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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
प्रथमोऽध्यायः

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योगमायाप्रभाववर्णनम् -
व्यासजीद्वारा त्रिदेवोंकी तुलनामें भगवतीकी उत्तमताका वर्णन -


ऋषय ऊचुः
भवता कथितं सूत महदाख्यानमुत्तमम् ।
कृष्णस्य चरितं दिव्यं सर्वपातकनाशनम् ॥ १ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! आपने यह बहुत ही उत्तम कथा कही, जिसमें भगवान् श्रीकृष्णके सर्वपापविनाशक तथा अलौकिक चरित्रका वर्णन है ॥ १ ॥

सन्देहोऽत्र महाभाग वासुदेवकथानके ।
जायते नः प्रोच्यमाने विस्तरेण महामते ॥ २ ॥
हे महाभाग ! हे महामते ! [आपके द्वारा] विस्तारपूर्वक कहे जा रहे श्रीकृष्णके इस कथानकमें हमें सन्देह हो रहा है ॥ २ ॥

वने गत्वा तपस्तप्तं वासुदेवेन दुष्करम् ।
विष्णोरंशावतारेण शिवस्याराधनं कृतम् ॥ ३ ॥
वरप्रदानं देव्या च पार्वत्या यत्कृतं पुनः ।
जगन्मातुश्च पूर्णायाः श्रीदेव्या अंशभूतया ॥ ४ ॥
ईश्वरेणापि कृष्णेन कुतस्तौ सम्प्रपूजितौ ।
न्यूनता वा किमस्त्वस्य तदेवं संशयो मम ॥ ५ ॥
[एक तो] विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णने वनमें जाकर घोर तप किया और शिवकी आराधना की; पुनः जगजननी श्रीदेवी भगवती पूर्णाकी अंशस्वरूपा देवी पार्वतीने श्रीकृष्णको जो वरदान दिया; ईश्वर होते हुए भी श्रीकृष्णने शिव तथा पार्वतीकी उपासना क्यों की ? क्या श्रीकृष्णमें शिवकी अपेक्षा कोई न्यूनता थी ? यही हमारा सन्देह है ॥ ३-५ ॥

सूत उवाच
शृणुध्वं कारणं तत्र मया व्यासश्रुतञ्च यत् ।
प्रब्रवीमि महाभागाः कथां कृष्णगुणान्विताम् ॥ ६ ॥
सूतजी बोले-हे महाभाग मुनिगण ! व्यासजीसे इसका जो कारण मैंने सुना है, उसे आपलोग सुनिये । अब मैं भगवान् श्रीकृष्णके गुणोंसे परिपूर्ण कथा कहता हूँ ॥ ६ ॥

वृत्तान्तं व्यासतः श्रुत्वा वैराटीसुतजस्तदा ।
पुनः पप्रच्छ मेधावी सन्देहं परमं गतः ॥ ७ ॥
व्यासजीसे यह वृत्तान्त सुनकर प्रतिभावान् राजा जनमेजय और भी अधिक सन्देहमें पड़ गये; तब उन्होंने फिर पूछा ॥ ७ ॥

जनमेजय उवाच
सम्यक्सत्यवतीसूनो श्रुतं परमकारणम् ।
तथापि मनसो वृत्तिः संशयं न विमुञ्चति ॥ ८ ॥
जनमेजय बोले-हे सत्यवतीतनय व्यासजी ! मैंने परमकारणस्वरूपा भगवतीके विषयमें सुना । फिर भी मनकी वृत्ति संशयसे मुक्त नहीं हो पा रही है ॥ ८ ॥

कृष्णेनाराधितः शम्भुस्तपस्तप्त्वातिदारुणम् ।
विस्मयोऽयं महाभाग देवदेवेन विष्णुना ॥ ९ ॥
यः सर्वात्मापि सर्वेशः सर्वसिद्धिप्रदः प्रभुः ।
स कथं कृतवान्घोरं तपः प्राकृतवद्धरिः ॥ १० ॥
जगत्कर्तुं क्षमः कृष्णस्तथा पालयितुं क्षमः ।
संहर्तुमपि कस्मात्स दारुणं तप आचरत् ॥ ११ ॥
हे महाभाग ! मुझे यह महान् विस्मय है कि देवोंके भी देव विष्णुके अंशसे उत्पन्न श्रीकृष्णने अति उग्र तपस्या करके भगवान् शिवकी आराधना की । जो सभी जीवोंकी आत्मा, सभीके ईश्वर और सभी प्रकारको सिद्धियाँ देनेवाले हैं-उन भगवान् कृष्णने भी सामान्य प्राणियोंकी भाँति घोर तप क्यों किया ? भगवान् श्रीकृष्ण तो जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करनेमें समर्थ हैं; तब भी उन्होंने इतनी उग्र तपस्या किसलिये की ? ॥ ९-११ ॥

व्यास उवाच
सत्यमुक्तं त्वया राजन् वासुदेवो जनार्दनः ।
क्षमः सर्वेषु कार्येषु देवानां दैत्यसूदनः ॥ १२ ॥
तथापि मानुषं देहमाश्रितः परमेश्वरः ।
कृतवान्मानुषान्भावान्वर्णाश्रमसमाश्रितान् ॥ १३ ॥
वृद्धानां पूजनं चैव गुरुपादाभिवन्दनम् ।
ब्राह्मणानां तथा सेवा देवताराधनं तथा ॥ १४ ॥
शोके शोकाभियोगश्च हर्षे हर्षसमुन्नतिः ।
दैन्यं नानापवादाश्च स्त्रीषु कामोपसेवनम् ॥ १५ ॥
कामः क्रोधस्तथा लोभः काले काले भवन्ति हि ।
तथा गुणमये देहे निर्गुणत्वं कथं भवेत् ॥ १६ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! आपने सत्य कहा है । दैत्यदमन भगवान् वासुदेव देवताओंके सभी कार्य करने में समर्थ थे; फिर भी उन परमेश्वर श्रीकृष्णने मानव-देह धारण करनेके कारण वर्णाश्रमधर्मसे सम्बन्धित मानवोचित कार्य सम्पादित किये थे । उन्होंने वृद्धजनोंकी पूजा, गुरु-जनोंकी चरण-वन्दना, ब्राह्मणोंकी सेवा तथा देवताओंकी आराधना की । शोकके अवसरपर वे शोकाकुल हुए तथा हर्षकी स्थितिमें हर्षित हुए । [अवसरके अनुसार] उन्होंने दीनताका प्रदर्शन किया, नानाविध लोकापवादोंको सहन किया तथा अपनी स्त्रियोंके साथ लीला-विहार किया । जिस प्रकार मानवमें समय-समयपर काम, क्रोध तथा लोभ होते रहते हैं, उसी प्रकारके भाव उनके भी मनमें जाग्रत् हुए; क्योंकि गुणमय देहमें निर्गुणत्व कैसे हो सकता है ? ॥ १२-१६ ॥

सौबलीशापजाद्दोषात्तथा ब्राह्मणशापजात् ।
निधनं यादवानां तु कृष्णदेहस्य मोचनम् ॥ १७ ॥
सुबलसुता गान्धारी तथा ब्राह्मण अष्टावक्रके शापजनित दोषके कारण यादवोंका विनाश हुआ और भगवान् कृष्णको देह-त्याग करना पड़ा ॥ १७ ॥

हरणं लुण्ठनं तद्वत्तत्पत्‍नीनां नराधिप ।
अर्जुनस्यास्त्रमोक्षे च क्लीबत्वं तस्करेषु च ॥ १८ ॥
हे राजन् ! उसी प्रकार उनकी स्त्रियोंका हरण हुआ, उनका धन लूट लिया गया तथा अर्जुन उन लुटेरोंपर अपना अस्व चलानेमें पुरुषार्थहीन हो गये ॥ १८ ॥

अज्ञत्वं हरणे गेहात्तत्प्रद्युम्नानिरुद्धयोः ।
एवं मानुषदेहेऽस्मिन्मानुषं खलु चेष्टितम् ॥ १९ ॥
श्रीकृष्णको अपने घरसे प्रद्युम्न तथा अनिरुद्धके हरणकी जानकारी नहीं हो पायी । इस प्रकार यह मानव-शरीर पाकर उन्होंने साधारण प्राणीकी भाँति सभी मानवीय चेष्टाओंका प्रदर्शन किया ॥ १९ ॥

विष्णोरंशावतारेऽस्मिन्नारायणमुनेस्तथा ।
अंशजे वासुदेवेऽत्र किं चित्रं शिवसेवने ॥ २० ॥
तब भगवान् विष्णुके अंशावतार तथा साक्षात् नारायणके अंशसे उत्पन्न इन श्रीकृष्णने यदि शिवजीकी उपासना की तो इसमें आश्चर्य क्या ? ॥ २० ॥

स हि सर्वेश्वरो देवो विष्णोरपि च कारणम् ।
सुषुप्तस्थाननाथः स विष्णुना च प्रपूजितः ॥ २१ ॥
तदंशभूताः कृष्णाद्यास्तैः कथं न स पूज्यते ।
अकारो भगवान्ब्रह्माप्युकारः स्याद्धरिः स्वयम् ॥ २२ ॥
मकारो भगवान् रुद्रोऽप्यर्धमात्रा महेश्वरी ।
उत्तरोत्तरभावेनाप्युत्तमत्वं स्मृतं बुधैः ॥ २३ ॥
वे प्रभु सबके ईश्वर हैं तथा विष्णुकी भी उत्पत्तिके कारण हैं । वे सुषुप्तस्थान (कारण-देह)के स्वामी हैं । इसीलिये वे विष्णुके द्वारा भी पूजित हैं । कृष्ण आदि उन्हीं विष्णुके अंशसे अवतीर्ण हैं तब वे शिवकी पूजा क्यों नहीं करेंगे ? ॐकारका 'अ' ब्रह्माका रूप है, 'उ' विष्णुका रूप है, 'म्' भगवान् शिवका रूप है और अर्धमात्रा (चन्द्रबिन्दु) भगवती महेश्वरीका रूप है । ये उत्तरोत्तर क्रमसे एक-दूसरेसे उत्तम हैं-ऐसा विद्वानोंने कहा है ॥ २१-२३ ॥

अतः सर्वेषु शास्त्रेषु देवी सर्वोत्तमा स्मृता ।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषतः ॥ २४ ॥
अतएव समस्त शास्त्रोंमें देवी सर्वोत्तम मानी गयी हैं । वे भगवती बिन्दुरूप नित्य अर्धमात्रामें स्थित हैं, जो [अर्धमात्रा] विशेषरूपसे उच्चारित नहीं की जा सकती ॥ २४ ॥

विष्णोरप्यथिको रुद्रो विष्णुस्तु ब्रह्मणोऽधिकः ।
तस्मान्न संशयः कार्यः कृष्णेन शिवपूजने ॥ २५ ॥
ब्रह्माजीसे भी बढ़कर विष्णु तथा विष्णुसे भी बढ़कर भगवान् शिव हैं । अतः श्रीकृष्णद्वारा शिवकी आराधनामें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २५ ॥

इच्छया ब्रह्मणो वक्त्राद्वरदानार्थमुद्‌बभौ ।
मूलरुद्रस्यांशभूतो रुद्रनामा द्वितीयकः ॥ २६ ॥
सोऽपि पूज्योऽस्ति सर्वेषां मूलरुद्रस्य का कथा ।
देवीतत्त्वस्य सान्निध्यादुत्तमत्वं स्मृतं शिवे ॥ २७ ॥
सृजन-कार्यके लिये जब ब्रह्माजीने शिवकी उपासना की तब इच्छापूर्वक उन्हें वरदान देनेके लिये शिवजी उन्हींके मुखसे प्रकट हो गये, जो मूलरुद्र कहलाये । पुनः उन मूलरुद्रके अंशसे द्वितीय रुद्र उत्पन्न हुए । वे रुद्रदेव भी सबके पूजनीय हैं तो फिर मूलरुद्रके विषयमें कहना ही क्या ? देवीतत्त्वके सांनिध्यमें रहनेके कारण ही शिवजीमें उत्तमता कही गयी है । २६-२७ ॥

अवतारा हरेरेवं प्रभवन्ति युगे युगे ।
योगमायाप्रभावेण नात्र कार्या विचारणा ॥ २८ ॥
भगवती योगमायाके ही प्रभावसे प्रत्येक युगमें भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार होते रहते हैं । इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ २८ ॥

या नेत्रपक्ष्मपरिसञ्चलनेन सम्य-
     ग्‌विश्वं सृजत्यवति हन्ति निगूढभावा ।
सैषा करोति सततं द्रुहिणाच्युतेशान्
     नानावतारकलने परिभूयमानान् ॥ २९ ॥
अत्यन्त निगूढ रहस्योंवाली जो भगवती अप्रत्यक्षरूपसे नेत्रकी पलक अँपनेमात्रमें भलीभाँति जगत्की उत्पत्ति, पालन तथा संहार कर देती हैं; वे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवको अनेकविध रूपोंमें अवतार ग्रहण करनेमें निरन्तर दुःखोंसे व्याकुल करती रहती हैं । २९ ॥

सूतीगृहाद्‌व्रजनमप्यनया नियुक्तं
     संगोपितश्च भवने पशुपालराज्ञः ।
सम्प्रापितश्च मधुरां विनियोजितश्च
     श्रीद्वारकाप्रणयने ननु भीतचित्तः ॥ ३० ॥
इन्हीं योगमायाके द्वारा श्रीकृष्णको प्रसूतिगृहसे निकालकर गोपराज नन्दके भवन में पहुँचाकर उनकी रक्षा की गयी । वे योगमाया ही कंसके विनाशार्थ श्रीकृष्णको मथुरा ले गयीं । जरासन्धसे अत्यन्त भयाक्रान्त चित्तवाले श्रीकृष्णको द्वारका बनानेकी प्रेरणा भी उन्हीं भगवतीने दी ॥ ३० ॥

निर्माय षोडशसहस्रशतार्धकास्ता
     नार्योऽष्टसम्मततराः स्वकलासमुत्थाः ।
तासां विलासवशगं तु विधाय कामं
     दासीकृतो हि भगवाननयाप्यनन्तः ॥ ३१ ॥
उन्होंने ही अपनी कला-शक्तिसे सोलह हजार पचास रानियों तथा आठ पटरानियोंकी रचना करके पुनः भगवान् श्रीकृष्णको उनके विलासके वशीभूत करके उन अनन्त शक्तिसम्पन्न श्रीकृष्णको उनका वशवर्ती बना दिया ॥ ३१ ॥

एकापि बन्धनविधौ युवती समर्था
     पुंसो यथा सुदृढलोहमयं तु दाम ।
किं नाम षोडशसहस्रशतार्धकाश्च
     तं स्वीकृतं शुकमिवातिनिबन्धयन्ति ॥ ३२ ॥
केवल एक ही युवती अपने लौहमय सुदृढ पाशमें पुरुषको बाँध सकनेमें समर्थ है तो फिर जिसकी सोलह हजार पचास भार्याएँ हों उसके विषयमें क्या कहना ? वे सब तो उस पुरुषको पालित तोतेकी भाँति अपनी इच्छाके अनुरूप नियन्त्रित कर ही सकती हैं ॥ ३२ ॥

सात्राजितीवशगतेन मुदान्वितेन
     प्राप्तं सुरेन्द्रभवनं हरिणा तदानीम् ।
कृत्वा मृधं मघवता विहृतस्तरूणा-
     मीशः प्रियासदनभूषणतां य आप ॥ ३३ ॥
सत्राजित्की पुत्री सत्यभामाके वशीभूत श्रीकृष्ण उसके कहनेपर प्रसन्नतापूर्वक इन्द्रके भवनमें पहुँच गये । वहाँपर इन्द्रके साथ युद्ध करके उन्होंने तरुराज कल्पवृक्ष छीन लिया और उससे अपनी प्रिया सत्यभामाके महलको सुशोभित किया ॥ ३३ ॥

यो भीमजां हि हृतवाञ्छिशुपालकादी-
     ञ्जित्वा विधिं निखिलधर्मकृतो विधित्सुः ।
जग्राह तां निजबलेन च धर्मपत्‍नीं
     कोऽसौ विधिः परकलत्रहृतौ विजातः ॥ ३४ ॥
समस्त धार्मिक अनुष्ठानोंको विधिपूर्वक करनेकी इच्छावाले भगवान् श्रीकृष्णने शिशुपाल आदि वीरोंको जीतकर [ पूर्वतः वाग्दत्ता] रुक्मिणीका हरण कर लिया और अपने बलके प्रभावसे उसे अपनी धर्मपत्नीके रूपमें ग्रहण किया । किसी दूसरेकी भार्या हरण करनेकी यह कौन-सी विधि निर्मित हो गयी ? ॥ ३४ ॥

अहङ्कारवशः प्राणी करोति च शुभाशुभम् ।
विमूढो मोहजालेन तत्कृतेनातिपातिना ॥ ३५ ॥
अत्यन्त दारुण अध:पतन करानेवाले मोहजालसे विमोहित तथा अहंकारके वशीभूत मनुष्य नानाविध शुभ तथा अशुभ कार्य करता है । ॥ ३५ ॥

अहङ्काराद्धि सञ्जातमिदं स्थावरजङ्गमम् ।
मूलाद्धरिहरादीनामुग्रात्प्रकृतिसम्भवात् ॥ ३६ ॥
मूलप्रकृतिजन्य उग्र अहंकारसे ही इस स्थावरजंगमात्मक जगत्की उत्पत्ति हुई है और इसीसे विष्णु, शिव आदि देवोंका भी प्रादुर्भाव हुआ है ॥ ३६ ॥

अहङ्कारपरित्यक्तो यदा भवति पद्मजः ।
तदा विमुक्तो भवति नोचेत्संसारकर्मकृत् ॥ ३७ ॥
जब ब्रह्माजी पूर्णरूपसे अहंकारसे रहित होते हैं, तब वे सृष्टिके निर्माण-कार्यसे मुक्त हो जाते हैं; अन्यथा अहंकारके वशवर्ती होकर वे सृष्टिरचनामें प्रवृत्त रहते हैं ॥ ३७ ॥

तन्मुक्तस्तु विमुक्तो हि बद्धस्तद्वशतां गतः ।
न नारी न धनं गेहं न पुत्रा न सहोदराः ॥ ३८ ॥
बन्धनं प्राणिनां राजन्नहङ्कारस्तु बन्धकः ।
अहं कर्ता मया चेदं कृतं कार्यं बलीयसा ॥ ३९ ॥
करिष्यामि करोम्येवं स्वयं बध्नाति प्राणभृत् ।
कारणेन विना कार्यं न सम्भवति कर्हिचित् ॥ ४० ॥
यथा न दृश्यते जातो मृत्पिण्डेन विना घटः ।
उस अहंकारसे मुक्त प्राणी सांसारिक बन्धनसे छूट जाता है और उसके वशीभूत हुआ प्राणी सांसारिक बन्धनमें पड़ जाता है । हे राजन् ! स्त्री, धन, घर, पुत्र तथा सहोदर भाई-ये सब बन्धनके मूल कारण नहीं हैं, अपितु अहंकार ही प्राणियोंके लिये बन्धनकारी वस्तु है । मैं ही कर्ता हूँ, यह कार्य मैंने अपने ही सामर्थ्य से पूरा किया है, यह कार्य पूरा कर लूँगा, यह कार्य अभी कर लेता हूँ-इन भावनाओंके कारण प्राणी स्वयं बँधता चला जाता है । कोई भी कार्य बिना कारणके कदापि नहीं होता है, जैसे मिट्टीके पिण्डके बिना घड़ा न तो बन सकता है, न दिखायी पड़ सकता है ॥ ३८-४०.५ ॥

विष्णुः पालयिता विश्वस्याहङ्कारसमन्वितः ॥ ४१ ॥
अन्यथा सर्वदा चिन्ताम्बुधौ मग्नः कथं भवेत् ।
जब भगवान् विष्णु अहंकारके वशवर्ती होते हैं तभी वे विश्वका पालन करनेमें समर्थ होते हैं । नहीं तो वे सदा [सृष्टिपालनके] चिन्तारूपी समुद्रमें डूबे क्यों रहते ? ॥ ४१.५ ॥

अहङ्कारविमुक्तस्तु यदा भवति मानवः ॥ ४२ ॥
अवतारप्रवाहेषु कथं मज्जेच्छुभाशयः ।
अहंकारमुक्त होकर यदि वे मनुष्यरूप ग्रहण करें तो निर्मलचित्त हुए वे अवतार-प्रवाहमें होनेवाले (सुख-दुःखादि)-में कैसे डूबें-उतराएँ ? ॥ ४२.५ ॥

मोहमूलमहङ्कारः संसारस्तत्समुद्‌भवः ॥ ४३ ॥
अहङ्कारविहीनानां न मोहो न च संसृतिः ।
अहंकार ही अज्ञानका मूल कारण है तथा उसीसे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है । अहंकारसे विहीन प्राणीको अज्ञानता तथा सांसारिक बन्धन-दोनों ही नहीं होते ॥ ४३.५ ॥

त्रिविधः पुरुषः प्रोक्तः सात्त्विको राजसस्तथा ॥ ४४ ॥
तामसस्तु महाराज ब्रह्मविष्णुशिवादिषु ।
त्रिविधस्त्रिषु राजेन्द्र काजेशादिषु सर्वदा ॥ ४५ ॥
अहङ्कारः सदा प्रोक्तो मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।
अहङ्कारेण तेनैव बद्धा एते न संशयः ॥ ४६ ॥
हे महाराज ! इस जगत्में सत्त्वगुणी, रजोगुणी तथा तमोगुणी-ये तीन प्रकारके पुरुष कहे गये हैं । हे राजेन्द्र ! सृष्टि, पालन तथा संहारकार्य सम्पन्न करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि तीनों देवताओंमें भी ये तीन गुण सदा विद्यमान रहते हैं । तत्त्वदर्शी मुनियोंने अहंकारको ही जगत्की उत्पत्तिका परम कारण बताया है । अतएव इसमें सन्देह नहीं है कि ये ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश भी उसी अहंकारसे आबद्ध हैं ॥ ४४-४६ ॥

मायाविमोहिता मन्दाः प्रवदन्ति मनीषिणः ।
करोति स्वेच्छया विष्णुरवताराननेकशः ॥ ४७ ॥
मन्दोऽपि दुःखगहने गर्भवासेऽतिसङ्कटे ।
न करोति मतिं विद्वान्कथं कुर्यात्स चक्रभृत् ॥ ४८ ॥
मायासे विमोहित मन्द बुद्धिवाले कुछ मनीषी कहते हैं कि भगवान् विष्णु अपनी इच्छासे नानाविध अवतार ग्रहण करते हैं, किंतु जब कोई मन्दमति प्राणी भी अतिशय दुःखप्रद गर्भमें निवास करना पसन्द नहीं करता तो फिर सर्वविद्यासम्पन्न वे चक्रधारी भगवान् विष्णु अवतार ग्रहण करना क्यों चाहेंगे ? ॥ ४७-४८ ॥

कौसल्यादेवकीगर्भे विष्ठामलसमाकुले ।
स्वेच्छया प्रवदन्त्यद्धा गतो हि मधुसूदनः ॥ ४९ ॥
वैकुण्ठसदनं त्यक्त्वा गर्भवासे सुखं नु किम् ।
चिन्ताकोटिसमुत्थाने दुःखदे विषसम्मिते ॥ ५० ॥
कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् विष्णु अपनी इच्छासे कौसल्या तथा देवकीके मल-मूत्रसे परिपूर्ण गर्भमें आये थे । किंतु वैकुण्ठ-भवन छोड़कर करोड़ों चिन्ताओंके आगार विषतुल्य दुःखदायक गर्भवासमें आनेसे उन्हें कौन-सा सुख प्राप्त हुआ होगा ? ॥ ४९-५० ॥

तपस्तप्त्वा क्रतून्कृत्वा दत्त्वा दानान्यनेकशः ।
न वाञ्छन्ति यतो लोका गर्भवासं सुदुःखदम् ॥ ५१ ॥
स कथं भगवान्विष्णुः स्ववशश्चेज्जनार्दनः ।
गर्भवासरुचिर्भूयाद्‌भवेत्स्ववशता यदि ॥ ५२ ॥
जब साधारण प्राणी भी तपस्या करके, विविध प्रकारके यज्ञ सम्पन्न करके तथा नाना प्रकारके दान देकर अत्यन्त दुःखद गर्भवास नहीं चाहते तब यदि भगवान् विष्णु स्वतन्त्र होते तो उस गर्भवासको क्यों चाहते ? यदि वे अपने वशमें होते तो गर्भवासके प्रति उनकी रुचि क्यों होती ? ॥ ५१-५२ ॥

जानीहि त्वं महाराज योगमायावशे जगत् ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं देवमानुषतिर्यगम् ॥ ५३ ॥
अतः हे महाराज ! आप यह जान लीजिये कि ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्, सभी देव, मानव तथा पशु-पक्षी योगमाया आदिशक्ति भगवतीके वशमें हैं ॥ ५३ ॥

मायातन्त्रीनिबद्धा ये ब्रह्मविष्णुहरादयः ।
भ्रमन्ति बन्धमायान्ति लीलया चोर्णनाभवत् ॥ ५४ ॥
मकड़ीके तन्तुजालमें फंसे कीटकी भाँति ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि ये सभी देव उन भगवतीकी लीलासे मायारूपी बन्धनमें पड़ जाते हैं और आवागमनके चक्रमें भ्रमण करते रहते हैं ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे योगमायाप्रभाववर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अध्याय पहला समाप्त ॥ १ ॥


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