[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
पराशक्तेः सर्वज्ञत्वकथनम् -
व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना -
राजोवाच सन्देहो मे मुनिश्रेष्ठ जायते वचनात्तव । वैष्णवांशे भगवति दुःखोत्पत्तिं विलोक्य च ॥ १ ॥
राजा बोले-हे मुनिवर ! आपकी इस बातसे तथा साक्षात् विष्णुके अंशावतार भगवान् कृष्णके ऊपर कष्टका पड़ना देखकर मुझे सन्देह हो रहा है ॥ १ ॥
नारायणांशसम्भूतो वासुदेवः प्रतापवान् । कथं स सूतिकागाराद्धृतो बालो हरेरपि ॥ २ ॥
भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न श्रीकृष्ण [अपरिमित] प्रतापसे सम्पन्न थे, फिर भी भगवान्के उस पुत्रका प्रसव-गृहसे हरण कैसे सम्भव हुआ ? ॥ २ ॥
सुगुप्तनगरे रम्ये गुप्तेऽथ सूतिकागृहे । प्रविश्य तेन दैत्येन गृहीतोऽसौ कथं शिशुः ॥ ३ ॥
वह दैत्य शम्बरासुर चारों ओरसे भलीभाँति सुरक्षित रमणीय नगरके अत्यन्त गुप्त स्थानमें अवस्थित प्रसव-गृहमें प्रवेश करके उस बालकको कैसे उठा ले गया ? ॥ ३ ॥
न ज्ञातो वासुदेवेन चित्रमेतन्ममाद्भुतम् । जायते महदाश्चर्यं चित्ते सत्यवतीसुत ॥ ४ ॥
यह बड़ी विचित्र तथा अद्भुत बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण भी इसे नहीं जान पाये । हे सत्यवतीनन्दन ! मेरे मनमें [इस बातको लेकर] महान् आश्चर्य उत्पन्न हो रहा है ! ॥ ४ ॥
हे ब्रह्मन् ! वहाँ द्वारकापुरीमें वासुदेव श्रीकृष्णक विद्यमान रहते हुए भी सूतिका-गृहसे बच्चे हरणकी जानकारी उन्हें नहीं हो सकी; मुझे इसक कारण बताइये ॥ ५ ॥
व्यास उवाच माया बलवती राजन्नराणां बुद्धिमोहिनी । शाम्भवी विश्रुता लोके को वा मोहं न गच्छति ॥ ६ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! प्राणियोंक बुद्धिको विमोहित कर देनेवाली माया बड़ी बलवत' होती है । यह शाम्भवी नामसे प्रसिद्ध है । संसार कौन-सा प्राणी है, जो [इस मायाके प्रभावसे] मोहिन नहीं हो जाता है ॥ ६ ॥
मानुषं जन्म सम्प्राप्य गुणाः सर्वेऽपि मानुषाः । भवन्ति देहजा कामं न देवा नासुरास्तदा ॥ ७ ॥
मनुष्य-जन्म पाते ही प्राणीमें समस्त मानवोचिन गुण उत्पन्न हो जाते हैं । ये सभी गुण देहसे सम्बन्ध रखते हैं । देवता अथवा दानव-कोई भी इससे परे नहीं है ॥ ७ ॥
क्षुत्तृण्निद्रा भयं तन्द्रा व्यामोहः शोकसंशयः । हर्षश्चैवाभिमानश्च जरामरणमेव च ॥ ८ ॥ अज्ञानं ग्लानिरप्रीतिरीर्ष्यासूया मदः श्रमः । एते देहभवा भावाः प्रभवन्ति नराधिप ॥ ९ ॥
भूख, प्यास, निद्रा, भय, तन्द्रा, व्यामोह, शोक. सन्देह, हर्ष, अभिमान, बुढ़ापा, मृत्यु, अज्ञान, ग्लानि. वैर, ईर्ष्या, परदोषदृष्टि, मद और थकावट-ये देहके साथ उत्पन्न होते हैं । हे राजन् ! ये भाव सभीपर अपना प्रभाव डालते हैं ॥ ८-९ ॥
यथा हेममृगं रामो न बुबोध पुरोगतम् । जानक्या हरणञ्चैव जटायुमरणं तथा ॥ १० ॥
जिस प्रकार श्रीराम अपने समक्ष विचरणशील स्वर्ण-मृगकी वास्तविकताको नहीं जान पाये और वे सीताहरण तथा जटायुमरणकी घटना भी नहीं जान सके ॥ १० ॥
अभिषेकदिने रामो वनवासं न वेद च । तथा न ज्ञातवान् रामः स्वशोकान्मरणं पितुः ॥ ११ ॥
श्रीराम यह भी नहीं जान सके कि अभिषेकके दिन ही उन्हें वनवास होगा और वे अपने वियोगजनित शोकसे पिताकी मृत्यु भी नहीं जान पाये ॥ ११ ॥
अज्ञवद्विचचारासौ पश्यमानो वने वने । जानकीं न विवेदाथ रावणेन हृतां बलात् ॥ १२ ॥
रावणके द्वारा बलपूर्वक हरी गयी सीताके सम्बन्धमें श्रीराम कुछ भी नहीं जान सके थे और एक अज्ञानी पुरुषकी भौति उन्हें खोजते हुए वन-वनमें भटकते रहे ॥ १२ ॥
तदनन्तर उन्होंने बलपूर्वक वालीका वध करके वानरोंको अपना सहायक बनाकर सागरपर सेतु बाँधा और पुनः उस समुद्रको पार करके उन्होंने सभी दिशाओंमें बड़े-बड़े शूरवीर वानरोंको भेजा । तत्पश्चात् संग्रामभूमिमें रावणके साथ घोर युद्ध किया, जिसमें उन्हें महान् कष्ट उठाना पड़ा ॥ १३-१४ ॥
ऐसे ही श्रीकृष्णने भी सभी मानवोचित भाव प्रदर्शित किये, इस विषयमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । यदुनन्दन श्रीकृष्ण पहले कंसके भयसे गोकुल जानेको विवश हुए । कुछ समयके पश्चात् जरासन्धके भयसे मथुरा छोड़कर श्रीकृष्णको द्वारका जाना पड़ा । वे ही श्रीकृष्ण अधर्मपूर्ण कार्य करनेमें प्रवृत्त हुए जो कि उन्होंने सनातन धर्मको जानते हुए भी शिशुपालके द्वारा वरण की गयी रुक्मिणीका हरण कर लिया । शम्बरासुरके द्वारा पुत्रका बलपूर्वक हरण कर लिये जानेपर उसके लिये श्रीकृष्ण शोकाकुल हो उठे और [भगवतीसे] पत्रके जीवित होनेकी बात जानकर वे प्रसन्न हो गये । इस प्रकार हर्ष तथा शोक-इन दोनोंसे वे प्रभावित रहे ॥ २२-२४.५ ॥
सत्यभामाकी आज्ञासे स्वर्गमें जाकर कल्पवृक्षके लिये उन्होंने इन्द्रके साथ युद्ध किया । युद्धमें इन्द्रको परास्त करके अपना स्त्रीवशित्व प्रकट करते हुए श्रीकृष्णने इन्द्रसे वह कल्पवृक्ष छीन लिया था । मानिनी सत्यभामाका मान रखनेके लिये प्रभु श्रीकृष्ण काष्ठमूर्तिके रूपमें चित्रित हो गये और सत्यभामाने पति कृष्णको वृक्षमें बाँधकर उन्हें नारदको दान कर दिया । तत्पश्चात् सत्यभामाने सोनेका कृष्ण दानमें देकर उन्हें नारदजीसे मुक्त कराया । २५-२७.५ ॥
दृष्ट्वा पुत्रान्पुरुगुणान्प्रद्युम्नप्रमुखानथ ॥ २८ ॥ कृष्णं जाम्बवती दीना ययाचे सन्ततिं शुभाम् । स ययौ पर्वतं कृष्णस्तपस्याकृतनिश्चयः ॥ २९ ॥
रुक्मिणीके प्रद्युम्न आदि विशिष्ट गुणसम्पन्न पुत्रोंको देखकर दीनभावसे जाम्बवतीने कृष्णसे सुन्दर सन्तानहेतु याचना की, तब तपस्या करनेका निश्चय करके वे पर्वतपर चले गये, जहाँ महान् तपस्वी तथा शिवभक्त मुनि उपमन्यु विराजमान थे ॥ २८-२९ ॥
वहाँपर पुत्राभिलाषी श्रीकृष्णने उपमन्युको अपना गुरु बनाकर उनसे पाशुपत-दीक्षा ली और वे वहींपर मुण्डित होकर दण्डी हो गये । महीनेभर फलाहार करते हुए श्रीकृष्णने घोर तपस्या की और शिवके ध्यानमें लीन होकर शिवमन्त्रका जप किया । दूसरे महीनेमें केवल जल पीकर और एक पैरसे खड़े होकर श्रीकृष्णने कठोर तप किया । तीसरे महीनेमें वे वायुभक्षण करते हुए पैरके अंगूठेके अग्रभागपर स्थित रहे । तत्पश्चात् छठे महीनेमें भगवान् रुद्र उनके भक्तिभावसे प्रसन्न हो गये और उन चन्द्रकलाधारी भगवान् शंकरने पार्वतीसहित उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया । वे नन्दी बैलपर सवार होकर वहाँ आये थे और इन्द्र आदि देवताओंसे घिरे हुए थे । उस समय ब्रह्मा और विष्णु भी उनके साथ थे तथा साक्षात् यक्ष और गन्धर्व उनकी निरन्तर सेवा कर रहे थे । उन वासुदेव श्रीकृष्णको सम्बोधित करते हुए शंकरजीने कहाहे कृष्ण ! हे महामते ! तुम्हारी इस कठोर तपस्यासे मैं प्रसन्न हूँ । अतः हे यादवनन्दन ! तुम अपने वांछित मनोरथ बताओ, मैं उन्हें दूँगा । सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले मुझ शिवका दर्शन हो जानेपर कोई भी कामना शेष नहीं रह जाती ॥ ३०-३६.५ ॥
व्यासजी बोले-उन भगवान् शंकरको प्रसन्न देखकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक उनके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिर पड़े । तदनन्तर देवेश्वर सनातन श्रीकृष्ण शंकरजीके सम्मुख खड़े होकर मेघ-सदृश गम्भीर वाणीमें उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३७-३८.५ ॥
श्रीकृष्ण उवाच देवदेव जगन्ताथ सर्वभूतार्तिनाशन ॥ ३९ ॥ विश्वयोने सुरारिघ्न नमस्त्रैलोक्यकारक । नीलकण्ठ नमस्तुभ्यं शूलिने ते नमो नमः ॥ ४० ॥ शैलजावल्लभायाश्च यज्ञघ्नाय नमोऽस्तु ते । धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं दर्शनात्तव सुव्रत ॥ ४१ ॥ जन्म मे सफलं जातं नत्वा ते पादपङ्कजम् । बद्धोऽहं स्त्रीमयैः पाशैः संसारेऽस्मिञ्जगद्गुरो ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण बोले-हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे सभी प्राणियोंके कष्टके विनाशक ! हे विश्वयोने ! हे दैत्यमर्दन ! हे त्रैलोक्यकारक ! आपको नमस्कार है । हे नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है, आप त्रिशूलधारीको बार-बार नमस्कार है । दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाले आप पार्वतीवल्लभको नमस्कार है । हे सुव्रत ! आपके दर्शनसे मैं धन्य तथा कृतकृत्य हो गया । आपके चरणकमलका नमन करके मेरा जन्म सफल हो गया । हे जगद्गुरो ! इस संसारमें आकर मैं स्त्रीरूपी बन्धनोंमें आबद्ध हो गया हूँ ॥ ३९-४२ ॥
हे त्रिलोचन ! अपनी रक्षाके लिये आज मैं आपकी शरणमें आया हूँ । हे दुःखनाशन ! मानवजन्म पाकर मैं बहुत खिन्न हो गया हूँ । हे भव ! शरणमें आये हुए तथा सांसारिक दुःखोंसे भयभीत मुझ दीनकी इस समय आप रक्षा कीजिये । हे मदनदाहक ! मैंने गर्भ में रहकर बहुत कष्ट पाया है । जन्मकालसे ही गोकुलमें रहते हुए मुझे कंससे भयभीत रहना पड़ा । तत्पश्चात् नन्दके यहाँ मुझे गोपालनका कार्य करना पड़ा और गायोंके खुरसे उड़ी हुई धूलसे धूसरित केशपाशवाला होकर घने वृन्दावनमें इधर-उधर विचरण करता हुआ मैं ग्वालोंकी आज्ञाका पालन करनेको विवश हुआ ॥ ४३-४५.५ ॥
हे विभो ! उसके बाद म्लेच्छराज कालयवनके भयसे सन्त्रस्त होकर मथुरा-जैसी दुर्लभ तथा शुभ पैतृक भूमि छोड़कर मुझे द्वारकापुरी चले जाना पड़ा । हे विभो ! राजा ययातिके शापवश भयके कारण अपने कुल-धर्मकी रक्षामें तत्पर मैंने समृद्धिमयी मथुरा तथा द्वारकापुरीका राज्य उग्रसेनको सौंप दिया और सदा उनका दास वनकर उनकी सेवा की । हमारे पूर्वजोंने उन उग्रसेनको ही यादवोंका राजा बनाया था ॥ ४६-४८.५ ॥
हे शम्भो ! गृहस्थीका जीवन अत्यन्त कष्टप्रद होता है । इसमें सदा स्त्रीके वशीभूत रहना पड़ता है और अनेक धार्मिक मर्यादाओंका उल्लंघन हो जाता है । इसमें परतन्त्रता तथा स्त्रीपुत्रादिका बन्धन सदा बाँधे रखता है । इस जीवनमें मोक्षकी वार्ता तो दुर्लभ रहती है ॥ ४९.५ ॥
रुक्मिणीके पुत्रोंको देखकर मेरी भार्या जाम्बवतीने पुत्र-प्राप्तिके निमित्त तपस्या करनेके लिये मुझे प्रेरित किया । अतएव हे मदनान्तक ! पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे मुझे यह तपस्या करनी पड़ी । हे देवेश ! [पुत्रप्राप्तिके लिये] आपसे याचना करने में मुझे लज्जाका अनुभव हो रहा है । हे जगद्गुरो ! आप मुक्तिदाता तथा भक्तवत्सल देवेश्वरकी आराधनाके बाद उनके प्रसन्न हो जानेपर कौन मूर्ख ऐसे विनाशशील तथा तुच्छ फलकी कामना करेगा ? हे शम्भो ! हे जगत्पते ! हे विभो ! अपनी भार्या जाम्बवतीसे प्रेरित होकर आपकी मायासे विमूढचित्त यह मैं आप मुक्तिदातासे पुत्र-सुखकी याचना कर रहा हूँ । ५०-५३.५ ॥
हे शम्भो ! मैं जानता हूँ कि यह संसार कष्टदायक, दु:खोंका आगार, अनित्य तथा विनाशशील है, फिर भी इसके प्रति मेरे मनमें वैराग्य-भावका उदय नहीं हो पा रहा है । नारायणका अंश होते हुए भी पूर्वजन्मके शापके कारण मायापाशमें आबद्ध होकर नानाविध कष्ट भोगनेके लिये मुझे पृथ्वीतलपर जन्म लेना पड़ा ॥ ५४-५५.५ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर महेश्वरने उनसे कहा-हे शत्रुदमन ! आपके बहुतसे पुत्र होंगे; आपकी सोलह हजार पचास भार्याएँ भी होंगी । उनमेंसे प्रत्येक स्त्रीसे दस-दस महाबलवान् पुत्र उत्पन्न होंगे-ऐसा कहकर प्रियदर्शन शिवजी चुप हो गये ॥ ५६-५८ ॥
उवाच गिरिजा देवी प्रणतं मधुसूदनम् । कृष्ण कृष्ण महाबाहो संसारेऽस्मिन्नराधिप ॥ ५९ ॥ गृहस्थप्रवरो लोके भविष्यति भवानिह । ततो वर्षशतान्ते तु द्विजशापाज्जनार्दन ॥ ६० ॥ गान्धार्याश्च तथा शापाद्भविता ते कुलक्षयः । परस्परं निहत्याजौ पुत्रास्ते शापमोहिताः ॥ ६१ ॥ गमिष्यन्ति क्षयं सर्वे यादवाश्च तथापरे । सानुजस्त्वं तथा देहं त्यक्त्वा यास्यसि वै दिवम् ॥ ६२ ॥
। तत्पश्चात् प्रणाम करते हुए श्रीकृष्णसे देवी पार्वतीने कहा-हे कृष्ण ! हे महाबाहो ! हे नराधिप ! इस संसारमें आप सर्वश्रेष्ठ गृहस्थ होंगे । इसके बाद हे जनार्दन ! सौ वर्ष व्यतीत होनेपर एक विप्र तथा गान्धारीके शापके कारण आपके कुलका नाश हो जायगा । शापवश अज्ञानमें पड़कर आपके वे पुत्र तथा अन्य सभी यादव आपसमें एक दूसरेको मारकर रणभूमिमें विनष्ट हो जायेंगे और आप अपने भाई बलरामके साथ यह शरीर छोड़कर दिव्य लोकको प्रयाण करेंगे ॥ ५९-६२ ॥
शोकस्तत्र न कर्तव्यो भवितव्यं प्रति प्रभो । अवश्यम्भाविभावानां प्रतीकारो न विद्यते ॥ ६३ ॥ तत्र शोको न कर्तव्यो नूनं मम मतं सदा । अष्टावक्रस्य शापेन भार्यास्ते मधुसूदन ॥ ६४ ॥ चौरेभ्यो ग्रहणं कृष्ण गमिष्यन्ति मृते त्वयि ।
हे प्रभो ! आपको होनहारके विषयमें किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि अवश्यम्भावी घटनाओंका कोई भी प्रतीकार सम्भव नहीं है । हे मधुसूदन ! मेरा सर्वदा यही निश्चित मन्तव्य रहा है कि भावीके विषयमें शोक नहीं करना चाहिये । हे कृष्ण ! आपके प्रयाण कर जानेपर अष्टावक्रके शापके कारण आपकी भायाएँ चोरोंद्वारा हर ली जायगी ॥ ६३-६४.५ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर भगवान् शिव समस्त देवताओं तथा पार्वतीसमेत अन्तर्धान हो गये । इसके बाद अपने गुरु उपमन्युको प्रणाम करके श्रीकृष्ण भी द्वारकापुरीके लिये प्रस्थित हुए । हे राजन् ! यद्यपि ब्रह्मा आदि देवता लोकके अधीश्वर हैं, फिर भी मायारूपिणी नदीकी उत्ताल तरंगोंके आघातप्रत्याघातसे क्षुब्ध अन्त:करणवाले बनकर वे भी उसी प्रकार उस मायाके अधीन रहते हैं, जैसे कठपुतली बाजीगरके अधीन रहती है ॥ ६५-६७ ॥
यथा यथा पूर्वभवं कर्म तेषां तथा तथा । प्रेरयत्यनिशं माया परब्रह्मस्वरूपिणी ॥ ६८ ॥ न वैषम्यं न नैर्घृण्यं भगवत्यां कदाचन । केवलं जीवमोक्षार्थं यतते भुवनेश्वरी ॥ ६९ ॥
उनके पूर्वजन्मके संचित कर्म जिस प्रकारके होते हैं, उसीके अनुरूप परब्रह्मस्वरूपिणी माया उन्हें सदा प्रेरित करती रहती है । उन भगवतीके हृदयमें किसी प्रकारकी विषमता अथवा निर्दयताका लेशमात्र भी नहीं रहता । वे अखिल भुवनकी ईश्वरी केवल जीवोंको भवबन्धनसे छुटकारा दिलानेके लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहती हैं । ६८-६९ ॥
यदि सा नैव सृज्येत जगदेतच्चराचरम् । तदा मायां विना भूतं जडं स्यादेव नित्यशः ॥ ७० ॥ तस्मात्कारुण्यमाश्रित्य जगज्जीवादिकं च यत् । करोति सततं देवी प्रेरयत्यनिशं च तत् ॥ ७१ ॥
यदि वे भगवती इस चराचर जगत्की सृष्टि न करती तो समग्र जीव-जगत् माया-शक्तिके बिना सर्वदाके लिये जड़ ही रह जाता । अतएव वे भगवती करुणा करके यह जगत् और जीव आदि जो भी हैं, उनकी रचना करती हैं और उन्हें कर्मशील बनानेके लिये सतत प्रेरणा देती रहती हैं ॥ ७०-७१ ॥
तस्माद् ब्रह्मादिमोहेऽस्मिन्कर्तव्यः संशयो न हि । मायान्तःपातिनः सर्वे मायाधीनाः सुरासुराः ॥ ७२ ॥
अतएव ब्रह्मादि देवताओंके भी इस प्रकार माया-विमोहित हो जानेमें सन्देह नहीं करना चाहिये; क्योंकि समस्त देवता तथा दानव मायासे निरन्तर आवत रहते हुए भगवती योगमायाके अधीन रहते हैं ॥ ७२ ॥
स्वेच्छया विचरण एवं विहार करनेवाली वे देवेश्वरी ही स्वतन्त्र हैं । अतएव हे राजन् ! उन महेश्वरीकी सम्यक् प्रकारसे पूजा करनी चाहिये । तीनों लोकोंमें उनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है । उन पराशक्ति भगवती योगमायाके पावन चरणोंका सदा स्मरण बना रहे-यही जीवनकी सफलता है ॥ ७३-७४ ॥
माभूत्तत्र कुले जन्म यत्र देवी न दैवतम् । अहं देवी न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् ॥ ७५ ॥ इत्यभेदेन तां नित्यां चिन्तयेज्जगदम्बिकाम् । ज्ञात्वा गुरुमुखादेनां वेदान्तश्रवणादिभिः ॥ ७६ ॥ नित्यमेकाग्रमनसा भावयेदात्मरूपिणीम् । मुक्तो भवति तेनाशु नान्यथा कर्मकोटिभिः ॥ ७७ ॥
मेरा जन्म उस कुलमें न हो, जहाँ देवीकी उपासना न होती हो । मैं उन देवीका ही अंश हूँ, दूसरा नहीं । मैं ही ब्रह्म हूँ: तब मैं शोकका भागी नहीं हो सकता । इस अभेदबुद्धिसे युक्त रहते हुए उन सनातन जगदम्बाका चिन्तन करना चाहिये । गुरुके उपदेशसे वेदान्तश्रवण आदिके द्वारा भगवतीके स्वरूपको जानकर नित्य एकाग्र मनसे उन आत्मस्वरूपिणी योगमायाकी भावना करनी चाहिये । ऐसा करनेसे प्राणी भव-बन्धनसे शीघ्र ही छूट जाता है, अन्यथा करोड़ों कर्मोंसे भी नहीं छूट सकता ॥ ७५-७७ ॥
निर्मल अन्त:करणवाले सभी श्वेताश्वतर आदि ऋषिगण उन्हीं आत्मस्वरूपिणी भगवतीका अपने हृदयमें साक्षात्कार करके भव-बन्धनसे मुक्त हुए हैं । उन्हींको भौत ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा गौरी, लक्ष्मी आदि देवियाँ-ये सब उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवतीकी उपासना करते हैं ॥ ७८-७९ ॥