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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
द्वाविंशोऽध्यायः

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हरिश्चन्द्रस्य पत्‍नीपुत्रविक्रयवर्णनम् -
राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना -


व्यास उवाच -
स तया नोद्यमानस्तु राजा पत्‍न्या पुनः पुनः ।
प्राह भद्रे करोम्येष विक्रयं ते सुनिर्घृणः ॥ १ ॥
नृशंसैरपि यत्कर्तुं न शक्यं तत्करोम्यहम् ।
यदि ते भ्राजते वाणी वक्तुमीदृक्सुनिष्ठुरम् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! अपनी धर्मपत्नीके द्वारा बार-बार प्रेरित किये जानेपर राजा हरिश्चन्द्रने कहा-हे भद्रे ! मैं अत्यन्त निष्ठुर होकर तुम्हारे विक्रयकी बात स्वीकार करता हूँ । यदि तुम्हारी वाणी ऐसा निष्ठुर वचन बोलनेके लिये तत्पर है तो जिस कामको महान्-से-महान् क्रूर भी नहीं कर सकते, उसे मैं करूँगा ॥ १-२ ॥

एवमुक्त्वा ततो राजा गत्वा नगरमातुरः ।
अवतार्य तदा रङ्गे तां भार्यां नृपसत्तमः ।
बाष्पगद्‍गदकण्ठस्तु ततो वचनमब्रवीत् ।
भो भो नागरिकाः सर्वे शृणुध्वं वचनं मम ॥ ४ ॥
कस्यचिद्यदि कार्यं स्याद्दास्या प्राणेष्टया मम ।
स ब्रवीतु त्वरायुक्तो यावत्स्वं धारयाम्यहम् ॥ ५ ॥
तेऽब्रुवन्पण्डिताः कस्त्वं पत्‍नीं विक्रेतुमागतः ।
ऐसा कहकर नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्र शीघ्रतापूर्वक नगरमें गये और वहाँ नाटक आदि दिखाये जानेवाले स्थानपर अपनी भार्याको प्रस्तुत करके आँसुओंसे ऊँधे हुए कण्ठसे उन्होंने कहा-हे नगरवासियो ! आपलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनिये । आपलोगोंमेंसे किसीको भी यदि मेरी इस प्राणप्रिया भार्यासे दासीका काम लेनेकी आवश्यकता हो तो वह शीघ्र बोले । मैं जितना धन चाहता हूँ, उतनेमें कोई भी इसे खरीद ले । इसपर वहाँ उपस्थित बहुतसे विद्वान् पुरुषोंने पूछा-'अपनी पत्नीका विक्रय करनेके लिये यहाँ आये हुए तुम कौन हो ?' ॥ ३-५.५ ॥

राजोवाच -
किं मां पृच्छथ कस्त्वं भो नृशंसोऽहममानुषः ॥ ६ ॥
राक्षसो वास्मि कठिनस्ततः पापं करोम्यहम् ।
राजा बोले-आपलोग मुझसे यह क्यों पूछते हैं-'तुम कौन हो ?' मैं मनुष्य नहीं, बल्कि महान् क्रूर हूँ, अथवा यह समझिये कि एक भयानक राक्षस हूँ, तभी तो ऐसा पाप कर रहा हूँ ॥ ६.५ ॥

व्यास उवाच -
तं शब्दं सहसा श्रुत्वा कौशिको विप्ररूपधृक् ॥ ७ ॥
वृद्धरूपं समास्थाय हरिश्चन्द्रमभाषत ।
समर्पयस्व मे दासीमहं क्रेता धनप्रदः ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-उस शब्दको सुनकर विश्वामित्र एक वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके राजा हरिश्चन्द्रके सामने अचानक आ गये और बोले-मैं धन देकर इस दासीको खरीदनेके लिये तत्पर हूँ, अतः इसे मुझे दे दीजिये ॥ ७-८ ॥

अस्ति मे वित्तमतुलं सुकुमारी च मे प्रिया ।
गृहकर्म न शक्नोति कर्तुमस्मात्प्रयच्छ मे ॥ ९ ॥
मेरे पास बहुत धन है । मेरी पत्नी बहुत ही सुकुमार है, इसलिये वह गृहकार्य नहीं कर पाती, अतः इसे आप मुझे दे दीजिये । मैं इस दासीको स्वीकार तो कर लूँगा, किंतु मुझे इसके बदले आपको धन कितना देना होगा ? ॥ ९ ॥

अहं गृह्णामि दासीं तु कति दास्यामि ते धनम् ।
एवमुक्ते तु विप्रेण हरिश्चन्द्रस्य भूपतेः ॥ १० ॥
ब्राह्मणके इस प्रकार कहनेपर राजा हरिश्चन्द्रका हृदय दुःखसे विदीर्ण हो गया और वे कुछ भी नहीं बोले ॥ १० ॥

विदीर्णं तु मनो दुःखान्न चैनं किञ्चिदब्रवीत् ।
विप्र उवाच -
कर्मणश्च वयोरूपशीलानां तव योषितः ॥ ११ ॥
अनुरूपमिदं वित्तं गृहाणार्पय मेऽबलाम् ।
धर्मशास्त्रेषु यद्‌ दृष्टं स्त्रियो मौल्यं नरस्य च ॥ १२ ॥
द्वात्रिंशल्लक्षणोपेता दक्षा शीलगुणान्विता ।
कोटिमौल्यं सुवर्णस्य स्त्रियः पुंसस्तथार्बुदम् ॥ १३ ॥
विप्रने कहा-आपकी भार्याक कर्म, आयु, रूप और स्वभावके अनुसार यह धन दे रहा हूँ, इसे स्वीकार कीजिये और स्त्री मुझे सौंप दें । धर्मशास्त्रोंमें स्त्री तथा पुरुषका जो मूल्य निर्दिष्ट है, वह इस प्रकार है-यदि स्त्री बत्तीसों लक्षणोंसे सम्पन्न, दक्ष, शीलवती और गुणोंसे युक्त हो तो उसका मूल्य एक करोड़ स्वर्णमुद्रा है और उसी प्रकारके पुरुषका मूल्य दस करोड़ स्वर्णमुद्रा होता है ॥ ११-१३ ॥

इत्याकर्ण वचस्तस्य हरिश्चन्द्रो महीपतिः ।
दुःखेन महताऽऽविष्टो न चैनं किञ्चिदब्रवीत् ॥ १४ ॥
उस ब्राहाणकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र महान् दुःखसे व्याकुल हो उठे और उनसे कुछ भी नहीं कह सके ॥ १४ ॥

ततः स विप्रो नृपतेः पुरतो वल्कलोपरि ।
धनं निधाय केशेषु धृत्वा राज्ञीमकर्षयत् ॥ १५ ॥
तत्पश्चात् उस ब्राह्मणने राजाके सामने वल्कलके ऊपर धन रखकर रानीके बालोंको पकड़कर उन्हें खींचना आरम्भ कर दिया ॥ १५ ॥

राज्ञ्युवाच -
मुञ्च मुञ्चार्य मां सद्यो यावत्पश्याम्यहं सुतम् ।
दुर्लभं दर्शनं विप्र पुनरस्य भविष्यति ॥ १६ ॥
रानीने कहा-हे आर्य ! जबतक मैं अपने पुत्रको भलीभाँति देख न लूँ तबतकके लिये आप मुझे छोड़ दीजिये, छोड़ दीजिये; क्योंकि हे विप्र ! फिरसे इस पुत्रका दर्शन तो दुर्लभ ही हो जायगा ॥ १६ ॥

पश्येह पुत्र मामेवं मातरं दास्यतां गताम् ।
मां मास्प्राक्षी राजपुत्र न स्पृश्याहं त्वयाधुना ॥ १७ ॥
[तत्पश्चात् रानीने कहा-] हे पुत्र ! अब दासी बनी हुई अपनी इस माँकी ओर देखो । हे राजपुत्र ! तुम मेरा स्पर्श मत करो; क्योंकि अब मैं तुम्हारे स्पर्शके योग्य नहीं रह गयी हूँ ॥ १७ ॥

ततः स बालः सहसा दृष्ट्वाऽऽकृष्टां तु मातरम् ।
समभ्यधावदम्बेति वदन्साश्रुविलोचनः ॥ १८ ॥
तदनन्तर [ब्राह्मणके द्वारा] खींची जाती हुई माताको सहसा देखकर उस बालकके नेत्रोंमें अश्रु भर आये और वह माँ-माँ' कहता हुआ उनकी ओर दौड़ा ॥ १८ ॥

हस्ते वस्त्रं समाकर्षन् काकपक्षधरः स्खलन् ।
तमागतं द्विजः क्रोधाद्‌ बालमप्याहनत्तदा ॥ १९ ॥
कौवेके पंखके समान केशवाला वह राजकुमार जब हाथसे माताका वस्त्र पकड़कर गिरते हुए साथ चलने लगा, तब वह ब्राह्मण उस आये हुए बालकको क्रोधपूर्वक मारने लगा, फिर भी उस बालकने 'माँमाँ' कहते हुए अपनी माताको नहीं छोड़ा ॥ १९ ॥

वदंस्तथापि सोऽम्बेति नैव मुञ्चति मातरम् ।
राज्ञ्युवाच -
प्रसादं कुरु मे नाथ क्रीणीष्वेमं हि बालकम् ॥ २० ॥
क्रीतापि नाहं भविता विनैनं कार्यसाधिका ।
इत्थं ममाल्पभाग्यायाः प्रसादं कुरु मे प्रभो ॥ २१ ॥
रानी बोलीं-हे नाथ ! मुझपर कृपा कीजिये और इस बालकको भी खरीद लीजिये । क्योंकि आपके द्वारा खरीदी गयी भी मैं इसके बिना आपका कार्य सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं रहूँगी । हे प्रभो ! मुझ मन्दभागिनीपर इस प्रकारकी कृपा आप अवश्य कीजिये ॥ २०-२१ ॥

ब्राह्मण उवाच -
गृह्यतां वित्तमेतत्ते दीयतां मम बालकः ।
स्त्रीपुंसोर्धर्मशास्त्रज्ञैः कृतमेव हि वेतनम् ॥ २२ ॥
शतं सहस्रं लक्षं च कोटिमौल्यं तथापरैः ।
द्वात्रिंशल्लक्षणोपेता दक्षा शीलगुणान्विता ॥ २३ ॥
ब्राह्मणने कहा-यह धन लीजिये और अपना पुत्र मुझे दे दीजिये । धर्मशास्त्रज्ञोंने स्त्री-पुरुषका मूल्य निर्धारित कर दिया है-जैसे सौ, हजार, लाख और करोड़ । उसी प्रकार अन्य विद्वानोंने शुभ लक्षणोंसे युक्त, कुशल तथा सुन्दर स्वभाववाली स्त्रीका मूल्य एक करोड़ तथा वैसे ही गुणोंवाले पुरुषका मूल्य दस करोड़ बताया है । २२-२३ ॥

कोटिमौल्यं स्त्रियः प्रोक्तं पुरुषस्य तथार्बुदम् ।
सूत उवाच -
तथैव तस्य तद्वित्तं पुरः क्षिप्तं पटे पुनः ॥ २४ ॥
प्रगृह्य बालकं मात्रा सहैकस्थमबन्धयत् ।
प्रतस्थे स गृहं क्षिप्रं तया सह मुदान्वितः ॥ २५ ॥
सूतजी बोले-तब ब्राह्मणने उसी प्रकार बालकका मूल्य भी सामने रखे हुए वस्त्रपर फेंक दिया और फिर बालकको पकड़कर उसे माताके साथ ही बन्धनमें बाँध दिया । इसके बाद वह ब्राह्मण उन्हें साथ लेकर हर्षपूर्वक शीघ्र ही अपने घरकी ओर चल दिया ॥ २४-२५ ॥

प्रदक्षिणां तु सा कृत्वा जानुभ्यां प्रणता स्थिता ।
बाष्पपर्याकुला दीना त्विदं वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥
यदि दत्तं यदि हुतं ब्राह्मणास्तर्पिता यदि ।
तेन पुण्येन मे भर्ता हरिश्चन्द्रोऽस्तु वै पुनः ॥ २७ ॥
उस समय अत्यन्त दयनीय अवस्थाको प्राप्त रानी राजा हरिश्चन्द्रकी प्रदक्षिणा करके दोनों घुटनोंके सहारे झुककर उन्हें प्रणामकर स्थित हो गयी और नेत्रोंमें आँसू भरकर यह वचन बोली-यदि मैंने दान दिया हो, हवन किया हो तथा ब्राह्मणोंको सन्तुष्ट किया हो तो उस पुण्यके प्रभावसे राजा हरिश्चन्द्र पुनः मुझे पतिरूपमें प्राप्त हो जायें ॥ २६-२७ ॥

पादयोः पतितां दृष्ट्वा प्राणेभ्योऽपि गरीयसीम् ।
हाहेति च वदन् राजा विललापाकुलेन्द्रियः ॥ २८ ॥
वियुक्तेयं कथं जाता सत्यशीलगुणान्विता ।
वृक्षच्छायापि वृक्षं तं न जहाति कदाचन ॥ २९ ॥
अपने प्राणसे भी बढ़कर प्रिय रानीको चरणोपर पड़ी हुई देखकर 'हाय, हाय'-ऐसा कहते हुए व्याकुल इन्द्रियोंवाले राजा हरिश्चन्द्र विलाप करने लगे । सत्य, शील और गुणोंसे सम्पन्न मेरी यह भार्या मुझसे अलग कैसे हो गयी ? वृक्षकी छाया भी उस वृक्षको कभी नहीं छोड़ती ॥ २८-२९ ॥

एवं भार्यां वदित्वाथ सुसम्बद्धं परस्परम् ।
पुत्रं च तमुवाचेदं मां त्वं हित्वा क्व यास्यसि ॥ ३० ॥
इस प्रकार परस्पर घनिष्ठता प्रकट करनेवाला यह वचन भार्यासे कहकर राजाने उस पुत्रसे ऐसा कहा-मुझे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे, फिर मैं किस दिशामें जाऊँगा और मेरा दुःख कौन दूर करेगा ? ॥ ३० ॥

कां दिशं प्रति यास्यामि को मे दुःखं निवारयेत् ।
राज्यत्यागे न मे दुःखं वनवासे न मे द्विज ॥ ३१ ॥
यत्पुत्रेण वियोगो मे एवमाह स भूपतिः ।
सद्‌भर्तृभोग्या हि सदा लोके भार्या भवन्ति हि ॥ ३२ ॥
मया त्यक्तासि कल्याणि दुःखेन विनियोजिता ।
हे द्विज ! राज्यका परित्याग करने और वनवास करनेमें मुझे वह दुःख नहीं होगा, जो पुत्रके वियोगसे हो रहा है-ऐसा उस राजाने कहा । [तत्पश्चात् रानीको लक्ष्य करके राजा कहने लगे-1 इस लोकमें पलियाँ सदा अपने उत्तम पतिके सहयोगहेतु होती हैं, फिर भी हे कल्याणि ! मैंने तुम्हारा परित्याग कर दिया है और तुम्हें दुःखी बना दिया है । ३१-३२.५ ॥

इक्ष्वाकुवंशसम्भूतं सर्वराज्यसुखोचितम् ॥ ३३ ॥
मामीदृशां पतिं प्राप्य दासीभावं गता ह्यसि ।
ईदृशे मज्जमानं मां सुमहच्छोकसागरे ॥ ३४ ॥
को मामुद्धरते देवि पौराणाख्यानविस्तरैः ।
इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न तथा राज्यके सम्पूर्ण सुखसुविधाओंसे सम्पन्न मुझ-जैसे पतिको पाकर भी तुम दासी बन गयी हो । हे देवि ! विस्तृत पौराणिक आख्यानोंके द्वारा इस महान् शोकरूपी सागरमें इब रहे मझ दीनका उद्धार अब कौन करेगा ? ॥ ३३-३४.५ ॥

सूत उवाच -
पश्यतस्तस्य राजर्षेः कशाघातैः सुदारुणैः ॥ ३५ ॥
घातयित्वा तु विप्रेशो नेतुं समुपचक्रमे ।
सूतजी बोले-तदनन्तर राजर्षि हरिश्चन्द्रके सामने ही कोड़ेसे निष्ठुरतापूर्वक पीटते हुए वह विप्र श्रेष्ठ उन्हें ले जानेका प्रयत्न करने लगा ॥ ३५.५ ॥

नीयमानौ तु तौ दृष्ट्वा भार्यापुत्रौ स पार्थिवः ॥ ३६ ॥
विललापातिदुःखार्तो निःश्वस्योष्णं पुनः पुनः ।
यां न वायुर्न वाऽऽदित्यो न चन्द्रो न पृथ्ग्जनाः ॥ ३७ ॥
दृष्टवन्तः पुरा पत्‍नीं सेयं दासीत्वमागता ।
सूर्यवंशप्रसूतोऽयं सुकुमारकराङ्गुलिः ॥ ३८ ॥
सम्प्राप्तो विक्रयं बालो धिङ्‌मामस्तु सुदुर्मतिम् ।
हा प्रिये हा शिशो वत्स ममानार्यस्य दुर्नयः ॥ ३९ ॥
दैवाधीनदशां प्राप्तो न मृतोऽस्मि तथापि धिक् ।
अपनी भार्या तथा पुत्रको ब्राहाणके द्वारा ले जाते हुए देखकर वे राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त दुःखसे व्याकुल होकर बार-बार उष्ण श्वास लेकर विलाप करने लगे-अबतक जिसे वायु, सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वीके लोग देख नहीं सके थे, वही मेरी यह भार्या आज दासी बन गयी ! हाथोंको कोमल अंगुलियोंवाला यह बालक, जो सूर्य-वंशमें उत्पन्न है, आज बिक गया । मुझ दुर्बुद्धिको धिक्कार है । हा प्रिये ! हा बालक ! हा वत्स ! मुझ अधमकी दुर्नीतिके कारण ही तुम सब इस दैवाधीन दशाको प्राप्त हुए हो, फिर भी मेरी मृत्यु नहीं हुई, अत: मुझे धिक्कार है ॥ ३६-३९.५ ॥

व्यास उवाच -
एवं विलपितो राज्ञोऽग्रे विप्रोऽन्तरधीयत ॥ ४० ॥
वृक्षगेहादिभिस्तुङ्गैस्तावादाय त्वरान्वितः ।
अत्रान्तरे मुनिश्रेष्ठस्त्वाजगाम महातपाः ॥ ४१ ॥
सशिष्यः कौशिकेन्द्रोऽसौ निष्ठुरः क्रूरदर्शनः ।
व्यासजी बोले-उन दोनोंको लेकर ऊँचेऊँचे वृक्ष, घर आदिको पार करते हुए वे ब्राह्मण इस तरह विलाप कर रहे राजाके सामनेसे शीघ्रतापूर्वक अन्तर्धान हो गये । इसी समय महान् तपस्वी मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र अपने शिष्यके साथ वहाँ आ पहुँचे; उस समय वे कौशिकेन्द्र अत्यन्त निष्ठुर तथा क्रूर दृष्टिगत हो रहे थे । ४०-४१.५ ॥

विश्वामित्र उवाच-
या त्वयोक्ता पुरा राजन् राजसूयस्य दक्षिणा ॥ ४२ ॥
तां ददस्व महाबाहो यदि सत्यं पुरस्कृतम् ।
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! हे महाबाहो ! यदि आपने सत्यको सदा स्वीकार किया है तो राजसूययज्ञकी जिस दक्षिणाका वचन आपने पहले दे रखा है, उसे अब दे दीजिये ॥ ४२.५ ॥

हरिश्चन्द्र उवाच -
नमस्करोमि राजर्षे गृहाणेमां स्वदक्षिणाम् ॥ ४३ ॥
राजसूयस्य यागस्य या मयोक्ता पुरानघ ।
हरिश्चन्द्र बोले-हे राजर्षे ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । हे अनघ ! राजसूययज्ञके अवसरपर पहले मैंने जिस दक्षिणाकी प्रतिज्ञा की थी, यह अपनी दक्षिणा आप ग्रहण कीजिये ॥ ४३.५ ॥

विश्वामित्र उवाच -
कुतो लब्धमिदं द्रव्यं दक्षिणार्थे प्रदीयते ॥ ४४ ॥
एतदाचक्ष्व राजेन्द्र यथा द्रव्यं त्वयार्जितम् ।
विश्वामित्र बोले-हे राजन् ! दक्षिणाके निमित्त जो यह धन आप दे रहे हैं, उसे आपने कहाँसे प्राप्त किया है ? आपने जिस तरहसे यह धन अर्जित किया है, उसे मुझे साफ-साफ बताइये ॥ ४४.५ ॥

राजोवाच -
किमनेन महाभाग कथितेन तवानघ ॥ ४५ ॥
शोकस्तु वर्धते विप्र श्रुतेनानेन सुव्रत ।
राजा बोले-हे महाभाग ! हे अनघ ! अब यह सब बतानेसे क्या प्रयोजन; क्योंकि उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे विप्र ! इसे सुननेसे आपका शोक ही बड़ेगा ॥ ४५.५ ॥

ऋषिरुवाच -
अशस्तं नैव गृह्णामि शस्तमेव प्रयच्छ मे ॥ ४६ ॥
द्रव्यस्यागमनं राजन् कथयस्व यथातथम् ।
ऋषि बोले-हे राजन् ! मैं दूषित धन कदापि ग्रहण नहीं करता, मुझे पवित्र धन दीजिये और जिस उपायसे द्रव्य प्राप्त हुआ हो, उसे यथार्थरूपसे बता दीजिये ॥ ४६.५ ॥

राजोवाच -
मया देवी तु सा भार्या विक्रीता कोटिसम्मितैः ॥ ४७ ॥
निष्कैः पुत्रो रोहिताख्यो विक्रीतोऽर्बुदसंख्यया ।
विप्रैकादशकोट्यस्त्वं सुवर्णस्य गृहाण मे ॥ ४८ ॥
राजा बोले-हे विप्र ! मैंने अपनी उस साध्वी भार्याको एक करोड़ स्वर्णमुद्रामें और अपने रोहित नामक पुत्रको दस करोड़ स्वर्णमुद्रामें बेच दिया है । हे विप्र ! इस प्रकार मेरे पास एकत्र इन ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राओंको आप स्वीकार करें । ४७-४८ ॥

सूत उवाच -
तद्वित्तं स्वप्लमालक्ष्य दारविक्रयसम्भवम् ।
शोकाभिभूतं राजानं कुपितः कौशिकोऽब्रवीत् ॥ ४९ ॥
सूतजी बोले-स्त्री और पुत्रको बेचनेपर प्राप्त हुए धनको अल्प समझकर विश्वामित्रने क्रोधित होकर शोकग्रस्त राजा हरिश्चन्द्रसे कहा- ॥ ४९ ॥

ऋषिरुवाच -
राजसूयस्य यज्ञस्य नैषा भवति दक्षिणा ।
अन्यदुत्पादय क्षिप्रं सम्पूर्णा येन सा भवेत् ॥ ५० ॥
क्षत्रबन्धो ममेमां त्वं सदृशीं यदि दक्षिणाम् ।
मन्यसे तर्हि तत्क्षिप्रं पश्य त्वं मे परं बलम् ॥ ५१ ॥
तपसोऽस्य सुतप्तस्य ब्राह्मणस्यामलस्य च ।
मत्प्रभावस्य चोग्रस्य शुद्धस्याध्ययनस्य च ॥ ५२ ॥
ऋषि बोले-राजसूययज्ञकी इतनी ही दक्षिणा नहीं होती, अतः शीघ्र ही और धनका उपार्जन कीजिये, जिससे वह दक्षिणा पूर्ण हो सके । क्षत्रियधर्मका पालन करनेसे विमुख हे राजन् ! यदि आप मेरी दक्षिणाको इतने द्रव्यके ही तुल्य मानते हैं तो फिर मेरे परम तेजको शीघ्र ही देख लीजिये । अत्यन्त पवित्र अन्त:करणवाले मुझ ब्राह्मणकी कठोर तपस्या तथा मेरे विशुद्ध अध्ययनके प्रभावको आप अभी देख लें ॥ ५०-५२ ॥

राजोवाच -
अन्यद्दास्यामि भगवन् कालः कश्चित्प्रतीक्ष्यताम् ।
अधुनैवास्ति विक्रीता पत्‍नी पुत्रश्च बालकः ॥ ५३ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! मैं इसके अतिरिक्त और भी दक्षिणा दूंगा, किंतु कुछ समयतक प्रतीक्षा कीजिये । अभी-अभी मैंने अपनी पत्नी तथा अबोध पुत्रको बेचा है ॥ ५३ ॥

विश्वामित्र उवाच -
चतुर्भागः स्थितो योऽयं दिवसस्य नराधिप ।
एष एव प्रतीक्ष्यो मे वक्तव्यं नोत्तरं त्वया ॥ ५४ ॥
विश्वामित्र बोले-हे नराधिप ! दिनका चौथा प्रहर उपस्थित है । यही प्रतीक्षाका अन्तिम समय है । इसके बाद फिर आप मुझसे कुछ न कहियेगा ॥ ५४ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे हरिश्चन्द्रस्य
पत्‍नीपुत्रविक्रयवर्णनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥
अध्याय बाइसवाँ समाप्त ॥ २२ ॥


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