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हरिश्चन्द्रचिन्तावर्णनम् -
चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना -
शौनक उवाच - ततः किमकरोद्राजा चाण्दालस्य गृहे गतः । तद् ब्रूहि सूतवर्य त्वं पृच्छतः सत्वरं हि मे ॥ १ ॥
शौनक बोले-हे श्रेष्ठ सूतजी ! चाण्डालके घर जाकर राजा हरिश्चन्द्रने क्या किया ? आप मेरे प्रश्नका उत्तर शीघ्र ही दीजिये ॥ १ ॥
सूत उवाच - विश्वामित्रे गते विप्रे श्वपचो हृष्टमानसः । विश्वामित्राय तद् द्रव्यं दत्त्वा बद्ध्वा नरेश्वरम् ॥ २ ॥ असत्यो यास्यसीत्युक्त्वा दण्डेनाताडयत्तदा । दण्डप्रहारसम्भ्रान्तमतीव व्याकुलेन्द्रियम् ॥ ३ ॥ इष्टबन्धुवियोगार्तमानीय निजपक्कणे । निगडे स्थापयित्वा तं स्वयं सुष्वाप विज्वरः ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-विश्वामित्रको वह दक्षिणाद्रव्य देकर चाण्डाल प्रसन्नचित्त हो गया । तत्पश्चात् विप्न विश्वामित्रके चले जानेपर वह चाण्डाल नरेशको बाँधकर 'तुम पुनः झूठ बोलोगे'-ऐसा कहकर उन्हें दण्डसे मारने लगा । दण्डके प्रहारसे घबड़ाये हुए तथा अत्यन्त व्याकुल इन्द्रियोंवाले और अपने इष्ट-मित्रोंके वियोगसे दुःखित उन हरिश्चन्द्रको अपने गृहमें लाकर तथा जंजीरमें बाँधकर वह चाण्डाल स्वयं निश्चिन्त होकर सो गया ॥ २-४ ॥
निगडस्थस्ततो राजा वसंश्चाण्डालपक्कणे । अन्नपाने परित्यज्य सदा वै तदशोचयत् ॥ ५ ॥ तन्वी दीनमुखी दृष्ट्वा बालं दीनमुखं पुरः । मां स्मरन्त्यसुखाविष्टा मोक्षयिष्यति नौ नृपः ॥ ६ ॥ उपात्तवित्तो विप्राय दत्त्वा वित्तं प्रतिश्रुतम् । रोदमानं सुतं वीक्ष्य मां च सम्बोधयिष्यति ॥ ७ ॥ तातपार्श्वं व्रजामीति रुदन्तं बालकं पुनः । तात तातेति भाषन्तं तथा सम्बोधयिष्यति ॥ ८ ॥ न सा मां मृगशावाक्षी वेत्ति चाण्डालतां गतम् ।
जंजीरमें जकड़े हुए वे राजा हरिश्चन्द्र चाण्डालके घरमें रहते हुए अन्न और जलका परित्याग करके निरन्तर मनमें यह सोचते रहते थे-'उदास मुखवाली मेरी दुर्बल स्त्री दीन मुखवाले बालकको सम्मुख देखकर असीम कष्टसे भर जाती होगी और मुझे याद करके सोचती होगी कि धन अर्जित करके प्रतिज्ञा की गयी दक्षिणा ब्राह्मणको देकर वे राजा हम दोनोंको बन्धनसे मुक्त कर देंगे । रोते हुए पुत्रको देखकर वह मुझे पुकारती होगी; पुनः 'हे तात ! हे तात !'-ऐसा कहते हुए तथा रोते हुए बालकसे कहती होगी कि मैं तुम्हारे पिताके पास तुम्हें ले चल रही हैं, किंतु वह मृगनयनी यह नहीं जानती कि मैं चाण्डालकी दासताको प्राप्त हो गया हूँ ॥ ५-८.५ ॥
राज्यनाशः सुहृत्त्यागो भार्यातनयविक्रयः ॥ ९ ॥ ततश्चाण्डालता चेयमहो दुःखपरम्परा । एवं स निवसन्नित्यं स्मरंश्च दयितां सुतम् ॥ १० ॥ निनाय दिवसान् राजा चतुरो विधिपीडितः । अथाह्नि पञ्चमे तेन निगडान्मोचितो नृपः ॥ ११ ॥ चाण्डालेनानुशिष्टश्च मृतचैलापहारणे । क्रुद्धेन परुषैर्वाक्यैर्निर्भत्स्य च पुनः पुनः ॥ १२ ॥ काश्याश्च दक्षिणे भागे श्मशानं विद्यते महत् । तद्रक्षस्व यथान्यायं न त्याज्यं तत्त्वया क्वचित् ॥ १३ ॥ इमं च जर्जरं दण्डं गृहीत्वा याहि मा चिरम् । वीरबाहोरयं दण्ड इति घोषस्व सर्वतः ॥ १४ ॥
राज्य नष्ट हो गया, इष्ट-मित्र अलग हो गये, स्त्री एवं पुत्र बिक गये, मुझे चाण्डालता स्वीकार करनी पड़ी । अहो ! यह विधिकी कैसी दुःख-परम्परा है । इस प्रकार चाण्डालके घर रहते हुए तथा निरन्तर स्त्री और पुत्रका स्मरण करते हुए दैवके विधानसे परम दुःखी उन नरेशने चार दिन व्यतीत किये । पाँचवें दिन चाण्डालने उन्हें बन्धनसे मुक्त किया । तत्पश्चात् चाण्डालने उन्हें [श्मशानपर] मृत व्यक्तियोंके वस्त्र लेनेकी आज्ञा दी । उस क्रोधी चाण्डालने अत्यन्त कठोर वचनोंका प्रयोग करके बार-बार डाँटते हुए हरिश्चन्द्रसे कहा-काशीके दक्षिणभागमें महान् श्मशान है । तुम न्यायपूर्वक उसकी रखवाली करो, तुम्हें कभी भी वहाँसे हटना नहीं चाहिये । इस जर्जर दण्डको लेकर तुम अभी वहाँ चले जाओ, विलम्ब मत करो । तुम भलीभाँति घोषित कर दो कि यह दण्ड वीरबाहुका है ॥ ९-१४ ॥
सूतजी बोले-[हे शौनक !] कुछ समयके अनन्तर राजा हरिश्चन्द्र उस चाण्डालके वशवर्ती होकर श्मशानमें मृतकोंके वस्त्र (कफन) ग्रहण करनेवाले हो गये ॥ १५ ॥
चाण्डालेनानुशिष्टस्तु मृतचैलापहारिणा । राजा तेन समादिष्टो जगाम शवमन्दिरम् ॥ १६ ॥
मृतकोंका वस्त्र लेनेवाले उस चाण्डालने राजाको आज्ञा प्रदान की, तब उससे आदेश पाकर वे श्मशानमें चले गये ॥ १६ ॥
पुर्यास्तु दक्षिणे देशे विद्यमानं भयानकम् । शवमाल्यसमाकीर्णं दुर्गन्धं बहुधूमकम् ॥ १७ ॥ श्मशानं घोरसन्नादं शिवाशतसमाकुलम् । गृद्ध्रगोमायुसंकीर्णं श्ववृन्दपरिवारितम् ॥ १८ ॥ अस्थिसङ्घातसङ्कीर्णं महादुर्गन्धसंकुलम् । अर्धदग्धशवास्यानि विकसद्दन्तपंक्तिभिः ॥ १९ ॥
वह भयानक श्मशान काशीपुरीके दक्षिण भागमें था । वहाँ शवकी मालाएँ बिखरी रहती थीं, वह दुर्गन्धयुक्त था तथा अत्यधिक धुएंसे भरा हुआ था । सर्वत्र भयंकर चीत्कार हो रहा था । सैकड़ों सियारिनोंसे व्याप्त था । गीधों और सियारोंसे सारा स्थान भरा था । वह श्मशान कुत्तोंसे सदा घिरा रहता था, चारों ओर हड़ियाँ बिखरी पड़ी थी, महान् दुर्गन्धसे भरा हुआ था, अधजले शवोंके मुख निकले हुए दाँतोंसे हँसतेजैसे दीख रहे थे । चिताके मध्य-स्थित शवकी ऐसी दशा थी ॥ १७-१९ ॥
हसन्तीवाग्निमध्यस्थकायस्यैवं व्यवस्थितिः । नानामृतसुहृन्नादं महाकोलाहलाकुलम् ॥ २० ॥ हा पुत्र मित्र हा बन्धो भ्रातर्वत्स प्रियाद्य मे । हाप्यते भागिनेयार्ह हा मातुल पितामह ॥ २१ ॥ मातामह पितः पौत्र क्व गतोऽस्येहि बान्धव । इति शब्दैः समाकीर्णं भैरवैः सर्वदेहिनाम् ॥ २२ ॥ ज्वलन्मांसवसामेदच्छूमिति ध्वनिसङ्कुलम् । अग्नेश्चटचटाशब्दो भैरवो यत्र जायते ॥ २३ ॥
मरे हुए लोगोंके अनेक सुहद्जनोंके रुदनकी ध्वनि तथा महान् कोलाहलसे वह स्थान व्याप्त था । 'हा मेरे पुत्र, मित्र, बन्धु, भ्राता, वत्स, प्रिया ! इस समय मुझे छोड़ रहे हैं । हा पूज्य भागिनेय, मातुल, पितामह, मातामह, पिता, पौत्र ! आप कहाँ चले गये हैं; हे बान्धव ! लौट आइये -इस प्रकार वहाँ उपस्थित सभी लोगोंके भीषण शब्दोंसे वह श्मशान व्याप्त था । जलते हुए मांस, वसा और मेदसे साँयसाँयकी ध्वनि निकलती थी । अग्निमेंसे चट-चटानेका जहाँ भयंकर शब्द होता रहता था, इस प्रकारका वह श्मशान अत्यन्त भीषण तथा प्रलयकालीन स्वरूपवाला था ॥ २०-२३ ॥
कल्पान्तसदृशाकारं श्मशानं तत्सुदारुणम् । स राजा तत्र सम्प्राप्तो दुःखादेवमशोचत ॥ २४ ॥ हा भृत्या मन्त्रिणो यूयं क्व तद्राज्यं कुलोचितम् । हा प्रिय पुत्र मे बाल मां त्यक्त्वा मन्दभाग्यकम् ॥ २५ ॥ ब्राह्मणस्य च कोपेन गता यूयं क्व दूरतः । विना धर्मं मनुष्याणां जायते न शुभं क्वचित् ॥ २६ ॥ यत्नतो धारयेत्तस्मात्पुरुषो धर्ममेव हि ।
वहाँ पहुँचकर राजा हरिश्चन्द्र दुःखपूर्वक इस प्रकार सोचने लगे-हाय, मेरे भृत्य तथा मन्त्रीगण ! तुम कहाँ हो ? कुल-परम्परासे प्राप्त मेरा राज्य कहाँ गया ? हे प्रिये ! हे अबोध पुत्र ! मुझ अभागेको छोड़कर ब्राह्मणके कोपसे तुमलोग दूर कहाँ चले गये ? धर्मके बिना मनुष्यका कभी कल्याण नहीं हो सकता । अतएव मनुष्यको चाहिये कि यलपूर्वक धर्मको धारण करे ॥ २४-२६.५ ॥
इत्येवं चिन्तयंस्तत्र चाण्डालोक्तं पुनः पुनः ॥ २७ ॥ मलेन दिग्धसर्वाङ्गः शवानां दर्शने व्रजन् । लकुटाकारकल्पश्च धावंश्चापि ततस्ततः ॥ २८ ॥ अस्मिञ्छव इदं मौल्यं शतं प्राप्स्यामि चाग्रतः । इदं मम इदं राज्ञ इदं चाण्डालकस्य च ॥ २९ ॥ इत्येवं चिन्तयन् राजा व्यवस्थां दुस्तरां गतः ।
इन बातों तथा चाण्डालके कहे हुए वचनोंको वे पुनः-पुनः सोचते रहते थे । मैलसे लिप्त शरीरवाले तथा लकड़ीके समान दुर्बल देहवाले वे राजा शवोंको देखनेके लिये जाते थे तथा इधर-उधर दौड़ते भी रहते थे । इस शवसे यह मूल्य मिला, पुनः दूसरेसे सौ मुद्रा मूल्य मिलेगा, यह मेरा है, यह राजाका और यह चाण्डालका-इस प्रकार सोचते हुए वे राजा महान् दुर्गतिको प्राप्त हुए ॥ २७-२९.५ ॥
जीर्णैकपटसुग्रन्थिकृतकन्थापरिग्रहः ॥ ३० ॥ चिताभस्मरजोलिप्तमुखबाहूदराङ्घ्रिकः । नानामेदोवसामज्जालिप्तपाण्यङ्गुलिः श्वसन् ॥ ३१ ॥ नानाशवौदनकृतक्षुन्निवृत्तिपरायणः । तदीयमाल्यसंश्लेषकृतमस्तकमण्डलः ॥ ३२ ॥ न रात्रौ न दिवा शेते हाहेति प्रवदन्मुहुः । एवं द्वादश मासास्तु नीता वर्षशतोपमाः ॥ ३३ ॥
उनके शरीरपर एक ही पुराना वस्त्र था, जिसमें बहुत-सी गाँठे लगी थीं । एकमात्र कन्था (गुदड़ी) ही उनके पास थी । उनके मुख, हाथ, उदर और पैर चिताकी राख एवं धूलसे धूसरित थे । हाथकी अँगुलियाँ तरह-तरहके मेद, वसा और मज्जासे सनी रहती थीं और वे दुर्गन्धयुक्त श्वास लेते रहते थे । शवोंके पिण्डदानार्थ जो भात बनता था, उससे वे अपनी भूख मिटाते थे । शवोंकी माला पहनकर अपने मस्तकको मण्डित किये रहते थे । 'हाय-हाय' ऐसा बार-बार कहते हुए न वे दिनमें सो पाते थे और न रातमें ही । इस प्रकार महाराज हरिश्चन्द्रने बारह महीने सौ वर्षके समान व्यतीत किये ॥ ३०-३३ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे हरिश्चन्द्रचिन्तावर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥