अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना -
व्यास उवाच - तयोस्तद्भाषितं श्रुत्वा वेपमाना नृपात्मजा । धैर्यमालम्ब्य तौ तत्र बभाषे मितभाषिणी ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उन अश्विनीकुमारोंकी वह बात सुनकर मितभाषिणी राजपुत्री सुकन्या थर-थर काँपने लगी और धैर्य धारण करके उनसे बोली ॥ १ ॥
देवौ वां रविपुत्रौ च सर्वज्ञौ सुरसम्मतौ । सतीं मां धर्मशीलां च नैवं वदितुमर्हथः ॥ २ ॥
हे देवताओ ! आप दोनों सूर्यपुत्र हैं । आपलोग सर्वज्ञ तथा देवताओंमें सम्मान्य हैं । मुझ पतिव्रता तथा धर्मपरायणा स्त्रीके प्रति आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ २ ॥
पित्रा दत्ता सुरश्रेष्ठौ मुनये योगधर्मिणे । कथं गच्छामि तं मार्गं पुंश्चलीगणसेवितम् ॥ ३ ॥
हे सुरश्रेष्ठो ! मेरे पिताजीने मुझे इन्हीं योगपरायण मुनिको सौंप दिया है, तब मैं व्यभिचारिणी स्त्रियोंके द्वारा सेवित उस मार्गका अनुसरण कैसे करूँ ? ॥ ३ ॥
कश्यपसे उत्पन्न हुए भगवान् सूर्य समस्त प्राणियोंके कर्मोंके साक्षी हैं । ये सब कुछ देखते रहते हैं । [इन्हींके साक्षात् पुत्ररूप] आपलोगोंको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये ॥ ४ ॥
कुलकन्या पतिं त्यक्त्वा कथमन्यं भजेन्नरम् । असारेऽस्मिन्हि संसारे जानन्तौ धर्मनिर्णयम् ॥ ५ ॥ यथेच्छं गच्छतं देवौ शापं दास्यामि वानघौ । सुकन्याहं च शर्यातेः पतिभक्तिपरायणा ॥ ६ ॥
कोई भी कुलीन कन्या अपने पतिको छोड़कर किसी अन्य पुरुषको इस सारहीन जगत्में भला कैसे स्वीकार कर सकती है ? धर्मसिद्धान्तोंको जाननेवाले आप दोनों अपनी इच्छाके अनुसार जहाँ चाहें चले जाइये, अन्यथा हे निष्पाप देवताओ ! मैं आपलोंगोको शाप दे दूँगी; पतिकी भक्तिमें तत्पर रहनेवाली मैं महाराज शर्यातिकी पुत्री सुकन्या हूँ ॥ ५-६ ॥
व्यास उवाच - इत्याकर्ण्य वचस्तस्या नासत्यौ विस्मितौ भृशम् । तावब्रूतां पुनस्त्वेनां शङ्कमानौ भयं मुनेः ॥ ७ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सुकन्याकी यह बात सुनकर अश्विनीकुमार बहुत विस्मयमें पड़ गये । उसके बाद मुनि च्यवनके भयसे सशंकित उन दोनोंने सुकन्यासे कहा- ॥ ७ ॥
राजपुत्रि प्रसन्नौ ते धर्मेण वरवर्णिनि । वरं वरय सुश्रोणि दास्यावः श्रेयसे तव ॥ ८ ॥
सुन्दर अंगोंवाली हे राजपुत्रि ! तुम्हारे इस पतिधर्मसे हम दोनों परम प्रसन्न हैं । हे सुश्रोणि ! तुम वर माँगो, हम तुम्हारे कल्याणार्थ अवश्य देंगे ॥ ८ ॥
जानीहि प्रमदे नूनं आवां देवभिषग्वरौ । युवानं रूपसम्पन्नं प्रकुर्यावः पतिं तव ॥ ९ ॥ ततस्त्रयाणामस्माकं पतिमेकतमं वृणु । समानरूपदेहानां मध्ये चातुर्यपण्डिते ॥ १० ॥
हे प्रमदे ! तुम यह निश्चय जान लो कि हम देवताओंके श्रेष्ठ वैद्य हैं । हम [अपनी चिकित्सासे] तुम्हारे पतिको रूपवान् तथा युवा बना देंगे । हे चातुर्यपण्डिते ! जब हम ऐसा कर दें, तब तुम समानरूप और देहवाले हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना ॥ ९-१० ॥
तब उन दोनोंकी बात सुनकर सुकन्याको बड़ा आश्चर्य हुआ । अपने पतिके पास जाकर वह सुकन्या अश्विनीकुमारोंके द्वारा कही गयी वह अद्भुत बात उनसे कहने लगी ॥ ११ ॥
सुकन्या बोली-हे स्वामिन् ! आपके आश्रममें सूर्यपुत्र दोनों अश्विनीकुमार आये हुए हैं । हे भृगुनन्दन ! दिव्य देहवाले उन देवताओंको मैंने स्वयं देखा है ॥ १२ ॥
वीक्ष्य मां चारुसर्वाङ्गीं जातौ कामातुरावुभौ । कथितं वचनं स्वामिन् पतिं ते नवयौवनम् ॥ १३ ॥ दिव्यदेहं करिष्यावश्चक्षुष्मन्तं मुनिं किल । एतेन समयेनाद्य तं शृणु त्वं मयोदितम् ॥ १४ ॥ समावयवरूपं च करिष्यावः पतिं तव । तत्र त्रयाणामस्माकं पतिमेकतमं वृणु ॥ १५ ॥
मुझ सर्वांगसुन्दरीको देखते ही वे दोनों कामासक्त हो गये । हे स्वामिन् ! उन्होंने मुझसे यह बात कही'हमलोग तुम्हारे पति इन च्यवनमुनिको निश्चय ही नवयौवनसे सम्पन्न, दिव्य शरीरवाला तथा नेत्रोंसे युक्त बना देंगे, इसमें यह एक शर्त है, उसे तुम मुझसे सुन लो । जब हम तुम्हारे पतिको अपने समान अंग तथा रूपवाला बना दें, तब तुम्हें हम तीनोंमेंसे किसी एकको पति चुन लेना होगा' ॥ १३-१५ ॥
तच्छ्रुत्वाहमिहायाता प्रष्टुं त्वां कार्यमद्भुतम् । किं कर्तव्यमतः साधो ब्रूह्यस्मिन्कार्यसङ्कटे ॥ १६ ॥ देवमायापि दुर्ज्ञेया न जाने कपटं तयोः । यदाज्ञापय सर्वज्ञ तत्करोमि तवेप्सितम् ॥ १७ ॥
उनकी यह बात सुनकर आपसे इस अद्भुत कार्यके विषयमें पूछनेके लिये मैं यहाँ आयी हूँ । हे साधो ! अब आप मुझे बतायें कि इस संकटमय कार्यके आ जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? देवताओंकी माया बड़ी दुर्बोध होती है । उन दोनोंके इस छदाको मैं नहीं समझ पा रही हूँ । अत: हे सर्वज्ञ ! अब आप ही मुझे आदेश दीजिये, आपकी जो इच्छा होगी, मैं वही करूँगी ॥ १६-१७ ॥
च्यवन बोले-हे कान्ते ! हे सुव्रते ! मेरी आज्ञाके अनुसार तुम देवताओंके श्रेष्ठ चिकित्सक अश्विनी कुमारोंके समीप जाओ और उन्हें मेरे पास शीघ्र ले आओ । तुम उनकी शर्त तुरंत स्वीकार कर लो, इसमें किसी प्रकारका सोच-विचार नहीं करना चाहिये ॥ १८.५ ॥
व्यास उवाच - एवं सा समनुज्ञाता तत्र गत्वा वचोऽब्रवीत् ॥ १९ ॥ क्रियतामाशु नासत्यौ समयेन सुरोत्तमौ ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार च्यवनमुनिकी आज्ञा पा जानेपर वह अश्विनीकुमारोंके पास जाकर उनसे बोली-हे देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमारो ! आपलोग प्रतिज्ञाके अनुसार शीघ्र ही कार्य करें । १९.५ ॥
तच्छ्रुत्वा चाश्विनौ वाक्यं तस्यास्तौ तत्र चागतौ ॥ २० ॥ ऊचतू राजपुत्रीं तां पतिस्तव विशत्वपः । रूपार्थं च्यवनस्तूर्णं ततोऽम्भः प्रविवेश ह ॥ २१ ॥ अश्विनावपि पश्चात्तत्प्रविष्टौ सर उत्तमम् ।
सुकन्याकी बात सुनकर वे अश्विनीकुमार वहाँ आये और राजकुमारीसे बोले-'तुम्हारे पति इस सरोवरमें प्रवेश करें । ' तब रूपप्राप्तिके लिये च्यवनमुनि शीघ्रतापूर्वक सरोवरमें प्रविष्ट हो गये । उनके बादमें दोनों अश्विनीकुमारोंने भी उस उत्तम सरोवरमें प्रवेश किया ॥ २०-२१.५ ॥
तदनन्तर वे तीनों तुरंत ही उस सरोवरसे बाहर निकल आये । उन तीनोंका शरीर दिव्य था, वे समान रूपवाले थे और एकसमान युवा बन गये थे । शरीरके सभी समान अंगोंवाले वे तीनों युवक दिव्य कुण्डलों तथा आभूषणोंसे सुशोभित थे ॥ २२-२३ ॥
वे सभी एक साथ बोल उठे-'हे वरवणिनि ! हे भद्रे ! हे अमलानने ! हम लोगोंमें जिसे तुम चाहती हो, उसका पतिरूपमें वरण कर लो । हे वरानने ! जिसमें तुम्हारी सबसे अधिक प्रीति हो, उसे पतिरूपमें चुन लो ॥ २४ ॥
यस्मिन्वाप्यधिका प्रीतिस्तं वृणुष्व वरानने । व्यास उवाच - सा दृष्ट्वा तुल्यरूपांस्तान्समानवयसस्तथा ॥ २५ ॥ एकस्वरांस्तुल्यवेषांस्त्रीन्वै देवसुतोपमान् । सा तु संशयमापन्ना वीक्ष्य तान्सदृशाकृतीन् ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-देवकमारोंके समान प्रतीत होनेवाले उन तीनोंको रूप, अवस्था, स्वर, वेषभूषा तथा आकृतिमें पूर्णतः एक-जैसा देखकर वह सुकन्या बड़े असमंजसमें पड़ गयी ॥ २५-२६ ॥
अजानन्ती पतिं सम्यग्व्याकुला समचिन्तयत् । किं करोमि त्रयस्तुल्याः कं वृणोमि न वेद्म्यहम् ॥ २७ ॥ पतिं देवसुता ह्येते संशये पतितास्म्यहम् । इन्द्रजालमिदं सम्यग्देवाभ्यामिह कल्पितम् ॥ २८ ॥ कर्तव्यं किं मया चात्र मरणं समुपागतम् । न मया पतिमुत्सृज्य वरणीयः कथञ्चन ॥ २९ ॥
वह अपने पति [च्यवनमुनि]-को ठीक-ठीक पहचान नहीं पा रही थी, अतः व्याकुल होकर सोचने लगी-मैं क्या करूँ ? ये तीनों देवकुमार एक-जैसे हैं । अतः मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ कि इनमेंसे मैं पतिरूपमें किसका वरण करूँ ? मैं तो बड़े संशयकी स्थितिमें पड़ गयी हूँ । दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों) ने यह विचित्र इन्द्रजाल यहाँ रच डाला है; इस स्थितिमें मुझे अब क्या करना चाहिये ? मेरे लिये तो यह मृत्यु ही उपस्थित हो गयी है । मैं अपने पतिको छोड़कर किसी दूसरेको कभी नहीं चुन सकती, चाहे वह कोई परम सुन्दर देवता ही क्यों न हो-यह मेरा दृढ विचार है ॥ २७-२९ ॥
इस प्रकार मनमें भलीभाँति सोचकर क्षीण कटि-प्रदेशवाली वह सुकन्या कल्याणस्वरूपिणी पराम्बा भगवती भुवनेश्वरीके ध्यानमें लीन हो गयी और उनकी स्तुति करने लगी ॥ ३० ॥
सुकन्या बोली-हे जगदम्बे ! मैं महान् कष्टसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आयी हूँ । आप मेरे पातिव्रत्य धर्मकी रक्षा करें; मैं आपके चरणों में प्रणाम करती हूँ । हे पद्मोद्भवे ! आपको नमस्कार है । हे शंकरप्रिये ! हे देवि ! आपको नमस्कार है । हे विष्णुकी प्रिया लक्ष्मी ! हे वेदमाता सरस्वती ! आपको नमस्कार है ॥ ३१-३२.५ ॥
आपने ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत्का सृजन किया है । आप ही सावधान होकर जगत्का पालन करती हैं और [प्रलयकालमें] लोक-शान्तिके लिये इसे अपनेमें लीन भी कर लेती हैं ॥ ३३ ॥
आप ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशकी सुसम्मत जननी हैं । आप अज्ञानियोंको बुद्धि तथा ज्ञानियोंको सदा मोक्ष प्रदान करनेवाली हैं । परम पुरुषके लिये प्रिय दर्शनवाली आप आज्ञामयी तथा पूर्ण प्रकृतिस्वरूपिणी हैं । आप श्रेष्ठ विचारवाले प्राणियोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करती हैं । आप ही अज्ञानियोंको दुःख देती हैं तथा सात्त्विक प्राणियोंके सुखका साधन भी आप ही हैं । हे माता ! आप ही योगिजनोंको सिद्धि, विजय तथा कीर्ति भी प्रदान करती हैं । ३४-३६.५ ॥
हे माता ! महान् असमंजसमें पड़ी हुई मैं इस समय आपकी शरणमें आयी हैं । आप मेरे पतिको दिखानेकी कृपा करें । मैं इस समय शोक-सागरमें डूबी हुई हूँ; क्योंकि इन दोनों देवताओं (अश्विनीकुमारों)-ने अत्यन्त कपटपूर्ण चरित्र उपस्थित कर दिया है । मेरी बुद्धि तो कुण्ठित हो गयी है । मैं इनमें किसका वरण करूँ ? हे सर्वज्ञे ! मेरे पातिव्रत्यपर सम्यक् ध्यान देकर आप मेरे पतिका दर्शन करा दें ॥ ३७-३८.५ ॥
व्यास उवाच - एवं स्तुता तदा देवा तथा त्रिपुरसुन्दरी ॥ ३९ ॥ हृदयेऽस्यास्तदा ज्ञानं ददावाशु सुखोदयम् ।
व्यासजी बोले-इस प्रकार सुकन्याके स्तुति करनेपर भगवती त्रिपुरसुन्दरीने शीघ्र ही सुखका उदय करनेवाला ज्ञान उसके हृदयमें उत्पन्न कर दिया ॥ ३९.५ ॥
तदनन्तर [अपने पतिको पा लेनेका] मनमें निश्चय करके साध्वी सुकन्याने समान रूप तथा अवस्थावाले उन तीनोंपर भलीभाँति दृष्टिपात करके अपने पतिका वरण कर लिया ॥ ४०.५ ॥
इस प्रकार सुकन्याके द्वारा च्यवनमुनिके वरण कर लिये जानेपर वे दोनों देवता परम सन्तुष्ट हुए और सुकन्याका सतीधर्म देखकर उन्होंने उसे अति प्रसन्नतापूर्वक वर प्रदान किया ॥ ४१.५ ॥
सुन्दर रूप, नेत्र, यौवन तथा अपनी भार्याको पाकर च्यवनमुनि अत्यन्त हर्षित हुए । उन महातेजस्वी मुनिने अश्विनीकुमारोंसे यह वचन कहा-हे देववरो ! आप दोनोंने मेरा यह महान् उपकार किया है । क्या कहूँ, ऐसा हो जानेसे इस सुन्दर संसारमें अब मुझे परम सुख मिल गया है । इसके पूर्व मुझ अन्धे, अत्यन्त वृद्ध तथा भोग-सामर्थ्यसे हीन पुरुषको ऐसी सुन्दर केशपाशवाली भार्या पाकर भी इस वनमें सदा दु:ख-ही-दु:ख रहता था ॥ ४३-४५.५ ॥
आपलोगोंने मुझे नेत्र, युवावस्था तथा अद्भुत रूप प्रदान किया है, अत: मैं भी आपका कुछ उपकार करूँ: इसके लिये आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ । हे देवताओ ! जो मनुष्य उपकार करनेवाले मित्रका किसी प्रकारका उपकार नहीं करता, उस मनुष्यको धिक्कार है । ऐसा मनुष्य पृथ्वीलोकमें अपने उपकारी मित्रका ऋणी होता है ॥ ४६-४७.५ ॥
अतएव हे देवेश्वरो ! मुझे नूतन शरीर प्रदान करनेके आपके ऋणसे मुक्तिके लिये मैं इस समय आपकी कोई अभिलषित वस्तु आपको प्रदान करना चाहता हूँ । मैं आप दोनोंको वह अभीष्ट वस्तु प्रदान करूँगा, जो देवताओं तथा दानवोंके लिये भी अलभ्य है । मैं आपलोगोंके इस उत्तम कार्यसे बहुत प्रसन्न हूँ; अब आपलोग अपना मनोरथ व्यक्त करें । ४८-४९.५ ॥
च्यवनमुनिका वचन सुनकर परस्पर विचारविमर्श करके वे दोनों अश्विनीकुमार सुकन्याके साथ बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठसे कहने लगे हे मुने ! पिताजीकी कृपासे हमारा सारा मनोरथ पूर्ण हो चुका है, किंतु देवताओंके साथ सम्मिलित होकर सोमरस पीनेकी हमारी इच्छा शेष रह गयी है । एक बार सुमेरुपर्वतपर ब्रह्माजीके महायज्ञमें इन्द्रदेवने हम दोनोंको 'वैद्य' कहकर सोमपात्र ग्रहण करनेसे रोक दिया था । अतएव हे धर्मज्ञ ! हे तापस ! यदि आप समर्थ हों तो हमारा यह कार्य कर दीजिये । हे ब्रह्मन् ! हमारी इस प्रिय इच्छापर विचार करके आप हम दोनोंको सोमपानका अधिकारी बना दीजिये । सोमपानकी अभिलाषा हमारे लिये अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है, वह आपसे शान्त हो जायगी ॥ ५०-५४.५ ॥
उन दोनोंकी यह बात सुनकर च्यवनमुनिने मधुर वाणीमें कहा-आप दोनोंने मुझ वृद्धको रूपवान् तथा युवावस्थासे सम्पन्न बना दिया है और [आपके अनुग्रहसे] मैंने साध्वी भार्या भी प्राप्त कर ली है । अतः मैं अमित-तेजस्वी राजा शांतिके विशाल यज्ञमें देवराज इन्द्रके समक्ष ही आप दोनोंको प्रसन्नतापूर्वक सोमपानका अधिकारी बना दूंगा; मैं यह सत्य कह रहा हूँ । यह बात सुनकर अश्विनीकुमारोंने हर्षपूर्वक स्वर्गके लिये प्रस्थान किया और च्यवनमुनि भी सुकन्याको साथ लेकर अपने आश्रमपर चले गये । ५५-५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे अश्विभ्यां च्यवनद्वारा सोमपानाय प्रतिज्ञावर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥