५२ ॥
उसका यह वचन सुनकर शुक्राचार्य वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चल पड़े । वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि दैत्योंके पास विराजमान होकर बृहस्पति छद्मरूप धारण करके शान्तचित्त हो छलसे उन्हें अपने द्वारा रचित जिन-धर्म तथा यज्ञनिन्दापरक वचनोंकी शिक्षा इस प्रकार दे रहे हैं-'हे देवताओंके शत्रुगण ! मैं सत्य तथा आपलोगोंके हितकी बात बता रहा हूँ कि अहिंसा सर्वोपरि धर्म है । आततायियोंको भी नहीं मारना चाहिये । भोगपरायण तथा अपनी जिह्यके स्वादके लिये सदा तत्पर रहनेवाले द्विजोंने वेदमें पशुहिंसाका उल्लेख कर दिया है, किंतु सच्चाई यह है कि अहिंसाको ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है' ॥ ५३-५६ ॥
इस प्रकारकी चेद-शास्त्रविरोधी बातें कहते हुए देवगुरु बृहस्पतिको देखकर वे भृगुपुत्र शुक्राचार्य आश्चर्यचकित हो गये । वे मन-ही-मन सोचने लगे कि यह देवगुरु तो मेरा शत्रु है । इस धूर्तने मेरे यजमानोंको अवश्य ठग लिया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५७-५८ ॥
लोभसे विकृत मनवाला प्राणी क्या-क्या नहीं कर डालता । दूसरोंकी क्या बात, जबकि साक्षात् देवगुरु ही इस प्रकारके पाखण्डके पण्डित हो गये हैं । श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी ये धूतौकी सारी भावभंगिमाएँ बनाकर मेरे इन घोर अज्ञानी दैत्य यजमानोंको ठग रहे हैं । ६१-६२ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे शुक्ररूपेण गुरुणा दैत्यवञ्चनावर्णनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥