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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
चतुर्थोऽध्यायः

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अश्विनीकुमारयोः सुकन्यां प्रति बोधवचनवर्णनम् -
सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन -


व्यास उवाच -
गते राजनि सा बाला पतिसेवापरायणा ।
बभूव च तथाग्नीनां सेवने धर्मतत्परा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] राजा शर्यातिके चले जानेपर सुकन्या अपने पति च्यवनमुनिकी सेवामें संलग्न हो गयी । धर्मपरायण वह उस आश्रममें अग्नियोंकी सेवा में सदा निरत रहने लगी ॥ १ ॥

फलान्यादाय स्वादूनि मूलानि विविधानि च ।
ददौ सा मुनये बाला पतिसेवापरायणा ॥ २ ॥
सर्वदा पतिसेवामें संलग्न रहनेवाली वह बाला विविध प्रकारके स्वादिष्ट फल तथा कन्द-मूल लाकर मुनिको अर्पण करती थी ॥ २ ॥

पतिं तप्तोदकेनाशु स्नापयित्वा मृगत्वचा ।
परिवेष्ट्य शुभायां तु बृस्यां स्थापितवत्यपि ॥ ३ ॥
तिलान् यवकुशानग्रे परिकल्प्य कमण्डलुम् ।
तमुवाच नित्यकर्म कुरुष्व मुनिसत्तम ॥ ४ ॥
वह [शीतकालमें] ऊष्ण जलसे उन्हें शीघ्रतापूर्वक स्नान करानेके पश्चात् मृगचर्म पहनाकर पवित्र आसनपर विराजमान कर देती थी । पुन: उनके आगे तिल, जौ, कुशा और कमण्डलु रखकर उनसे कहती थी-मुनिश्रेष्ठ ! अब आप अपना नित्यकर्म करें ॥ ३-४ ॥

तमुत्थाप्य करे कृत्वा समाप्ते नित्यकर्मणि ।
बृस्यां वा संस्तरे बाला भर्तारं संन्यवेशयत् ॥ ५ ॥
मुनिका नित्यकर्म समाप्त हो जानेपर वह सुकन्या पतिका हाथ पकड़कर उठाती और पुनः किसी आसन अथवा कोमल शय्यापर उन्हें बिठा देती थी ॥ ५ ॥

पश्चादानीय पक्वानि फलानि च नृपात्मजा ।
भोजयामास च्यवनं नीवारान्नं सुसंस्कृतम् ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् वह राजकुमारी पके हुए फल तथा भली-भाँति सिद्ध किये गये नीवारान्न (धान्यविशेष) च्यवन-मुनिको भोजन कराती थी ॥ ६ ॥

भुक्तवन्तं पतिं तृप्तं दत्त्वाचमनमादरात् ।
पश्चाच्च पूगं पत्राणि ददौ चादरसंयुता ॥ ७ ॥
वह सुकन्या भोजन करके तृप्त हुए पतिको आदरपूर्वक आचमन करानेके पश्चात् बड़े प्रेमके साथ उन्हें ताम्बूल तथा पूगीफल प्रदान करती थी ॥ ७ ॥

गृहीतमुखवासं तं संवेश्य च शुभासने ।
गृहीत्वाऽऽज्ञां शरीरस्य चकार साधनं ततः ॥ ८ ॥
च्यवनमुनिके मुखशुद्धि कर लेनेपर सुकन्या उन्हें सुन्दर आसनपर बिठा देती थी । तत्पश्चात् उनसे आज्ञा लेकर वह अपने शरीर-सम्बन्धी कृत्य सम्पन्न करती थी ॥ ८ ॥

फलाहारं स्वयं कृत्वा पुनर्गत्वा च सन्निधौ ।
प्रोवाच प्रणयोपेता किमाज्ञापयसे प्रभो ॥ ९ ॥
पादसंवाहनं तेऽद्य करोमि यदि मन्यसे ।
एवं सेवापरा नित्यं बभूव पतितत्परा ॥ १० ॥
तत्पश्चात् स्वयं फलाहार करके वह पुनः मुनिके पास जाकर नम्रतापूर्वक उनसे कहती थी-'हे प्रभो ! मुझे क्या आज्ञा दे रहे हैं ? यदि आपकी सम्मति हो तो मैं अब आपके चरण दबाऊँ । ' इस प्रकार पतिपरायणा वह सुकन्या उनकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी ॥ ९-१० ॥

सायं होमावसाने सा फलान्याहृत्य सुन्दरी ।
अर्पयामास मुनये स्वादूनि च मृदूनि च ॥ ११ ॥
ततः शेषाणि बुभुजे प्रेमयुक्ता तदाज्ञया ।
सुस्पर्शास्तरणं कृत्वा शाययामास तं मुदा ॥ १२ ॥
सायंकालीन हवन समाप्त हो जानेपर वह सुन्दरी स्वादिष्ट तथा मधुर फल लाकर मुनिको अर्पित करती थी । पुनः उनकी आज्ञासे भोजनसे बचे हुए आहारको बड़े प्रेमके साथ स्वयं ग्रहण करती थी । इसके बाद अत्यन्त कोमल तथा सुन्दर आसन बिछाकर उन्हें प्रेमपूर्वक उसपर लिटा देती थी ॥ ११-१२ ॥

सुप्ते सुखं प्रिये कान्ता पदसंवाहनं तदा ।
चकार पृच्छती धर्मं कुलस्त्रीणां कृशोदरी ॥ १३ ॥
अपने प्रिय पतिके सुखपूर्वक शयन करनेपर वह सुन्दरी उनके पैर दबाने लगती थी । उस समय क्षीण कटि-प्रदेशवाली वह सुकन्या कुलीन स्त्रियोंके धर्मके विषयमें उनसे पूछा करती थीं ॥ १३ ॥

पादसंवाहनं कृत्वा निशि भक्तिपरायणा ।
निद्रितं च मुनिं ज्ञात्वा सुष्वाप चरणान्तिके ॥ १४ ॥
चरण दबा करके रातमें वह भक्तिपरायणा सुकन्या जब यह जान जाती थी कि च्यवनमुनि सो गये हैं, तब वह भी उनके चरणोंके पास ही सो जाती थी ॥ १४ ॥

शुचौ प्रतिष्ठितं वीक्ष्य तालवृन्तेन भामिनी ।
कुर्वाणा शीतलं वायुं सिषेवे स्वपतिं तदा ॥ १५ ॥
हेमन्ते काष्ठसम्भारं कृत्वाग्निज्वलनं पुरः ।
स्थापयित्वा तथापृच्छत्सुखं तेऽस्तीति चासकृत् ॥ १६ ॥
ग्रीष्मकालमें अपने पति च्यवनमुनिको बैठा देखकर वह सुन्दरी सुकन्या ताड़के पंखेसे शीतल वायु करती हुई उनकी सेवामें तत्पर रहती थी । शीतकालमें सूखी लकड़ियाँ एकत्रकर उनके सम्मुख प्रज्वलित अग्नि रख करके वह उनसे बार-बार पूछा करती थी कि आप सुखपूर्वक तो हैं ? ॥ १५-१६ ॥

ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय जलं पात्रं च मृत्तिकाम् ।
समर्पयित्वा शौचार्थं समुत्थाप्य पतिं प्रिया ॥ १७ ॥
स्थानाद्दूरे च संस्थाप्य दूरं गत्वा स्थिराभवत् ।
कृतशौचं पतिं ज्ञात्वा गत्वा जग्राह तं पुनः ॥ १८ ॥
आनीयाश्रममव्यग्रा चोपवेश्यासने शुभे ।
मृज्जलाभ्यां च प्रक्षाल्य पादावस्य यथाविधि ॥ १९ ॥
दत्त्वाऽऽचमनपात्रं तु दन्तधावनमाहरत् ।
समर्प्य दन्तकाष्ठं च यथोक्तं नृपनन्दिनी ॥ २० ॥
चकारोष्णं जलं शुद्धं समानीतं सुपावनम् ।
स्नानार्थं जलमाहृत्य पप्रच्छ प्रणयान्विता ॥ २१ ॥
किमाज्ञापयसे ब्रह्मन् कृतं वै दन्तधावनम् ।
उष्णोदकं सुसम्पन्नं कुरु स्नानं समन्त्रकम् ॥ २२ ॥
वर्तते होमकालोऽयं सन्ध्या पूर्वा प्रवर्तते ।
विधिवद्‌हवनं कृत्वा देवतापूजनं कुरु ॥ २३ ॥
ब्राहामुहूर्तमें उठकर वह सुकन्या जल, पात्र तथा मिट्टी पतिके पास रखकर उन्हें शौचके लिये उठाती थी । इसके बाद उन्हें आश्रमसे कुछ दूर ले जाकर बैठा देनेके बाद वहाँसे स्वयं कुछ दूर हटकर बैठी रहती थी । 'मेरे पतिदेव शौच कर चुके होंगे'-ऐसा जानकर वह उनके पास जा करके उन्हें उठाती थी और आश्रममें ले आकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक एक सुन्दर आसनपर बिठा देती थी । तत्पश्चात् मिट्टी और जलसे विधिवत् उनके दोनों चरण धोकर फिर आचमनपात्र दे करके दन्तधावन (दातौन) ले आती थी । शास्त्रोक्त दातौन मुनिको देनेके बाद वह राजकुमारी मुनिके स्नानके लिये लाये गये शुद्ध तथा परम पवित्र जलको गरम करने लगती थी । तत्पश्चात् उस जलको ले आकर प्रेमपूर्वक उनसे पूछती थी-'हे ब्रह्मन् ! आप क्या आज्ञा दे रहे हैं ? आपने दन्तधावन तो कर लिया ? उष्ण जल तैयार है, अतः अब आप मन्त्रोच्चारपूर्वक स्नान कर लीजिये । हवन और प्रात:कालीन संध्याका समय उपस्थित है; आप विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके देवताओंका पूजन कीजिये' ॥ १७-२३ ॥

एवं कन्या पतिं लब्ध्वा तपस्विनमनिन्दिता ।
नित्यं पर्यचरत्प्रीत्या तपसा नियमेन च ॥ २४ ॥
इस प्रकार वह श्रेष्ठ सुकन्या तपस्वी पति प्राप्तकर तप तथा नियमके साथ प्रेमपूर्वक प्रतिदिन उनकी सेवा करती रहती थी ॥ २४ ॥

अग्नीनामतिथीनां च शुश्रूषां कुर्वती सदा ।
आराधयामास मुदा च्यवनं सा शुभानना ॥ २५ ॥
सुन्दर मुखवाली वह सुकन्या अग्नि तथा अतिथियोंकी सेवा करती हुई प्रसन्नतापूर्वक सदा च्यवनमुनिकी सेवामें तल्लीन रहती थी ॥ २५ ॥

कस्मिंश्चिदथ काले तु रविजावश्विनावुभौ ।
च्यवनस्याश्रमाभ्याशे क्रीडमानौ समगतौ ॥ २६ ॥
किसी समय सूर्यके पुत्र दोनों अश्विनीकुमार क्रीड़ा करते हुए च्यवनमुनिके आश्रमके पास आ पहुँचे ॥ २६ ॥

जले स्नात्वा तु तां कन्यां निवृत्तां स्वाश्रमं प्रति ।
गच्छन्तीं चारुसर्वाङ्‌गीं रविपुत्रावपश्यताम् ॥ २७ ॥
उन अश्विनीकुमारोंने जलमें स्नान करके निवृत्त हुई तथा अपने आश्रमकी ओर जाती हुई उस सर्वांगसुन्दरी सुकन्याको देख लिया ॥ २७ ॥

तां दृष्ट्वा देवकन्याभां गत्वा चान्तिकमादरात् ।
ऊचतुः समभिद्रुत्य नासत्यावतिमोहितौ ॥ २८ ॥
देवकन्याके समान कान्तिवाली उस सुकन्याको देखकर दोनों अश्विनीकुमार अत्यधिक मुग्ध हो गये और शीघ्र ही उसके पास पहुँचकर आदरपूर्वक कहने लगे- ॥ २८ ॥

क्षणं तिष्ठ वरारोहे प्रष्टुं त्वां गजगामिनि ।
आवां देवसुतौ प्राप्तौ ब्रूहि सत्यं शुचिस्मिते ॥ २९ ॥
पुत्री कस्य पतिः कस्ते कथमुद्यानमागता ।
एकाकिनी तडागेऽस्मिन् स्नानार्थं चारुलोचने ॥ ३० ॥
हे वरारोहे ! थोड़ी देर ठहरो । हे गजगामिनि ! हम दोनों सूर्यदेवके पुत्र अश्विनीकुमार तुमसे कुछ पूछनेके लिये यहाँ आये हैं । हे शुचिस्मिते ! सच-सच बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो, तुम्हारे पति कौन हैं ? हे चारुलोचने ! इस सरोवरमें स्नान करनेके लिये तुम अकेली ही उद्यानमें क्यों आयी हुई हो ? ॥ २९-३० ॥

द्वितीया श्रीरिवाभासि कान्त्या कमललोचने ।
इच्छामस्तु वयं ज्ञातुं तत्त्वमाख्याहि शोभने ॥ ३१ ॥
हे कमललोचने ! तुम तो सौन्दर्यमें दूसरी लक्ष्मीकी भाँति प्रतीत हो रही हो । हे शोभने ! हम यह रहस्य जानना चाहते हैं, तुम बताओ ॥ ३१ ॥

कोमलौ चरणौ कान्ते स्थितौ भूमावनावृतौ ।
हृदाये कुरुतः पीडां चलन्तौ चललोचने ॥ ३२ ॥
विमानार्हासि तन्वङ्‌गि कथं पद्भ्यां व्रजस्यदः ।
अनावृतात्र विपिने किमर्थं गमनं तव ॥ ३३ ॥
हे कान्ते ! हे चंचल नयनोंवाली ! जब तुम्हारे ये कोमल तथा नग्न चरण कठोर भूमिपर पड़ते हैं तथा आगेकी ओर बढ़ते हैं, तब ये हमारे हृदयमें व्यथा उत्पन्न करते हैं । हे तन्वंगि ! तुम विमानपर चलनेयोग्य हो; तब तुम नंगे पाँव पैदल ही क्यों चल रही हो ? इस वनमें तुम्हारा भ्रमण क्यों हो रहा है ? ॥ ३२-३३ ॥

दासीशतसमायुक्ता कथं च त्वं विनिर्गता ।
राजपुत्र्यप्सरा वासि वद सत्यं वरानने ॥ ३४ ॥
तुम सैकड़ों दासियोंको साथ लेकर घरसे क्यों नहीं निकली ? हे वरानने ! तुम राजपुत्री हो अथवा अप्सरा हो, यह सच-सच बता दो ॥ ३४ ॥

धन्या माता यतो जाता धन्योऽसौ जनकस्तव ।
वक्तुं त्वां नैव शक्तौ च भर्तुर्भाग्यं तवानघे ॥ ३५ ॥
तुम्हारी माता धन्य हैं, जिनसे तुम उत्पन्न हुई हो । तुम्हारे वे पिता भी धन्य हैं । हे अनघे ! तुम्हारे पतिके भाग्यके विषयमें तो हम तुमसे कह ही नहीं सकते ॥ ३५ ॥

देवलिकाधिका भूमिरियं चैव सुलोचने ।
प्रचलंश्चरणस्तेऽद्य सम्पावयति भूतलम् ॥ ३६ ॥
हे सुलोचने ! यहाँकी भूमि देवलोकसे भी बढ़कर है । पृथ्वीतलपर पड़ता हुआ तुम्हारा चरण इसे पवित्र बना रहा है ॥ ३६ ॥

सौभाग्याश्च मृगाः कामं ये त्वां पश्यन्ति वै वने ।
ये चान्ये पक्षिणः सर्वे भूरियं चातिपावना ॥ ३७ ॥
इस वनमें रहनेवाले सभी मृग तथा दूसरे पक्षी जो तुम्हें देख रहे हैं, वे परम भाग्यशाली हैं । यह भूमि भी परम पवित्र हो गयी है ॥ ३७ ॥

स्तुत्यालं तव चात्यर्थं सत्यं ब्रूहि सुलोचने ।
पिता कस्ते पतिः क्वासौ द्रष्टुमिच्छास्ति सादरम् ॥ ३८ ॥
हे सुलोचने ! तुम्हारी अधिक प्रशंसा क्या करें ? अब तुम सत्य बता दो कि तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे पतिदेव कहाँ रहते हैं ? उन्हें आदरपूर्वक देखनेकी हमारी इच्छा है ॥ ३८ ॥

व्यास उवाच -
तयोरिति वचः श्रुत्वा राजकन्यातिसुन्दरी ।
तावुवाच त्रपाक्रान्ता देवपुत्री नृपात्मजा ॥ ३९ ॥
व्यासजी बोले-अश्विनीकुमारोंकी यह बात सुनकर परम सुन्दरी राजकुमारी सुकन्या अत्यन्त लज्जित हो गयी । देवकन्याके सदृश वह राजपुत्री उनसे कहने लगी- ॥ ३९ ॥

शर्यातितनयां मां वां वित्तं भार्यां मुनेरिह ।
च्यवनस्य सतीं कान्तां पित्रा दत्तां यदृच्छया ॥ ४० ॥
आपलोग मुझे राजा शांतिकी पुत्री तथा च्यवनमुनिको भार्या समझें । मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ । मेरे पिताजीने स्वेच्छासे मुझे इन्हें सौंप दिया है ॥ ४० ॥

पतिरन्धोऽस्ति मे देवौ वृद्धश्चातीव तापसः ।
तस्य सेवामहोरात्रं करोमि प्रीतिमानसा ॥ ४१ ॥
हे देवताओ ! मेरे पतिदेव वृद्ध तथा नेत्रहीन हैं । वे परम तपस्वी हैं । मैं प्रसन्न मनसे दिन-रात उनकी सेवा करती रहती हूँ ॥ ४१ ॥

कौ युवां किमिहायातौ पतिस्तिष्ठति चाश्रमे ।
तत्रागत्य प्रकुरुतमाश्रमं चाद्य पावनम् ॥ ४२ ॥
आप दोनों कौन हैं और यहाँ क्यों पधारे हुए हैं ? मेरे पतिदेव इस समय आश्रममें विराजमान हैं । आपलोग वहाँ चलकर आश्रमको पवित्र कीजिये ॥ ४२ ॥

तदाकर्ण्य वचो दस्रावूचतुस्तां नराधिप ।
कथं त्वमपि कल्याणि पिता दत्ता तपस्विने ॥ ४३ ॥
हे राजन् ! अश्विनीकुमारोंने सुकन्याकी बात सुनकर उससे कहा-हे कल्याणि ! तुम्हारे पिताने तुम्हें उन तपस्वीको कैसे सौंप दिया ? ॥ ४३ ॥

भ्राजसेऽस्मिन्वनोद्देशे विद्युत्सौदामिनी यथा ।
न देवेष्वपि तुल्या हि तव दृष्टास्ति भामिनि ॥ ४४ ॥
तुम तो बादलमें चमकनेवाली विद्युतकी भाँति इस वन-प्रदेशमें सुशोभित हो रही हो । हे भामिनि ! तुम्हारे सदृश स्त्री तो देवताओंके यहाँ भी नहीं देखी गयी है ॥ ४४ ॥

त्वं दिव्याम्बरयोग्यासि शोभसे नाजिनैर्वृता ।
सर्वाभरणसंयुक्ता नीलालकवरूथिनी ॥ ४५ ॥
काले केशपाशवाली तुम दिव्य वस्त्र तथा सर्वविध आभूषण धारण करनेके योग्य हो । इन वल्कल वस्त्रोंको धारण करके तुम शोभा नहीं पा रही हो ॥ ४५ ॥

अहो विधेर्दुष्कलितं विचेष्टितं
     यदत्र रम्भोरु वने विषीदसि ।
विशालनेत्रेऽन्धमिमं पतिं प्रिये
     मुनिं समासाद्य जरातुरं भृशम् ॥ ४६ ॥
हे रम्भोरु ! हे विशालनेत्रे ! हे प्रिये ! विधाताने यह कैसा मूर्खतापूर्ण कृत्य किया है, जो कि तुम वार्धक्यसे पीड़ित इस नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें प्राप्त करके इस वनमें महान् कष्ट भोग रही हो ! ॥ ४६ ॥

वृथा व्रतस्तेन भृशं न शोभसे
     नवं वयः प्राप्य सुनृत्यपण्डिते ।
मनोभवेनाशु शराः सुसन्धिताः
     पतन्ति कस्मिन्पतिरीदृशस्तव ॥ ४७ ॥
हे नृत्यविशारदे ! तुमने इन्हें व्यर्थ ही वरण किया । नवीन अवस्था प्राप्त करके तुम उनके साथ शोभा नहीं पा रही हो । भलीभाँति लक्ष्य साध करके कामदेवके द्वारा वेगपूर्वक छोड़े गये बाण किसपर गिरेंगे; तुम्हारे पति तो इस प्रकारके [असमर्थ] हैं ॥ ४७ ॥

त्वमन्धभार्या नवयौवनान्विता
     कृतासि धात्रा ननु मन्दबुद्धिना ।
न चैनमर्हस्यसितायतेक्षणे
     पतिं त्वमन्यं कुरु चारुलोचने ॥ ४८ ॥
विधाता निश्चय ही मन्द बुद्धिवाले हैं, जो उन्होंने नवयौवनसे सम्पन्न तुम्हें नेत्रहीनकी पत्नी बना दिया । हे विशाललोचने ! तुम इनके योग्य नहीं हो । अतः हे चारुलोचने ! तुम किसी दूसरेको अपना पति बना लो ॥ ४८ ॥

वृथैव ते जीवितमम्बुजेक्षणे
     पतिं च सम्प्राप्य मुनिं गतेक्षणम् ।
वने निवासं च तथाजिनाम्बर-
     प्रधारणं योग्यतरं न मन्महे ॥ ४९ ॥
हे कमललोचने ! ऐसे नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें पाकर तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो गया है । हमलोग इस तरहसे वनमें तुम्हारे निवास करने तथा वल्कलवस्त्र धारण करनेको उचित नहीं मानते हैं ॥ ४९ ॥

अतोऽनवद्याङ्ग्युभयोस्त्वमेकं
     वरं कुरुषावहिता सुलोचने ।
किं यौवनं मानिनि सङ्करोषि
     वृथा मुनिं सुन्दरि सेवमाना ॥ ५० ॥
अतः हे प्रशस्त अंगोंवाली ! तुम सम्यक् विचार करके हम दोनोंमेंसे किसी एकको अपना पति बना लो । हे सुलोचने ! हे मानिनि ! हे सुन्दरि ! तुम इस [अन्धे तथा बूढ़े] मुनिकी सेवा करती हुई अपने यौवनको व्यर्थ क्यों कर रही हो ? ॥ ५० ॥

किं सेवसे भाग्यविवर्जितं तं
     समुज्झितं पोषणरक्षणाभ्याम् ।
त्यक्त्वा मुनिं सर्वसुखापवर्जितं
     भजानवद्याङ्ग्युभयोस्त्वमेकम् ॥ ५१ ॥
भाग्यसे हीन तथा पोषण-भरण और रक्षाके सामर्थ्यसे रहित उस मुनिकी सेवा तुम क्यों कर रही हो ? हे निर्दोष अंगोंवाली ! सभी प्रकारके सुखोपभोगोंसे वंचित इस मुनिको छोड़कर तुम हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो ॥ ५१ ॥

त्वं नन्दने चैत्ररथे वने च
     कुरुष्व कान्ते प्रथितं विहारम् ।
अन्धेन वृद्धेन कथं हि कालं
     विनेष्यसे मानिनि मानहीनम् ॥ ५२ ॥
हे कान्ते ! हमें वरण करके तुम इन्द्रके नन्दनवनमें तथा कुबेरके चैत्ररथवनमें स्वेच्छापूर्वक विहार करो । हे मानिनि ! तुम इस अन्धे तथा वृद्धके साथ अपमानित होकर अपना जीवन कैसे बिताओगी ? ॥ ५२ ॥

भूपात्मजा त्वं शुभलक्षणा च
     जानासि संसारविहारभावम् ।
भाग्येन हीना विजने वनेऽत्र
     कालं कथं वाहयसे वृथा च ॥ ५३ ॥
तुम समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न एक राजकुमारी हो तथा सांसारिक हाव-भावोंको भलीभाँति जानती हो । अतः तुम भाग्यहीन स्त्रीकी भाँति इस निर्जन वनमें अपना समय व्यर्थ क्यों बिता रही हो ? ॥ ५३ ॥

तस्माद्‌भजस्व पिकभाषिणि चारुवक्त्रे
     एवं द्वयोस्तव सुखाय विशालनेत्रे ।
देवालयुषे च कृशोदरि भुङ्क्ष्व भोगान्
     त्यक्त्वा मुनिं जरठमाशु नृपेन्द्रपुत्रि ॥ ५४ ॥
अतः हे पिकभाषिणि ! हे सुमुखि ! हे विशालनेत्रे ! तुम अपने सुखके लिये हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो । कश कटि-प्रदेशवाली हे राजकुमारी ! तुम इस वृद्ध मुनिको शीघ्र छोड़कर हमारे साथ देवभवनोंमें चलकर नानाविध सुखोंका भोग करो ॥ ५४ ॥

किं ते सुखं चात्र वने सुकेशि
     वृद्धेन सार्धं विजने मृगाक्षि ।
सेवा तथान्धस्य नवं वयश्च
     किं ते मतं भूपतिपुत्रि दुःखम् ॥ ५५ ॥
हे सुन्दर केशोंवाली ! हे मृगनयनी ! इस निर्जन वनमें एक वृद्धके साथ रहते हुए तुम्हें कौन-सा सुख है ? एक तो तुम्हारी यह नयी युवावस्था और उसपर भी एक अन्धेकी सेवा तुम्हें करनी पड़ रही है । हे राजकुमारी ! क्या दुःख भोगना ही तुम्हारा अभीष्ट है ? ॥ ५५ ॥

शशिमुखि त्वमतीव सुकोमला
     फलजलाहरणं तव नोचितम् ॥ ५६ ॥
हे चन्द्रमुखी ! तुम अत्यन्त कोमल हो, अत: [वनसे] तुम्हारा इस प्रकार फल तथा जल ले आना कदापि उचित नहीं है ॥ ५६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे अश्विनीकुमारयोः सुकन्यां
प्रति बोधवचनवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अध्याय चौथा समाप्त ॥ ४ ॥


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