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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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महिषासुरस्येन्द्रादिदेवैः सह युद्धवर्णनम् -
भगवान् विष्णु और शिवके साथ महिषासुरका भयानक युद्ध -


व्यास उवाच
ताम्रेऽथ मूर्च्छिते दैत्ये महिषः क्रोधसंयुतः ।
समुद्यम्य गदां गुर्वीं देवानुपजगाम ह ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार दानव ताम्रक मूञ्छित हो जानेपर महिषासुर कुपित हो गया और एक विशाल गदा लेकर देवताओंके समक्ष जा डटा ॥ १ ॥

तिष्ठन्त्वद्य सुराः सर्वे हन्म्यहं गदया किल ।
सर्वे बलिभुजः कामं बलहीनाः सदैव हि ॥ २ ॥
इत्युक्त्वासौ गजारूढं सम्प्राप्य मदगर्वितः ।
जघान गदया तूर्णं बाहुमूले महाभुजः ॥ ३ ॥
हे देवताओ ! तुम सब ठहरो; मैं अभी अपनी गदासे तुम सभीको मार डालूंगा । बलिभाग (हविष्य) खानेवाले तुम सब तो सदासे बलहीन रहे हो-ऐसा कहकर अभिमानके मदमें चूर वह महाबाहु महिषासुर हाथीपर बैठे हुए इन्द्रके पास पहुँचकर उसने उनके बाहुमूलपर अपनी गदासे तीव्र आमात किया ॥ २-३ ॥

सोऽपि वज्रेण घोरेण चिच्छेदाशु गदाञ्च ताम् ।
प्रहर्तुकामस्त्वरितो जगाम महिषं प्रति ॥ ४ ॥
इन्द्रने अपने भयंकर वज्रसे उस गदाको तुरंत काट दिया और वे महिषासुरको मारनेकी इच्छासे बड़ी शीघ्रतापूर्वक उसकी ओर बढ़े ॥ ४ ॥

हयारिरपि कोपेन खड्गमादाय सुप्रभम् ।
ययाविन्द्रं महावीर्यं प्रहरिष्यन्निवान्तिकम् ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् वह महिषासुर भी कुपित होकर अपने हाथमें चमचमाती हुई तलवार लेकर प्रहार करते हुए महाबली इन्द्रके सामने पहुँच गया ॥ ५ ॥

बभूव च तयोर्युद्धं सर्वलोकभयावहम् ।
आयुधैर्विविधैस्तत्र मुनिविस्मयकारकम् ॥ ६ ॥
तब उन दोनोंमें नानाविध आयुधोंके द्वारा समस्त प्राणियोंको भयभीत कर देनेवाला तथा मुनिजनोंको भी विस्मित कर देनेवाला भीषण युद्ध छिड़ गया ॥ ६ ॥

चकाराशु तदा दैत्यो मायां मोहकरीं किल ।
शाम्बरीं सर्वलोकघ्नीं मुनीनामपि मोहिनीम् ॥ ७ ॥
तत्पश्चात् दैत्य महिषासुरने सम्पूर्ण जगत्को नष्ट कर देनेवाली तथा मुनियोंको भी मोहित कर देनेवाली मोहकारिणी शाम्बरी मायाका तत्काल प्रयोग किया ॥ ७ ॥

कोटिशो महिषास्तत्र तद्‌रूपास्तत्पराक्रमाः ।
ददृशुः सायुधाः सर्वे निघ्नन्तो देववाहिनीम् ॥ ८ ॥
उस मायाके प्रभावसे महिषासुरके ही रूपवाले तथा उसीके समान पराक्रमी करोड़ों महिषासुर अनेक प्रकारके आयुध लेकर देवसेनाका संहार करते हुए दिखायी पड़े ॥ ८ ॥

मघवा विस्मितस्तत्र दृष्ट्वा तां दैत्यनिर्मिताम् ।
बभूवातिभयोद्विग्नो मायां मोहकरीं किल ॥ ९ ॥
तब दैत्य महिषासुरद्वारा उत्पन्न की गयी उस मोहकरी मायाको देखकर इन्द्र विस्मयमें पड़ गये तथा भयसे बहुत व्याकुल हो उठे ॥ ९ ॥

वरुणोऽपि सुसन्त्रस्तस्तथैव धननायकः ।
यमो हुताशनः सूर्यः शीतरश्मिर्भयातुरः ॥ १० ॥
वरुण, कुबेर, यम, अग्नि, सूर्य तथा चन्द्रमा भी भयभीत हो गये और सभीके मनमें त्रास छा गया । सभी देवगण माया-विमोहित होकर भाग खड़े हए और वे सावधान होकर ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवका स्मरण करने लगे ॥ १०-११ ॥

पलायनपरा सर्वे बभूवुर्मोहिताः सुराः ।
ब्रह्मविष्णमहेशानां स्मरणं चक्रुरुद्यताः ॥ ११ ॥
तत्राजग्मुश्च काजेशाः स्मृतमात्राः सुरोत्तमाः ।
हंसतार्क्ष्यवृषारूढास्त्रातुकामा वरायुधाः ॥ १२ ॥
स्मरण करते ही उनकी रक्षाकी कामनासे श्रेष्ठ आयुध धारण करके सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश अपने-अपने वाहन हंस, गरुड तथा वृषभपर आरूढ़ होकर वहाँ आ गये ॥ १२ ॥

शौरिस्तां मोहिनीं दृष्ट्वा सुदर्शनमथोज्ज्वलम् ।
मुमोच तत्तेजसैव माया सा विलयं गता ॥ १३ ॥
मोहकारिणी उस आसुरी मायाको देखकर भगवान् विष्णुने अपना तेजोमय सुदर्शन चक्र चला दिया, जिसके प्रचण्ड तेजसे वह माया समाप्त हो गयी ॥ १३ ॥

वीक्ष्य तान्महिषस्तत्र सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ।
योद्धुकामः समादाय परिघं समुपाद्रवत् ॥ १४ ॥
तदनन्तर सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले उन देवताओंको देखकर उनसे युद्ध करनेकी इच्छासे वह महिषासुर परिघ लेकर उनकी ओर दौड़ा ॥ १४ ॥

महिषाख्यो महावीरः सेनानीश्चिक्षुरस्तथा ।
उग्रास्यश्चोग्रवीर्यश्च दुद्रुवुर्युद्धकामुकाः ॥ १५ ॥
असिलोमात्रिनेत्रश्च बाष्कलोऽन्धक एव च ।
एते चान्ये च बहवो युद्धकामा विनिर्ययुः ॥ १६ ॥
इसके बाद महावीर महिषासुर, सेनाध्यक्ष चिक्षुर, उग्रास्य, उग्रवीर्य, असिलोमा, त्रिनेत्र, बाष्कल तथा अन्धक-ये दानव एवं इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से दानव युद्धकी अभिलाषासे निकल पड़े ॥ १५-१६ ॥

सन्नद्धा धृतचापास्ते रथारूढा मदोद्धताः ।
परिवव्रुः सुरान्सर्वान्वृका इव सुवत्सकान् ॥ १७ ॥
उन कवचधारी, धनुष धारण करनेवाले, रथारूढ तथा मदोन्मत्त दानवोंने सभी देवताओंको उसी प्रकार घेर लिया, जिस प्रकार भेड़िये अत्यन्त कोमल बछड़ोंको घेर लेते हैं ॥ १७ ॥

बाणवृष्टिं ततश्चक्रुर्दानवा मदगर्विताः ।
सुराश्चापि तथा चक्रुः परस्परजिघांसवः ॥ १८ ॥
तदनन्तर एक-दूसरेको मार डालनेकी इच्छावाले वे मदोन्मत्त दानव तथा देवता बाण-वृष्टि करने लगे ॥ १८ ॥

अन्धको हरिमासाद्य पञ्चबाणाञ्छिलाशितान् ।
मुमोच विषसन्दिग्धान्कर्णाकृष्टान्महाबलान् ॥ १९ ॥
इसी बीच अन्धकासुरने भगवान् विष्णुके समक्ष पहुँचकर सानपर चढ़ाये गये, विषमें दग्ध किये गये तथा कानतक खींचे गये अत्यन्त शक्तिशाली पाँच बाण छोड़े ॥ १९ ॥

वासुदेवोऽप्यसंप्राप्तान्विशिखानाशुगैस्तदा ।
चिच्छेद तान्पुनः पञ्च मुमोच रिपुनाशनः ॥ २० ॥
शत्रुदमन भगवान् विष्णुने भी बड़ी तत्परताके साथ अपने तीव्रगामी बाणोंसे अन्धकासुरके उन बाणोंको दूरसे ही काट डाला और फिर उसके ऊपर पाँच बाण छोड़े ॥ २० ॥

तयोः परस्परं युद्धं बभूव हरिदैत्ययोः ।
बाणासिचक्रमुसलैर्गदाशक्तिपरश्वधैः ॥ २१ ॥
इस प्रकार विष्णु तथा अन्धकासुर-उन दोनों बाण, तलवार, चक्र, मूसल, गदा, बी तथा फरसोंमें भीषण युद्ध होने लगा ॥ २१ ॥

महेशान्धकयोर्युद्धं तुमुलं लोमहर्षणम् ।
पञ्चाशद्दिनपर्यन्तं बभूव च परस्परम् ॥ २२ ॥
इसी प्रकार महेश्वर तथा अन्धकासुरके बीच भीषण रोमांचकारी युद्ध निरन्तर पचास दिनोंतक होता रहा । ॥ २२ ॥

इन्द्रबाष्कलयोस्तद्वन्महिषासुररुद्रयोः ।
यमत्रिनेत्रयोस्तद्वन्महाहनुधनेशयोः ॥ २३ ॥
असिलोमवरुणयोर्युद्धं परमदारुणम् ।
गरुडं गदया दैत्यो जघान हरिवाहनम् ॥ २४ ॥
स गदापातखिन्नाङ्गो निःश्वसन्नवतिष्ठत ।
शौरिस्तं दक्षिणेनाशु हस्तेन परिसान्त्वयन् ॥ २५ ॥
स्थिरं चकार देवेशो वैनतेयं महाबलम् ।
समाकृष्य धनुः शार्ङ्गं मुमोच विशिखान्बहून् ॥ २६ ॥
अन्धकोपरि कोपेन हन्तुकामो जनार्दनः ।
उसी तरह इन्द्र तथा बाष्कल, महिषासुर तथा भगवान् रुद्र, यमराज तथा त्रिनेत्र, महाहनु तथा कुबेर एवं असिलोमा तथा वरुणके बीच महाभीषण युद्ध हुआ । इसी बीच अन्धकासुरने अपनी गदास भगवान् विष्णुके वाहन गरुडपर प्रहार किया । गदाके प्रहारसे घायल अंगोंवाले गरुड लम्बी साँस खींचते हुए स्थित हो गये । तत्पश्चात् देवाधिदेव विष्णुने अपने दाहिने हाथसे सहलाकर महाबली गरुडको सान्त्वना प्रदान करते हुए उन्हें स्वस्थचित्त किया । तब भगवान् विष्णुने अन्धकका संहार करनेके विचारसे अपना शार्ङ्गधनुष खींचकर उसके ऊपर बहुत-से बाण छोड़े ॥ २३-२६.५ ॥

दानवोऽपि च तान्वाणांश्चिच्छेद स्वशरैः शितैः ॥ २७ ॥
पञ्चाशद्‌भिर्हरिं कोपाज्जघान च शिलाशितैः ।
वासुदेवोऽपि तांस्तूर्णं वञ्चयित्वा शरोत्तमान् ॥ २८ ॥
चक्रं मुमोच वेगेन सहस्रारं सुदर्शनम् ।
त्यक्तं सुदर्शनं दूरात्स्वचक्रेण न्यवारयत् ॥ २९ ॥
ननाद च महाराज देवान्सम्मोहयन्निव ।
दानव अन्धकने अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उन बाणोंको काट डाला और इसके बाद सानपर चढ़ाकर तेज बनाये गये पचास बाण भगवान् विष्णुके ऊपर कुपित होकर एक ही साथ छोड़े । भगवान् विष्णुने भी उन उत्तम बाणोंको तत्क्षण निष्फल करके अपना हजार अरोंवाला सुदर्शन चक्र अन्धकासुरके ऊपर वेगपूर्वक चलाया । तब अन्धकासुरने भगवान् विष्णुद्वारा छोड़े गये सुदर्शन चक्रको अपने चक्रसे काफी दूरसे ही विफल कर दिया । हे महाराज [जनमेजय] ! इसके बाद देवताओंको सम्मोहित करते हुए उसने भीषण गर्जना की ॥ २७-२९.५ ॥

दृष्ट्वा तु विफलं जातं चक्रं देवस्य शार्ङ्‌गिणः ॥ ३० ॥
जग्मुः शोकं सुराः सर्वे जहर्षुर्दानवास्तथा ।
वासुदेवोऽपि तरसा दृष्ट्वा देवाञ्छुचावृतान् ॥ ३१ ॥
गदां कौमोदकीं धृत्वा दानवं समुपाद्रवत् ।
तं जघानातिवेगेन मूर्ध्नि मायाविनं हरिः ॥ ३२ ॥
स गदाभिहतो भूमौ निपपातातिमूर्च्छितः ।
तत्पश्चात् शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् विष्णुके सुदर्शन चक्रको विफल हुआ देखकर सभी देवता शोकाकुल हो उठे तथा दानवगण हर्षित हो गये । तब भगवान् विष्णु भी देवताओंको चिन्तामग्न देखकर अपनी कौमोदकी गदा लेकर दानव अन्धकपर झपट पड़े । श्रीहरिने बड़े वेगसे उस मायावीके मस्तकपर गदासे प्रहार किया । वह दैत्य गदाके प्रहारसे पूर्णरूपसे मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ३०-३२.५ ॥

तं तथा पतितं वीक्ष्य हयारिरतिकोपनः ॥ ३३ ॥
आजगाम रमानाथं त्रासयन्नतिगर्जितैः ।
वासुदेवोऽपि तं दृष्ट्वा समायान्तं क्रुधान्वितम् ॥ ३४ ॥
चापज्यानिनदं चोग्रं चकार नन्दयन्सुरान् ।
शरवृष्टिं चकाराशु भगवान्महिषोपरि ॥ ३५ ॥
सोऽपि चिच्छेद बाणौघैस्ताञ्छरान्गगनेरितान् ।
तयोर्युद्धमभूद्राजन् परस्परभयावहम् ॥ ३६ ॥
उसे इस प्रकार गिरा हुआ देखकर महिषासुर अत्यन्त क्रोधित हो उठा और अपनी घोर गर्जनासे भयभीत करता हुआ भगवान् विष्णुके सामने आ गया । भगवान् विष्णुने भी उस महिषासुरको कुपित होकर अपने समक्ष आया देखकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपने धनुषकी प्रत्यंचासे भयानक टंकार उत्पन्न की । तत्पश्चात् भगवान् विष्णु महिषासुरके ऊपर शीघ्रतापूर्वक बाणोंकी बौछार करने लगे । उसने भी अपने बाणसमूहोंसे उन आते हुए बाणोंको आकाशमें ही काट डाला । हे राजन् ! इस प्रकार उन दोनोंमें परस्पर अति भीषण युद्ध हुआ ॥ ३३-३६ ॥

गदया ताडयामास केशवो मस्तकोपरि ।
स गदाभिहतो मूर्ध्नि पपातोर्व्यां सुमूर्च्छितः ॥ ३७ ॥
हाहाकारो महानासीत्सैन्ये तस्य सुदारुणः ।
स विहाय व्यथां दैत्यो मुहूर्तादुत्थितः पुनः ॥ ३८ ॥
गृहीत्वा परिघं शीर्षे जघान मधुसूदनम् ।
परिघेणाहतस्तेन मूर्च्छामाप जनार्दनः ॥ ३९ ॥
मूर्च्छितं तमुवाहाशु जगाम गरुडो रणात् ।
परावृत्ते जगन्नाथे देवा इन्द्रपुरोगमाः ॥ ४० ॥
भयं प्रापुः सुदुःखार्ताश्चुक्रुशुश्च रणाजिरे ।
भगवान् विष्णुने गदासे महिषासुरके मस्तकपर प्रहार किया । मस्तकपर उस गदाके आघातसे मूछित होकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा । [यह देखकर] उसकी सेनामें अति भीषण हाहाकार मच गया । कुछ ही क्षणों में अपनी वेदनाको भूलकर वह दैत्य फिर उठकर खड़ा हो गया । उसने तत्काल एक परिघ लेकर मधुसूदन श्रीविष्णुके सिरपर प्रहार किया । उस परिधके प्रहारसे आहत होकर भगवान् विष्णु मूर्छाको प्राप्त हो गये । तब गरुड मूर्छाको प्राप्त उन भगवान् विष्णुको युद्धस्थलसे लेकर बाहर चले गये । इस प्रकार जगत्पति विष्णुके समरांगणसे लौट जानेपर इन्द्र आदि प्रधान देवता भयभीत हो गये और दुःखसे पीड़ित होकर युद्धभूमिमें चीखनेचिल्लाने लगे ॥ ३७-४०.५ ॥

क्रन्दमानान्सुरान्वीक्ष्य शङ्करः शूलभृत्तदा ॥ ४१ ॥
महिषं तरसाभ्येत्य प्राहरद्‌रोषसंयुतः ।
सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ शङ्करस्योरसि स्फुटम् ॥ ४२ ॥
जगर्ज स च दुष्टात्मा वञ्चयित्वा त्रिशूलकम् ।
शङ्करोऽपि तदा पीडां न प्रापोरसि ताडितः ॥ ४३ ॥
तं जघान त्रिशूलेन कोपादरुणलोचनः ।
तत्पश्चात् शूलधारी भगवान् शंकरने देवताओंको इस प्रकार करुण क्रन्दन करते हुए देखकर अत्यन्त क्रोधके साथ महिषासुरके पास द्रुतगतिसे पहुँचकर उसपर भीषण प्रहार किया । उस महिषासुरने भी भगवान् शंकरके वक्षःस्थलपर अपनी शक्ति (बी)-से तेज प्रहार किया और उनके त्रिशूलप्रहारको विफल करके उस दुष्टात्माने बड़ी तेज गर्जना की । वक्षपर प्रहार होनेपर भी भगवान् शंकरको कोई पीड़ा नहीं हुई और क्रोधसे आँखें लाल करके उन्होंने उसपर अपने त्रिशूलसे प्रहार किया ॥ ४१-४३.५ ॥

संलग्नं शङ्करं दृष्ट्वा महिषेण दुरात्मना ॥ ४४ ॥
आजगाम हरिस्तावत्त्यक्त्वा मूर्च्छां प्रहारजाम् ।
महिषस्तु तदा वीक्ष्य सम्प्राप्तौ हरिशङ्करौ ॥ ४५ ॥
युद्धकामौ महावीर्यो चक्रशूलधरौ वरौ ।
कोपयुक्तो बभूवासौ दृष्ट्वा तौ समुपागतौ ॥ ४६ ॥
जगाम सम्मुखस्तावत्संग्रामार्थं महाभुजः ।
माहिषं वपुरास्थाय धुन्वन्पुच्छं समुत्कटम् ॥ ४७ ॥
चकार भैरवं नादं त्रासयन्नमरानपि ।
धुन्वञ्छृङ्गे महाकायो दारुणो जलदो यथा ॥ ४८ ॥
शृङ्गाभ्यां पर्वताज्छृङ्गांश्चिक्षेप भृशमुत्कटान् ।
इसी बीच दुष्टात्मा महिषासुरके साथ भगवान् शंकरको इस प्रकार युद्धरत देखकर प्रहारजनित मूर्छाका त्याग करके वहाँ भगवान् विष्णु आ गये । उस समय युद्धके लिये उत्सुक महापराक्रमी विष्णु तथा शिवको श्रेष्ठ सुदर्शन चक्र तथा त्रिशूल धारण करके लड़नेके लिये अपने समक्ष उपस्थित देखकर वह महाबली महिषासुर अत्यन्त कुपित हो उठा । तत्पश्चात् वह विशालबाहु दैत्य उन दोनों देवताओंको अपने समीप आया हुआ देखकर महिषका रूप धारण करके पूँछ हिलाता हुआ युद्ध करनेके लिये उनके समक्ष पहुँच गया । देवताओंको आतंकित करते हुए उस विशालकाय तथा भयावह महिषासुरने अपनी सींगें फटकारते हुए मेघकी भांति भीषण गर्जना की तथा वह अपनी सींगोंसे पर्वतोंकी बड़ी-बड़ी चट्टानें उखाड़-उखाड़कर फेंकने लगा ॥ ४४-४८.५ ॥

दृष्ट्वा तौ तु महावीर्यौ दानवं देवसत्तमौ ॥ ४९ ॥
चक्रतुर्बाणवृष्टिं च दानवोपरि दारुणाम् ।
कुर्वाणौ बाणवृष्टिं तौ दृष्ट्वा हरिहरौ हरिः ॥ ५० ॥
चिक्षेप गिरिशृङ्गं तु पुच्छेनावृत्य दारुणम् ।
आपतन्तं गिरिं वीक्ष्य भगवान्सात्वतां पतिः ॥ ५१ ॥
विशिखैः शतधा चक्रे चक्रेणाशु जघान तम् ।
हरिचक्राहतः संख्ये मूर्च्छामाप स दैत्यराट् ॥ ५२ ॥
उत्तस्थौ च क्षणान्नूनं मानुषं वपुरास्थितः ।
गदापाणिर्महाघोरो दानवः पर्वतोपमः ॥ ५३ ॥
मेघनादं ननादोच्चैर्भीषयन्नमरानपि ।
उस दानवको देखकर महापराक्रमी देवश्रेष्ठ विष्णु तथा शंकर उसके ऊपर भीषण बाण-वृष्टि करने लगे । भगवान् विष्णु तथा शिवको अपने ऊपर बाण-वृष्टि करते हुए देखकर महिषासुरने अपनी पूँछमें एक भयानक पर्वतशिखर लपेटकर उनके ऊपर फेंका । उस पर्वतशिखरको आते देखकर भगवान् विष्णुने अपने बाणोंसे उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये और फिर सुदर्शन चक्रसे उसके ऊपर शीघ्रतासे प्रहार किया । भगवान् विष्णुके चक्रसे आहत होकर वह दैत्यराज महिषासुर युद्ध में मूच्छित हो गया । किंतु थोड़ी ही देरमें वह मनुष्यका शरीर धारण करके उठ खड़ा हुआ । पर्वतके समान शरीरवाला वह महाभयानक दैत्य हाथमें गदा धारणकर देवताओंको भयभीत करता हुआ मेषके समान जोरजोरसे गरजने लगा ॥ ४९-५३.५ ॥

तच्छ्रुत्वा भगवान्विष्णुः पाञ्चजन्यं समुज्ज्वलम् ॥ ५४ ॥
पूरयामास तरसा शब्दं कर्तुं खरस्वरम् ।
तेन शब्देन शङ्खस्य भयत्रस्ताश्च दानवाः ।
बभूवुर्मुदिता देवा ऋषयश्च तपोधनाः ॥ ५५ ॥
उस नादको सुनकर भगवान् विष्णुने तीव्रतर ध्वनि उत्पन्न करनेके लिये बड़ी तेजीसे अपना देदीप्यमान पांचजन्य नामक शंख बजाया । शंखकी उस ध्वनिसे समस्त दानव भयभीत हो गये और तपोधन ऋषिगण तथा देवता आनन्दमग्न हो गये ॥ ५४-५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे महिषासुरस्येन्द्रादिदेवैः
सह युद्धवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
अध्याय छठा समाप्त ॥ ६ ॥


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