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अश्विनीकुमारयोः सुकन्यां प्रति बोधवचनवर्णनम् -
सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन -
व्यास उवाच - गते राजनि सा बाला पतिसेवापरायणा । बभूव च तथाग्नीनां सेवने धर्मतत्परा ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] राजा शर्यातिके चले जानेपर सुकन्या अपने पति च्यवनमुनिकी सेवामें संलग्न हो गयी । धर्मपरायण वह उस आश्रममें अग्नियोंकी सेवा में सदा निरत रहने लगी ॥ १ ॥
फलान्यादाय स्वादूनि मूलानि विविधानि च । ददौ सा मुनये बाला पतिसेवापरायणा ॥ २ ॥
सर्वदा पतिसेवामें संलग्न रहनेवाली वह बाला विविध प्रकारके स्वादिष्ट फल तथा कन्द-मूल लाकर मुनिको अर्पण करती थी ॥ २ ॥
वह [शीतकालमें] ऊष्ण जलसे उन्हें शीघ्रतापूर्वक स्नान करानेके पश्चात् मृगचर्म पहनाकर पवित्र आसनपर विराजमान कर देती थी । पुन: उनके आगे तिल, जौ, कुशा और कमण्डलु रखकर उनसे कहती थी-मुनिश्रेष्ठ ! अब आप अपना नित्यकर्म करें ॥ ३-४ ॥
तमुत्थाप्य करे कृत्वा समाप्ते नित्यकर्मणि । बृस्यां वा संस्तरे बाला भर्तारं संन्यवेशयत् ॥ ५ ॥
मुनिका नित्यकर्म समाप्त हो जानेपर वह सुकन्या पतिका हाथ पकड़कर उठाती और पुनः किसी आसन अथवा कोमल शय्यापर उन्हें बिठा देती थी ॥ ५ ॥
पश्चादानीय पक्वानि फलानि च नृपात्मजा । भोजयामास च्यवनं नीवारान्नं सुसंस्कृतम् ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् वह राजकुमारी पके हुए फल तथा भली-भाँति सिद्ध किये गये नीवारान्न (धान्यविशेष) च्यवन-मुनिको भोजन कराती थी ॥ ६ ॥
वह सुकन्या भोजन करके तृप्त हुए पतिको आदरपूर्वक आचमन करानेके पश्चात् बड़े प्रेमके साथ उन्हें ताम्बूल तथा पूगीफल प्रदान करती थी ॥ ७ ॥
गृहीतमुखवासं तं संवेश्य च शुभासने । गृहीत्वाऽऽज्ञां शरीरस्य चकार साधनं ततः ॥ ८ ॥
च्यवनमुनिके मुखशुद्धि कर लेनेपर सुकन्या उन्हें सुन्दर आसनपर बिठा देती थी । तत्पश्चात् उनसे आज्ञा लेकर वह अपने शरीर-सम्बन्धी कृत्य सम्पन्न करती थी ॥ ८ ॥
फलाहारं स्वयं कृत्वा पुनर्गत्वा च सन्निधौ । प्रोवाच प्रणयोपेता किमाज्ञापयसे प्रभो ॥ ९ ॥ पादसंवाहनं तेऽद्य करोमि यदि मन्यसे । एवं सेवापरा नित्यं बभूव पतितत्परा ॥ १० ॥
तत्पश्चात् स्वयं फलाहार करके वह पुनः मुनिके पास जाकर नम्रतापूर्वक उनसे कहती थी-'हे प्रभो ! मुझे क्या आज्ञा दे रहे हैं ? यदि आपकी सम्मति हो तो मैं अब आपके चरण दबाऊँ । ' इस प्रकार पतिपरायणा वह सुकन्या उनकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी ॥ ९-१० ॥
सायं होमावसाने सा फलान्याहृत्य सुन्दरी । अर्पयामास मुनये स्वादूनि च मृदूनि च ॥ ११ ॥ ततः शेषाणि बुभुजे प्रेमयुक्ता तदाज्ञया । सुस्पर्शास्तरणं कृत्वा शाययामास तं मुदा ॥ १२ ॥
सायंकालीन हवन समाप्त हो जानेपर वह सुन्दरी स्वादिष्ट तथा मधुर फल लाकर मुनिको अर्पित करती थी । पुनः उनकी आज्ञासे भोजनसे बचे हुए आहारको बड़े प्रेमके साथ स्वयं ग्रहण करती थी । इसके बाद अत्यन्त कोमल तथा सुन्दर आसन बिछाकर उन्हें प्रेमपूर्वक उसपर लिटा देती थी ॥ ११-१२ ॥
अपने प्रिय पतिके सुखपूर्वक शयन करनेपर वह सुन्दरी उनके पैर दबाने लगती थी । उस समय क्षीण कटि-प्रदेशवाली वह सुकन्या कुलीन स्त्रियोंके धर्मके विषयमें उनसे पूछा करती थीं ॥ १३ ॥
पादसंवाहनं कृत्वा निशि भक्तिपरायणा । निद्रितं च मुनिं ज्ञात्वा सुष्वाप चरणान्तिके ॥ १४ ॥
चरण दबा करके रातमें वह भक्तिपरायणा सुकन्या जब यह जान जाती थी कि च्यवनमुनि सो गये हैं, तब वह भी उनके चरणोंके पास ही सो जाती थी ॥ १४ ॥
ग्रीष्मकालमें अपने पति च्यवनमुनिको बैठा देखकर वह सुन्दरी सुकन्या ताड़के पंखेसे शीतल वायु करती हुई उनकी सेवामें तत्पर रहती थी । शीतकालमें सूखी लकड़ियाँ एकत्रकर उनके सम्मुख प्रज्वलित अग्नि रख करके वह उनसे बार-बार पूछा करती थी कि आप सुखपूर्वक तो हैं ? ॥ १५-१६ ॥
ब्राह्मे मुहूर्ते चोत्थाय जलं पात्रं च मृत्तिकाम् । समर्पयित्वा शौचार्थं समुत्थाप्य पतिं प्रिया ॥ १७ ॥ स्थानाद्दूरे च संस्थाप्य दूरं गत्वा स्थिराभवत् । कृतशौचं पतिं ज्ञात्वा गत्वा जग्राह तं पुनः ॥ १८ ॥ आनीयाश्रममव्यग्रा चोपवेश्यासने शुभे । मृज्जलाभ्यां च प्रक्षाल्य पादावस्य यथाविधि ॥ १९ ॥ दत्त्वाऽऽचमनपात्रं तु दन्तधावनमाहरत् । समर्प्य दन्तकाष्ठं च यथोक्तं नृपनन्दिनी ॥ २० ॥ चकारोष्णं जलं शुद्धं समानीतं सुपावनम् । स्नानार्थं जलमाहृत्य पप्रच्छ प्रणयान्विता ॥ २१ ॥ किमाज्ञापयसे ब्रह्मन् कृतं वै दन्तधावनम् । उष्णोदकं सुसम्पन्नं कुरु स्नानं समन्त्रकम् ॥ २२ ॥ वर्तते होमकालोऽयं सन्ध्या पूर्वा प्रवर्तते । विधिवद्हवनं कृत्वा देवतापूजनं कुरु ॥ २३ ॥
ब्राहामुहूर्तमें उठकर वह सुकन्या जल, पात्र तथा मिट्टी पतिके पास रखकर उन्हें शौचके लिये उठाती थी । इसके बाद उन्हें आश्रमसे कुछ दूर ले जाकर बैठा देनेके बाद वहाँसे स्वयं कुछ दूर हटकर बैठी रहती थी । 'मेरे पतिदेव शौच कर चुके होंगे'-ऐसा जानकर वह उनके पास जा करके उन्हें उठाती थी और आश्रममें ले आकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक एक सुन्दर आसनपर बिठा देती थी । तत्पश्चात् मिट्टी और जलसे विधिवत् उनके दोनों चरण धोकर फिर आचमनपात्र दे करके दन्तधावन (दातौन) ले आती थी । शास्त्रोक्त दातौन मुनिको देनेके बाद वह राजकुमारी मुनिके स्नानके लिये लाये गये शुद्ध तथा परम पवित्र जलको गरम करने लगती थी । तत्पश्चात् उस जलको ले आकर प्रेमपूर्वक उनसे पूछती थी-'हे ब्रह्मन् ! आप क्या आज्ञा दे रहे हैं ? आपने दन्तधावन तो कर लिया ? उष्ण जल तैयार है, अतः अब आप मन्त्रोच्चारपूर्वक स्नान कर लीजिये । हवन और प्रात:कालीन संध्याका समय उपस्थित है; आप विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके देवताओंका पूजन कीजिये' ॥ १७-२३ ॥
एवं कन्या पतिं लब्ध्वा तपस्विनमनिन्दिता । नित्यं पर्यचरत्प्रीत्या तपसा नियमेन च ॥ २४ ॥
इस प्रकार वह श्रेष्ठ सुकन्या तपस्वी पति प्राप्तकर तप तथा नियमके साथ प्रेमपूर्वक प्रतिदिन उनकी सेवा करती रहती थी ॥ २४ ॥
अग्नीनामतिथीनां च शुश्रूषां कुर्वती सदा । आराधयामास मुदा च्यवनं सा शुभानना ॥ २५ ॥
सुन्दर मुखवाली वह सुकन्या अग्नि तथा अतिथियोंकी सेवा करती हुई प्रसन्नतापूर्वक सदा च्यवनमुनिकी सेवामें तल्लीन रहती थी ॥ २५ ॥
हे वरारोहे ! थोड़ी देर ठहरो । हे गजगामिनि ! हम दोनों सूर्यदेवके पुत्र अश्विनीकुमार तुमसे कुछ पूछनेके लिये यहाँ आये हैं । हे शुचिस्मिते ! सच-सच बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो, तुम्हारे पति कौन हैं ? हे चारुलोचने ! इस सरोवरमें स्नान करनेके लिये तुम अकेली ही उद्यानमें क्यों आयी हुई हो ? ॥ २९-३० ॥
हे कान्ते ! हे चंचल नयनोंवाली ! जब तुम्हारे ये कोमल तथा नग्न चरण कठोर भूमिपर पड़ते हैं तथा आगेकी ओर बढ़ते हैं, तब ये हमारे हृदयमें व्यथा उत्पन्न करते हैं । हे तन्वंगि ! तुम विमानपर चलनेयोग्य हो; तब तुम नंगे पाँव पैदल ही क्यों चल रही हो ? इस वनमें तुम्हारा भ्रमण क्यों हो रहा है ? ॥ ३२-३३ ॥
दासीशतसमायुक्ता कथं च त्वं विनिर्गता । राजपुत्र्यप्सरा वासि वद सत्यं वरानने ॥ ३४ ॥
तुम सैकड़ों दासियोंको साथ लेकर घरसे क्यों नहीं निकली ? हे वरानने ! तुम राजपुत्री हो अथवा अप्सरा हो, यह सच-सच बता दो ॥ ३४ ॥
धन्या माता यतो जाता धन्योऽसौ जनकस्तव । वक्तुं त्वां नैव शक्तौ च भर्तुर्भाग्यं तवानघे ॥ ३५ ॥
तुम्हारी माता धन्य हैं, जिनसे तुम उत्पन्न हुई हो । तुम्हारे वे पिता भी धन्य हैं । हे अनघे ! तुम्हारे पतिके भाग्यके विषयमें तो हम तुमसे कह ही नहीं सकते ॥ ३५ ॥
हे सुलोचने ! तुम्हारी अधिक प्रशंसा क्या करें ? अब तुम सत्य बता दो कि तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे पतिदेव कहाँ रहते हैं ? उन्हें आदरपूर्वक देखनेकी हमारी इच्छा है ॥ ३८ ॥
आप दोनों कौन हैं और यहाँ क्यों पधारे हुए हैं ? मेरे पतिदेव इस समय आश्रममें विराजमान हैं । आपलोग वहाँ चलकर आश्रमको पवित्र कीजिये ॥ ४२ ॥
तदाकर्ण्य वचो दस्रावूचतुस्तां नराधिप । कथं त्वमपि कल्याणि पिता दत्ता तपस्विने ॥ ४३ ॥
हे राजन् ! अश्विनीकुमारोंने सुकन्याकी बात सुनकर उससे कहा-हे कल्याणि ! तुम्हारे पिताने तुम्हें उन तपस्वीको कैसे सौंप दिया ? ॥ ४३ ॥
भ्राजसेऽस्मिन्वनोद्देशे विद्युत्सौदामिनी यथा । न देवेष्वपि तुल्या हि तव दृष्टास्ति भामिनि ॥ ४४ ॥
तुम तो बादलमें चमकनेवाली विद्युतकी भाँति इस वन-प्रदेशमें सुशोभित हो रही हो । हे भामिनि ! तुम्हारे सदृश स्त्री तो देवताओंके यहाँ भी नहीं देखी गयी है ॥ ४४ ॥
हे रम्भोरु ! हे विशालनेत्रे ! हे प्रिये ! विधाताने यह कैसा मूर्खतापूर्ण कृत्य किया है, जो कि तुम वार्धक्यसे पीड़ित इस नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें प्राप्त करके इस वनमें महान् कष्ट भोग रही हो ! ॥ ४६ ॥
हे नृत्यविशारदे ! तुमने इन्हें व्यर्थ ही वरण किया । नवीन अवस्था प्राप्त करके तुम उनके साथ शोभा नहीं पा रही हो । भलीभाँति लक्ष्य साध करके कामदेवके द्वारा वेगपूर्वक छोड़े गये बाण किसपर गिरेंगे; तुम्हारे पति तो इस प्रकारके [असमर्थ] हैं ॥ ४७ ॥
विधाता निश्चय ही मन्द बुद्धिवाले हैं, जो उन्होंने नवयौवनसे सम्पन्न तुम्हें नेत्रहीनकी पत्नी बना दिया । हे विशाललोचने ! तुम इनके योग्य नहीं हो । अतः हे चारुलोचने ! तुम किसी दूसरेको अपना पति बना लो ॥ ४८ ॥
वृथैव ते जीवितमम्बुजेक्षणे पतिं च सम्प्राप्य मुनिं गतेक्षणम् । वने निवासं च तथाजिनाम्बर- प्रधारणं योग्यतरं न मन्महे ॥ ४९ ॥
हे कमललोचने ! ऐसे नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें पाकर तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो गया है । हमलोग इस तरहसे वनमें तुम्हारे निवास करने तथा वल्कलवस्त्र धारण करनेको उचित नहीं मानते हैं ॥ ४९ ॥
अतः हे प्रशस्त अंगोंवाली ! तुम सम्यक् विचार करके हम दोनोंमेंसे किसी एकको अपना पति बना लो । हे सुलोचने ! हे मानिनि ! हे सुन्दरि ! तुम इस [अन्धे तथा बूढ़े] मुनिकी सेवा करती हुई अपने यौवनको व्यर्थ क्यों कर रही हो ? ॥ ५० ॥
भाग्यसे हीन तथा पोषण-भरण और रक्षाके सामर्थ्यसे रहित उस मुनिकी सेवा तुम क्यों कर रही हो ? हे निर्दोष अंगोंवाली ! सभी प्रकारके सुखोपभोगोंसे वंचित इस मुनिको छोड़कर तुम हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो ॥ ५१ ॥
त्वं नन्दने चैत्ररथे वने च कुरुष्व कान्ते प्रथितं विहारम् । अन्धेन वृद्धेन कथं हि कालं विनेष्यसे मानिनि मानहीनम् ॥ ५२ ॥
हे कान्ते ! हमें वरण करके तुम इन्द्रके नन्दनवनमें तथा कुबेरके चैत्ररथवनमें स्वेच्छापूर्वक विहार करो । हे मानिनि ! तुम इस अन्धे तथा वृद्धके साथ अपमानित होकर अपना जीवन कैसे बिताओगी ? ॥ ५२ ॥
भूपात्मजा त्वं शुभलक्षणा च जानासि संसारविहारभावम् । भाग्येन हीना विजने वनेऽत्र कालं कथं वाहयसे वृथा च ॥ ५३ ॥
तुम समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न एक राजकुमारी हो तथा सांसारिक हाव-भावोंको भलीभाँति जानती हो । अतः तुम भाग्यहीन स्त्रीकी भाँति इस निर्जन वनमें अपना समय व्यर्थ क्यों बिता रही हो ? ॥ ५३ ॥
तस्माद्भजस्व पिकभाषिणि चारुवक्त्रे एवं द्वयोस्तव सुखाय विशालनेत्रे । देवालयुषे च कृशोदरि भुङ्क्ष्व भोगान् त्यक्त्वा मुनिं जरठमाशु नृपेन्द्रपुत्रि ॥ ५४ ॥
अतः हे पिकभाषिणि ! हे सुमुखि ! हे विशालनेत्रे ! तुम अपने सुखके लिये हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो । कश कटि-प्रदेशवाली हे राजकुमारी ! तुम इस वृद्ध मुनिको शीघ्र छोड़कर हमारे साथ देवभवनोंमें चलकर नानाविध सुखोंका भोग करो ॥ ५४ ॥
किं ते सुखं चात्र वने सुकेशि वृद्धेन सार्धं विजने मृगाक्षि । सेवा तथान्धस्य नवं वयश्च किं ते मतं भूपतिपुत्रि दुःखम् ॥ ५५ ॥
हे सुन्दर केशोंवाली ! हे मृगनयनी ! इस निर्जन वनमें एक वृद्धके साथ रहते हुए तुम्हें कौन-सा सुख है ? एक तो तुम्हारी यह नयी युवावस्था और उसपर भी एक अन्धेकी सेवा तुम्हें करनी पड़ रही है । हे राजकुमारी ! क्या दुःख भोगना ही तुम्हारा अभीष्ट है ? ॥ ५५ ॥