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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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अश्विभ्यां च्यवनद्वारा सोमपानाय प्रतिज्ञावर्णनम् -
अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना -


व्यास उवाच -
तयोस्तद्‌भाषितं श्रुत्वा वेपमाना नृपात्मजा ।
धैर्यमालम्ब्य तौ तत्र बभाषे मितभाषिणी ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उन अश्विनीकुमारोंकी वह बात सुनकर मितभाषिणी राजपुत्री सुकन्या थर-थर काँपने लगी और धैर्य धारण करके उनसे बोली ॥ १ ॥

देवौ वां रविपुत्रौ च सर्वज्ञौ सुरसम्मतौ ।
सतीं मां धर्मशीलां च नैवं वदितुमर्हथः ॥ २ ॥
हे देवताओ ! आप दोनों सूर्यपुत्र हैं । आपलोग सर्वज्ञ तथा देवताओंमें सम्मान्य हैं । मुझ पतिव्रता तथा धर्मपरायणा स्त्रीके प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ २ ॥

पित्रा दत्ता सुरश्रेष्ठौ मुनये योगधर्मिणे ।
कथं गच्छामि तं मार्गं पुंश्चलीगणसेवितम् ॥ ३ ॥
हे सुरश्रेष्ठो ! मेरे पिताजीने मुझे इन्हीं योगपरायण मुनिको सौंप दिया है, तब मैं व्यभिचारिणी स्त्रियोंके द्वारा सेवित उस मार्गका अनुसरण कैसे करूँ ? ॥ ३ ॥

द्रष्टायं सर्वलोकस्य कर्मसाक्षी दिवाकरः ।
कश्यपाच्चैव सम्भूतो नैवं भाषितुमर्हथः ॥ ४ ॥
कश्यपसे उत्पन्न हुए भगवान् सूर्य समस्त प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं । ये सब कुछ देखते रहते हैं । [इन्हींके साक्षात् पुत्ररूप] आपलोगोंको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ ४ ॥

कुलकन्या पतिं त्यक्त्वा कथमन्यं भजेन्नरम् ।
असारेऽस्मिन्हि संसारे जानन्तौ धर्मनिर्णयम् ॥ ५ ॥
यथेच्छं गच्छतं देवौ शापं दास्यामि वानघौ ।
सुकन्याहं च शर्यातेः पतिभक्तिपरायणा ॥ ६ ॥
कोई भी कुलीन कन्या अपने पतिको छोड़कर किसी अन्य पुरुषको इस सारहीन जगत्में भला कैसे स्वीकार कर सकती है ? धर्मसिद्धान्तोंको जाननेवाले आप दोनों अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहें चले जाइये, अन्यथा हे निष्पाप देवताओ ! मैं आपलोंगोको शाप दे दूँगी; पतिकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाली मैं महाराज शर्यातिकी पुत्री सुकन्या हूँ ॥ ५-६ ॥

व्यास उवाच -
इत्याकर्ण्य वचस्तस्या नासत्यौ विस्मितौ भृशम् ।
तावब्रूतां पुनस्त्वेनां शङ्कमानौ भयं मुनेः ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सुकन्याकी यह बात सुनकर अश्विनीकुमार बहुत विस्मयमें पड़ गये । उसके बाद मुनि च्यवनके भयसे सशंकित उन दोनोंने सुकन्यासे कहा- ॥ ७ ॥

राजपुत्रि प्रसन्नौ ते धर्मेण वरवर्णिनि ।
वरं वरय सुश्रोणि दास्यावः श्रेयसे तव ॥ ८ ॥
सुन्दर अंगोंवाली हे राजपुत्रि ! तुम्हारे इस पतिधर्मसे हम दोनों परम प्रसन्न हैं । हे सुश्रोणि ! तुम वर माँगो, हम तुम्हारे कल्याणार्थ अवश्य देंगे ॥ ८ ॥

जानीहि प्रमदे नूनं आवां देवभिषग्वरौ ।
युवानं रूपसम्पन्नं प्रकुर्यावः पतिं तव ॥ ९ ॥
ततस्त्रयाणामस्माकं पतिमेकतमं वृणु ।
समानरूपदेहानां मध्ये चातुर्यपण्डिते ॥ १० ॥
हे प्रमदे ! तुम यह निश्चय जान लो कि हम देवताओंके श्रेष्ठ वैद्य हैं । हम [अपनी चिकित्सासे] तुम्हारे पतिको रूपवान् तथा युवा बना देंगे । हे चातुर्यपण्डिते ! जब हम ऐसा कर दें, तब तुम समानरूप और देहवाले हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना ॥ ९-१० ॥

सा तर्योवचनं श्रुत्वा विस्मिता स्वपतिं तदा ।
गत्वोवाच तयोर्वाक्यं ताभ्यामुक्तं यदद्‌भुतम् ॥ ११ ॥
तब उन दोनोंकी बात सुनकर सुकन्याको बड़ा आश्चर्य हुआ । अपने पतिके पास जाकर वह सुकन्या अश्विनीकुमारोंके द्वारा कही गयी वह अद्‌भुत बात उनसे कहने लगी ॥ ११ ॥

सुकन्योवाच -
स्वामिन् सूर्यसुतौ देवौ सम्प्राप्तौ च्यवनाश्रमे ।
दृष्टौ मया दिव्यदेहौ नासत्यौ भृगुनन्दन ॥ १२ ॥
सुकन्या बोली-हे स्वामिन् ! आपके आश्रममें सूर्यपुत्र दोनों अश्विनीकुमार आये हुए हैं । हे भृगुनन्दन ! दिव्य देहवाले उन देवताओंको मैंने स्वयं देखा है ॥ १२ ॥

वीक्ष्य मां चारुसर्वाङ्‍गीं जातौ कामातुरावुभौ ।
कथितं वचनं स्वामिन् पतिं ते नवयौवनम् ॥ १३ ॥
दिव्यदेहं करिष्यावश्चक्षुष्मन्तं मुनिं किल ।
एतेन समयेनाद्य तं शृणु त्वं मयोदितम् ॥ १४ ॥
समावयवरूपं च करिष्यावः पतिं तव ।
तत्र त्रयाणामस्माकं पतिमेकतमं वृणु ॥ १५ ॥
मुझ सर्वांगसुन्दरीको देखते ही वे दोनों कामासक्त हो गये । हे स्वामिन् ! उन्होंने मुझसे यह बात कही'हमलोग तुम्हारे पति इन च्यवनमुनिको निश्चय ही नवयौवनसे सम्पन्न, दिव्य शरीरवाला तथा नेत्रोंसे युक्त बना देंगे, इसमें यह एक शर्त है, उसे तुम मुझसे सुन लो । जब हम तुम्हारे पतिको अपने समान अंग तथा रूपवाला बना दें, तब तुम्हें हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना होगा' ॥ १३-१५ ॥

तच्छ्रुत्वाहमिहायाता प्रष्टुं त्वां कार्यमद्‌भुतम् ।
किं कर्तव्यमतः साधो ब्रूह्यस्मिन्कार्यसङ्कटे ॥ १६ ॥
देवमायापि दुर्ज्ञेया न जाने कपटं तयोः ।
यदाज्ञापय सर्वज्ञ तत्करोमि तवेप्सितम् ॥ १७ ॥
उनकी यह बात सुनकर आपसे इस अद्‌भुत कार्यके विषयमें पूछनेके लिये मैं यहाँ आयी हूँ । हे साधो ! अब आप मुझे बतायें कि इस संकटमय कार्यके आ जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? देवताओंकी माया बड़ी दुर्बोध होती है । उन दोनोंके इस छदाको मैं नहीं समझ पा रही हूँ । अत: हे सर्वज्ञ ! अब आप ही मुझे आदेश दीजिये, आपकी जो इच्छा होगी, मैं वही करूँगी ॥ १६-१७ ॥

च्यवन उवाच -
गच्छ कान्तेऽद्य नासत्यौ वचनान्मम सुव्रते ।
आनयस्व समीपं मे शीघ्रं देवभिषग्वरौ ॥ १८ ॥
क्रियतामाशु तद्वाक्यं नात्र कार्या विचारणा
च्यवन बोले-हे कान्ते ! हे सुव्रते ! मेरी आज्ञाके अनुसार तुम देवताओंके श्रेष्ठ चिकित्सक अश्विनी कुमारोंके समीप जाओ और उन्हें मेरे पास शीघ्र ले आओ । तुम उनकी शर्त तुरंत स्वीकार कर लो, इसमें किसी प्रकारका सोच-विचार नहीं करना चाहिये ॥ १८.५ ॥

व्यास उवाच -
एवं सा समनुज्ञाता तत्र गत्वा वचोऽब्रवीत् ॥ १९ ॥
क्रियतामाशु नासत्यौ समयेन सुरोत्तमौ ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार च्यवनमुनिकी आज्ञा पा जानेपर वह अश्विनीकुमारोंके पास जाकर उनसे बोली-हे देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमारो ! आपलोग प्रतिज्ञाके अनुसार शीघ्र ही कार्य करें । १९.५ ॥

तच्छ्रुत्वा चाश्विनौ वाक्यं तस्यास्तौ तत्र चागतौ ॥ २० ॥
ऊचतू राजपुत्रीं तां पतिस्तव विशत्वपः ।
रूपार्थं च्यवनस्तूर्णं ततोऽम्भः प्रविवेश ह ॥ २१ ॥
अश्विनावपि पश्चात्तत्प्रविष्टौ सर उत्तमम् ।
सुकन्याकी बात सुनकर वे अश्विनीकुमार वहाँ आये और राजकुमारीसे बोले-'तुम्हारे पति इस सरोवरमें प्रवेश करें । ' तब रूपप्राप्तिके लिये च्यवनमुनि शीघ्रतापूर्वक सरोवरमें प्रविष्ट हो गये । उनके बादमें दोनों अश्विनीकुमारोंने भी उस उत्तम सरोवरमें प्रवेश किया ॥ २०-२१.५ ॥

ततस्ते निःसृतास्तस्मात्सरसस्तत्क्षणात्त्रयः ।
तुल्यरूपा दिव्य देहा युवानः सदृशाः किल ।
दिव्यकुण्डलभूषाढ्याः समानावयवास्तथा ॥ २३ ॥
तदनन्तर वे तीनों तुरंत ही उस सरोवरसे बाहर निकल आये । उन तीनोंका शरीर दिव्य था, वे समान रूपवाले थे और एकसमान युवा बन गये थे । शरीरके सभी समान अंगोंवाले वे तीनों युवक दिव्य कुण्डलों तथा आभूषणोंसे सुशोभित थे ॥ २२-२३ ॥

तेऽब्रुवन्सहिताः सर्वे वृणीष्व वरवर्णिनि ।
अस्माकमीप्सितं भद्रे पतिं त्वममलानने ॥ २४ ॥
वे सभी एक साथ बोल उठे-'हे वरवणिनि ! हे भद्रे ! हे अमलानने ! हम लोगोंमें जिसे तुम चाहती हो, उसका पतिरूपमें वरण कर लो । हे वरानने ! जिसमें तुम्हारी सबसे अधिक प्रीति हो, उसे पतिरूपमें चुन लो ॥ २४ ॥

यस्मिन्वाप्यधिका प्रीतिस्तं वृणुष्व वरानने ।
व्यास उवाच -
सा दृष्ट्वा तुल्यरूपांस्तान्समानवयसस्तथा ॥ २५ ॥
एकस्वरांस्तुल्यवेषांस्त्रीन्वै देवसुतोपमान् ।
सा तु संशयमापन्ना वीक्ष्य तान्सदृशाकृतीन् ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-देवकमारोंके समान प्रतीत होनेवाले उन तीनोंको रूप, अवस्था, स्वर, वेषभूषा तथा आकृतिमें पूर्णतः एक-जैसा देखकर वह सुकन्या बड़े असमंजसमें पड़ गयी ॥ २५-२६ ॥

अजानन्ती पतिं सम्यग्व्याकुला समचिन्तयत् ।
किं करोमि त्रयस्तुल्याः कं वृणोमि न वेद्म्यहम् ॥ २७ ॥
पतिं देवसुता ह्येते संशये पतितास्म्यहम् ।
इन्द्रजालमिदं सम्यग्देवाभ्यामिह कल्पितम् ॥ २८ ॥
कर्तव्यं किं मया चात्र मरणं समुपागतम् ।
न मया पतिमुत्सृज्य वरणीयः कथञ्चन ॥ २९ ॥
वह अपने पति [च्यवनमुनि]-को ठीक-ठीक पहचान नहीं पा रही थी, अतः व्याकुल होकर सोचने लगी-मैं क्या करूँ ? ये तीनों देवकुमार एक-जैसे हैं । अतः मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि इनमेंसे मैं पतिरूपमें किसका वरण करूँ ? मैं तो बड़े संशयकी स्थितिमें पड़ गयी हूँ । दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों) ने यह विचित्र इन्द्रजाल यहाँ रच डाला है; इस स्थितिमें मुझे अब क्या करना चाहिये ? मेरे लिये तो यह मृत्यु ही उपस्थित हो गयी है । मैं अपने पतिको छोड़कर किसी दूसरेको कभी नहीं चुन सकती, चाहे वह कोई परम सुन्दर देवता ही क्यों न हो-यह मेरा दृढ विचार है ॥ २७-२९ ॥

देवस्त्वाधुनिकः कश्चिदित्येषा मम धारणा ।
इति सञ्चिन्त्य मनसा परां विश्वेश्वरीं शिवाम् ॥ ३० ॥
इस प्रकार मनमें भलीभाँति सोचकर क्षीण कटि-प्रदेशवाली वह सुकन्या कल्याणस्वरूपिणी पराम्बा भगवती भुवनेश्वरीके ध्यानमें लीन हो गयी और उनकी स्तुति करने लगी ॥ ३० ॥

दध्यौ भगवतीं देवीं तुष्टाव च कृशोदरी ।
सुकन्योवाच -
शरणं त्वां जगन्मातः प्राप्तास्मि भृशदुःखिता ॥ ३१ ॥
रक्ष मेऽद्य सतीधर्मं नमामि चरणौ तव ।
नमः पद्मोद्‌भवे देवि नमः शङ्करवल्लभे ॥ ३२ ॥
विष्णुप्रिये नमो लक्ष्मि वेदमातः सरस्वति ।
सुकन्या बोली-हे जगदम्बे ! मैं महान् कष्टसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आयी हूँ । आप मेरे पातिव्रत्य धर्मकी रक्षा करें; मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ । हे पद्मोद्‌भवे ! आपको नमस्कार है । हे शंकरप्रिये ! हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे विष्णुकी प्रिया लक्ष्मी ! हे वेदमाता सरस्वती ! आपको नमस्कार है ॥ ३१-३२.५ ॥

इदं जगत्त्वया सृष्टं सर्वं स्थावरजङ्गमम् ॥ ३३ ॥
पासि त्वमिदमव्यग्रा तथात्सि लोकशान्तये ।
आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्का सृजन किया है । आप ही सावधान होकर जगत्का पालन करती हैं और [प्रलयकालमें] लोक-शान्तिके लिये इसे अपनेमें लीन भी कर लेती हैं ॥ ३३ ॥

ब्रह्मविष्णुमहेशानां जननी त्वं सुसम्मता ॥ ३४ ॥
बुद्धिदासि त्वमज्ञानां ज्ञानिनां मोक्षदा सदा ।
आज्ञा त्वं प्रकृतिः पूर्णा पुरुषप्रियदर्शना ॥ ३५ ॥
भुक्तिमुक्तिप्रदासि त्वं प्राणिनां विशदात्मनाम् ।
अज्ञानां दुःखदा कामं सत्त्वानां सुखसाधना ॥ ३६ ॥
सिद्धिदा योगिनामम्ब जयदा कीर्तिदा पुनः ।
आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशकी सुसम्मत जननी हैं । आप अज्ञानियोंको बुद्धि तथा ज्ञानियोंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं । परम पुरुषके लिये प्रिय दर्शनवाली आप आज्ञामयी तथा पूर्ण प्रकृतिस्वरूपिणी हैं । आप श्रेष्ठ विचारवाले प्राणियोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं । आप ही अज्ञानियोंको दुःख देती हैं तथा सात्त्विक प्राणियोंके सुखका साधन भी आप ही हैं । हे माता ! आप ही योगिजनोंको सिद्धि, विजय तथा कीर्ति भी प्रदान करती हैं । ३४-३६.५ ॥

शरणं त्वां प्रपन्नास्मि विस्मयं परमं गता ॥ ३७ ॥
पतिं दर्शय मे मातर्मग्नास्मि शोकसागरे ।
देवाभ्यां चरितं कूटं कं वृणोमि विमोहिता ॥ ३८ ॥
पतिं दर्शय सर्वज्ञे विदित्वा मे सतीव्रतम् ।
हे माता ! महान् असमंजसमें पड़ी हुई मैं इस समय आपकी शरणमें आयी हैं । आप मेरे पतिको दिखानेकी कृपा करें । मैं इस समय शोक-सागरमें डूबी हुई हूँ; क्योंकि इन दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों)-ने अत्यन्त कपटपूर्ण चरित्र उपस्थित कर दिया है । मेरी बुद्धि तो कुण्ठित हो गयी है । मैं इनमें किसका वरण करूँ ? हे सर्वज्ञे ! मेरे पातिव्रत्यपर सम्यक् ध्यान देकर आप मेरे पतिका दर्शन करा दें ॥ ३७-३८.५ ॥

व्यास उवाच -
एवं स्तुता तदा देवा तथा त्रिपुरसुन्दरी ॥ ३९ ॥
हृदयेऽस्यास्तदा ज्ञानं ददावाशु सुखोदयम् ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार सुकन्याके स्तुति करनेपर भगवती त्रिपुरसुन्दरीने शीघ्र ही सुखका उदय करनेवाला ज्ञान उसके हृदयमें उत्पन्न कर दिया ॥ ३९.५ ॥

निश्चित्य मनसा तुल्यवयोरूपधरान्सती ॥ ४० ॥
प्रसमीक्ष्य तु तान् सर्वान्वव्रे बाला स्वकं पतिम् ।
तदनन्तर [अपने पतिको पा लेनेका] मनमें निश्चय करके साध्वी सुकन्याने समान रूप तथा अवस्थावाले उन तीनोंपर भलीभाँति दृष्टिपात करके अपने पतिका वरण कर लिया ॥ ४०.५ ॥

वृतेऽथ च्यवने देवौ सन्तुष्टौ तौ बभूवतुः ॥ ४१ ॥
सतीधर्मं समालोक्य सम्प्रीतौ ददतुर्वरम् ।
इस प्रकार सुकन्याके द्वारा च्यवनमुनिके वरण कर लिये जानेपर वे दोनों देवता परम सन्तुष्ट हुए और सुकन्याका सतीधर्म देखकर उन्होंने उसे अति प्रसन्नतापूर्वक वर प्रदान किया ॥ ४१.५ ॥

भगवत्याः प्रसादेन प्रसन्नौ तौ सुरौत्तमौ ॥ ४२ ॥
मुनिमामन्त्र्य तरसा गमनायोद्यतावुभौ ।
तत्पश्चात् भगवतीकी कृपासे प्रसन्नताको प्राप्त वे दोनों देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमार मुनिसे आज्ञा लेकर तुरंत वहाँसे प्रस्थान करनेको उद्यत हो गये ॥ ४२ ॥

लब्ध्वा तु च्यवनो रूपं नेत्रे भार्यां च यौवनम् ॥ ४३ ॥
हृष्टोऽब्रवीन्महातेजास्तौ नासत्याविदं वचः ।
उपकारः कृतोऽयं मे युवाभ्यां सुरसत्तमौ ॥ ४४ ॥
किं ब्रवीमि सुखं प्राप्तं संसारेऽस्मिन्ननुत्तमे ।
प्राप्य भार्यां सुकेशान्तां दुःखं मेऽभवदन्वहम् ॥ ४५ ॥
अन्धस्य चातिवृद्धस्य भोगहीनस्य कानने ।
सुन्दर रूप, नेत्र, यौवन तथा अपनी भार्याको पाकर च्यवनमुनि अत्यन्त हर्षित हुए । उन महातेजस्वी मुनिने अश्विनीकुमारोंसे यह वचन कहा-हे देववरो ! आप दोनोंने मेरा यह महान् उपकार किया है । क्या कहूँ, ऐसा हो जानेसे इस सुन्दर संसारमें अब मुझे परम सुख मिल गया है । इसके पूर्व मुझ अन्धे, अत्यन्त वृद्ध तथा भोग-सामर्थ्यसे हीन पुरुषको ऐसी सुन्दर केशपाशवाली भार्या पाकर भी इस वनमें सदा दु:ख-ही-दु:ख रहता था ॥ ४३-४५.५ ॥

युवाभ्यां नयने दत्ते यौवनं रूपमद्‌भुतम् ॥ ४६ ॥
सम्पादितं ततं किञ्चिदुपकर्तुमहं ब्रुवे ।
उपकारिणि मित्रे यो नोपकुर्यात्कथञ्चन ॥ ४७ ॥
तं धिगस्तु नरं देवौ भवेच्च ऋणवान्भुवि ।
आपलोगोंने मुझे नेत्र, युवावस्था तथा अद्‌भुत रूप प्रदान किया है, अत: मैं भी आपका कुछ उपकार करूँ: इसके लिये आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ । हे देवताओ ! जो मनुष्य उपकार करनेवाले मित्रका किसी प्रकारका उपकार नहीं करता, उस मनुष्यको धिक्कार है । ऐसा मनुष्य पृथ्वीलोकमें अपने उपकारी मित्रका ऋणी होता है ॥ ४६-४७.५ ॥

तस्माद्वां वाञ्छितं किञ्चिद्दातुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ ४८ ॥
आत्मनो ऋणमोक्षाय देवेशौ नूतनस्य च ।
प्रार्थितं वां प्रदास्यामि यदलभ्यं सुरासुरैः ॥ ४९ ॥
ब्रुवाथां वां मनोद्दिष्टं प्रीतोऽस्मि सुकृतेन वाम् ।
अतएव हे देवेश्वरो ! मुझे नूतन शरीर प्रदान करनेके आपके ऋणसे मुक्तिके लिये मैं इस समय आपकी कोई अभिलषित वस्तु आपको प्रदान करना चाहता हूँ । मैं आप दोनोंको वह अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा, जो देवताओं तथा दानवोंके लिये भी अलभ्य है । मैं आपलोगोंके इस उत्तम कार्यसे बहुत प्रसन्न हूँ; अब आपलोग अपना मनोरथ व्यक्त करें । ४८-४९.५ ॥

श्रुत्वा तौ तु मुनेर्वाक्यमभिमन्त्र्य परस्परम् ॥ ५० ॥
तमूचतुर्मुनिश्रेष्ठं सुकन्यासहितं स्थितम् ।
मुने पितुः प्रसादेन सर्वं नो मनसेप्सितम् ॥ ५१ ॥
उत्कण्ठा सोमपानस्य वर्तते नौ सुरैः सह ।
भिषजाविति देवेन निषिद्धौ चमसग्रहे ॥ ५२ ॥
शक्रेण वितते यज्ञे ब्रह्मणः कनकाचले ।
तस्मात्त्वमपि धर्मज्ञ यदि शक्तोऽसि तापस ॥ ५३ ॥
कार्यमेतद्धि कर्तव्यं वाञ्छितं नौ सुसम्मतम् ।
एतद्विज्ञाय वा ब्रह्मन्कुरु वां सोमपायिनौ ॥ ५४ ॥
पिपासास्ति सुदुष्प्रापपा त्वत्तः समुपयास्यति ।
च्यवनमुनिका वचन सुनकर परस्पर विचारविमर्श करके वे दोनों अश्विनीकुमार सुकन्याके साथ बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठसे कहने लगे हे मुने ! पिताजीकी कृपासे हमारा सारा मनोरथ पूर्ण हो चुका है, किंतु देवताओंके साथ सम्मिलित होकर सोमरस पीनेकी हमारी इच्छा शेष रह गयी है । एक बार सुमेरुपर्वतपर ब्रह्माजीके महायज्ञमें इन्द्रदेवने हम दोनोंको 'वैद्य' कहकर सोमपात्र ग्रहण करनेसे रोक दिया था । अतएव हे धर्मज्ञ ! हे तापस ! यदि आप समर्थ हों तो हमारा यह कार्य कर दीजिये । हे ब्रह्मन् ! हमारी इस प्रिय इच्छापर विचार करके आप हम दोनोंको सोमपानका अधिकारी बना दीजिये । सोमपानकी अभिलाषा हमारे लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है, वह आपसे शान्त हो जायगी ॥ ५०-५४.५ ॥

च्यवनस्तु तयोः प्राह तच्छ्रुत्वा वचनं मृदु ॥ ५५ ॥
यदहं रूपसम्पन्नो वयसा च समन्वितः ।
कृतो भवद्‌भ्यां वृद्धः सन्भार्यां च प्राप्तवानिति ॥ ५६ ॥
तस्माद्युवां करिष्यामि प्रीत्याहं सोमपायिनौ ।
मिषतो देवराजस्य सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ ५७ ॥
राज्ञस्तु वितते यज्ञे शर्यातेरमितद्युतेः ।
इत्याकर्ण्य वचो हृष्टौ तौ दिवं प्रतिजग्मतुः ॥ ५८ ॥
च्यवनस्तां गृहीत्वा तु जगामाश्रममण्डलम् ॥ ५९ ॥
उन दोनोंकी यह बात सुनकर च्यवनमुनिने मधुर वाणीमें कहा-आप दोनोंने मुझ वृद्धको रूपवान् तथा युवावस्थासे सम्पन्न बना दिया है और [आपके अनुग्रहसे] मैंने साध्वी भार्या भी प्राप्त कर ली है । अतः मैं अमित-तेजस्वी राजा शांतिके विशाल यज्ञमें देवराज इन्द्रके समक्ष ही आप दोनोंको प्रसन्नतापूर्वक सोमपानका अधिकारी बना दूंगा; मैं यह सत्य कह रहा हूँ । यह बात सुनकर अश्विनीकुमारोंने हर्षपूर्वक स्वर्गके लिये प्रस्थान किया और च्यवनमुनि भी सुकन्याको साथ लेकर अपने आश्रमपर चले गये । ५५-५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे अश्विभ्यां च्यवनद्वारा
सोमपानाय प्रतिज्ञावर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अध्याय पाँचवाँ समाप्त ॥ ५ ॥


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