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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
पञ्चविंशोऽध्यायः

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चाण्डालाज्ञया हरिश्चन्द्रस्य खड्गग्रहणवर्णनम् -
सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना -


सूत उवाच -
एकदा तु गतो रन्तुं बालकैः सहितो बहिः ।
वाराणस्या नातिदूरे रोहिताख्यः कुमारकः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे शौनक !] एक समयकी बात है, वह रोहित नामक राजकुमार लड़कोंके साथ बाहर खेलनेके लिये वाराणसीके समीप चला गया ॥ १ ॥

क्रीडां कृत्वा ततो दर्भान् ग्रहीतुमुपचक्रमे ।
कोमलानल्पमूलांश्च साग्राञ्छक्त्यनुसारतः ॥ २ ॥
आर्यप्रीत्यर्थमित्युक्त्वा हस्तयुग्मेन यत्‍नतः ।
सलक्षणाश्च समिधो बर्हिरिध्मं सलक्षणम् ॥ ३ ॥
पलाशकाष्ठान्यादाय त्वग्निहोमार्थमादरात् ।
मस्तके भारकं कृत्वा खिद्यमानः पदे पदे ॥ ४ ॥
उदकस्थानमासाद्य तदा बालस्तृषान्वितः ।
भुवि भारं विनिक्षिप्य जलस्थाने तदा शिशुः ॥ ५ ॥
कामतः सलिलं पीत्वा विश्रम्य च मुहूर्तकम् ।
वल्मीकोपरि विन्यस्तभारो हर्तुं प्रचक्रमे ॥ ६ ॥
तत्पश्चात् वहाँपर वह खेलनेके बाद कुश उखाड़ने लगा । उसने अपनी शक्तिके अनुसार अल्प जड़वाले तथा अग्रभागसे युक्त बहुतसे कोमल कुश उखाड़े । इससे मेरे आर्य (स्वामी) प्रसन्न होंगे-ऐसा बोलते हुए वह बड़ी सावधानीसे दोनों हाथोंसे कुश उखाड़ता था । साथ ही वह उत्तम लक्षणोंवाली समिधाओं तथा ईधनहेतु श्रेष्ठ लकड़ियों और यज्ञहेतु कुशों तथा अग्निमें हवन करनेके लिये पलाशकाष्ठोंको आदरपूर्वक एकत्र करके सम्पूर्ण बोझ मस्तकपर रखकर दुःखित होता हुआ पैदल चलने लगा और वह बालक प्याससे व्याकुल हो गया । वह शिशु एक जलाशयके पास पहुँचकर बोझको जमीनपर रखकर जल-स्थानपर गया और इच्छानुसार जल पीकर मुहूर्तभर विश्राम करके वल्मीकके ढेरपर रखे उस बोझको उठाने लगा ॥ २-६ ॥

विश्वामित्राज्ञया तावत्कृष्णसर्पो भयावहः ।
महाविषो महाघोरो वल्मीकान्निर्गतस्तदा ॥ ७ ॥
उसी समय विश्वामित्रकी प्रेरणासे एक प्रचण्ड रूपवाला डरावना महाविषधर काला सर्प उस वल्मीकसे निकला ॥ ७ ॥

तेनासौ बालको दष्टस्तदैव च पपात ह ।
रोहिताख्यं मृतं दृष्ट्वा ययुर्बाला द्विजालयम् ॥ ८ ॥
त्वरिता भयसंविग्नाः प्रोचुस्तन्मातुरग्रतः ।
हे विप्रदासि ते पुत्रः क्रीडां कर्तुं बहिर्गतः ॥ ९ ॥
अस्माभिः सहितस्तत्र सर्पदष्टो मृतस्ततः ।
उस सर्पने बालक रोहितको डॅस लिया और वह उसी समय भूमिपर गिर पड़ा । रोहितको मृत देखकर भयसे व्याकुल सभी बालक शीघ्रतापूर्वक ब्राह्मणके घर गये और रोहितकी माताके सामने खड़े होकर कहने लगे-हे विप्रदासि ! आपका पुत्र हमलोगोंके साथ खेलनेके लिये बाहर गया हुआ था । वहाँ उसे साँपने काट लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी ॥ ८-९.५ ॥

इति सा तद्वचः श्रुत्वा वज्रपातोपमं तदा ॥ १० ॥
पपात मूर्च्छिता भूमौ छिन्नेव कदली यथा ।
वज्रपात-सदृश वह बात सुनकर रानी मूच्छित हो गयीं और जड़से कटे हुए केलेके वृक्षकी भौति वे भूमिपर गिर पड़ीं ॥ १०.५ ॥

अथ तां ब्राह्मणो रुष्टः पानीयेनाभ्यषिञ्चत ॥ ११ ॥
मुहूर्ताच्चेतनां प्राप्ता ब्राह्मणस्तामथाब्रवीत् ।
इससे ब्राह्मण कुपित हो गया और उनपर जलसे छींटे मारने लगा । थोड़ी देरमें उन्हें चेतना आ गयी, तब ब्राह्मण उनसे कहने लगा ॥ ११.५ ॥

ब्राह्मण उवाच -
अलक्ष्मीकारकं निन्द्यं जानती त्वं निशामुखे ॥ १२ ॥
रोदनं कुरुषे दुष्टे लज्जा ते हृदये न किम् ।
ब्राह्मण बोला-हे दुष्टे ! सायंकालके समय रोना निन्दनीय तथा दरिद्रता प्रदान करनेवाला होता है-ऐसा जानती हुई भी तुम इस समय रो रही हो । क्या तुम्हारे हृदयमें लज्जा नहीं है ? ॥ १२.५ ॥

ब्राह्मणेनैवमुक्ता सा न किञ्चिद्वाक्यमब्रवीत् ॥ १३ ॥
रुरोद करुणं दीना पुत्रशोकेन पीडिता ।
अश्रुपूर्णमुखी दीना धूसरा मुक्तमूर्धजा ॥ १४ ॥
ब्राह्मणके ऐसा कहनेपर वे कुछ भी नहीं बोलीं । पुत्र-शोकसे सन्तप्त तथा दीन होकर वे करुण क्रन्दन करने लगीं । उनका मुख आँसुओंसे भीग गया था, उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी, वे धूल-धूसरित हो गयी थीं तथा उनके सिरके केश अस्त-व्यस्त हो गये थे ॥ १३-१४ ॥

अथ तां कुपितो विप्रो राजपत्‍नीमभाषत ।
धिक्त्वां दुष्टे क्रयं गृह्य मम कार्यं विलुम्पसि ॥ १५ ॥
तब क्रोधमें आकर ब्राह्मणने उस रानीसे कहादुष्टे ! तुम्हें धिक्कार है; क्योंकि अपना मूल्य लेकर भी तुम मेरे कार्यकी उपेक्षा कर रही हो । यदि तुम काम करने में असमर्थ थी, तो मुझसे वह धन तुमने क्यों लिया ? ॥ १५ ॥

अशक्ता चेत्कथं तर्हि गृहीतं मम तद्धनम् ।
एवं निर्भर्त्सिता तेन क्रूरवाक्यैः पुनः पुनः ॥ १६ ॥
रुदिता कारणं प्राह विप्रं गद्‌गदया गिरा ।
स्वामिन् मम सुतो बालः सर्पदष्टो मृतो बहिः ॥ १७ ॥
अनुज्ञां मे प्रयच्छस्व द्रष्टुं यास्यामि बालकम् ।
दुर्लभं दर्शनं तेन सञ्जातं मम सुव्रत ॥ १८ ॥
इस प्रकार उस ब्राह्मणके द्वारा निष्ठुर वचनोंसे बार-बार फटकारनेपर रानीने रोते हुए गद्‌गद वाणीमें [अपने रुदनका] कारण बताते हुए कहा-हे स्वामिन् ! [क्रीडाहेतु] बाहर गये हुए मेरे पुत्रको सर्पने डंस लिया और वह मर गया । मैं उस बालकको देखने जाऊँगी । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये । हे सुव्रत ! अब मेरे लिये उस पुत्रका दर्शन दुर्लभ हो गया है ॥ १६-१८ ॥

इत्युक्त्वा करुणं बाला पुनरेव रुरोद ह ।
पुनस्तां कुपितो विप्रो राजपत्‍नीमभाषत ॥ १९ ॥
इस प्रकार करुणापूर्ण वचन कहकर रानी फिर रोने लगी, इसपर वह ब्राह्मण कुपित होकर उन राजमहिषीसे फिर कहने लगा ॥ १९ ॥

ब्राह्मण उवाच -
शठे दुष्टसमाचारे किं न जानासि पातकम् ।
यः स्वामिवेतनं गृह्य तस्य कार्यं विलुम्पति ॥ २० ॥
नरके पच्यते सोऽथ महारौरवपूर्वके ।
उषित्वा नरके कल्पं ततोऽसौ कुक्कुटो भवेत् ॥ २१ ॥
ब्राह्मण बोला-कुटिल व्यवहारवाली हे शठे ! क्या तुम्हें इस पापका ज्ञान नहीं है कि जो मनुष्य अपने स्वामीसे वेतन लेकर उसके कार्यकी उपेक्षा करता है, वह महारौरव नरकमें पड़ता है, एक कल्पतक नरकमें रहकर वह मुर्गेकी योनिमें जन्म लेता है । २०-२१ ॥

किमनेनाथवा कार्यं धर्मसंकीर्तनेन मे ।
यस्तु पापरतो मूर्खः क्रूरो नीचोऽनृतः शठः ॥ २२ ॥
तद्वाक्यं निष्फलं तस्मिन्भवेद्‌ बीजमिवोषरे ।
एहि ते विद्यते किञ्चित्परलोकभयं यदि ॥ २३ ॥
अथवा इस धार्मिक चर्चासे मेरा क्या प्रयोजन है; क्योंकि पापी, मूर्ख, क्रूर, नीच, मिथ्याभाषी एवं शठके प्रति वह वचन उसी प्रकार निष्फल होता है, जैसे ऊसरमें बोया गया बीज । अतः यदि तुम्हें परलोकका कुछ भी भय हो तो आओ, अपना कार्य करो ॥ २२-२३ ॥

एवमुक्ताथ सा विप्रं वेपमानाब्रवीद्वचः ।
कारुण्यं कुरु मे नाथ प्रसीद सुमुखो भव ॥ २४ ॥
प्रस्थापय मुहूर्तं मां यावद्‌ द्रक्ष्यामि बालकम् ।
उसके ऐसा कहनेपर [भयके कारण] थर-थर काँपती हुई रानी ब्राह्मणसे यह वचन बोलीं-हे नाथ ! मुझपर दया कीजिये, अनुग्रह कीजिये । प्रसन्नमुखवाले होइये । मुझे मुहूर्तभरके लिये वहाँ जाने दीजिये, जिससे मैं अपने पुत्रको देख सकूँ । २४.५ ॥

एवमुक्त्वाथ सा मूर्ध्ना निपत्य द्विजपादयोः ॥ २५ ॥
रुरोद करुणं बाला पुत्रशोकेन पीडिता ।
अथाह कुपितो विप्रः क्रोधसंरक्तलोचनः ॥ २६ ॥
ऐसा कहकर पुत्रशोकसे सन्तप्त वे रानी ब्राह्मणके चरणोंपर सिर रखकर करुण विलाप करने लगीं । इसपर क्रोधसे लाल नेत्रोंवाला वह ब्राह्मण कुपित होकर रानीसे कहने लगा ॥ २५-२६ ॥

विप्र उवाच -
किं ते पुत्रेण मे कार्यं गृहकर्म कुरुष्व मे ।
किं न जानासि मे क्रोधं कशाघातफलप्रदम् ॥ २७ ॥
विप्र बोला-तुम्हारे पुत्रसे मेरा क्या प्रयोजन, तुम मेरे घरका कार्य सम्पन्न करो । क्या तुम कोड़ेके प्रहारका फल देनेवाले मेरे क्रोधको नहीं जानती हो ? ॥ २७ ॥

एवमुक्ता स्थिता धैर्याद्‌ गृहकर्म चकार ह ।
अर्धरात्रो गतस्तस्याः पादाभ्यङ्गादिकर्मणा ॥ २८ ॥
इस प्रकार ब्राह्मणके कहनेपर रानी धैर्य धारण करके उसके घरका काम करनेमें संलग्न हो गयीं । इस तरह पैर दबाने आदि कार्य करते रहनेमें उनकी आधी रात बीत गयी ॥ २८ ॥

ब्राह्मणेनाथ सा प्रोक्ता पुत्रपार्श्वं व्रजाधुना ।
तस्य दाहादिकं कृत्वा पुनरागच्छ सत्वरम् ॥ २९ ॥
इसके बाद ब्राह्मणने उनसे कहा-अब तुम अपने पुत्रके पास जाओ और उसका दाह-संस्कार आदि सम्पन्न करके शीघ्र पुनः वापस आ जाना, जिससे मेरा प्रात:कालीन गृहकार्य बाधित न हो ॥ २९ ॥

न लुप्येत यथा प्रातर्गृहकर्म ममेति च ।
ततस्त्वेकाकिनी रात्रौ विलपन्ती जगाम ह ॥ ३० ॥
दृष्ट्वा मृतं निजं पुत्रं भृशं शोकेन पीडिता ।
यूथभ्रष्टा कुरङ्गीव विवत्सा सौरभी यथा ॥ ३१ ॥
तब रानी अकेली ही रातमें विलाप करती हुई गयीं और अपने पुत्रको मृत देखकर अत्यन्त शोकाकुल हो उठीं । उस समय वे झुण्डसे बिछड़ी हुई हिरनी अथवा बिना बछड़ेकी गायकी भाँति प्रतीत हो रही थीं ॥ ३०-३१ ॥

वाराणस्या बहिर्गत्वा क्षणाद्‌ दृष्ट्वा निजं सुतम् ।
शयानं रङ्कवद्‌भूमौ काष्ठदर्भतृणोपरि ॥ ३२ ॥
विललापातिदुःखार्ता शब्दं कृत्वा सुनिष्ठुरम् ।
एहि मे सम्मुखं कस्माद्‌रोषितोऽसि वदाधुना ॥ ३३ ॥
आयास्यभिमुखो नित्यमम्बेत्युक्त्वा पुनः पुनः ।
गत्वा स्खलत्पदा तस्य पपातोपरि मूर्छिता ॥ ३४ ॥
थोड़ी ही देरमें वाराणसीसे बाहर निकलनेपर काष्ठ, कुश और तृणके ऊपर अपने पुत्रको रंककी भाँति भूमिपर सोया हुआ देखकर वे दुःखसे अत्यन्त अधीर हो गयीं और अत्यन्त निष्ठुर शब्द करके विलाप करने लगीं-मेरे सामने आओ और बताओ कि तुम इस समय मुझसे क्यों रूठ गये हो ? पहले तुम बार-बार 'अम्बा'-ऐसा कहकर मेरे सामने नित्य आया करते थे । इसके बाद लड़खड़ाते हुए पैरोंसे कुछ दूर जाकर वे मूच्छित होकर उसके ऊपर गिर पड़ीं ॥ ३२-३४ ॥

पुनः सा चेतनां प्राप्य दोर्भ्यामालिङ्ग्य बालकम् ।
तन्मुखे वदनं न्यस्य रुरोदार्तस्वनैस्तदा ॥ ३५ ॥
कराभ्यां ताडनं चक्रे मस्तकस्योदरस्य च ।
हा बाल हा शिशो वत्स हा कुमारक सुन्दर ॥ ३६ ॥
हा राजन् क्व गतोऽसि त्वं पश्येमं बालकं निजम् ।
प्राणेभ्योऽपि गरीयांसं भूतले पतितं मृतम् ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् सचेत होनेपर बालकको दोनों हाथोंमें भरकर और उसके मुखसे अपना मुख लगाकर वे करुण स्वरमें रुदन करने लगीं और दोनों हाथोंसे अपना सिर तथा वक्षःस्थल पीटने लगी-[वे ऐसा कहकर रो रही थीं] हा पुत्र ! हा शिशो ! हा वत्स ! हा सुन्दर कुमार ! हा राजन् ! आप कहाँ चले गये ? मृत होकर भूमिपर पड़े हुए अपने प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय पुत्रको देख तो लीजिये ॥ ३५-३७ ॥

तथापश्यन्मुखं तस्य भूयो जीवितशङ्कया ।
निर्जीववदनं ज्ञात्वा मूर्छिता निपपात ह ॥ ३८ ॥
हस्तेन वदनं गृह्य पुनरेवमभाषत ।
शयनं त्यज हे बाल शीघ्रं जागृहि भीषणम् ॥ ३९ ॥
निशार्धं वर्धते चेदं शिवाशतनिनादितम् ।
भूतप्रेतपिशाचादिडाकिनीयूथनादितम् ॥ ४० ॥
मित्राणि ते गतान्यस्तात्त्वमेकस्तु कुतः स्थितः ।
तत्पश्चात् 'कहीं बालक जीवित तो नहीं है'इस शंकासे वे उसका मुख बार-बार निहारने लगी, किंतु मुखकी चेष्टासे उसे निष्प्राण जानकर पुनः मूच्छित होकर वे गिर पड़ीं । इसके बाद हाथमें बालकका मुख लेकर उन्होंने इस प्रकार कहा-हे पुत्र ! तुम इस भयंकर निद्राका त्याग करो और शीघ्र जागो ! आधी रातसे भी अधिक समय हो रहा है, सैकड़ों सियारिनें बोल रही हैं; भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदिके समूह ध्वनि कर रहे हैं । सूर्यास्त होते ही तुम्हारे सभी मित्र चले गये; केवल तुम्हीं यहाँ कैसे रह गये ? ॥ ३८-४०.५ ॥

सूत उवाच -
एवमुक्त्वा पुनस्तन्वी करुणं प्ररुरोद ह ॥ ४१ ॥
हा शिशो बाल हा वत्स रोहिताख्य कुमारक ।
रे पुत्र प्रतिशब्दं मे कस्मात्त्वं न प्रयच्छसि ॥ ४२ ॥
सूतजी बोले-ऐसा कहकर दुर्बल शरीरवाली रानी पुनः इस प्रकार करुण रुदन करने लगीं-'हा शिशो ! हा बालक ! हा वत्स ! हा रोहित नामवाले कुमार ! हे पुत्र ! तुम मेरी बातका उत्तर क्यों नहीं दे रहे हो ?' ॥ ४१-४२ ॥

तवाहं जननी वत्स किं न जानासि पश्य माम् ।
देशत्यागाद्‌राज्यनाशात्पुत्र भर्त्रा स्वविक्रयात् ॥ ४३ ॥
यद्दासीत्वाच्च जीवामि त्वां दृष्ट्वा पुत्र केवलम् ।
ते जन्मसमये विप्रैरादिष्टं यत्त्वनागतम् ॥ ४४ ॥
दीर्घायुः पृथिवीराजः पुत्रपौत्रसमन्वितः ।
शौर्यदानरतिः सत्त्वो गुरुदेवद्विजार्चकः ॥ ४५ ॥
मातापित्रोस्तु प्रियकृत्सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
इत्यादि सकलं जातमसत्यमधुना सुत ॥ ४६ ॥
हे वत्स ! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं तुम्हारी माता हूँ; मेरी ओर देखो । हे पुत्र ! मुझे अपना देश छोड़ना पड़ा, राज्यविहीन होना पड़ा और पतिके द्वारा बेच दिये जानेपर दासी बनना पड़ा, फिर भी हे पुत्र ! केवल तुम्हें देखकर जी रही हूँ । तुम्हारे जन्मके समय ब्राह्मणोंने भविष्यके सम्बन्धमें बताया था कि यह बालक दीर्घ आयुवाला, पृथ्वीका शासक, पुत्रपौत्रसे सम्पन्न, पराक्रम तथा दानके प्रति अनुराग रखनेवाला, बलवान्, ब्राह्मण-गुरु-देवताका उपासक, माता-पिताको प्रसन्न रखनेवाला, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होगा, किंतु हे पुत्र ! यह सब इस समय असत्य सिद्ध हो गया ॥ ४३-४६ ॥

चक्रमत्स्यावातपत्रश्रीवत्सस्वस्तिकध्वजाः ।
तव पाणितले पुत्र कलशश्चामरं तथा ॥ ४७ ॥
लक्षणानि तथान्यानि त्वद्धस्ते यानि सन्ति च ।
तानि सर्वाणि मोघानि सञ्जातान्यधुना सुत ॥ ४८ ॥
हे पुत्र ! तुम्हारी हथेलीमें चक्र, मत्स्य, छत्र, श्रीवत्स, स्वस्तिक, ध्वजा, कलश तथा चामर आदिके चिह्न और हे सुत ! अन्य जो भी शुभ लक्षण तुम्हारे हाथमें विद्यमान हैं, वे सब इस समय निष्फल हो गये हैं । ४७-४८ ॥

हा राजन्पृथिवीनाथ क्व ते राज्यं क्व मन्त्रिणः ।
क्व ते सिंहासनं छत्रं क्व ते खड्गः क्व तद्धनम् ॥ ४९ ॥
क्व सायोध्या क्व हर्म्याणि क्व गजाश्वरथप्रजाः ।
सर्वमेतत्तथा पुत्र मां त्यक्त्वा क्व गतोऽसि रे ॥ ५० ॥
हा राजन् ! हा पृथ्वीनाथ ! आपका राज्य, आपके मन्त्री, आपका सिंहासन, आपका छत्र, आपका खड्ग, आपका वह धन-वैभव, वह अयोध्या, राजमहल, हाथी, घोड़े, रथ और प्रजा-ये सब कहाँ चले गये ? हे पुत्र ! इन सबके साथ ही तुम भी मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ? ॥ ४९-५० ॥

हा कान्त हा नृपागच्छ पश्येमं स्वसुतं प्रियम् ।
येन ते रिङ्गता वक्षः कुंकुमेनावलेपितम् ॥ ५१ ॥
स्वशरीररजःपङ्कैर्विशालं मलिनीकृतम् ।
येन ते बालभावेन मृगनाभिविलेपितः ॥ ५२ ॥
भ्रंशितो भालतिलकस्तवाङ्कस्थेन भूपते ।
यस्य वक्त्रं मृदा लिप्तं स्नेहाद्वै चुम्बितं मया ॥ ५३ ॥
तन्मुखं मक्षिकालिङ्ग्यं पश्ये कीटैर्विदूषितम् ।
हा राजन् पश्य तं पुत्रं भुविस्थं रङ्कवन्मृतम् ॥ ५४ ॥
हा कान्त ! हा राजन् ! आइये, अपने इस प्रिय पुत्रको देख लीजिये, जो [खेलते-खेलते] आपके वक्षपर चढ़कर कुमकुमसे लिप्त उस विशाल वक्षको अपने शरीरमें लगे धूल तथा कीचड़से मलिन कर देता था, आपकी गोदमें बैठकर जो बालसुलभ स्वभावके कारण आपके ललाटपर लगे हुए कस्तूरीमिश्रित चन्दनके तिलकको मिटा देता था । हे भूपते ! जिसके मिट्टी लगे मुखको मैं स्नेहपूर्वक चूम लेती थी, उसी मुखको आज मैं देख रही हूँ कि कीड़ोंने उसे विकृत कर दिया है और उसपर मक्खियाँ बैठ रही हैं । हे राजन् ! अकिंचनकी भाँति पृथ्वीपर पड़े इस मृत पुत्रको देख लीजिये ॥ ५१-५४ ॥

हा देव किं मया कृत्यं कृतं पूर्वभवान्तरे ।
तस्य कर्मफलस्येह न पारमुपलक्षये ॥ ५५ ॥
हा दैव ! मैंने पूर्वजन्ममें कौन-सा कार्य कर दिया था कि उस कर्म-फलका अन्त मैं देख नहीं पा रही हूँ ! ॥ ५५ ॥

हा पुत्र हा शिशो वत्स का कुमारक सुन्दर ।
एवं तस्या विलापं ते श्रुत्वा नगरपालकाः ॥ ५६ ॥
'हा पुत्र ! हा शिशो ! हा वत्स ! हा सुन्दर कुमार !' उस रानीका ऐसा विलाप सुनकर नगरपालक जाग गये और वे अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर शीघ्र ही उनके पास पहुँचे ॥ ५६ ॥

जागृतास्त्वरितास्तस्याः पार्श्वमीयुः सुविस्मिताः ।
जना ऊचुः -
का त्वं बालस्य कस्यायं पतिस्ते कुत्र तिष्ठति ॥ ५७ ॥
एकैव निर्भया रात्रौ कस्मात्त्वमिह रोदिषि ।
जनोंने कहा-तुम कौन हो, यह बालक किसका है, तुम्हारे पति कहाँ हैं और रातमें निर्भय होकर तुम अकेली यहाँ किस कारणसे रो रही हो ? ॥ ५७.५ ॥

एवमुक्ताथ सा तन्वी न किञ्चिद्‌वाक्यमब्रवीत् ॥ ५८ ॥
भूयोऽपि पृष्टा सा तूष्णीं स्तब्धीभूता बभूव ह ।
विललापातिदुःखार्ता शोकाश्रुप्लुतलोचना ॥ ५९ ॥
उनके ऐसा कहनेपर उस कृशकाय रानीने कुछ भी बात नहीं कही । उनके पुनः पूछनेपर भी वे चुप रहीं और स्तब्ध-जैसी हो गयीं । वे अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगी और उनकी आँखोंसे शोकके आँसू निरन्तर निकलते रहे ॥ ५८-५९ ॥

अथ ते शङ्‌कितास्तस्यां रोमाञ्चिततनूरुहाः ।
संत्रस्ताः प्राहुरन्योन्यमुद्‌धृतायुधपाणयः ॥ ६० ॥
तब उनके मनमें रानीके प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया, उनके शरीरके रोंगटे खड़े हो गये और वे भयभीत हो उठे; तब हाथोंमें आयुध लिये हुए वे परस्पर कहने लगे- ॥ ६० ॥

नूनं स्त्री न भवत्येषा यतः किञ्चिन्न भाषते ।
तस्माद्वध्या भवेदेषा यत्‍नतो बालघातिनी ॥ ६१ ॥
शुभा चेत्तर्हि किं ह्यत्र निशार्धे तिष्ठते बहिः ।
भक्षार्थमनया नूनमानीतः कस्यचिच्छिशुः ॥ ६२ ॥
निश्चय ही यह स्त्री नहीं है । क्योंकि यह कुछ भी बोल नहीं रही है । यह बालकोंको मार डालनेवाली कोई राक्षसी है, अतः यत्नपूर्वक इसका वध कर देना चाहिये । यदि यह कोई उत्तम स्त्री होती तो इस अर्धरात्रिमें घरसे बाहर क्यों रहती ? यह निश्चितरूपसे किसीके शिशुको खानेके लिये यहाँ ले आयी है ॥ ६१-६२ ॥

इत्युक्त्वा तैर्गृहिता सा गाढं केशेषु सत्वरम् ।
भुजयोरपरैश्चैव कैश्चापि गलके तथा ॥ ६३ ॥
खेचरी यास्यतीत्युक्तं बहुभिः शस्त्रपाणिभिः ।
आकृष्य पक्कणे नीता चाण्डालाय समर्पिता ॥ ६४ ॥
हे चाण्डाल बहिर्दृष्टा ह्यस्माभिर्बालघातिनी ।
वध्यतां वध्यतामेष शीघ्रं नीत्वा बहिःस्थले ॥ ६५ ॥
ऐसा कहकर उनमें से कुछने शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक रानीके केश पकड़ लिये, कुछ अन्य व्यक्तियोंने उनकी दोनों भुजाएँ पकड़ ली और कुछने गर्दन पकड़ ली । 'यह खेचरी [कहीं] भाग जायगी'-ऐसा कहकर हाथोंमें शस्त्र धारण किये हुए बहुतसे पहरेदार रानीको घसीटते हुए चाण्डालके घर ले गये और उसे चाण्डालको सौंप दिया [और कहा]-हे चाण्डाल ! इस बालघातिनीको हमलोगोंने बाहर देखा । तुम बाहर किसी स्थानपर शीघ्र ही ले जाकर इसे मार डालो, मार डालो ॥ ६३-६५ ॥

चाण्डालः प्राह तां दृष्ट्वा ज्ञातेयं लोकविश्रुता ।
न दृष्टपूर्वा केनापि लोकडिम्भान्यनेकधा ॥ ६६ ॥
भक्षितान्यनया भूरि भवद्‌भिः पुण्यमार्जितम् ।
ख्यातिर्वः शाश्वती लोके गच्छध्वं च यथासुखम् ॥ ६७ ॥
रानीको देखकर चाण्डालने कहा-मैं इसे जानता हूँ; यह लोकमें प्रसिद्ध है । इसके पहले किसीने भी इसे देखा नहीं था । इसने अनेक बार लोगोंके बच्चोंका भक्षण कर लिया है । आपलोगोंने इसे पकड़कर महान् पुण्य अर्जित किया है । इससे आपलोगोंका यश जगत्में सर्वदा बना रहेगा । अब आपलोग यहाँसे सुखपूर्वक चले जाइये ॥ ६६-६७ ॥

द्विजस्त्रीबालगोघाती स्वर्णस्तेयी च यो नरः ।
अग्निदो वर्त्मघाती च मद्यपो गुरुतल्पगः ॥ ६८ ॥
महाजनविरोधी च तस्य पुण्यप्रदो वधः ।
द्विजस्यापि स्त्रियो वापि न दोषो विद्यते वधे ॥ ६९ ॥
अस्या वधश्च मे योग्य इत्युक्त्वा गाडबन्धनैः ।
बद्ध्वा केशेष्वथाकृष्य रज्जुभिस्तामताडयत् ॥ ७० ॥
हरिश्चन्द्रमथोवाच वाचा परुषया तदा ।
रे दास वध्यतामेषा दुष्टात्मा मा विचारय ॥ ७१ ॥
जो मनुष्य ब्राह्मण, स्त्री, बालक तथा गायका वध करता है; स्वर्णकी चोरी करता है; आग लगाता है; मार्गमें अवरोध उत्पन्न करता है; मदिरा-पान करता है । गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करता है और श्रेष्ठजनोंके साथ विरोध-भाव रखता है, उसका वध कर देनेसे पुण्य प्राप्त होता है । ऐसे कार्यमें तत्पर ब्राह्मणका अथवा स्त्रीका भी वध कर डालने में दोष नहीं लगता । अतः इसका वध मेरी दृष्टिमें उचित है- ऐसा कहकर चाण्डालने दृढ़ बन्धनोंसे बाँधकर और केश पकड़कर उन्हें रस्सियोंसे पीटा । इसके बाद उसने हरिश्चन्द्रको बुलाकर उनसे कठोर वाणीमें कहा- 'हे दास ! इस पापात्मा स्त्रीका तत्काल वध कर दो; इसमें सोच-विचार मत करो' ॥ ६८-७१ ॥

तद्वाक्यं भूपतिः श्रुत्वा वज्रपातोपमं तदा ।
वेपमानोऽथ चाण्डालं प्राह स्त्रीवधशङ्‌कितः ॥ ७२ ॥
न शक्तोऽहमिदं कर्तुं प्रेष्यं देहि ममापरम् ।
असाध्यमपि यत्कर्म तत्करिष्ये त्वयोदितम् ॥ ७३ ॥
वज्रपातके समान उस वचनको सुनकर स्त्रीवधकी आशंकासे राजा हरिश्चन्द्र थर-थर काँपते हुए उस चाण्डालसे बोले-मैं ऐसा करनेमें समर्थ नहीं है, अत: मुझे कोई दूसरा कार्य करनेकी आज्ञा दीजिये । इसके अतिरिक्त आप जो भी कठिन-सेकठिन कार्य करनेको कहेंगे, उसे मैं सम्पन्न कर दूंगा ॥ ७२-७३ ॥

श्रुत्वा तदुक्तं वचनं श्वपचो वाक्यमब्रवीत् ।
मा भैषीस्त्वं गृहाणासिं वधोऽस्याः पुण्यदो मतः ॥ ७४ ॥
बालानामेव भयदा नेयं रक्ष्या कदाचन ।
उनके द्वारा कही गयी यह बात सुनकर चाण्डालने यह वचन कहा-तुम बिलकुल मत डरो । तलवार उठाओ और इसका वध कर दो; क्योंकि ऐसी स्त्रीका वध अत्यन्त पुण्यदायक माना गया है । बालकोंको भय पहुँचानेवाली यह स्त्री कभी भी रक्षाके योग्य नहीं है ॥ ७४.५ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य राजा वचनमब्रवीत् ॥ ७५ ॥
स्त्रियो रक्ष्याः प्रयत्‍नेन न हन्तव्याः कदाचन ।
स्त्रीवधे कीर्तितः पापं मुनिभिर्धर्मतत्परैः ॥ ७६ ॥
पुरुषो यः स्त्रियं हन्याज्ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा ।
नरके पच्यते सोऽथ महारौरवपूर्वके ॥ ७७ ॥
चाण्डालकी वह बात सुनकर राजाने यह वचन कहा-जिस किसी भी उपायसे स्त्रियोंकी रक्षा करनी चाहिये, उनका वध कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि धर्मपरायण मुनियोंने स्त्रीवधको पाप बताया है । जो पुरुष जानकर अथवा अनजानमें भी स्त्रीकी हत्या करता है, वह महारौरव नरकमें गिरकर यातना भोगता है ॥ ७५-७७ ॥

चाण्डाल उवाच -
मा वदासिं गृहाणैनं तीक्ष्णं विद्युत्समप्रभम् ।
यत्रैकस्मिन्वधं नीते बहूनां तु सुखं भवेत् ॥ ७८ ॥
तस्य हिंसा कृतं नूनं बहुपुण्यप्रदा भवेत् ।
भक्षितान्यनया भूरि लोके डिम्भानि दुष्टया ॥ ७९ ॥
चाण्डाल बोला-'यह सब मत बोलो, विद्युत्के समान चमकनेवाली यह तीक्ष्ण तलवार उठा लो; क्योंकि यदि एकका वध कर देनेसे बहुत प्राणियोंको सुख हो तो उसकी की गयी हिंसा निश्चय ही पुण्यप्रद होती है । यह दुष्टा संसारमें बहुत-से बच्चोंको खा चुकी है, अतः शीघ्र ही इसका वध कर दो, जिससे लोक शान्तिमय हो जाय ॥ ७८-७९ ॥

तत्क्षिप्रं वध्यतामेषा लोकः स्वस्थो भविष्यति ।
राजोवाच -
चाण्डालाधिपते तीव्रं व्रतं स्त्रीवधवर्जनम् ॥ ८० ॥
आजन्मतस्ततो यत्‍नं न कुर्यां स्त्रीवधे तव ।
राजा बोले-हे चाण्डालराज ! मैंने आजीवन स्त्रीवध न करनेका कठोर व्रत ले रखा है, अतः मैं स्त्रीवधके लिये प्रयत्न नहीं कर सकता; अपितु आपका अन्य कोई कार्य सम्पन्न करूँगा ॥ ८०.५ ॥

चाण्डाल उवाच -
स्वामिकार्यं विना दुष्ट किं कार्यं विद्यतेऽपरम् ॥ ८१ ॥
गृहीत्वा वेतनं मेऽद्य कस्मात्कार्यं विलुम्पसि ।
यः स्वामिवेतनं गृह्य स्वामिकार्यं विलुम्पति ॥ ८२ ॥
नरकान्निष्कृतिस्तस्य नास्ति कल्पायुतैरपि ।
चाण्डाल बोला-अरे दुष्ट ! स्वामीके इस कार्यको छोड़कर तुम्हारे लिये दूसरा कौन-सा कार्य है ? वेतन लेकर मेरे कार्यकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो ? जो सेवक स्वामीसे वेतन लेकर उसके कार्यकी उपेक्षा करता है, उसका दस हजार कल्पोंतक नरकसे उद्धार नहीं होता ॥ ८१-८२.५ ॥

राजोवाच -
चाण्डालनाथ मे देहि प्राप्यमन्यत्सुदारुणम् ॥ ८३ ॥
स्वशत्रुं ब्रूहि तं क्षिप्रं घातयिष्याम्यसंशयम् ।
घातयित्वा तु तं शत्रुं तव दास्यामि मेदिनीम् ॥ ८४ ॥
देव देवोरगैः सिद्धैर्गन्धर्वैरपि संयुतम् ।
देवेन्द्रमपि जेष्यामि निहत्य निशितैः शरैः ॥ ८५ ॥
राजा बोले-हे चाण्डालनाध ! आप मुझे कोई अन्य अत्यन्त कठिन कार्य करनेका आदेश दीजिये । आप अपने किसी शत्रुको बतायें, मैं उसे निःसन्देह शीघ्र ही मार डालूँगा और उस शत्रुका वध करके उसकी भूमि आपको सौंप दूँगा । हे देव ! देवताओं, नागों, सिद्धों और गन्धर्वांसहित इन्द्रको भी तीक्ष्ण बाणोंसे मारकर उन्हें जीत लूँगा ॥ ८३-८५ ॥

एतच्छ्रुत्वा ततो वाक्यं हरिश्चन्द्रस्य भूपतेः ।
चाण्डालः कुपितः प्राह वेपमानं महीपतिम् ॥ ८६ ॥
तब राजा हरिश्चन्द्रका यह वचन सुनकर उस चाण्डालने क्रुद्ध होकर थर-थर काँप रहे उन राजासे कहा ॥ ८६ ॥

चाण्डाल उवाच -
(नैतद्वाक्यं सुघटितं यद्वाक्यं दासकीर्तितम्)
चाण्डालदासतां कृत्वा सुराणां भाषसे वचः ।
दास किं बहुना नूनं शृणु मे गदतो वचः ॥ ८७ ॥
निर्लज्ज तव चेदस्ति किञ्चित्पापभयं हृदि ।
किमर्थं दासतां यातश्चाण्डालस्य तु वेश्मनि ॥ ८८ ॥
गृहाणैनं ततः खड्गमस्याश्छिन्धि शिरोऽम्बुजम् ।
एवमुक्त्वाथ चाण्डालो राज्ञे खड्गं न्यवेदयत् ॥ ८९ ॥
चाण्डाल बोला-(सेवकोंके लिये जो बात कही गयी है, वह बात तुम्हारे व्यवहारमें लक्षित नहीं होती) । चाण्डालकी दासता करके तुम देवताओंजैसी बात करते हो । अरे दास ! अधिक कहनेसे क्या प्रयोजन ? तुम मेरी बात ध्यानसे सुनो । निर्लज्ज ! यदि तुम्हारे हृदयमें थोड़ा भी पापका भय था, तो चाण्डालके घरमें दासता करना तुमने स्वीकार ही क्यों किया ? अतः इस तलवारको उठाओ और इसके कमलवत् सिरको काट दो-ऐसा कहकर चाण्डालने राजाको तलवार पकड़ा दी । ८७-८९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे चाण्डालाज्ञया हरिश्चन्द्रस्य
खड्गग्रहणवर्णनं नाम पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
अध्याय पच्चिसवाँ समाप्त ॥ २५ ॥


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