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दक्षप्रजापतिवर्णनम् -
पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टीका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तोनोत्पत्तीसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति -
सूत उवाच - श्रुत्वैतां तापसाद्दिव्यां कथां राजा मुदान्वितः । व्यासं पप्रच्छ धर्मात्मा परीक्षितसुतः पुनः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे ऋषियो !] तपस्वी व्यासजीसे यह दिव्य कथा सुनकर परीक्षितके पुत्र धर्मात्मा राजा जनमेजयने प्रसन्नतापूर्वक पुनः व्यासजीसे पूछा ॥ १ ॥
जनमेजय उवाच - स्वामिन् सूर्यान्वयानां च राज्ञां वंशस्य विस्तरम् । तथा सोमान्वयानां च श्रोतुकामोऽस्मि सर्वथा ॥ २ ॥
जनमेजय बोले-हे स्वामिन् ! मैं सूर्यवंशी तथा चन्द्रवंशी राजाओंके वंशका विस्तृत वर्णन सम्यक् प्रकारसे सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥
कथयानघ सर्वज्ञ कथां पापप्रणाशिनीम् । चरितं भूपतीनां च विस्तराद्वंशयोर्द्वयोः ॥ ३ ॥
हे पुण्यात्मन् ! हे सर्वज्ञ ! आप उन राजाओंके चरित्र तथा उनके दोनों वंशोंसे सम्बन्धित उस पापनाशिनी कथाका विस्तारसे वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥
ते हि सर्वे पराशक्तिभक्ता इति मया श्रुतम् । देवीभक्तस्य चरितं शृण्वन्कोऽस्ति विरक्तिभाक् ॥ ४ ॥
मैंने ऐसा सुना है कि वे सभी पराशक्ति जगदम्बाके महान् भक्त थे; अतः देवीभक्तका चरित्र सुननेसे भला कौन विमुख होना चाहेगा ? ॥ ४ ॥
(तत्पश्चात् प्रजापति ब्रह्माजीने अपने सात मानस पुत्रोंका सृजन किया । ) मरीचि, अंगिरा, अत्रि, वसिष्ठ, पुलह, क्रतु और पुलस्त्य-इन नामोंसे उन सात मानस पुत्रोंकी प्रसिद्धि हुई ॥ १० ॥
रुद्रो रोषात्समुत्पन्नोऽप्युत्सङ्गान्नारदोऽभवत् । दक्षोऽङ्गुष्ठात्तथान्येऽपि मानसाः सनकादयः ॥ ११ ॥
ब्रह्माजीके रोषसे रुद्र उत्पन्न हुए तथा उनकी गोदसे नारदजीका प्राकट्य हुआ । अंगूठेसे दक्षप्रजापति उत्पन्न हुए । इसी प्रकार सनक आदि अन्य मानस पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई ॥ ११ ॥
वामाङ्गुष्ठाद्दक्षपत्नी जाता सर्वाङ्गसुन्दरी । वीरिणी नाम विख्याता पुराणेषु महीपते ॥ १२ ॥
बायें हाथके अंगूठेसे समस्त सुन्दर अंगोंवाली दक्षपत्नीका प्रादुर्भाव हुआ । हे राजन् ! वे पुराणोंमें 'वीरिणी' नामसे प्रसिद्ध हैं ॥ १२ ॥
असिक्नीति च नाम्ना सा यस्यां जातोऽथ नारदः । देवर्षिप्रवरः कामं ब्रह्मणो मानसः सुतः ॥ १३ ॥
वे असिक्नी नामसे भी विख्यात हैं और उन्हींसे ब्रह्माजीके मानसपुत्र देवर्षि श्रेष्ठ नारदजीका प्रादुर्भाव हुआ है ॥ १३ ॥
जनमेजय उवाच - अत्र मे संशयो ब्रह्मन् यदुक्तं भवता वचः । वीरिण्यां नारदो जातो दक्षादिति महातपाः ॥ १४ ॥
जनमेजय बोले-हे ब्रह्मन् ! अभी-अभी आपने जो बात कही है कि महान् तपस्वी नारदजी दक्षसे तथा वीरिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे, इस विषयमें मुझे सन्देह हो रहा है ॥ १४ ॥
कथं दक्षस्य पत्न्यां तु वीरिण्यां नारदो मुनिः । जातो हि ब्रह्मणः पुत्रो धर्मज्ञस्तापसोत्तमः ॥ १५ ॥
धर्मके पूर्ण ज्ञाता तथा तपस्वियोंमें श्रेष्ठ नारदमुनि तो ब्रह्माके मानस पुत्र हैं तो फिर वे दक्षपत्नी वीरिणीसे किस प्रकार उत्पन्न हुए ? ॥ १५ ॥
विचित्रमिदमाख्यातं भवता नारदस्य च । दक्षाज्जन्मास्य भार्यायां तद्वदस्व सविस्तरम् ॥ १६ ॥
आपके द्वारा कथित यह वार्ता अत्यन्त विस्मयमें डालनेवाली है । दक्षसे तथा उनकी भार्या 'वीरिणी' से इन नारदजीके जन्मके विषयमें आप मुझे विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १६ ॥
पूर्वदेहः कथं मुक्तः शापात्कस्य महामना । नारदेन बहुज्ञेन कस्माज्जन्म कृतं मुने ॥ १७ ॥
हे मुने ! विपुल ज्ञान रखनेवाले महात्मा नारदजीने किसके शापसे अपने पूर्व शरीरका त्याग करके किसलिये फिरसे जन्म धारण किया ? ॥ १७ ॥
व्यास उवाच - ब्रह्मणासौ समादिष्टो दक्षः सृष्ट्यर्थमादितः । प्रजाः सृजेति सुभृशं वृद्धिहेतोः स्वयम्भुवा ॥ १८ ॥
व्यासजी बोले-स्वयम्भू ब्रह्माजीने सबसे पहले दक्षप्रजापतिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी और कहा कि तुम प्रजाकी रचनामें तत्पर हो जाओ, जिससे प्रजाकी अधिकाधिक वृद्धि हो सके ॥ १८ ॥
प्रजाकी वृद्धिहेतु विपुल उत्साहसे सम्पन्न उन सभी पुत्रोंको देखकर कालकी प्रेरणाके अनुसार देवर्षि नारदजी हँसते हुए यह बात कहने लगे ॥ २० ॥
भुवः प्रमाणमज्ञात्वा स्रष्टुकामाः प्रजाः कथम् । लोकानां हास्यतां यूयं गमिष्यथ न संशयः ॥ २१ ॥
पृथ्वीको वास्तविक परिमितिका बिना ज्ञान किये ही तुमलोग प्रजाके सृष्टिकार्यमें कैसे तत्पर हो गये ? इससे तो तुमलोग निःसन्देह जगत्में उपहासके पात्र बनोगे ॥ २१ ॥
पृथ्वीका परिमाण जानकर ही तुम्हें इस कार्यमें संलग्न होना चाहिये । ऐसा करनेपर ही तुमलोगोंका कार्य सिद्ध होगा, अन्यथा नहीं; इसमें कोई सन्देह नहीं है । २२ ॥
बालिशा बत यूयं वै यदज्ञात्वा भुवस्तलम् । समुद्यताः प्रजाः कर्तुं कथं सिद्धिर्भविष्यति ॥ २३ ॥
तुमलोग तो मूर्ख हो जो कि पृथ्वीके परिमाणको जाने बिना ही प्रजोत्पत्तिमें संलग्न हो गये हो; इसमें सफलता कैसे मिल सकती है ? ॥ २३ ॥
व्यास उवाच - नारदेनैवमुक्तास्ते हर्यश्वा दैवयोगतः । अन्योन्यमूचुः सहसा सम्यगाह मुनिः किल ॥ २४ ॥ ज्ञात्व प्रमाणमुर्व्यास्तु सुखं स्रक्ष्यामहे प्रजाः । इति सञ्चिन्त्य ते सर्वे प्रयाताः प्रेक्षितुं भुवः ॥ २५ ॥
व्यासजी बोले-नारदजीके इस प्रकार कहनेपर दैवयोगसे दक्षपुत्र हर्यश्व परस्पर कहने लगे कि मुनिने तो ठीक ही कहा है । अब हमलोग पृथ्वीका परिमाण जान लेनेके पश्चात् ही सुखपूर्वक प्रजाकी सृष्टि करेंगे । ऐसा विचार करके वे सभी पृथ्वीका विस्तार जाननेके लिये चल पड़े ॥ २४-२५ ॥
तलं सर्वं परिज्ञातुं वचनान्नारदस्य च । प्राच्यां केचिद्गताः कामं दक्षिणस्यां तथापरे ॥ २६ ॥ प्रतीच्यामुत्तरस्यां तु कृतोत्साहाः समन्ततः । दक्षः पुत्रान्गतान्दृष्ट्वा पीडितस्तु शुचा भृशम् ॥ २७ ॥
तत्पश्चात् नारदजीके कथनानुसार पृथ्वीके सम्पूर्ण तलका ज्ञान करनेके लिये कुछ पूर्व दिशामें, कुछ पश्चिम दिशामें, कुछ उत्तर दिशामें तथा कुछ दक्षिण दिशामें बड़े उत्साहके साथ चले । इधर, दक्षप्रजापति सभी पुत्रोंको गया हुआ देखकर बहुत ही शोकाकुल हो गये ॥ २६-२७ ॥
दृढनिश्चयी दक्षप्रजापतिने प्रजाओंकी सृष्टिके लिये पुनः अन्य पुत्र उत्पन्न किये । वे सभी पुत्र भी प्रजा-सृष्टिके कार्यमें उत्साहपूर्वक तत्पर हो गये ॥ २८ ॥
उन्हें देखकर नारदमुनिने पूर्वकी भाँति वही बात उनसे भी कही-तुमलोग बड़े ही मुर्ख हो । अरे, पृथ्वीके वास्तविक परिमाणका ज्ञान किये बिना ही तुमलोग प्रजाकी सृष्टि करने में किस कारणसे संलग्न हो गये हो ? ॥ २९ ॥
मुनिकी वाणी सुनकर तथा उसे सत्य मानकर वे भी भ्रमित हो गये । वे सभी पुत्र उसी प्रकार भूमण्डलका विस्तार जाननेके लिये चल पड़े, जिस प्रकार उनके भाईलोग पहले चले गये थे । उन पुत्रोंको वहाँसे प्रस्थित देखकर दक्ष अत्यन्त कुपित हो उठे और पुत्रशोकजन्य कोपसे उन्होंने नारदजीको शाप दे दिया । ३०-३१.५ ॥
दक्ष उवाच - नाशिता मे सुता यस्मात् तस्मान्नाशमवाप्नुहि ॥ ३२ ॥ पापेनानेन दुर्बुद्धे गर्भवासं व्रजेति च । पुत्रो मे भव कामं त्वं यतो मे भ्रंशिताः सुताः ॥ ३३ ॥
दक्ष बोले-[हे नारद !] जिस प्रकार तुमने मेरे पुत्रोंको नष्ट किया है, उसी प्रकार तुम भी नाशको प्राप्त हो जाओ । हे दुर्बुद्धे ! तुमने मेरे पुत्रोंको भ्रष्ट किया है, अतएव इस पापके परिणामस्वरूप तुम्हें गर्भमें वास करना होगा और मेरा पुत्र बनना पड़ेगा ॥ ३२-३३ ॥
पुत्रोंका शोक त्यागकर परम धर्मनिष्ठ दक्षप्रजापतिने उन कन्याओंमेंसे तेरह कन्याएँ महात्मा कश्यपको अर्पित कर दी । हे पृथ्वीपते ! उनमेंसे दस कन्याएँ धर्मको, सत्ताईस चन्द्रमाको, दो भृगमुनिको, चार अरिष्टनेमिको, दो अंगिरा-ऋषिको तथा शेष दोको पुनः अंगिराऋषिको ही सौंप दिया । उन्हीं कन्याओंके पुत्र तथा पौत्र देवता एवं दानवके रूपमें उत्पन्न हुए । वे महान् बलशाली तथा आपसमें विरोधभाव रखते थे । एक-दूसरेके विरोधी तथा परस्पर रागद्वेषकी भावना रखनेवाले वे सभी पराक्रमी देवता तथा दानव अत्यन्त मायावी थे तथा सदा मोहसे ग्रस्त रहते थे ॥ ३५-३८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे सोमसूर्यवंशवर्णने दक्षप्रजापतिवर्णनं नाम प्रथोमोऽध्यायः ॥ १ ॥