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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
द्वितीयोऽध्यायः

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शर्यातिराजवर्णनम् -
सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा -


ममाख्याहि महाभाग राज्ञां वंशं सुविस्तरम् ।
सूर्यान्वयप्रसूतानां धर्मज्ञानां विशेषतः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-हे महाभाग ! आप मुझसे राजाओंके वंशका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये और विशेषरूपसे सूर्यवंशमें उत्पन्न धर्मज्ञ राजाओंके वंशके विषयमें बताइये ॥ १ ॥

शृणु भारत वक्ष्यामि रविवंशस्य विस्तरम् ।
यथा श्रुतं मया पूर्वं नारदाद्‌ऋषिसत्तमात् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे भारत ! ऋषिश्रेष्ठ नारदजीसे पूर्वकालमें जैसा मैंने सुना है, उसीके अनुसार सूर्यवंशका विस्तृत वर्णन करूंगा; आप सुनिये ॥ २ ॥

एकदा नारदः श्रीमान्सरस्वत्यास्तटे शुभे ।
आजगामाश्रमे पुण्ये विचरन्स्वेच्छया मुनिः ॥ ३ ॥
एक समयकी बात है-श्रीमान् नारदमुनि स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हुए सरस्वतीनदीके पावन तटपर पवित्र आश्रममें पधारे ॥ ३ ॥

प्रणम्य शिरसा पादौ तस्याग्रे संस्थितस्तदा ।
ततस्तस्यासनं दत्त्वा कृत्वार्हणमथादरात् ॥ ४ ॥
मैं सिर झुकाकर उनके चरणोंमें प्रणाम करके उनके सामने स्थित हो गया । तत्पश्चात् बैठनेके लिये आसन प्रदान करके मैंने आदरपूर्वक उनकी पूजा की ॥ ४ ॥

विधिवत्पूजयित्वा तं उक्तवान्वचनं त्विदम् ।
पावितोऽहं मुनिश्रेष्ठ पूज्यस्यागमनेन वै ॥ ५ ॥
उनकी विधिवत् पूजा करके मैंने उनसे यह वचन कहा-हे मुनिवर ! आप पूजनीयके आगमनसे मैं पवित्र हो गया ॥ ५ ॥

कथां कथय सर्वज्ञ राज्ञां चरितसंयुताम् ।
राजानो ये समाख्याताः सप्तमेऽस्मिन्मनोः कुले ॥ ६ ॥
तेषामुत्पत्तिरतुला चरितं परमाद्‌भुतम् ।
श्रोतुकामोऽस्म्यहं ब्रह्मन् सूर्यवंशस्य विस्तरम् ॥ ७ ॥
समाख्याहि मुनिश्रेष्ठ समासव्यासपूर्वकम् ।
हे सर्वज्ञ ! इन सातवें मनुके वंशमें जो विख्यात राजागण हो चुके हैं, उन राजाओंके चरित्रसे सम्बन्धित कथा कहिये । उन राजाओंकी उत्पत्ति अनुपम है और उनका चरित्र अत्यन्त अद्‌भुत है; अतएव हे ब्रह्मन् । मैं विस्तारके साथ सूर्यवंशका वर्णन सुननेका इच्छुक हूँ । हे मुनिश्रेष्ठ संक्षिप्त या विस्तृत जिस किसी भी रूपमें आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये ॥ ६-७.५ ॥

इति पृष्टो मया राजन्नारदः परमार्थवित् ॥ ८ ॥
उवाच प्रहसन्प्रीतः समाभाष्य मुदान्वयम् ।
हे राजन् ! मेरे ऐसा पूछनेपर परमार्थके ज्ञाता नारदजी हंसते हुए मुझे सम्बोधित करके प्रेमपूर्वक प्रसन्नताके साथ कहने लगे ॥ ८.५ ॥

नारद उवाच -
शृणु सत्यवतीसूनो राज्ञां वंशमनुत्तमम् ॥ ९ ॥
पावनं कर्णसुखदं धर्मज्ञानादिभिर्युतम् ।
नारदजी बोले-हे सत्यवतीतनय ! राजाओंके अत्युत्तम वंशके विषयमें सुनिये । कानोंको सुख प्रदान करनेवाला यह वंशचरित अत्यन्त पवित्र और धर्म, ज्ञान आदिसे समन्वित है ॥ ९.५ ॥

ब्रह्मा पूर्वं जगत्कर्ता नाभिपङ्कजसम्भवः ॥ १० ॥
विष्णोरिति पुराणेषु प्रसिद्धः परिकीर्तितः ।
सर्वज्ञः सर्वकर्तासौ स्वयम्भूः सर्वशक्तिमान् ॥ ११ ॥
सर्वप्रथम जगत्स्रष्टा ब्रह्माजी भगवान् विष्णुके नाभिकमलसे प्रकट हुए; ऐसा उनके विषय में पुराणोंमें प्रसिद्ध है । सम्पूर्ण जगत्के कर्ता स्वयम्भू ब्रह्माजी सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिसम्पन्न हैं ॥ १०-११ ॥

तपस्तप्त्वा स विश्वात्मा वर्षाणामयुतं पुरा ।
सृष्टिकामः शिवां ध्यात्वा प्राप्य शक्तिमनुत्तमाम् ॥ १२ ॥
पुत्रानुत्पदयामास मानसाञ्छुभलक्षणान् ।
मरीचिः प्रथिस्तेषामभवत्सृष्टिकर्मणि ॥ १३ ॥
सृष्टि करनेकी अभिलाषावाले उन विश्वात्मा ब्रह्माजीने पहले देवी शिवाका ध्यान करके दस हजार वर्षांतक तपस्या की और उनसे महान् शक्ति प्राप्त करके शुभ लक्षणोंवाले मानस पुत्र उत्पन्न किये । उन मानस पुत्रोंमें सर्वप्रथम मरीचि उत्पन्न हुए, जो सृष्टि-कार्यमें प्रवृत्त हुए ॥ १२-१३ ॥

तस्य पुत्रोऽतिविख्यातः कश्यपः सर्वसम्मतः ।
त्रयोदशैव तस्यासन्भार्या दक्षसुताः किल ॥ १४ ॥
उन मरीचिके परम प्रसिद्ध तथा सर्वमान्य पुत्र कश्यपजी हुए । दक्षप्रजापतिकी तेरह कन्याएँ उन्हींकी भार्याएँ थीं ॥ १४ ॥

देवाः सर्वे समुत्पन्ना दैत्या यक्षाश्च पन्नगाः ।
पशवः पक्षिणश्चैव तस्मात्सृष्टिस्तु काश्यपी ॥ १५ ॥
देवता, दैत्य, यक्ष, सर्प, पशु और पक्षी-सबके-सब उन्हींसे उत्पन्न हुए; अतएव यह सृष्टि काश्यपी है ॥ १५ ॥

देवानां प्रथितः सूर्यो विवस्वान्नाम तस्य तु ।
तस्य पुत्रः स विख्यातो वैवस्वतमनुर्नृपः ॥ १६ ॥
देवताओंमें सूर्य सबसे श्रेष्ठ हैं । उनका नाम विवस्वान् भी है । उनके पुत्र वैवस्वत मनु थे, वे परम प्रसिद्ध राजा हुए ॥ १६ ॥

तस्य पुत्रस्तथेक्ष्वाकुः सूर्यवंशविवर्धनः ।
नवाभवन्सुतास्तस्य मनोरिक्ष्वाकुपूर्वजाः ॥ १७ ॥
तेषां नामानि राजेन्द्र शृणुष्वैकमनाः पुनः ।
इक्ष्वाकुरथ नाभागो धृष्टः शर्यातिरेव च ॥ १८ ॥
नरिष्यन्तस्तथा प्रांशुर्नृगो दिष्टश्च सप्तमः ।
करूषश्च पृषध्रश्च नवैते मानवाः स्मृताः ॥ १९ ॥
उन वैवस्वत मनुके पुत्ररूपमें सूर्यवंशकी वृद्धि करनेवाले इक्ष्वाकुका प्रादुर्भाव हुआ । इक्ष्वाकुके जन्मके बाद उन मनुके नौ पुत्र और उत्पन्न हुए । हे राजेन्द्र ! आप एकाग्रचित्त होकर उनके नाम सुनिये; इक्ष्वाकुके अतिरिक्त नाभाग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, प्रांशु, नृग, सातवें दिष्ट एवं करूष और पृषध्र-ये नौ 'मनुपुत्र' के रूपमें प्रसिद्ध हैं ॥ १७-१९ ॥

इक्ष्वाकुस्तु मनोः पुत्रः प्रथमः समजायत ।
तस्य पुत्रशतं चासीज्ज्येष्ठो विकुक्षिरात्मवान् ॥ २० ॥
इन मनुपूत्रोंमें इक्ष्वाकु सबसे पहले उत्पन्न हुए थे । उनके सौ पुत्र हुए; उनमें आत्मज्ञानी विकुक्षि सबसे बड़े थे ॥ २० ॥

नवानां वंशविस्तारं संक्षेपेण निशामय ।
शूराणां मनुपुत्राणां मनोरन्तरजन्मनाम् ॥ २१ ॥
अब आप मनुवंशमें जन्म लेनेवाले पराक्रमी सभी नौ मनुपुत्रोंके वंश-विस्तारके विषयमें संक्षेपमें सुनिये ॥ २१ ॥

नाभागस्य तु पुत्रोऽभूदम्बरीषः प्रतापवान् ।
धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजापालनतत्परः ॥ २२ ॥
नाभागके पुत्र अम्बरीष हुए । वे प्रतापी, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और प्रजापालनमें तत्पर रहनेवाले थे ॥ २२ ॥

धृष्टात्तु धार्ष्टकं क्षत्रं ब्रह्मभूतमजायत ।
संग्रामकातरं सम्यग्ब्रह्मकर्मरतं तथा ॥ २३ ॥
धृष्टसे धाट हुए, जो क्षत्रिय होते हुए भी ब्राह्मण बन गये । संग्रामसे विमुख रहकर वे सम्यक्प से ब्राह्मणोचित कर्ममें निरत रहते थे ॥ २३ ॥

शर्यातेस्तनयश्चाभूदानर्तो नाम विश्रुतः ।
सुकन्या च तथा पुत्री रूपलावण्यसंयुता ॥ २४ ॥
च्यवनाय सुता दत्ता राज्ञाप्यन्धाय सुन्दरी ।
मुनिः सुलोचनो जातस्तस्याः शीलगुणेन ह ॥ २५ ॥
विहितो रविपुत्राभ्यामश्विभ्यामिति नः श्रुतम् ।
शांतिके आनर्त नामक पुत्र उत्पन्न हुए; वे अति प्रसिद्ध हुए । रूप तथा सौन्दर्यसे युक्त एक सुकन्या नामक पुत्री भी उनसे उत्पन्न हुई । राजा शर्यातिने अपनी वह सुन्दरी पुत्री नेत्रहीन च्यवनमुनिको सौंप दी । बादमें उसी सुकन्याके शील तथा गुणके प्रभावसे च्यवनमुनि सुन्दर नेत्रोंवाले हो गये । सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारोंने उन्हें नेत्रयुक्त कर दिया था ऐसा हमने सुना है ॥ २४-२५.५ ॥

जनमेजय उवाच
सन्देहोऽयं महान् ब्रह्मन् कथायां कथितस्त्वया ॥ २६ ॥
यद्‌राजा मुनयेऽन्धाय दत्ता पुत्री सुलोचना ।
कुरूपा गुणहीना वा नारी लक्षणवर्जिता ॥ २७ ॥
पुत्री यदा भवेद्‌राजा तदान्धाय प्रयच्छति ।
ज्ञात्वान्धं सुमुखीं कस्माद्दत्तवान्नृपसत्तमः ॥ २८ ॥
जनमेजय बोले-हे ब्रह्मन् ! आपने कथामें जो यह कहा कि राजा शर्यातिने अन्धे मुनिको अपनी सुन्दर नेत्रोंवाली कन्या प्रदान कर दी; तो इसमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है । यदि उनकी पुत्री कुरूप, गुणहीन और शुभ लक्षणोंसे हीन होती, तब वे राजा शर्याति उसका विवाह नेत्रहीनके साथ कर भी सकते थे, किंतु [च्यवनमुनिको] दृष्टिहीन जानते हुए भी उन नृपश्रेष्ठने उन्हें अपनी सुमुखी कन्या कैसे सौंप दी ? हे ब्रह्मन् ! मुझे इसका कारण बतायें; मैं सदा आपके अनुग्रहके योग्य हूँ ॥ २६-२८ ॥

कारणं ब्रूहि मे ब्रह्मन्ननुग्राह्योऽस्मि सर्वदा ।
सूत उवाच -
इति राज्ञो वचः श्रुत्वा परीक्षितसुतस्य वै ॥ २९ ॥
सूतजी बोले-परीक्षितके पुत्र राजा जनमेजयकी बात सुनकर प्रसन्न मनवाले व्यासजी हँसते हुए उनसे कहने लगे ॥ २९ ॥

द्वैपायनः प्रसन्नात्मा तमुवाच हसन्निव ।
व्यास उवाच -
वैवस्वतसुतः श्रीमाञ्छर्यातिर्नाम पार्थिवः ॥ ३० ॥
तस्य स्त्रीणां सहस्राणि चत्वार्यासन्परिग्रहाः ।
राजपुत्र्यः सरूपाश्च सर्वलक्षणसंयुताः ॥ ३१ ॥
पत्‍न्यः प्रेमयुताः सर्वाः प्रिया राज्ञः सुसम्मताः ।
व्यासजी बोले-हे राजन् ! वैवस्वत मनुके पुत्र शर्याति नामवाले ऐश्वर्यशाली राजा थे । उनकी चार हजार भार्याएँ थीं । वे सभी राजकुमारियाँ अत्यन्त रूपवती तथा समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त थीं । राजाकी सभी पत्नियाँ प्रेमयुक्त रहती हुई सदा उनके अनुकूल व्यवहार करती थीं ॥ ३०-३१.५ ॥

एका पुत्री तु तासां वै सुकन्या नाम सुन्दरी ॥ ३२ ॥
पितुः प्रिया च मातॄणां सर्वासां चारुहासिनी ।
उन सबके बीचमें सुकन्या नामक एक ही सुन्दरी पुत्री थी । सुन्दर मुसकानवाली वह कन्या पिता तथा समस्त माताओंके लिये अत्यन्त प्रिय थी ॥ ३२.५ ॥

नगरान्नातिदूरेऽभूत्सरो मानससन्निभम् ॥ ३३ ॥
बद्धसोपानमार्गं च स्वच्छपानीयपूरितम् ।
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्रवाकोपशोभितम् ॥ ३४ ॥
दात्यूहसारसाकीर्णं सर्वपक्षिगणावृतम् ।
पञ्चधाकमलोपेतं चञ्चरीकसुसेवितम् ॥ ३५ ॥
उस नगरसे थोड़ी ही दूरीपर मानसरोवरके तुल्य एक तालाब था । उसमें उतरनेके लिये सीढ़ियोंका मार्ग बना हुआ था । वह सरोवर स्वच्छ जलसे परिपूर्ण था । हंस, बत्तख, चक्रवाक, जलकाक और सारस पक्षियोंसे वह सरोवर व्याप्त और सुशोभित था । अन्य पक्षिसमूहोंसे भी वह आवृत रहता था । वह पाँच प्रकारके कमलोंसे सुशोभित था, जिनपर भौंरे मँडराते रहते थे ॥ ३३-३५ ॥

पार्श्वतश्च द्रुमाकीर्णं वेष्टितं पादपैः शुभैः ।
सालैस्तमालैः सरलैः पुन्नागाशोकमण्डितम् ॥ ३६ ॥
वटाश्वत्थकदम्बैश्च कदलीखण्डराजितम् ।
जम्बीरैर्बीजपूरैश्च खर्जूरैः पनसैस्तथा ॥ ३७ ॥
क्रमुकैर्नारिकेलैश्च केतकैः काञ्चनद्रुमैः ।
यूथिकाजालकैः शुभ्रैः संवृतं मल्लिकागणैः ॥ ३८ ॥
जम्ब्वाम्रतिन्तिणीभिश्च करञ्जकुटजावृतम् ।
पलाशनिम्बखदिरबिल्वामलकमण्डितम् ॥ ३९ ॥
उस सरोवरका तट बहुत-से वृक्षों तथा सुन्दर पौधों आदिसे घिरा हुआ था । वह सरोवर साल, तमाल, देवदारु, पुन्नाग और अशोकके वृक्षोंसे सुशोभित था । वट, पीपल, कदम्ब, केला, नीबू, बीजपूर (बिजौरा नीबू), खजूर, कटहल, सुपारी, नारियल तथा केतकी, कचनार, जूही, मालती-जैसी सुन्दर एवं स्वच्छ लताओं तथा वृक्षोंसे वह सम्यक प्रकारसे सम्पन्न था । जामुन, आम, इमली, करंज, कोरैया, पलाश, नीम, खैर और बेल तथा आमला आदि वृक्षोंसे सुशोभित था ॥ ३६-३९ ॥

बभूव कोकिलारावः केकास्वनविराजितम् ।
तत्समीपे शुभे देशे पादपानां गणावृते ॥ ४० ॥
भार्गवश्च्यवनः शान्तस्तापसः संस्थितो मुनिः ।
ज्ञात्वासौ विजनं स्थानं तपस्तेपे समाहितः ॥ ४१ ॥
कोकिलों और मयूरोंकी ध्वनिसे वह सदा निनादित रहता था । उस सरोवरके पासमें ही वृक्षोंसे घिरे हुए एक शुभ स्थानपर शान्त चित्तवाले महातपस्वी भृगुवंशी च्यवनमुनि रहते थे । उस स्थानको निर्जन समझकर उन्होंने मनको एकाग्र करके तपस्या प्रारम्भ कर दी । ४०-४१ ॥

कृत्वा दृढासनं मौनमाधाय जितमारुतः ।
इन्द्रियाणि च संयम्य त्यक्ताहारस्तपोनिधिः ॥ ४२ ॥
वे आसनपर दृढ़तापूर्वक विराजमान होकर मौन धारण किये हुए थे । प्राणवायुपर उनका पूर्ण अधिकार था तथा सभी इन्द्रियाँ उनके वशमें थीं । उन तपोनिधिने भोजन भी त्याग दिया था ॥ ४२ ॥

जलपानादिरहितो ध्यायन्नास्ते पराम्बिकाम् ।
सवल्मीकोऽभवद्‍राजल्लँताभिः परिवेष्टितः ॥ ४३ ॥
वे जल ग्रहण किये बिना जगदम्बाका ध्यान करते थे । हे राजन् ! उनके शरीरपर लताएँ घिरी हुई थीं तथा दीमकोंद्वारा वे पूरी तरहसे ढक लिये गये थे ॥ ४३ ॥

कालेन महता राजन् समाकीर्णः पिपीलिकैः ।
तथा स संवृतो धीमान्मृत्पिण्ड इव सर्वतः ॥ ४४ ॥
हे राजन् ! बहुत दिनोंतक इस प्रकार बैठे रहनेके कारण उनपर दीमककी चीटियाँ चढ़ गयीं और उनसे वे घिर गये । वे बुद्धिसम्पन्न मुनि पूरी तरहसे मिट्टीके ढेर-सदृश हो गये थे ॥ ४४ ॥

कदाचित्स महीपालः कामिनीगणसंवृतः ।
आजगाम सरो राजन् विहर्तुमिदमुत्तमम् ॥ ४५ ॥
हे राजन् ! किसी समय वे राजा शर्याति अपनी रानियोंके साथ विहार करनेके लिये उस उत्तम सरोवरपर आये ॥ ४५ ॥

शर्यातिः सुन्दरीवृन्दसंयुतः सलिलेऽमले ।
क्रीडासक्तो महीपालो बभूव कमलाकरे ॥ ४६ ॥
सरोवरका जल स्वच्छ था, कमल खिले हुए थे । अतएव राजा शांति सुन्दरियोंको साथ लेकर जल-क्रीड़ा करने लगे ॥ ४६ ॥

सुकन्या वनमासाद्य विजहार सखीवृता ।
सुमनांसि विचिन्वन्ती चञ्चला चञ्चलोपमा ॥ ४७ ॥
सर्वाभरणसंयुक्ता रणच्चरणनूपुरा ।
चंक्रममाणा वल्मीकं च्यवनस्य समासदत् ॥ ४८ ॥
क्रीडासक्तोपविष्टा सा वल्मीकस्य समीपतः ।
ददर्श चास्य रन्ध्रे वै खद्योत इव ज्योतिषी ॥ ४९ ॥
लक्ष्मीकी तुलना करनेवाली तथा चंचल स्वभाववाली वह सुकन्या वनमें आकर सुन्दर फूलोंको चुनती हुई सखियोंके साथ विहार करने लगी । वह सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थी तथा उसके चरणके नपुर मधुर ध्वनि कर रहे थे । इधर-उधर भ्रमण करती हुई वह राजकुमारी [सुकन्या] वल्मीक बने हुए च्यवनमुनिके निकट पहुँच गयी । क्रीडामें आसक्त वह सुकन्या वल्मीकके निकट बैठ गयी और उसे वल्मीकके छिद्रोंसे जुगुनूकी तरह चमकनेवाली दो ज्योतियाँ दिखायी पड़ी ॥ ४७-४९ ॥

किमेतदिति सञ्चिन्त्य समुद्धर्तुं मनो दधे ।
गृहीत्वा कण्टकं तीक्ष्णं त्वरमाणा कृशोदरी ॥ ५० ॥
यह क्या है ?-ऐसी जिज्ञासा होनेपर उसने आवरण हटानेका मनमें निश्चय किया । तत्पश्चात् वह सुन्दरी एक नुकीला काँटा लेकर शीघ्रतापूर्वक मिट्टी हटाने लगी ॥ ५० ॥

सा दृष्टा मुनिना बाला समीपस्था कृतोद्यमा ।
विचरन्ती सुकेशान्ता मन्मथस्येव कामिनी ॥ ५१ ॥
मुनि च्यवनने विचरण करनेवाली, कामदेवकी स्त्री रतिके सदृश तथा सुन्दर केशोंवाली उस राजकुमारीको पासमें स्थित होकर मिट्टी हटानेमें संलग्न देखा ॥ ५१ ॥

तां वीक्ष्य सुदतीं तत्र क्षामकण्ठस्तपोनिधिः ।
तामभाषत कल्याणीं किमेतदिति भार्गवः ॥ ५२ ॥
दूरं गच्छ विशालाक्षि तापसोऽहं वरानने ।
मा भिन्दस्वाद्य वल्मीकं कण्टकेन कृशोदरि ॥ ५३ ॥
क्षीण स्वरवाले तपोनिधि च्यवनमुनि सुन्दर दाँतोंचाली उस सुन्दरी सुकन्याको देखकर उससे कहने लगेयह क्या ! हे विशाल नयनोंवाली ! दूर चली जाओ । हे सुमुखि ! मैं एक तपस्वी हूँ । हे कृशोदरि ! इस बाँबीको काँटेसे मत हटाओ ॥ ५२-५३ ॥

तेनेदं प्रोच्यमानापि सा चास्य न शृणोति वै ।
किमु खल्विदमित्युक्त्वा निर्बिभेदास्य लोचने ॥ ५४ ॥
मुनिके कहनेपर भी उसने उनकी बातें न सुनी । यह कौन-सी [चमकनेवाली] वस्तु है-यह कहकर उसने मुनिके नेत्र भेद डाले ॥ ५४ ॥

दैवेन नोदिता भित्त्वा जगाम नृपकन्यका ।
क्रीडन्ती शङ्कमाना सा किं कृतं तु मयेति च ॥ ५५ ॥
चुक्रोध स तथा विद्धनेत्रः परममन्युमान् ।
वेदनाभ्यर्दितः कामं परितापं जगाम ह ॥ ५६ ॥
देवकी प्रेरणासे राजकुमारी उनके नेत्र बींधकर सशंक भावसे खेलती हुई और 'मैंने यह क्या कर डाला'-यह सोचती हुई वहाँसे चली गयी । नेत्रोंक बिँध जानेसे महर्षिको क्रोध हुआ और अत्यधिक वेदनासे पीड़ित होनेके कारण वे बहुत दुःखित हुए ॥ ५५-५६ ॥

शकृन्मूत्रनिरोधोऽभूत्सैनिकानां तु तत्क्षणात् ।
विशेषेण तु भूपस्य सामात्यस्य समन्ततः ॥ ५७ ॥
गजोष्ट्रतुरगाणां च सर्वेषां प्राणिनां तदा ।
ततो रुद्धे शकृन्मूत्रे शर्यातिर्दुःखितोऽभवत् ॥ ५८ ॥
उसी समयसे राजाके सभी सैनिकोंका मल-मूत्र अवरुद्ध हो गया । मन्त्रीसहित राजाको विशेषरूपसे यह कष्ट झेलना पड़ा । हाथी, घोड़े और ऊँट आदि सभी प्राणियोंके मल तथा मूत्रका अवरोध हो जानेपर राजा शर्याति अत्यन्त दु:खी हुए । ५७-५८ ॥

सैनिकैः कथितं तस्मै शकृन्मूत्रनिरोधनम् ।
चिन्तयामास भूपालः कारणं दुःखसम्भवे ॥ ५९ ॥
विचिन्त्याह ततो राजा सैनिकान्स्वजनांस्तथा ।
गृहमागत्य चिन्तार्तः केनेदं दुष्कृतं कृतम् ॥ ६० ॥
सरसः पश्चिमे भागे वनमध्ये महातपाः ।
च्यवनस्तापसस्तत्र तपश्चरति दुश्चरम् ॥ ६१ ॥
सैनिकोंने मल-मूत्रके अवरोधकी बात उन्हें बतायी, तब उन्होंने इस कष्टके कारणपर विचार किया । कुछ समय सोचनेके बाद राजा घरपर आकर अपने परिजनों तथा सैनिकोंसे अत्यन्त व्याकुल होकर पूछने लगे-किसके द्वारा यह निकृष्ट कार्य किया गया है ? उस सरोवरके पश्चिमी तटवाले वनमें महान् तपस्वी च्यवनमुनि कठिन तपस्या कर रहे हैं ॥ ५९-६१ ॥

केनाप्यपकृतं तत्र तापसेऽग्निसमप्रभे ।
तस्मात्पीडा समुत्पन्ना सर्वेषामिति निश्चयः ॥ ६२ ॥
अग्निके समान तेजस्वी उन तपस्वीके प्रति किसीने कोई अपकार अवश्य ही किया है । इसलिये हम सबको ऐसा कष्ट हुआ है-यह निश्चित है ॥ ६२ ॥

तपोवृद्धस्य वृद्धस्य वरिष्ठस्य विशेषतः ।
केनाप्यपकृतं मन्ये भार्गवस्य महात्मनः ॥ ६३ ॥
महातपस्वी, वृद्ध तथा श्रेष्ठ भृगुनन्दन महात्मा च्यवनका अवश्य ही किसीने अनिष्ट कर दिया हैऐसा मैं मानता हूँ ॥ ६३ ॥

ज्ञातं वा यदि वाज्ञातं तस्येदं फलमुत्तमम् ।
कैश्च दुष्टैः कृतं तस्य हेलनं तापसस्य ह ॥ ६४ ॥
यह अनिष्ट जानमें किया गया हो अथवा अनजानमें, उसका नियत फल तो भोगना ही पड़ेगा । न जाने किन दुष्टोंने उन तपस्वीका अपमान किया है ? ॥ ६४ ॥

इति पृष्टास्तमूचुस्ते सैनिका वेदनार्दिताः ।
मनोवाक्कायनितं न विद्मोऽपकृतं वयम् ॥ ६५ ॥
राजाके ऐसा पूछनेपर दुःखसे व्याकुल हुए सैनिकोंने उनसे कहा-हमलोगोंके द्वारा मन-वाणीकर्मसे मुनिका कुछ भी अपकार हुआ हो-इसे हमलोग नहीं जानते ॥ ६५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे
शर्यातिराजवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
अध्याय दुसरा समाप्त ॥ २ ॥


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