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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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भयातुरेन्द्रादिदेवैः सुरगुरुणा सह परामर्शवर्णनम् -
इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना -


व्यास उवाच
इति श्रुत्वा सहस्राक्षः पुनराह बृहस्पतिम् ।
युद्धोद्योगं करिष्यामि हयारेर्नाशनाय वै ॥ १ ॥
नोद्यमेन विना राज्यं न सुखं न च वै यशः ।
निरुद्यमं न शंसन्ति कातरा न च सोद्यमाः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे महाराज ! यह सुनकर सहस्रनेत्र इन्द्रने बृहस्पतिसे कहा कि मैं महिषासुरके विनाशके लिये अब युद्धकी तैयारी अवश्य करूंगा; क्योंकि उद्योगके बिना न राज्य, न सुख और न तो यशकी ही प्राप्ति होती है । उद्यमहीनकी प्रशंसा न तो कायर लोग करते हैं और न उद्योगपरायण ॥ १-२ ॥

यतीनां भूषणं ज्ञानं सन्तोषो हि द्विजन्मनाम् ।
उद्यमः शत्रुहननं भूषणं भूतिमिच्छताम् ॥ ३ ॥
संन्यासियोंका आभूषण ज्ञान है तथा ब्राह्मणोंका आभूषण सन्तोष है; किंतु अपनी उन्नतिकी आकांक्षा रखनेवाले लोगोंके लिये उद्योगपरायण रहते हुए शत्रुसंहारका कार्य ही आभूषण है ॥ ३ ॥

उद्यमेन हतस्त्वाष्ट्रो नमुचिर्बल एव च ।
तथैनं निहनिष्यामि महिषं मुनिसत्तम ॥ ४ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उद्यमका आश्रय लेकर ही मैंने वृत्रासुर, नमुचि तथा बल आदि दैत्योंका संहार किया था, उसी प्रकार मैं महिषासुरका भी वध करूँगा ॥ ४ ॥

बलं देवगुरुस्त्वं मे वज्रमायुधमुत्तमम् ।
सहायस्तु हरिर्नूनं तथोमापतिरव्ययः ॥ ५ ॥
आप देवगुरु बृहस्पति तथा श्रेष्ठ आयुध वज्र मेरे महान् बलके रूपमें सुलभ हैं । साथ ही भगवान् विष्णु तथा अविनाशी शिवजी मेरी सहायता अवश्य करेंगे ॥ ५ ॥

रक्षोघ्नान्पठ मे साधो करोम्यद्य समुद्यमम् ।
स्वसैन्याभिनिवेशञ्च महिषं प्रति मानद ॥ ६ ॥
हे मानद ! अब मैं महिषासुरके साथ युद्ध करनेके लिये सेनाकी तैयारीके उद्योगमें लग रहा हूँ । हे साधो ! अब आप मेरे कल्याणार्थ रक्षोन मन्त्रोंका पाठ कीजिये ॥ ६ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तो देवराजेन वाचस्पतिरुवाच ह ।
सुरेन्द्रं युद्धसंरक्तं स्मितपूर्वं वचस्तदा ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! देवराज इन्द्रके ऐसा कहनेपर युद्धके लिये सर्वथा तत्पर उन सुरेन्द्रसे मुसकराकर बृहस्पतिने यह वचन कहा- ॥ ७ ॥

बृहस्पतिरुवाच
प्रेरयामि न चाहं त्वां न च निर्वारयाम्यहम् ।
सन्दिग्धेऽत्र जये कामं युध्यतश्च पराजये ॥ ८ ॥
बृहस्पति बोले-इस समय मैं आपको युद्धके लिये न तो प्रेरित करूँगा और न तो इससे आपको रोकँगा ही; क्योंकि युद्ध करनेवालेकी हार तथा जीत दोनों ही अनिश्चित रहती हैं ॥ ८ ॥

न तेऽत्र दूषणं किञ्चिद्‌भवितव्ये शचीपते ।
सुखं वा यदि वा दुःखं विहितं च भविष्यति ॥ ९ ॥
हे शचीपते ! इस होनहारके विषयमें आपका कोई दोष नहीं है । जो भी सुख-दुःख पूर्वतः निर्धारित है, वह तो अवश्य ही प्राप्त होगा ॥ ९ ॥

न मया तत्परिज्ञातं भावि दुःखं सुखं तथा ।
यद्‌भार्याहरणे प्राप्तं पुरा वासव वेत्सि हि ॥ १० ॥
भविष्यमें आपको प्राप्त होनेवाले सुख या दुःखके विषयमें मुझे कोई भी ज्ञान नहीं है क्योंकि हे वासव ! आप यह बात भलीभाँति जानते हैं कि पूर्व समय में अपनी भायर्याक हरणके अवसरपर मुझे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ा था ॥ १० ॥

शशिना मे हृता भार्या मित्रेणामित्रकर्शन ।
स्वाश्रमस्थेन सम्प्राप्तं दुःखं सर्वसुखापहम् ॥ ११ ॥
है शत्रुनिषूदन ! चन्द्रमाने मेरी पत्नीका हरण कर लिया था, जिसके फलस्वरूप अपने आश्रममें रहते हुए मुझे सभी सुखोंका विनाश करनेवाला महान् कष्ट झेलना पड़ा ॥ ११ ॥

बुद्धिमान्सर्वलोकेषु विदितोऽहं सुराधिप ।
क्व मे गता तदा वुद्धिर्यदा भार्या हृता बलात् ॥ १२ ॥
हे सुराधिप ! मैं सभी लोकोंमें परम बुद्धिमान्के रूपमें विश्रत है । किंतु जब मेरी भार्याका बलपूर्वक हरण कर लिया गया था तो उस समय मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी ? ॥ १२ ॥

तस्मादुपायः कर्तव्यो बुद्धिमद्‌भिः सदा नरैः ।
कार्यसिद्धिः सदा नूनं दैवाधीना सुराधिप ॥ १३ ॥
अतएव हे सुराधिप ! बुद्धिमान् लोगोंको सदा यत्नपरायण होना चाहिये । कार्यकी सिद्धि तो निश्चितरूपसे सदा दैवके ही अधीन रहती है ॥ १३ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं सत्यं गुरोः सार्थं शचीपतिः ।
ब्रह्माणं शरणं गत्वा नत्वा वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-गुरु बृहस्पतिका यह सत्य तथा अर्थयुक्त वचन सुनकर इन्द्र ब्रह्माजीकी शरणमें जाकर उन्हें प्रणाम करके बोले- ॥ १४ ॥

पितामह सुराध्यक्ष दैत्यो महिषसंज्ञकः ।
ग्रहीतुकामः स्वर्गं मे बलोद्योगं करोत्यलम् ॥ १५ ॥
हे पितामह ! हे देवाध्यक्ष ! इस समय महिषासुर नामक दैत्य मेरे स्वर्गलोकपर अपना अधिकार स्थापित करनेकी कामनासे सैन्यबलकी तैयारी कर रहा है ॥ १५ ॥

अन्ये च दानवाः सर्वे तत्सैन्यं समुपस्थिताः ।
योद्धुकामा महावीर्याः सर्वे युद्धविशारदाः ॥ १६ ॥
अन्य दानव भी उसकी सेनामें सम्मिलित हो रहे हैं । वे सब-के-सब सदा युद्धके लिये आतुर रहनेवाले. महान् पराक्रमी तथा युद्धकलामें अत्यन्त प्रवीण हैं ॥ १६ ॥

तेनाहं भीतभीतोऽस्मि त्वत्सकाशमिहागतः ।
सर्वज्ञोऽसि महाप्राज्ञ साहाय्यं कर्तुमर्हसि ॥ १७ ॥
उस दानवसे भयभीत होकर मैं आपकी शरणमें यहाँ आया हूँ । हे महाप्राज्ञ ! आप तो सर्ववेत्ता हैं तथा मेरी सहायता करने में पूर्ण समर्थ हैं ॥ १७ ॥

ब्रह्मोवाच
गच्छामः सर्व एवाद्य कैलासं त्वरिता वयम् ।
शङ्करं पुरतः कृत्वा विष्णुं च बलिनां वरम् ॥ १८ ॥
ततो युद्धं प्रकर्तव्यं सर्वैः सुरगणैः सह ।
मिलित्वा मन्त्रमाधाय देशं कालं विचिन्त्य च ॥ १९ ॥
बलाबलमविज्ञाय विवेकमपहाय च ।
साहसं तु प्रकुर्वाणो नरः पतनमृच्छति ॥ २० ॥
ब्रह्माजी बोले-हमलोग इसी समय शीघ्रतापूर्वक कैलास चलें और वहाँसे शंकरजीको आगे करके बलवानोंमें श्रेष्ठ विष्णुभगवान्के पास चलें । तत्पश्चात् सभी देवगणोंके साथ परस्पर मिलकर देश-कालके सम्बन्धमें भलीभाँति विचार करके एक समुचित निर्णय लेकर ही युद्ध करना चाहिये । अपनी शक्ति तथा निर्बलताका सम्यक् ज्ञान किये बिना विवेकका त्याग करके दुःसाहसपूर्ण कार्य करनेवाला व्यक्ति पतनको प्राप्त होता है ॥ १८-२० ॥

व्यास उवाच
तन्निशम्य सहस्राक्षः कैलासं निर्जगाम ह ।
ब्रह्माणं पुरतः कृत्वा लोकपालसमन्वितः ॥ २१ ॥
व्यासजी बोले-यह सुनकर इन्द्र ब्रह्माजीको आगे करके समस्त लोकपालोंके साथ कैलासकी ओर चल पड़े ॥ २१ ॥

तुष्टाव शङ्करं गत्वा वेदमन्त्रैर्महेश्वरम् ।
प्रसन्नं पुरतः कृत्वा ययौ विष्णुपुरं प्रति ॥ २२ ॥
कैलास पहुँचकर इन्द्रने वेदमन्त्रोंके द्वारा शिवजीकी स्तुति की । तत्पश्चात् [स्तुतिगानसे] अत्यन्त प्रसन्नताको प्राप्त भगवान् शंकरको आगे करके वे विष्णुलोक गये ॥ २२ ॥

स्तुत्वा तं देवदेवेशं कार्यं प्रोवाच चात्मनः ।
महिषात्तद्‌भयं चोग्रं वरदानमदोद्धतात् ॥ २३ ॥
उन देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी स्तुति करके उन्होंने वहाँ अपने आनेका उद्देश्य बताया तथा वरदान पानेके कारण गर्वोन्मत्त महिषासुरसे उत्पन्न उग्र भयके बारेमें उनसे कहा ॥ २३ ॥

तदाकर्ण्य भयं तस्य विष्णुर्देवानुवाच ह ।
करिष्यामो वयं युद्धं हनिष्यामस्तु दुर्जयम् ॥ २४ ॥
उनके भयको सुनकर भगवान् विष्णुने देवताओंसे कहा कि हम देवगण युद्ध करेंगे और उस दुर्जयका वध कर डालेंगे ॥ २४ ॥

व्यास उवाच
इति ते निश्चयं कृत्वा ब्रह्मविष्णुहरीश्वराः ।
स्वानि स्वानि समारुह्य वाहनानि ययुः सुराः ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा निश्चय करके ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा इन्द्र आदि देवता अपने-अपने वाहनोंपर चढ़कर चल पड़े ॥ २५ ॥

ब्रह्मा हंससमारूढो विष्णर्गरुडवाहनः ।
शङ्करो वृषभारूढो वृत्रहा गजसंस्थितः ॥ २६ ॥
मयूरवाहनः स्कन्दो यमो महिषवाहनः ।
कृत्वा सैन्यसमायोगं यावत्ते निर्ययुः सुराः ॥ २७ ॥
तावद्दैत्यबलं प्राप्तं दृप्तं महिषपालितम् ।
तत्राभूत्तुमुलं युद्धं देवदानवसैन्ययोः ॥ २८ ॥
ब्रह्माजी हंसपर चढ़े, विष्णुभगवान्ने गरुडको अपना वाहन बनाया, शंकरजी वृषभपर सवार हुए, इन्द्र ऐरावत हाथीपर बैठे, स्वामी कार्तिकेय मोरपर चढ़े और यमराज महिषपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार अपनी सैन्य तैयारी करके देवता लोग ज्यों ही आगे बढ़े, तभी उन्हें महिषासुरके द्वारा पालित मदोन्मत्त दानवी-सेना सामने मिल गयी । इसके बाद वहींपर देवताओं तथा दानवोंकी सेनामें भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ २६-२८ ॥

बाणैः खड्गैस्तथा प्रासैर्मुसलैश्च परश्वधैः ।
गदाभिः पट्टिशैः शूलैश्चक्रैश्च शक्तितोमरैः ॥ २९ ॥
मुद्‌गरैर्भिन्दिपालैश्च हलैश्चैवातिदारुणैः ।
अन्यैश्च विविधैरस्त्रैर्निजघ्नुस्ते परस्परम् ॥ ३० ॥
वे एक-दूसरेपर बाण, तलवार, भाला, मूसल, परशु, गदा, पट्टिश, शूल, चक्र, शक्ति, तोमर, मुद्गर, भिन्दिपाल, हल तथा अन्य अति भयंकर शस्त्रोंसे प्रहार करने लगे ॥ २९-३० ॥

सेनानीश्चिक्षुरस्तस्य गजारूढो महाबलः ।
मघवन्तं पञ्चभिस्तैः सायकैः समताडयत् ॥ ३१ ॥
महिषासुरके सेनापति महाबली चिक्षुरने हाथीपर चढ़कर इन्द्रपर पाँच बाणोंसे प्रहार किया ॥ ३१ ॥

तुराषाडपि तांश्छित्त्वा बाणैर्बाणांस्त्वरान्वितः ।
हृदये चार्धचन्द्रेण ताडयामास तं कृती ॥ ३२ ॥
युद्धकुशल इन्द्रने भी तत्काल अपने बाणोंसे उसके बाणोंको काटकर अपने अर्धचन्द्र नामक बाणसे उसके हृदय-स्थलपर आघात किया ॥ ३२ ॥

बाणाहतस्तु सेनानीः प्राप मूर्च्छां गजोपरि ।
करिणं वज्रघातेन स जघान करे ततः ॥ ३३ ॥
उस बाणसे आहत होकर सेनानायक चिक्षुर हाथीपर बैठे-बैठे ही मूञ्छित हो गया । इसके बाद इन्द्रने हाथीकी सैंडपर वज्रसे प्रहार किया ॥ ३३ ॥

तद्वज्राभिहतो नागो भग्नः सैन्यं जगाम ह ।
दृष्ट्वा तं दैत्यराट् कुद्धो बिडालाख्यमथाब्रवीत् ॥ ३४ ॥
गच्छ वीर महाबाहो जहीन्द्रं मदगर्वितम् ।
वरुणादीन्परान्देवान्हत्वाऽऽगच्छ ममान्तिकम् ॥ ३५ ॥
उस वज्रके आघातसे हाथीकी सँड कट गयी और वह सेनाके बीच भाग खड़ा हुआ । उसे देखकर दानवराज महिषासुर कुपित हो गया और उसने बिडाल नामक दानवसे कहा-हे महाबाहो ! हे वीर ! तुम जाओ और बलके अभिमानमें चूर इन्द्रको मार डालो, साथ ही वरुण आदि अन्य देवताओंका भी वध करके शीघ्र ही मेरे पास लौट आओ ॥ ३४-३५ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य बिडालाख्यो महाबलः ।
आरुह्य वारणं मत्तं जगाम त्रिदशाधिपम् ॥ ३६ ॥
व्यासजी बोले-उसकी बात सुनकर वह महाबली बिडाल एक मतवाले हाथीपर सवार होकर युद्धके लिये इन्द्रकी ओर चल पड़ा ॥ ३६ ॥

वासवस्तं समायान्तं दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः ।
जघान विशिखैस्तीक्षौराशीविषसमप्रभैः ॥ ३७ ॥
उसे अपनी ओर आते देखकर इन्द्रने कुपित होकर विषधर सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणोंसे विडालपर प्रहार किया ॥ ३७ ॥

स तु छित्त्वा शरांस्तूर्णं स्वशरैश्चापनिःसृतैः ।
पञ्चाशद्‌भिर्जघानाशु वासवञ्च शिलीमुखैः ॥ ३८ ॥
उस बिडालने शीघ्र ही अपने धनुषसे छूटे हुए बाणोंसे इन्द्रके बाण काटकर पुनः तत्काल अपने पचास बाणोंसे इन्द्रपर आघात किया ॥ ३८ ॥

तथेन्द्रोऽपि च तान्बाणांश्छित्त्वा कोपसमन्वितः ।
जघान विशिखैस्तीक्ष्णैराशीविषसमप्रभैः ॥ ३९ ॥
तब इन्द्रने भी क्रुद्ध होकर उसके उन बाणोंको काटकर अपने सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणोंसे उसपर प्रहार किया ॥ ३९ ॥

स तु छित्त्वा शरांस्तूर्णं स्वशरैश्चापनिःसृतैः ।
गदया ताडयामास गजं तस्य करोपरि ॥ ४० ॥
आपने धनुषसे छूटे हुए बाणोंसे उसके बाणोंको काटकर इन्द्रने अपनी गदासे उसके हाथीकी टँडपर प्रहार किया ॥ ४० ॥

स्वकरे निहतो नागश्चकारार्तस्वरं मुहुः ।
परिवृत्य जघानाशु दैत्यसैन्यं भयातुरम् ॥ ४१ ॥
अपनी सूंडपर गदाके आघातसे वह हाथी बारबार आर्तनाद करने लगा और पीछे घूमकर भागता हुआ वह दैत्य-सेनाको ही कुचलने लगा, जिससे दानवोंकी सेना भयाकुल हो उठी ॥ ४१ ॥

दानवस्तु गजं वीक्ष्य परावृत्य गतं रणात् ।
समाविश्य रथे रम्ये जगामाशु सुरान् रणे ॥ ४२ ॥
तत्पश्चात् हाथीको युद्धभूमिसे भागा देखकर वह दानव विडाल लौटकर चला गया और पुनः एक सुन्दर रथपर सवार होकर देवताओंके समक्ष रणमें उपस्थित हो गया ॥ ४२ ॥

तुराषाडपि तं वीक्ष्य रथस्थं पुनरागतम् ।
अहनद्विशिखैस्तीक्ष्णैराशीविषसमप्रभैः ॥ ४३ ॥
इन्द्रने बिडालको रथपर सवार होकर पुनः समरांगणमें आया हुआ देखकर अपने सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणोंसे उसपर आघात करना आरम्भ कर दिया ॥ ४३ ॥

सोऽपि क्रुद्धश्चकारोग्रां बाणवृष्टिं महाबलः ।
बभूव तुमुलं युद्धं तयोस्तत्र जयैषिणोः ॥ ४४ ॥
वह महाबली बिडाल भी अत्यन्त कुपित होकर भयंकर बाण-वृष्टि करने लगा । इस प्रकार विजयके इच्छुक उन दोनोंके बीच भीषण युद्ध होने लगा ॥ ४४ ॥

इन्द्रस्तु बलिनं दृष्ट्वा कोपेनाकुलितेन्द्रियः ।
जयन्तमग्रतः कृत्वा युयुधे तेन संयुतः ॥ ४५ ॥
क्रोधके प्रभावसे व्याकुल इन्द्रियोंवाले इन्द्रने बिडालको विशेष बलवान् देखकर जयन्तको अपना अग्रणी बना लिया और अब उसके साथ मिलकर वे युद्ध करने लगे ॥ ४५ ॥

जयन्तस्तु शितैर्बाणैस्तं जघान स्तनान्तरे ।
पञ्चभिः प्रबलाकृष्टैरसुरं मदगर्वितम् ॥ ४६ ॥
जयन्तने धनुषपर चढ़ाकर प्रबलतापूर्वक खींचे गये पाँच तीक्ष्ण बाणोंसे मदोन्मत्त उस दानव बिडालके वक्षःस्थलपर आघात किया ॥ ४६ ॥

स बाणाभिहतस्तावन्निपपात रथोपरि ।
अतिवाह्य रथं सूतो निर्जगाम रणाजिरात् ॥ ४७ ॥
उन बाणोंके आघातसे मूर्छित होकर बिडाल रथपर गिर पड़ा, तब उसका सारथि तत्काल रथ लेकर रण-भूमिसे बाहर निकल गया ॥ ४७ ॥

तस्मिन्विनिर्गते दैत्ये बिडालाख्येऽथ मूर्च्छिते ।
जयशब्दो महानासीदुन्दुभीनां च निःस्वनः ॥ ४८ ॥
उस बिडालके मूछित होकर युद्धभूमिसे बाहर चले जानेपर देवसेनामें महान् विजय घोष तथा दुन्दुभियोंकी ध्वनि होने लगी ॥ ४८ ॥

सुराः प्रमुदिताः सर्वे तुष्टुवुस्तं शचीपतिम् ।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ४९ ॥
सभी देवता प्रसन्न होकर इन्द्रकी स्तुति करने लगे, गन्धर्व गाने लगे तथा अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४९ ॥

चुकोप महिषः श्रुत्वा जयशब्दं सुरैः कृतम् ।
प्रेषयामास तत्रैव ताम्रं परमदापहम् ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् देवताओंके द्वारा किये गये उस विजय घोषको सुनकर महिषासुर कुपित हो उठा । उसने शत्रुओंके अभिमानको चूर-चूर कर देनेवाले ताम्र नामक दानवको युद्धक्षेत्रमें भेजा ॥ ५० ॥

ताम्रस्तु बहुभिः सार्धं समागम्य रणाजिरे ।
शरवृष्टिं चकाराशु तडित्वानिव सागरे ॥ ५१ ॥
ताम्र बहुत-से सैनिकोंके साथ समरांगणमें आकर इस प्रकार वेगपूर्वक बाणोंकी वर्षा करने लगा मानो मेघ समुद्र में जल बरसा रहा हो ॥ ५१ ॥

वरुणः पाशमुद्यम्य जगाम त्वरितस्तदा ।
यमश्च महिषारूढो दण्डमादाय निर्ययौ ॥ ५२ ॥
उस समय वरुणदेव पाश लेकर तथा यमराज हाथमें दण्ड धारण करके महिषपर चढ़कर [युद्धभूमिमें] शीघ्र ही पहुँच गये ॥ ५२ ॥

तत्र युद्धमभूद्‌ घोरं देवदानवयोर्मिथः ।
बाणैः खड्गैश्च मुसलैः शक्तिभिश्च परश्वधैः ॥ ५३ ॥
अब देवताओं तथा दानवोंमें परस्पर बाणों, तलवारों, मुसलों, बछियों तथा फरसोंसे भीषण संग्राम होने लगा ॥ ५३ ॥

दण्डेन निहतस्ताम्रो यमहस्तोद्यतेन च ।
न चचाल महाबाहुः संग्रामाङ्गणतस्तदा ॥ ५४ ॥
यमराजके द्वारा अपने हाथसे फेंके गये दण्डसे ताम्र आहत हो गया, किंतु वह महाबाहु ताम्र समरांगणसे हिलातक नहीं ॥ ५४ ॥

चापमाकृष्य वेगेन मुक्त्वा तीव्राञ्छिलीमुखान्।
इन्द्रादीनहनत्तूर्णं ताम्रस्तस्मिन् रणाजिरे ॥ ५५ ॥
ताम्र उस संग्रामभूमिमें वेगपूर्वक धनुषको खींचखींचकर अति तीक्ष्ण बाण छोड़कर इन्द्र आदि देवताओंपर शीघ्रतासे प्रहार करने लगा ॥ ५५ ॥

तेऽपि देवाः शरैर्दिव्यैर्निशितैश्च शिलाशितैः ।
निजघ्नुर्दानवान्क्रुद्धास्तिष्ठ तिष्ठेति चुकुशुः ॥ ५६ ॥
वे देवता कुपित होकर पत्थरपर घिसकर नुकीले बनाये गये तीक्ष्ण दिव्य बाणोंसे दानवोंको मारने लगे और 'ठहरो-ठहरो' कहकर चिल्लाने लगे ॥ ५६ ॥

निहतस्तैः सुरैर्दैत्यो मूर्च्छामाप रणाङ्गणे ।
हाहाकारो महानासीद्दैत्यसैन्ये भयातुरे ॥ ५७ ॥
उन देवताओंके प्रहारसे घायल होकर दैत्य ताम युद्धभूमिमें मूछित हो गया । तब भयाक्रान्त दैत्यसेना महान् हाहाकार मच गया ॥ ५७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
पञ्चमस्कन्धे दैत्यसैन्यपराजयो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अध्याय पांचवाँ समाप्त ॥ ५ ॥


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