इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना -
व्यास उवाच इति श्रुत्वा सहस्राक्षः पुनराह बृहस्पतिम् । युद्धोद्योगं करिष्यामि हयारेर्नाशनाय वै ॥ १ ॥ नोद्यमेन विना राज्यं न सुखं न च वै यशः । निरुद्यमं न शंसन्ति कातरा न च सोद्यमाः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! यह सुनकर सहस्रनेत्र इन्द्रने बृहस्पतिसे कहा कि मैं महिषासुरके विनाशके लिये अब युद्धकी तैयारी अवश्य करूंगा; क्योंकि उद्योगके बिना न राज्य, न सुख और न तो यशकी ही प्राप्ति होती है । उद्यमहीनकी प्रशंसा न तो कायर लोग करते हैं और न उद्योगपरायण ॥ १-२ ॥
यतीनां भूषणं ज्ञानं सन्तोषो हि द्विजन्मनाम् । उद्यमः शत्रुहननं भूषणं भूतिमिच्छताम् ॥ ३ ॥
संन्यासियोंका आभूषण ज्ञान है तथा ब्राह्मणोंका आभूषण सन्तोष है; किंतु अपनी उन्नतिकी आकांक्षा रखनेवाले लोगोंके लिये उद्योगपरायण रहते हुए शत्रुसंहारका कार्य ही आभूषण है ॥ ३ ॥
उद्यमेन हतस्त्वाष्ट्रो नमुचिर्बल एव च । तथैनं निहनिष्यामि महिषं मुनिसत्तम ॥ ४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उद्यमका आश्रय लेकर ही मैंने वृत्रासुर, नमुचि तथा बल आदि दैत्योंका संहार किया था, उसी प्रकार मैं महिषासुरका भी वध करूँगा ॥ ४ ॥
बलं देवगुरुस्त्वं मे वज्रमायुधमुत्तमम् । सहायस्तु हरिर्नूनं तथोमापतिरव्ययः ॥ ५ ॥
आप देवगुरु बृहस्पति तथा श्रेष्ठ आयुध वज्र मेरे महान् बलके रूपमें सुलभ हैं । साथ ही भगवान् विष्णु तथा अविनाशी शिवजी मेरी सहायता अवश्य करेंगे ॥ ५ ॥
रक्षोघ्नान्पठ मे साधो करोम्यद्य समुद्यमम् । स्वसैन्याभिनिवेशञ्च महिषं प्रति मानद ॥ ६ ॥
हे मानद ! अब मैं महिषासुरके साथ युद्ध करनेके लिये सेनाकी तैयारीके उद्योगमें लग रहा हूँ । हे साधो ! अब आप मेरे कल्याणार्थ रक्षोन मन्त्रोंका पाठ कीजिये ॥ ६ ॥
व्यास उवाच इत्युक्तो देवराजेन वाचस्पतिरुवाच ह । सुरेन्द्रं युद्धसंरक्तं स्मितपूर्वं वचस्तदा ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर युद्धके लिये सर्वथा तत्पर उन सुरेन्द्रसे मुसकराकर बृहस्पतिने यह वचन कहा- ॥ ७ ॥
बृहस्पतिरुवाच प्रेरयामि न चाहं त्वां न च निर्वारयाम्यहम् । सन्दिग्धेऽत्र जये कामं युध्यतश्च पराजये ॥ ८ ॥
बृहस्पति बोले-इस समय मैं आपको युद्धके लिये न तो प्रेरित करूँगा और न तो इससे आपको रोकँगा ही; क्योंकि युद्ध करनेवालेकी हार तथा जीत दोनों ही अनिश्चित रहती हैं ॥ ८ ॥
न तेऽत्र दूषणं किञ्चिद्भवितव्ये शचीपते । सुखं वा यदि वा दुःखं विहितं च भविष्यति ॥ ९ ॥
हे शचीपते ! इस होनहारके विषयमें आपका कोई दोष नहीं है । जो भी सुख-दुःख पूर्वतः निर्धारित है, वह तो अवश्य ही प्राप्त होगा ॥ ९ ॥
न मया तत्परिज्ञातं भावि दुःखं सुखं तथा । यद्भार्याहरणे प्राप्तं पुरा वासव वेत्सि हि ॥ १० ॥
भविष्यमें आपको प्राप्त होनेवाले सुख या दुःखके विषयमें मुझे कोई भी ज्ञान नहीं है क्योंकि हे वासव ! आप यह बात भलीभाँति जानते हैं कि पूर्व समय में अपनी भायर्याक हरणके अवसरपर मुझे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ा था ॥ १० ॥
शशिना मे हृता भार्या मित्रेणामित्रकर्शन । स्वाश्रमस्थेन सम्प्राप्तं दुःखं सर्वसुखापहम् ॥ ११ ॥
है शत्रुनिषूदन ! चन्द्रमाने मेरी पत्नीका हरण कर लिया था, जिसके फलस्वरूप अपने आश्रममें रहते हुए मुझे सभी सुखोंका विनाश करनेवाला महान् कष्ट झेलना पड़ा ॥ ११ ॥
बुद्धिमान्सर्वलोकेषु विदितोऽहं सुराधिप । क्व मे गता तदा वुद्धिर्यदा भार्या हृता बलात् ॥ १२ ॥
हे सुराधिप ! मैं सभी लोकोंमें परम बुद्धिमान्के रूपमें विश्रत है । किंतु जब मेरी भार्याका बलपूर्वक हरण कर लिया गया था तो उस समय मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी ? ॥ १२ ॥
तस्मादुपायः कर्तव्यो बुद्धिमद्भिः सदा नरैः । कार्यसिद्धिः सदा नूनं दैवाधीना सुराधिप ॥ १३ ॥
अतएव हे सुराधिप ! बुद्धिमान् लोगोंको सदा यत्नपरायण होना चाहिये । कार्यकी सिद्धि तो निश्चितरूपसे सदा दैवके ही अधीन रहती है ॥ १३ ॥
व्यास उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं सत्यं गुरोः सार्थं शचीपतिः । ब्रह्माणं शरणं गत्वा नत्वा वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-गुरु बृहस्पतिका यह सत्य तथा अर्थयुक्त वचन सुनकर इन्द्र ब्रह्माजीकी शरणमें जाकर उन्हें प्रणाम करके बोले- ॥ १४ ॥
पितामह सुराध्यक्ष दैत्यो महिषसंज्ञकः । ग्रहीतुकामः स्वर्गं मे बलोद्योगं करोत्यलम् ॥ १५ ॥
हे पितामह ! हे देवाध्यक्ष ! इस समय महिषासुर नामक दैत्य मेरे स्वर्गलोकपर अपना अधिकार स्थापित करनेकी कामनासे सैन्यबलकी तैयारी कर रहा है ॥ १५ ॥
अन्ये च दानवाः सर्वे तत्सैन्यं समुपस्थिताः । योद्धुकामा महावीर्याः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १६ ॥
अन्य दानव भी उसकी सेनामें सम्मिलित हो रहे हैं । वे सब-के-सब सदा युद्धके लिये आतुर रहनेवाले. महान् पराक्रमी तथा युद्धकलामें अत्यन्त प्रवीण हैं ॥ १६ ॥
उस दानवसे भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें यहाँ आया हूँ । हे महाप्राज्ञ ! आप तो सर्ववेत्ता हैं तथा मेरी सहायता करने में पूर्ण समर्थ हैं ॥ १७ ॥
ब्रह्मोवाच गच्छामः सर्व एवाद्य कैलासं त्वरिता वयम् । शङ्करं पुरतः कृत्वा विष्णुं च बलिनां वरम् ॥ १८ ॥ ततो युद्धं प्रकर्तव्यं सर्वैः सुरगणैः सह । मिलित्वा मन्त्रमाधाय देशं कालं विचिन्त्य च ॥ १९ ॥ बलाबलमविज्ञाय विवेकमपहाय च । साहसं तु प्रकुर्वाणो नरः पतनमृच्छति ॥ २० ॥
ब्रह्माजी बोले-हमलोग इसी समय शीघ्रतापूर्वक कैलास चलें और वहाँसे शंकरजीको आगे करके बलवानोंमें श्रेष्ठ विष्णुभगवान्के पास चलें । तत्पश्चात् सभी देवगणोंके साथ परस्पर मिलकर देश-कालके सम्बन्धमें भलीभाँति विचार करके एक समुचित निर्णय लेकर ही युद्ध करना चाहिये । अपनी शक्ति तथा निर्बलताका सम्यक् ज्ञान किये बिना विवेकका त्याग करके दुःसाहसपूर्ण कार्य करनेवाला व्यक्ति पतनको प्राप्त होता है ॥ १८-२० ॥
व्यास उवाच तन्निशम्य सहस्राक्षः कैलासं निर्जगाम ह । ब्रह्माणं पुरतः कृत्वा लोकपालसमन्वितः ॥ २१ ॥
व्यासजी बोले-यह सुनकर इन्द्र ब्रह्माजीको आगे करके समस्त लोकपालोंके साथ कैलासकी ओर चल पड़े ॥ २१ ॥
तुष्टाव शङ्करं गत्वा वेदमन्त्रैर्महेश्वरम् । प्रसन्नं पुरतः कृत्वा ययौ विष्णुपुरं प्रति ॥ २२ ॥
कैलास पहुँचकर इन्द्रने वेदमन्त्रोंके द्वारा शिवजीकी स्तुति की । तत्पश्चात् [स्तुतिगानसे] अत्यन्त प्रसन्नताको प्राप्त भगवान् शंकरको आगे करके वे विष्णुलोक गये ॥ २२ ॥
उन देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी स्तुति करके उन्होंने वहाँ अपने आनेका उद्देश्य बताया तथा वरदान पानेके कारण गर्वोन्मत्त महिषासुरसे उत्पन्न उग्र भयके बारेमें उनसे कहा ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी हंसपर चढ़े, विष्णुभगवान्ने गरुडको अपना वाहन बनाया, शंकरजी वृषभपर सवार हुए, इन्द्र ऐरावत हाथीपर बैठे, स्वामी कार्तिकेय मोरपर चढ़े और यमराज महिषपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार अपनी सैन्य तैयारी करके देवता लोग ज्यों ही आगे बढ़े, तभी उन्हें महिषासुरके द्वारा पालित मदोन्मत्त दानवी-सेना सामने मिल गयी । इसके बाद वहींपर देवताओं तथा दानवोंकी सेनामें भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ २६-२८ ॥
उस वज्रके आघातसे हाथीकी सँड कट गयी और वह सेनाके बीच भाग खड़ा हुआ । उसे देखकर दानवराज महिषासुर कुपित हो गया और उसने बिडाल नामक दानवसे कहा-हे महाबाहो ! हे वीर ! तुम जाओ और बलके अभिमानमें चूर इन्द्रको मार डालो, साथ ही वरुण आदि अन्य देवताओंका भी वध करके शीघ्र ही मेरे पास लौट आओ ॥ ३४-३५ ॥
अपनी सूंडपर गदाके आघातसे वह हाथी बारबार आर्तनाद करने लगा और पीछे घूमकर भागता हुआ वह दैत्य-सेनाको ही कुचलने लगा, जिससे दानवोंकी सेना भयाकुल हो उठी ॥ ४१ ॥
तत्पश्चात् देवताओंके द्वारा किये गये उस विजय घोषको सुनकर महिषासुर कुपित हो उठा । उसने शत्रुओंके अभिमानको चूर-चूर कर देनेवाले ताम्र नामक दानवको युद्धक्षेत्रमें भेजा ॥ ५० ॥