दसवाँ माह पूर्ण होनेपर जब देवकीने अत्यन्त रूपसम्पन्न तथा सुडौल अंगोंवाले अत्युत्तम प्रथम पुत्रको जन्म दिया तब सत्यप्रतिज्ञासे बंधे हुए महाभाग वसुदेवने होनहारसे विवश होकर देवमाता देवकीसे कहा- ॥ २-३ ॥
वरोरु समयं मे त्वं जानासि स्वसुतार्पणे । मोचिता त्वं महाभागे शपथेन मया तदा ॥ ४ ॥ इमं पुत्रं सुकेशान्ते दास्यामि भ्रातृसूनवे । (खले कंसे विनाशार्थं दैवे किं वा करिष्यसि ।) विचित्रकर्मणां पाको दुर्ज्ञेयो ह्यकृतात्मभिः ॥ ५ ॥ सर्वेषां किल जीवानां कालपाशानुवर्तिनाम् । भोक्तव्यं स्वकृतं कर्म शुभ वा यदि वाशुभम् ॥ ६ ॥
हे सुन्दरि ! अपने सभी पुत्र कंसको अर्पित कर देनेकी मेरी प्रतिज्ञाको तुम भलीभाँति जानती हो । हे महाभागे ! उस समय इसी प्रतिज्ञाके द्वारा मैंने तुम्हें कंससे मुक्त कराया था । अतएव हे सुन्दर केशोंवाली ! मैं यह पुत्र तुम्हारे चचेरे भाई कंसको अर्पित कर दे रहा हूँ । (जब दुष्ट कंस अथवा प्रारब्ध विनाशके लिये उद्यत ही है तो तुम कर ही क्या सकोगी ?) अद्भुत कर्मोंका परिणाम आत्मज्ञानसे रहित प्राणियोंके लिये दुर्जेय होता है । कालके पाशमें बंधे हुए समस्त जीवोंको अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ काँका फल निश्चितरूपसे भोगना ही पड़ता है । प्रत्येक जीवका प्रारब्ध निश्चित रूपसे विधिके द्वारा ही निर्मित है ॥ ४-६ ॥
प्रारब्धं सर्वथैवात्र जीवस्य विधिनिर्मितम् । देवक्युवाच स्वामिन् पूर्वं कृतं कर्म भोक्तव्यं सर्वथा नृभिः ॥ ७ ॥ तीर्थैस्तपोभिर्दानैर्वा किं न याति क्षयं हि तत् । लिखितो धर्मशास्त्रेषु प्रायश्चित्तविधिर्नृप ॥ ८ ॥ पूर्वार्जितानां पापानां विनाशाय महात्मभिः ।
देवकी बोली-हे स्वामिन् ! मनुष्योंको अपने पूर्वजन्ममें किये गये कर्मोका फल अवश्य भोगना पड़ता है; किंतु क्या तीर्थाटन, तपश्चरण एवं दानादिसे वह कर्म-फल नष्ट नहीं हो सकता है ? हे महाराज ! पूर्व अर्जित पापोंके विनाशके लिये महात्माओंने धर्मशास्त्रोंमें तो नानाविध प्रायश्चित्तके विधानका उल्लेख किया है । ७-८.५ ॥
ब्रह्महा हेमहारी च सुरापो गुरुतल्पगः ॥ ९ ॥ द्वादशाब्दव्रते चीर्णे शुद्धिं याति यतस्ततः । मन्वादिभिर्यथोद्दिष्टं प्रायश्चित्तं विधानतः ॥ १० ॥ तथा कृत्वा नरः पापान्मुच्यते वा न वानघ । विगीतवचनास्ते किं मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ११ ॥ याज्ञवल्क्यादयः सर्वे धर्मशास्त्रप्रवर्तकाः । भवितव्यं भवत्येव यद्येवं निश्चयः प्रभो ॥ १२ ॥ आयुर्वेदः स मिथ्यैव मन्त्रवादास्तथाखिलाः । उद्यमस्तु वृथा सर्वमेवं चेद्दैवनिर्मितम् ॥ १३ ॥
ब्रह्माहत्या करनेवाला, स्वर्णका हरण करनेवाला, सुरापान करनेवाला तथा गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाला महापापी भी बारह वर्षोंतक व्रतका अनुष्ठान कर लेनेपर शुद्ध हो जाता है । हे अनघ ! उसी प्रकार मनु आदिके द्वारा उपदिष्ट प्रायश्चित्तका विधानपूर्वक अनुष्ठान करके मनुष्य क्या पापसे मुक्त नहीं हो जाता है ? [यदि प्रायश्चित्त-विधानके द्वारा पापसे मुक्ति नहीं मिलती है तो क्या याज्ञवल्क्य आदि धर्मशास्त्रप्रणेता तत्त्वदर्शी मुनियोंके वचन निरर्थक हो जायँगे ? हे स्वामिन् ! होनी होकर ही रहती है-यदि यह निश्चित है तब तो सभी आयुर्वेद एवं सभी मन्त्रशास्त्र झटे सिद्ध हो जायेंगे और इस प्रकार भाग्यलेखके समक्ष सभी उद्यम अर्थहीन हो जायेंगे ॥ ९-१३ ॥
भवितव्यं भवत्येव प्रवृत्तिस्तु निरर्थिका । अग्निष्टोमादिकं व्यर्थं नियतं स्वर्गसाधनम् ॥ १४ ॥ यदा तदा प्रमाणं हि वृथैव परिभाषितम् । वितथे तत्प्रमाणे तु धर्मोच्छेदः कुतो न हि ॥ १५ ॥
'जो होना है, वह अवश्य घटित होता है' यदि [यही सत्य है] तो सत्कर्मोकी ओर प्रवृत्त होना व्यर्थ हो जायगा और अग्निष्टोम आदि स्वर्गप्राप्तिके शास्त्र-सम्मत साधन भी निरर्थक हो जायेंगे । जब वेद-शास्त्रादिके उपदेश ही व्यर्थ हो गये, तब उन प्रमाणोंके झूठा हो जानेपर क्या धर्मका समूल नाश नहीं हो जायगा ? ॥ १४-१५ ॥
उद्यमे च कृते सिद्धिः प्रत्यक्षेणैव साध्यते । तस्मादत्र प्रकर्तव्यः प्रपञ्चश्चित्तकल्पितः ॥ १६ ॥ यथायं बालकः क्षेमं प्राप्नोति मम पुत्रकः । मिथ्या यदि प्रकर्तव्यं वचनं शुभमिच्छता ॥ १७ ॥ न तत्र दूषणं किञ्चित्पवदन्ति मनीषिणः ।
उद्यम करनेपर सिद्धिकी प्रत्यक्ष प्राप्ति हो जाती है । अतएव अपने मनमें भलीभाँति सोच करके कोई ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मेरा यह बालक पुत्र बच जाय । किसीके कल्याणकी इच्छासे यदि झूठ बोल दिया जाय तो इसमें किसी प्रकारका दोष नहीं होता है-ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ॥ १६-१७.५ ॥
वसुदेव उवाच निशामय महाभागे सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ १८ ॥ उद्यमः खलु कर्तव्यः फलं दैववशानुगम् । त्रिविधानीह कर्माणि संसारेऽत्र पुराविदः ॥ १९ ॥ प्रवदन्तीह जीवानां पुराणेष्वागमेषु च । सञ्चितानि च जीर्णानि प्रारब्धानि सुमध्यमे ॥ २० ॥ वर्तमानानि वामोरु विविधानीह देहिनाम् । शुभाशुभानि कर्माणि बीजभूतानि यानि च ॥ २१ ॥ बहुजन्मसमुत्थानि काले तिष्ठन्ति सर्वथा ।
वसुदेव बोले-हे महाभागे ! सुनो, मैं तुमसे यह सत्य कह रहा हूँ । मनुष्यको उद्यम करना चाहिये, उसका फल दैवके अधीन रहता है । प्राचीन तत्त्ववेत्ताओंने इस संसारमें प्राणियोंके तीन प्रकारके कर्म पुराणों तथा शास्त्रोंमें बताये हैं । हे सुमध्यमे ! संचित, प्रारब्ध और वर्तमान-ये तीन प्रकारके कर्म देहधारियोंके होते हैं । हे सुजघने ! प्राणियोंद्वारा सम्पादित जो भी शुभाशुभ कर्म होते हैं, वे बीजका रूप धारण कर लेते हैं और अनेक जन्मकै उपार्जित वे कर्म समय पाकर फल देनेके लिये उपस्थित हो जाते हैं ॥ १८-२१.५ ॥
पूर्वदेहं परित्यज्य जीवः कर्मवशानुगः ॥ २२ ॥ स्वर्गं वा नरकं वापि प्राप्नोति स्वकृतेन वै । दिव्यं देहञ्च सम्प्राप्य यातनादेहमर्थजम् ॥ २३ ॥ भुनक्ति विविधान् भोगान्स्वर्गे वा नरकेऽथवा ।
जीव अपना पूर्व शरीर छोड़कर अपने द्वारा किये गये कर्मोके अधीन होकर स्वर्ग अथवा नरकमें जाता है । सुकर्म करनेवाला जीव दिव्य शरीर प्राप्त करके स्वर्गमें नानाविध सुखोंका उपभोग करता है तथा दुष्कर्म करनेवाला विषयभोगजन्य यातना देह प्राप्त करके नरकमें अनेक प्रकारके कष्ट भोगता है । २२-२३.५ ॥
भोगान्ते च यदोत्पत्तेः समयस्तस्य जायते ॥ २४ ॥ लिङ्गदेहेन सहितं जायते जीवसंज्ञितम् । तदैव सञ्चितेभ्यश्च कर्मभ्यः कर्मभिः पुनः ॥ २५ ॥ योजयत्येव तं कालं कर्माणि प्राक्कृतानि च । देहेनानेन भाव्यानि शुभानि चाशुभानि च ॥ २६ ॥ प्रारब्धानि च जीवेन भोक्तव्यानि सुलोचने । प्रायश्चित्तेन नश्यन्ति वर्तमानानि भामिनि ॥ २७ ॥ सञ्चितानि तथैवाशु यथार्थं विहितेन च । प्रारब्धकर्मणां भोगात्संक्षयो नान्यथा भवेत् ॥ २८ ॥
इस प्रकार भोग पूर्ण हो जानेपर जब पुनः उसके जन्मका समय आता है, तब लिंगदेहके साथ संयोग होनेपर उसकी 'जीव' संज्ञा हो जाती है । उसी समय जीवका संचित कर्मोंसे सम्बन्ध हो जाता है और पुन: लिंगदेहके आविर्भावके समय परमात्मा उन कर्मोके साथ जीवको जोड़ देते हैं । हे सुलोचने ! इसी शरीरके द्वारा जीवको संचित, वर्तमान और प्रारब्ध-इन तीन प्रकारके शुभ अथवा अशुभ कर्म भोगने पड़ते हैं । हे भामिनि ! केवल वर्तमान कर्म ही प्रायश्चित्त आदिके द्वारा नष्ट किये जा सकते हैं । इसी प्रकार समुचित शास्त्रोक्त उपायोंद्वारा संचित कर्मोंको भी विनष्ट किया जा सकता है, किंतु प्रारब्ध कर्मोका क्षय तो भोगसे ही सम्भव है, अन्यथा नहीं ॥ २४-२८ ॥
तेनायं ते कुमारो वै देयः कंसाय सर्वथा । न मिथ्या वचनं मेऽस्ति लोकनिन्दाभिदूषितम् ॥ २९ ॥
अतएव मुझे तुम्हारे इस पुत्रको हर प्रकारसे कंसको अर्पित कर ही देना चाहिये । ऐसा करनेसे मेरा वचन भी मिध्या नहीं होगा और लोकनिन्दाका दोष भी मुझे नहीं लगेगा ॥ २९ ॥
अनित्येऽस्मिंस्तु संसारे धर्मसारे महात्मनाम् । दैवाधीनं हि सर्वेषां मरणं जननं तथा ॥ ३० ॥ तस्माच्छोको न कर्तव्यो देहिना हि निरर्थकः । सत्यं यस्य गतं कान्ते वृथा तस्यैव जीवितम् ॥ ३१ ॥
इस अनित्य संसारमें महापुरुषोंके लिये धर्म ही एकमात्र सार-तत्त्व है । इस लोकमें प्राणियोंका जन्म तथा मरण दैवके अधीन है । अतएव हे प्रिये ! प्राणियोंको व्यर्थ शोक नहीं करना चाहिये । इस संसारमें जिसने सत्य छोड़ दिया उसका जीवन निरर्थक ही है ॥ ३०-३१ ॥
हे देवि ! सत्य-पथका अनुगमन करनेसे आगे कल्याण होगा । हे प्रिये ! सुख अथवा दुःख-किसी भी परिस्थितिमें मनुष्योंको सत्कर्म ही करना चाहिये । (हे देवि ! सत्यकी भलीभाँति रक्षा करनेसे कल्याण ही होगा) ॥ ३३ ॥
लोगोंने कहा-हे नागरिको ! इस मनस्वी वसुदेवको देखो; इस अबोध बालकको लेकर ये द्वेषरहित एवं सत्यवादी वसुदेव अपने वचनको रक्षाके लिये आज इसे मृत्युको समर्पित करने जा रहे हैं । इनका जीवन सफल हो गया है । इनके इस अद्भुत धर्मपालनको देखो, जो साक्षात् कालस्वरूप कंसको अपना पुत्र देनेके लिये जा रहे हैं ॥ ३६-३७.५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! इस प्रकार लोगोंद्वारा प्रशंसित होते हुए वे वसुदेव कंसके महलमें पहुँच गये और उस दिव्य नवजात शिशुको कंसको अर्पित कर दिया । महात्मा वसुदेवके इस धैर्यको देखकर कंस भी विस्मित हो गया ॥ ३८-३९ ॥
उस बालकको अपने हाथोंमें लेकर कंसने मुसकराते हुए यह वचन कहा-हे शूरसेनतनय ! आप धन्य हैं; आज आपके इस पुत्र-समर्पणके कृत्यसे मैंने आपका महत्त्व जान लिया ॥ ४० ॥
मम मृत्युर्न चायं वै गिरा प्रोक्तस्तु चाष्टमः । न हन्तव्यो मया कामं बालोऽयं यातु ते गहम् ॥ ४१ ॥
यह बालक मेरी मृत्युका कारण नहीं है । क्योंकि आकाशवाणीके द्वारा देवकीका आठवाँ पुत्र मेरी मृत्युका कारण बताया गया है । अतएव मैं इस बालकका वध नहीं करूंगा, आप इसे अपने घर ले जाइये ॥ ४१ ॥
इसके बाद कंसने भी अपने मन्त्रियोंसे कहा कि मैं इस शिशुकी व्यर्थ ही हत्या क्यों करता; क्योंकि मेरी मृत्यु तो देवकीके आठवें पुत्रसे कही गयी है, अतः देवकीके प्रथम शिशुका वध करके मैं पाप क्यों करूँ ? तब वहाँ विद्यमान श्रेष्ठ मन्त्रिगण 'साधु, साधु'-ऐसा कहकर और कंससे आज्ञा पाकर अपने-अपने घर चले गये । उनके चले जानेपर मुनिश्रेष्ठ नारदजी वहाँ आ गये ॥ ४४-४६ ॥
अभ्युत्थानार्घ्यपाद्यादि चकारोग्रसुतस्तदा । पप्रच्छ कुशलं राजा तत्रागमनकारणम् ॥ ४७ ॥
उस समय उग्रसेन-पुत्र कंसने श्रद्धापूर्वक उठकर विधिवत् अर्घ्य, पाद्य आदि अर्पण किया और पुनः कुशल-क्षेम तथा उनके आगमनका कारण पूछा ॥ ४७ ॥
तब नारदजीने मुसकराकर कंससे यह वचन कहा-हे कंस ! हे महाभाग ! मैं सुमेरुपर्वतपर गया था । वहाँ ब्रह्मा आदि देवगण एकत्र होकर आपसमें मन्त्रणा कर रहे थे कि वसुदेवकी पत्नी देवकीके गर्भसे सुर श्रेष्ठ भगवान् विष्णु आपके संहारके उद्देश्यसे अवतार लेंगे तो फिर नीतिका ज्ञान रखते हुए भी आपने उस शिशुका वध क्यों नहीं किया ? ॥ ४८-५० ॥
कंस उवाच अष्टमं च हनिष्येऽहं मृत्युं मे देवभाषितम् ।
कंस बोला-आकाशवाणीके द्वारा बताये गये अपने मृत्यु-रूप [देवकीके] आठवें पुत्रका मैं वध करूंगा ॥ ५०.५ ॥
नारद उवाच न जानासि नृपश्रेष्ठ राजनीतिं शुभाशुभा । ५१ ॥ मायाबलं च देवानां न त्वं वेत्सि वदामि किम् । रिपुरल्पोऽपि शूरेण नोपेक्ष्यः शुभमिच्छता ॥ ५२ ॥
नारदजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! आप शुभ तथा अशभ राजनीतिको नहीं जानते हैं और देवताओंकी माया-शक्ति भी नहीं जानते हैं । अब मैं क्या बताऊँ ? अपना कल्याण चाहनेवाले वीरको छोटे-से-छोटे शत्रुकी भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये ॥ ५१-५२ ॥
ऐसा कहकर श्रीमान् देवदर्शन नारद वहाँसे शीघ्रतापूर्वक चले गये । नारदके चले जानेपर कंसने उस बालकको मँगवाकर उसे पत्थरपर पटक दिया और उस मन्दबुद्धि कंसको महान् सुख प्राप्त हुआ ॥ ५४ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां कंसेन देवकीप्रथमपुत्रवधवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥