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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
विंशोऽध्यायः

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कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनम् -
व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम -


व्यास उवाच
शृण भारत वक्ष्यामि भारावतरणं तथा ।
कुरुक्षेत्रे प्रभासे च क्षपितं योगमायया ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे भारत! सुनिये, अब मैं आपको पृथ्वीका भार उतारने और कुरुक्षेत्र तथा प्रभासक्षेत्रमें योगमायाके द्वारा सेनाके संहारका वृत्तान्त बताऊँगा ॥१॥

यदुवंशे समुत्पत्तिर्विष्णोरमिततेजसः ।
भृगुशापप्रतापेन महामायाबलेन च ॥ २ ॥
क्षितिभारसमुत्तारनिमित्तमिति मे मतिः ।
मायया विहितो योगो विष्णोर्जन्म धरातले ॥ ३ ॥
भृगुके शापके प्रताप तथा महामायाकी शक्तिसे ही अमित तेजस्वी भगवान् विष्णुका आविर्भाव यदुवंशमें हुआ था। मेरा यह मानना है कि पृथ्वीका भार उतारना तो निमित्तमात्र था, वस्तुतः योगमायाने ही इस संयोगका विधान कर दिया था कि धरातलपर भगवान् विष्णुका अवतार हो ॥२-३॥

किं चित्रं नृप देवी सा ब्रह्मविष्णुसुरानपि ।
नर्तयत्यनिशं माया त्रिगुणानपरान्किमु ॥ ४ ॥
हे राजन् ! इसमें आश्चर्य कैसा! वे भगवती योगमाया जब ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंको भी निरन्तर नचाती रहती हैं, तब त्रिगुणात्मक सामान्यजनकी क्या बात ! ॥४॥

गर्भवासोद्‌भवं दुःखं विण्मूत्रस्नायुसंयुतम् ।
विष्णोरापादितं सम्यग्यया विगतलीलया ॥ ५ ॥
उन भगवतीने अपनी रहस्यमयी लीलासे भगवान् विष्णुको भी सम्यक् रूपसे मल, मूत्र तथा स्नायुसे भरे गर्भवाससे होनेवाला दुःख भोगनेको विवश कर दिया था ॥५॥

पुरा रामावतारेऽपि निर्जरा वानराः कृताः ।
विदितं ते यथा विष्णुर्दुःखपाशेन मोहितः ॥ ६ ॥
पर्वकालमें रामावतारके समय भी उन्हीं योगमायाने जिस प्रकार देवताओंको वानर बना दिया था और [राम-रूपमें अवतीर्ण] भगवान् विष्णुको | दुःखपाशसे व्यथित कर दिया था, वह तो आपको विदित ही है ॥६॥

अहं ममेति पाशेन सुदृढेन नराधिप ।
योगिनो मुक्तसङ्गाश्च भुक्तिकामा मुमुक्षवः ॥ ७ ॥
तामेव समुपासन्ते देवीं विश्वेश्वरीं शिवाम् ।
यद्‌भक्तिलेशलेशांशलेशलेशलवांशकम् ॥ ८ ॥
लब्ध्वा मुक्तो भवेज्जन्तुस्तां न सेवेत को जनः ।
भुवनेशीत्येव वक्त्रे ददाति भुवनत्रयम् ॥ ९ ॥
मां पाहीत्यस्य वचसो देयाभावादृणान्विता ।
विद्याविद्येति तस्या द्वे रूपे जानीहि पार्थिव ॥ १० ॥
विद्यया मुच्यते जन्तुर्बध्यतेऽविद्यया पुनः ।
हे महाराज ! अहंता और ममताके इस सुद्र बन्धनसे सभी लोग आबद्ध हैं । अतः अनासक्त तथ मोक्षकी इच्छा रखनेवाले योगीजन और भोगको कामना करनेवाले लोग भी उन्हीं कल्याणकारिणी भगवती जगदम्बाकी उपासना करते हैं । जिन योगमायाकी भक्तिके लेशलेशांशके लेशलेशलवांशको प्राप्त करके प्राणी मुक्त हो जाता है, उनकी उपासना कौन व्यक्ति नहीं करेगा ? 'हे भुवनेशि !' ऐसा उच्चारण करनेवालेको वे भगवती तीनों लोक प्रदान कर देती हैं और मेरी रक्षा कीजिये' इस वाक्यके कहनेपर [उसे पहले ही त्रिलोक दे देनेके कारण] अब कुछ भी न दे पानेसे वे उस भक्तकी ऋणी हो जाती हैं । हे राजन् ! आप उन भगवतीके विद्या तथा अविद्या-ये दो रूप जानिये । विद्यासे प्राणी मुक्त होता है और अविद्यासे बन्धनमें पड़ता है ॥ ७-१०.५ ॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वे तस्या वशानुगाः ॥ ११ ॥
अवताराः सर्व एव यन्त्रिता इव दामभिः ।
कदाचिच्च सुखं भुंक्ते वैकुण्ठे क्षीरसागरे ॥ १२ ॥
कदाचित्कुरुते युद्धं दानवैर्बलवत्तरैः ।
हरिः कदाचिद्यज्ञान्वै विततान्प्रकरोति च ॥ १३ ॥
कदाचिच्च तपस्तीव्रं तीर्थे चरति सुव्रत ।
कदाचिच्छयने शेते योगनिद्रामुपाश्रितः ॥ १४ ॥
न स्वतन्त्रः कदाचिच्च भगवान्मधुसूदनः ।
ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये सब उनके अधीन रहते हैं । भगवान्के सभी अवतार रस्सीसे बंधे हुएके समान भगवतीसे ही नियन्त्रित रहते हैं । भगवान् विष्णु कभी वैकुण्ठमें और कभी क्षीरसागरमें आनन्द लेते हैं, कभी अत्यधिक बलशाली दानवोंके साथ युद्ध करते हैं, कभी बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं, कभी तीर्थमें कठोर तपस्या करते हैं और हे सुव्रत ! कभी योगनिद्राके वशीभूत होकर शय्यापर सोते हैं । वे भगवान् मधुसूदन कभी भी स्वतन्त्र नहीं रहते ॥ ११-१४.५ ॥

तथा ब्रह्मा तथा रुद्रस्तथेन्द्रो वरुणो यमः ॥ १५ ॥
कुबेरोऽग्नी रवीन्दू च तथान्ये सुरसत्तमाः ।
मुनयः सनकाद्याश्च वसिष्ठाद्यास्तथापरे ॥ १६ ॥
सर्वेऽम्बावशगा नित्यं पाञ्चालीव नरस्य च ।
नसि प्रोता यथा गावो विचरन्ति वशानुगाः ॥ १७ ॥
ऐसे ही ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, सूर्य, चन्द्र, अन्य श्रेष्ठ देवतागण, सनक आदि मुनि और वसिष्ठ आदि महर्षि-ये सब-केसब बाजीगरके अधीन कठपुतलीकी भाँति सदा भगवतीके वशमें रहते हैं । जिस प्रकार नथे हुए बैल अपने स्वामीके अधीन रहकर विचरण करते हैं, उसी प्रकार सभी देवता कालपाशमें आबद्ध रहते हैं ॥ १५-१७ ॥

तथैव देवताः सर्वाः कालपाशनियन्त्रिताः ।
हर्षशोकादयो भावा निद्रातन्द्रालसादयः ॥ १८ ॥
सर्वेषां सर्वदा राजन्देहिनां देहसंश्रिताः ।
अमरा निर्जराः प्रोक्ता देवाश्च ग्रन्थकारकैः ॥ १९ ॥
अभिधानतश्चार्थतो न ते नूनं तादृशाः क्वचित् ।
उत्पत्तिस्थितिनाशाख्या भावा येषां निरन्तरम् ॥ २० ॥
अमरास्ते कथं वाच्या निर्जराश्च कथं पुनः ।
कथं दुःखाभिभूता वा जायन्ते विबुधोत्तमाः ॥ २१ ॥
कथं देवाश्च वक्तव्या व्यसने क्रीडनं कथम् ।
क्षणादुत्पत्तिनाशश्च दृश्यतेऽस्मिन्न संशयः ॥ २२ ॥
जलजानां च कीटानां मशकानां तथा पुनः ।
उपमा न कथं चैषामायुषोऽन्ते मराः स्मृताः ॥ २३ ॥
हे राजन् ! हर्ष, शोक, निद्रा, तन्द्रा, आलस्य आदि भाव सभी देहधारियोंके शरीरमें सदा विद्यमान रहते हैं । ग्रन्थकारोंने देवताओंको अमर (मृत्युरहित) तथा निर्जर (बुढ़ापारहित) कहा है, किंतु वे निश्चय ही केवल नामसे अमर हैं, अर्थसे कभी भी वैसे नहीं हैं । जिनमें सदा उत्पत्ति, स्थिति और विनाश नामक अवस्थाएँ रहती हैं, वे अमर और निर्जर कैसे कहे जा सकते हैं ? वे देवता विबुध (विशेष बुद्धिवाले) होते हुए भी दु:खोंसे पीड़ित क्यों होते हैं ? जब वे भी [सामान्य लोगोंकी भाँति व्यसन तथा क्रीडामें आसक्त रहते हैं, तब उन्हें देव क्यों कहा जाय ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि सामान्य जीवोंकी भांति इनकी भी क्षणमें उत्पत्ति होती है और क्षणमें नाश होता है । ऐसी स्थितिमें] इनकी उपमा जलमें उत्पन्न होनेवाले कीटों और मच्छरोंसे क्यों न दी जाय ? और जब आयुके समाप्त होनेपर वे भी मर जाते हैं, तब उन्हें [अमर न कहकर] 'मर' क्यों न कहा जाय ? ॥ १८-२३ ॥

ततो वर्षायुषश्चापि शतवर्षायुषस्तथा ।
मनुष्या ह्यमरा देवास्तस्माद्‌ ब्रह्मापरः स्मृतः ॥ २४ ॥
रुद्रस्तथा तथा विष्णुः क्रमशश्च भवन्ति हि ।
नश्यन्ति क्रमशश्चैव वर्धन्ति चोत्तरोत्तरम् ॥ २५ ॥
कुछ मनुष्य एक वर्षकी आयुवाले और कुछ सौ वर्षकी आयुवाले होते हैं, उनसे अधिक आयुवाले देवता होते हैं और उनसे भी अधिक आयुवाले ब्रह्मा कहे गये हैं । ब्रह्मासे अधिक आयुवाले शिव हैं और उनसे भी अधिक आयुवाले विष्णु हैं । अन्तमें वे भी नष्ट होते हैं और इसके बाद वे फिरसे क्रमशः उत्पन्न होते हैं और उत्तरोत्तर बढ़ते हैं ॥ २४-२५ ॥

नूनं देहवतो नाशो मृतस्योत्पत्तिरेव च ।
चक्रवद्‌ भ्रमणं राजन् सर्वेषां नात्र संशयः ॥ २६ ॥
हे राजन् ! निश्चितरूपसे सभी देहधारियोंकी मृत्यु होती है और मरे हुए प्राणीका जन्म होता है । इस प्रकार पहियेकी भांति सभी प्राणियोंका [जन्म-मृत्युका] चक्कर लगा रहता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ २६ ॥

मोहजालावृतो जन्तुर्मुच्यते न कदाचन ।
मायायां विद्यमानायां मोहजालं न नश्यति ॥ २७ ॥
मोहके जालमें फँसा हुआ प्राणी कभी मुक्त नहीं होता; क्योंकि मायाके रहते मोहका बन्धन नष्ट नहीं होता है ॥ २७ ॥

उत्पित्सुकाल उत्पत्तिः सर्वेषां नृप जायते ।
तथैव नाशः कल्पान्ते ब्रह्मादीनां यथाक्रमम् ॥ २८ ॥
हे राजन् ! सृष्टिके समय ब्रह्मा आदि सभी देवताओंकी उत्पत्ति होती है और कल्पके अन्तमें क्रमशः उनका नाश भी हो जाता है ॥ २८ ॥

निमित्तं यस्तु यन्नाशे स घातयति तं नृप ।
नान्यथा तद्‌भवेन्नूनं विधिना निर्मितं तु यत् ॥ २९ ॥
हे नप ! जिसके नाशमें जो निमित्त बन चुका है, उसीके द्वारा उसकी मृत्यु होती है । विधाताने जो रच दिया है, वह अवश्य होता है । इसके विपरीत कुछ नहीं होता ॥ २९ ॥

जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखं वा सुखमेव वा ।
तत्तथैव भवेत्कामं नान्यथेह विनिर्णयः ॥ ३० ॥
जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, रोग, दुःख अथवा सुखजो सुनिश्चित है, वह उसी रूपमें अवश्य प्राप्त होता है । इसके विपरीत दूसरा सिद्धान्त है ही नहीं ॥ ३० ॥

सर्वेषां सुखदौ देवौ प्रत्यक्षौ शशिभास्करौ ।
न नश्यति तयोः पीडा क्यचित्तद्वैरिसम्भवा ॥ ३१ ॥
भास्करस्य सुतो मन्दः क्षयी चन्द्रः कलङ्कवान् ।
पश्य राजन् विधेः सूत्रं दुर्वारं महतामपि ॥ ३२ ॥
प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले सूर्य तथा चन्द्रदंड सबको सुख प्रदान करते हैं, किंतु उनके शत्रु [राहु]के द्वारा उन्हें होनेवाली पीड़ा दूर नहीं होती । सूर्यपुत्र शनैश्चर 'मन्द' और चन्द्रमा क्षयरोगी तथा कलंकी कहे जाते हैं । हे राजन् ! देखिये, बड़े-बड़े देवताओंक भी विषयमें विधिका विधान अटल है ॥ ३१-३२ ॥

वेदकर्ता जगत्स्रष्टा बुद्धिदस्तु चतुर्मुखः ।
सोऽपि विक्लवतां प्राप्तो दृष्ट्वा पुत्रीं सरस्वतीम् ॥ ३३ ॥
ब्रह्माजी वेदकर्ता, जगत्की सृष्टि करनेवाले तथ सबको बुद्धि देनेवाले हैं, किंतु वे भी सरस्वतीक देखकर विकल हो गये ॥ ३३ ॥

शिवस्यापि मृता भार्या सती दग्ध्वा कलेवरम् ।
सोऽभवद्दुःखसन्तप्तः कामार्तश्च जनार्तिहा ॥ ३४ ॥
कामाग्निदग्धदेहस्तु कालिन्द्यां पतितः शिवः ।
सापि श्यामजला जाता तन्निदाघवशान्नृप ॥ ३५ ॥
जब शिवजीकी भार्या सती अपने शरीरको दग्ध करके मर गयी, तब लोगोंका दुःख दूर करनेवाले होते हुए भी वे शिवजी शोकसन्तप्त तथा पीड़ित हो गये । उस समय कामाग्निसे जलते हुए देहवाले शिवजी यमुनानदीमें कूद पड़े । तब है राजन् ! उनके तापके कारण यमुनाजीका जल श्यामवर्णका हो गया ॥ ३४-३५ ॥

कामार्तो रममाणस्तु नग्नः सोऽपि भृगोर्वनम् ।
गतः प्राप्तोऽथ भृगुणा शप्तः कामातुरो भृशम् ॥ ३६ ॥
पतत्वद्यैव ते लिङ्गं निर्लज्जेति भृशं किल ।
पपौ चामृतवापीञ्च दानवैर्निर्मितां मुदे ॥ ३७ ॥
भृगुके वनमें जाकर जब वे शिवजी दिगम्बर होकर विहार करने लगे, तब भृगुमुनिने अतीव आतुर उन शिवजीको यह शाप दे दिया-हे निर्लज्ज ! तुम्हारा लिंग अभी कटकर गिर जाय । तब शान्तिके लिये शिवजीने दानवोंके द्वारा निर्मित बावलीका अमृत पिया ॥ ३६-३७ ॥

इन्द्रोऽपि च वृषो भूत्वा वाहनत्वं गतः क्षितौ ।
आद्यस्य सर्वलोकस्य विष्णोरेव विवेकिनः ॥ ३८ ॥
सर्वज्ञत्वं गतं कुत्र प्रभुशक्तिः कुतो गता ।
यद्धेममृगविज्ञानं न ज्ञातं हरिणा किल ॥ ३९ ॥
बैल बनकर इन्द्रको भी धरातलपर [सूर्यवंशी राजा ककुत्स्थका] वाहन बनना पड़ा । समस्त लोकके आदिपुरुष और महान् विवेकशील भगवान् विष्णुकी सर्वज्ञता तथा प्रभुशक्ति उस समय कहाँ चली गयी थी, जब [रामावतारमें] वे स्वर्णमृगसम्बन्धी उस विशेष रहस्यको बिलकुल नहीं जान सके ! ॥ ३८-३९ ॥

राजन् मायाबलं पश्य रामो हि काममोहितः ।
रामो विरहसन्तप्तो रुरोद भृशमातुरः ॥ ४० ॥
योऽपृच्छत्पादपान्मूढः क्व गता जनकात्मजा ।
भक्षिता वा हृता केन रुदन्नुच्चतरं ततः ॥ ४१ ॥
हे राजन् ! मायाका बल तो देखिये कि भगवान् श्रीराम भी कामसे व्याकुल हुए । उन श्रीरामने सीताके वियोगसे संतप्त तथा व्याकुल होकर बहुत विलाप किया था । वे विह्वल होकर जोर-जोरसे रोते हुए वृक्षोंसे पूछते-फिरते थे कि सीता कहाँ चली गयी ? उसे कोई [हिंसक जन्तु] खा गया या किसीने हर लिया ? ॥ ४०-४१ ॥

लक्ष्मणाहं मरिष्यामि कान्ताविरहदुःखितः ।
त्वं चापि मम दुःखेन मरिष्यसि वनेऽनुज ॥ ४२ ॥
आवयोर्मरणं ज्ञात्वा माता मम मरिष्यति ।
शत्रुघ्नोऽप्यतिदुःखार्तः कथं जीवितुमर्हति ॥ ४३ ॥
सुमित्रा जीवितं जह्यात्पुत्रव्यसनकर्शिता ।
पूर्णकामाथ कैकेयी भवेत्पुत्रसमन्विता ॥ ४४ ॥
हे लक्ष्मण ! मैं तो अपनी भार्याके वियोगसे दुःखित होकर मर जाऊँगा और हे अनुज ! मेरे दुःखसे तुम भी इस वनमें मर जाओगे । इस प्रकार हम दोनोंकी मृत्यु जान करके मेरी माता कौसल्या मर जायँगी । शत्रुघ्न भी इस महान् दुःखसे पीड़ित होकर कैसे जीवित रह पायेगा ? तब पुत्रमरणसे व्यथित होकर माता सुमित्रा भी अपने प्राण त्याग देंगी, किंतु अपने पुत्र भरतके साथ कैकेयीकी कामना अवश्य पूर्ण हो जायगी ॥ ४२-४४ ॥

हा सीते क्व गतासि त्वं मां विहाय स्मरातुरा ।
एह्येहि मृगशावाक्षि मां जीवय कृशोदरि ॥ ४५ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि त्वदधीनञ्च जीवितम् ।
समाश्वासय दीनं मां प्रियं जनकनन्दिनि ॥ ४६ ॥
हा सीते ! मुझे पीड़ित छोड़कर तुम कहाँ चली गयी हो ? हे मृगलोचने ! आओ, आओ । हे कृशोदरि ! मुझे जीवन प्रदान करो । हे जनकनन्दिनि ! मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? मेरा जीवन तो तुम्हारे अधीन है । अपने प्रिय मुझ दुःखितको सान्त्वना प्रदान करो ॥ ४५-४६ ॥

एवं विलपता तेन रामेणामिततेजसा ।
वने वने च भ्रमता नेक्षिता जनकात्मजा ॥ ४७ ॥
शरण्यः सर्वलोकानां रामः कमललोचनः ।
शरणं वानराणां स गतो मायाविमोहितः ॥ ४८ ॥
सहायान्वानरान्कृत्वा बबन्ध वरुणालयम् ।
जघान रावणं वीरं कुम्भकर्णं महोदरम् ॥ ४९ ॥
इस प्रकार विलाप करते हुए तथा वन-वन भटकते हुए वे अमित तेजस्वी राम जनकपुत्री सीताको नहीं खोज पाये । तत्पश्चात् समस्त लोकोंको शरण देनेवाले वे कमलनयन श्रीराम मायासे मोहित होकर वानरोंकी शरणमें गये । उन वानरोंको सहायक बनाकर उन्होंने समुद्रपर सेतु बाँधा और पराक्रमी रावण, कुम्भकर्ण तथा महोदरका संहार किया ॥ ४७-४९ ॥

आनीय च ततः सीतां रामो दिव्यमकारयत् ।
सर्वज्ञोऽपि हृतां मत्वा रावणेन दुरात्मना ॥ ५० ॥
तदनन्तर दुष्टात्मा रावणके द्वारा सीताको हरी गयी समझकर सर्वज्ञ होते हुए भी श्रीरामने उन्हें लाकर उनकी अग्निपरीक्षा करायी ॥ ५० ॥

किं ब्रवीमि महाराज योगमायाबलं महत् ।
यया विश्वमिदं सर्वं भ्रामितं भ्रमते किल ॥ ५१ ॥
हे महाराज ! योगमायाकी महिमा बहुत बड़ी है । मैं उन योगमायाके विषयमें क्या कहूँ, जिनके द्वारा नचाया हुआ यह सम्पूर्ण विश्व निरन्तर चक्कर काट रहा है ॥ ५१ ॥

एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशं गतः ।
करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनः सदैव हि ॥ ५२ ॥
इस प्रकार शापके वशीभूत होकर भगवान् विष्णु इस लोकमें [धारण किये गये] अनेक अवतारों में दैवके अधीन होकर नाना प्रकारकी लीलाएँ करते हैं ॥ ५२ ॥

तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥ ५३ ॥
अब मैं आपसे देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मनुष्य-लोकमें भगवान् श्रीकृष्णके अवतार तथा उनकी लीलाका वर्णन करूँगा ॥ ५३ ॥

कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली ॥ ५४ ॥
प्राचीन समयकी बात है-यमुनाके मनोहर तटपर मधुवन नामक एक वन था । वहाँ लवणासुर नामवाला एक बलवान् दानव रहता था, जो मधुका पुत्र था ॥ ५४ ॥

द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै ॥ ५५ ॥
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम् ।
वासिता मथुरा नाम पुरी परमशोभना ॥ ५६ ॥
वरप्राप्तिके कारण अभिमानमें चूर वह पापी दैत्य ब्राह्मणोंको दुःख देता था । हे महाभाग ! लक्ष्मणके छोटे भाई शत्रुघ्नने संग्राममें उसका वध कर दिया । उस मदोन्मत्तको मारकर उन्होंने मथुरा नामक परम सुन्दर नगरी बसायी ॥ ५५-५६ ॥

स तत्र पुष्कराक्षौ द्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः ।
निवेश्य राज्ये मतिमान्काले प्राप्ते दिवं गतः ॥ ५७ ॥
कमलके समान नेत्रोंवाले अपने दो पुत्रोंको राज्यकार्यमें नियुक्त करके वे बुद्धिमान् शत्रुघ्न समय आ जानेपर स्वर्ग चले गये ॥ ५७ ॥

सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ॥ ५८ ॥
श्ण्सेनाभिधः श्द्वस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराच्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥
सूर्यवंशके नष्ट हो जानेपर उस मुक्तिदायिनी मथुराको यादवोंने अधिकारमें कर लिया । हे राजन् ! पूर्वकालमें राजा ययातिका शूरसेन नामक एक पराक्रमी पुत्र था, जो वहाँका राजा हुआ । हे राजन् ! उसने मथुरा और शूरसेन दोनों ही राज्योंके विषयोंका भोग किया ॥ ५८-५९ ॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥ ६० ॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
वहाँपर वरुणदेवके शापवश महर्षि कश्यपके अंशस्वरूप परम यशस्वी वसुदेवजी शूरसेनके पुत्र होकर उत्पन्न हुए । पिताके मर जानेपर वे वसुदेवजी वैश्यवृत्तिमें संलग्न होकर जीवन-यापन करने लगे । उस समय वहाँक राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था ॥ ६०-६१ ॥

अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ॥ ६२ ॥
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद्‌ गगने तदा ॥ ६३ ॥
कंस कंस महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥
वरुणदेवके ही शापके कारण कश्यपकी अनुगामिनी अदिति भी राजा देवककी पुत्री देवकीके रूपमें उत्पन्न हुई । महात्मा देवकने उस देवकीको वसुदेवको सौंप दिया । विवाह सम्पन्न हो जानेके पश्चात् वहाँ आकाशवाणी हुई-हे महाभाग कंस ! इस देवकीके गर्भसे उत्पन्न होनेवाला आठवाँ ऐश्वर्यशाली पुत्र तुम्हारा संहारक होगा ॥ ६२-६४ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं कंसो विस्मितोऽभून्महाबलः ।
देववाचं तु तां मत्वा सत्यां चिन्तामवाप सः ॥ ६५ ॥
किं करोमीति सञ्चिन्त्य विमर्शमकरोत्तदा ।
निहत्यैनां न मे मृत्युर्भवेदद्यैव सत्वरम् ॥ ६६ ॥
उपायो नान्यथा चास्मिन्कार्ये मृत्युभयावहे ।
इयं पितृष्वसा पूज्या कथं हन्मीत्यचिन्तयत् ॥ ६७ ॥
उस आकाशवाणीको सुनकर महाबली कंस आश्चर्यचकित हो गया । उस आकाशवाणीको सत्य मानकर वह चिन्तामें पड़ गया । अब मैं क्या करूँ' ऐसा भलीभाँति सोच-विचारकर उसने यह निश्चय किया कि यदि मैं देवकीको इसी समय शीघ्र मार डालूँ तो मेरी मृत्यु नहीं होगी । मृत्युका भय उत्पन्न करनेवाले इस विषम अवसरपर दूसरा कोई उपाय नहीं है, किंतु यह मेरी पूज्य चचेरी बहन है । अत: इसकी हत्या कैसे करूँ, वह ऐसा सोचने लगा ॥ ६५-६७ ॥

पुनर्विचारयामास मरणं मेऽस्त्यहो स्वसा ।
पापेनापि प्रकर्तव्या देहरक्षा विपश्चिता ॥ ६८ ॥
प्रायश्चित्तेन पापस्य शुद्धिर्भवति सर्वदा ।
प्राणरक्षा प्रकर्तव्या बुधैरप्येनसा तथा ॥ ६९ ॥
उसने पुनः सोचा-अरे ! यही बहन तो मेरी मृत्युस्वरूपा है । बुद्धिमान् मनुष्यको पापकर्मसे भी अपने शरीरकी रक्षा कर लेनी चाहिये । बादमें प्रायश्चित्त कर लेनेसे उस पापकी शुद्धि हो जाती है । अत: चतुर लोगोंको चाहिये कि पापकर्मसे भी अपने प्राणकी रक्षा कर लें ॥ ६८-६९ ॥

विचिन्त्य मनसा कंसः खड्गमादाय सत्वरः ।
जग्राह तां वरारोहां केशेष्वाकृष्य पापकृत् ॥ ७० ॥
कोशात्खड्गमुपाकृष्य हन्तुकामो दुराशयः ।
पश्यतां सर्वलोकानां नवोढां तां चकर्ष ह ॥ ७१ ॥
मनमें ऐसा सोचकर पापी कंसने बाल खींचकर उस सुन्दरी देवकीको तुरंत पकड़ लिया । तत्पश्चात् म्यानसे तलवार निकालकर उसे मारनेकी इच्छासे बुरे विचारोंवाला कंस सभी लोगोंके सामने ही उस नवविवाहिता देवकीको अपनी ओर खींचने लगा ॥ ७०-७१ ॥

हन्यमानाञ्च तां दृष्ट्वा हाहाकारो महानभूत् ।
वसुदेवानुगा वीरा युद्धायोद्यतकार्मुकाः ॥ ७२ ॥
मुञ्च मुञ्चेति प्रोचुस्तं ते तदाद्‌भुतसाहसाः ।
कृपया मोचयामासुर्देवकीं देवमातरम् ॥ ७३ ॥
उसे मारी जाती देखकर लोगोंमें महान् हाहाकार मच गया । वसुदेवजीके वीर साथीगण धनुष लेकर युद्धके लिये तैयार हो गये । अद्धत साहसवाले वे सब कंससे कहने लगे-कृपा करके इसे छोड़ दो, छोड़ दो । वे देवमाता देवकीको कंससे छुड़ाने लगे ॥ ७२-७३ ॥

तद्युद्धमभवद्‌ घोरं वीराणाञ्च परस्परम् ।
वसुदेवसहायानां कंसेन च महात्मना ॥ ७४ ॥
वर्तमाने तथा युद्धे दारुणे लोमहर्षणे ।
कंसं निवारयामासुर्वृद्धा ये यदुसत्तमाः ॥ ७५ ॥
तब शक्तिशाली कसके साथ वसुदेवजीके पराक्रमी सहायकोंका घोर युद्ध होने लगा । उस भीषण लोमहर्षक युद्धके निरन्तर होते रहनेपर जो श्रेष्ठ तथा वृद्ध यदुगण थे, उन्होंने कंसको युद्ध करनेसे रोक दिया । ७४-७५ ॥

पितृष्वसेयं ते वीर पूजनीया च बालिशा ।
न हन्तव्या त्वया वीर विवाहोत्सवसङ्गमे ॥ ७६ ॥
स्त्रीहत्या दुःसहा वीर कीर्तिघ्नी पापकृत्तमा ।
भूतभाषितमात्रेण न कर्तव्या विजानता ॥ ७७ ॥
[उन्होंने कंससे कहा-] हे वीर ! यह तुम्हारी पूजनीय चचेरी बहन है । इस विवाहोत्सवके शुभ अवसरपर तुम्हें इस अबोध देवकीकी हत्या नहीं करनी चाहिये । हे वीर ! स्त्रीहत्या दुःसह कार्य है; यह यशका नाश करनेवाली है और इससे घोर पाप लगता है । केवल आकाशवाणी सुनकर तुम-जैसे बुद्धिमान्को बिना सोचेसमझे यह हत्या नहीं करनी चाहिये । ७६-७७ ॥

अन्तर्हितेन केनापि शत्रुणा तव चास्य वा ।
उदितेति कुतो न स्याद्वागनर्थकरी विभो ॥ ७८ ॥
यशसस्ते विघाताय वसुदेवगृहस्य च ।
अरिणा रचिता वाणी गुणमायाविदा नृप ॥ ७९ ॥
हे विभो ! हो-न-हो तुम्हारे या इन वसुदेवके किसी गुप्त शत्रुने यह अनर्थकारी वाणी बोल दी हो । हे राजन् ! तुम्हारा यश और वसुदेवका गार्हस्थ्य नष्ट करनेके लिये किसी मायावी शत्रुने यह कृत्रिम वाणी घोषित कर दी हो ॥ ७८-७९ ॥

बिभेषि वीरस्त्वं भूत्वा भूतभाषितभाषया ।
यशोमूलविघातार्थमुपायस्त्वरिणा कृतः ॥ ८० ॥
तुम वीर होकर भी आकाशवाणीसे डर रहे हैं तुम्हारे यशरूपी वृक्षको उखाड़ फेंकनेके लिये तुम्हां किसी शत्रुने ही यह चाल चली है । ८० ॥

पितृष्वसा न हन्तव्या विवाहसमये पुनः ।
भवितव्यं महाराज भवेच्च कथमन्यथा ॥ ८१ ॥
जो कुछ भी हो, विवाहके इस अवसरपर तुम्हें बहनकी हत्या तो करनी ही नहीं चाहिये । हे महाराज ! होनहार तो होगी ही, उसे कोई कैसे टान्न सकता है ? ॥ ८१ ॥

एवं तैर्बोध्यमानोऽसौ निवृत्तो नाभवद्यदा ।
तदा तं वसुदेवोऽपि नीतिज्ञः प्रत्यभाषत ॥ ८२ ॥
कंस सत्यं ब्रवीम्यद्य सत्याधारं जगत्त्रयम् ।
दास्यामि देवकीपुत्रानुत्पन्नांस्तव सर्वशः ॥ ८३ ॥
जातं जातं सुतं तुभ्यं न दास्यामि यदि प्रभो ।
कुम्भीपाके तदा घोरे पतन्तु मम पूर्वजाः ॥ ८४ ॥
इस प्रकार उन वृद्ध यादवोंके समझानेपर में जब वह कंस पापकर्मसे विरत नहीं हुआ, तक नीतिज्ञ वसुदेवजीने उससे कहा-हे कंस ! तीनं लोक सत्यपर टिके हुए हैं, अतः मैं इस समय तुमसे सत्य बोल रहा हूँ । उत्पन्न होते ही देवकीके सभी पुत्रोंको लाकर मैं आपको दे दूँगा । हे विभो ! यदि क्रमसे उत्पन्न होते हुए ही प्रत्येक पुत्र आपको न दे दूँ तो मेरे पूर्वज भयंकर कुम्भीपाक नरकमें गिर पड़ें ॥ ८२-८४ ॥

श्रुत्वाथ वचनं सत्यं पौरवा ये पुरःस्थिताः ।
ऊचुस्ते त्वरिताः कंसं साधु साधु पुनः पुनः ॥ ८५ ॥
न मिथ्या भाषते क्वापि वसुदेवो महामनाः ।
केशं मुञ्च महाभाग स्त्रीहत्या पातकं तथा ॥ ८६ ॥
वसुदेवजीका यह सत्य वचन सुनकर वहाँ जो नागरिक सामने खड़े थे, वे कंससे तुरंत बोल उठे-'बहुत ठीक, बहुत ठीक । महात्मा वसुदेव कभी भी झूठ नहीं बोलते । हे महाभाग ! अब इस देवकीके केश छोड़ दीजिये; क्योंकि स्त्रीहत्या पाप है' ॥ ८५-८६ ॥

व्यास उवाच
एवं प्रबोधितः कंसो यदुवृद्धैर्महात्मभिः ।
क्रोधं त्यक्त्वा स्थितस्तत्र सत्यवाक्यानुमोदितः ॥ ८७ ॥
व्यासजी बोले-उन महात्मा वृद्ध यादवोंके इस प्रकार समझानेपर कंसने क्रोध त्यागकर वसुदेवजीके सत्य वचनपर विश्वास कर लिया ॥ ८७ ॥

ततो दुन्दुभयो नेदुर्वादित्राणि च सस्वनुः ।
जयशब्दस्तु सर्वेषामुत्पन्नस्तत्र संसदि ॥ ८८ ॥
तब दुन्दुभियाँ तथा अन्य बाजे ऊँचे स्वरमें बजने लगे और उस सभामें उपस्थित सभी लोगोंक मुखसे जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ ८८ ॥

प्रसाद्य कंसं प्रतिमोच्य देवकीं
     महायशाः शूरसुतस्तदानीम् ।
जगाम गेहं स्वजनानुवृत्तो
     नवोढया वीतभयस्तरस्वी ॥ ८९ ॥
इस प्रकार उस समय महायशस्वी वसुदेवजी कंसको प्रसन्न करके उससे देवकीको छुड़ाकर उस नवविवाहिताके साथ अपने इष्टजनोंसहित निर्भर होकर शीघ्रतापूर्वक घर चले गये ॥ ८९ ॥

इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
अध्याय बीसवाँ समाप्त ॥ २० ॥


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