देवी बोलीं-[हे हिमालय !] यह सम्पूर्ण चराचर जगत् मेरी मायाशक्तिसे ही उत्पन्न हुआ है । परमार्थदृष्टिसे विचार करनेपर वह माया भी मुझसे पृथक् नहीं है । व्यवहारदृष्टिसे वह विद्या ही 'माया' इस नामसे प्रसिद्ध है । तत्वदृष्टिसे भेदसम्बन्ध नहीं है, दोनों एक ही तत्त्व हैं ॥ १-२ ॥
साहं सर्वं जगत्सृष्ट्वा तदन्तः प्रविशाम्यहम् । मायाकर्मादिसहिता गिरे प्राणपुरःसरा ॥ ३ ॥ लोकान्तरगतिर्नोचेत्कथं स्यादिति हेतुना । यथा यथा भवन्त्येव मायाभेदास्तथा तथा ॥ ४ ॥ उपाधिभेदाद्भिन्नाहं घटाकाशादयो यथा ।
हे गिरे ! मैं सम्पूर्ण जगत्का सृजनकर माया और कर्म आदिके साथ प्राणोंको आगे करके उस जगत्के भीतर प्रवेश करती हूँ, अन्यथा संसारके सभी क्रियाकलाप कैसे हो पाते ? इसी कारणसे मैं ऐसा करती हूँ । मायाके भेदानुसार मेरे विभिन्न कार्य होते हैं । जिस प्रकार आकाश एक होते हुए भी घटाकाश आदि अनेक नामोंसे व्यवहत है, उसी प्रकार मैं एक होती हुई भी उपाधिभेदसे भिन्न हूँ ॥ ३-४.५ ॥
उच्चनीचादिवस्तूनि भासयन्भास्करः सदा ॥ ५ ॥ न दुष्यति तथैवाहं दोषैर्लिप्ता कदापि न ।
जिस प्रकार उत्तम और निकृष्ट-सभी वस्तुओंको सदा प्रकाशित करता हुआ सूर्य कभी भी दूषित नहीं होता, उसी प्रकार मैं कभी उपाधियोंके दोषोंसे लिप्त नहीं होती हूँ ॥ ५.५ ॥
मयि बुद्ध्यादिकर्तृत्वमध्यस्यैवापरे जनाः ॥ ६ ॥ वदन्ति चात्मा कर्मेति विमूढा न सुबुद्धयः । अज्ञानभेदतस्तद्वन्मायाया भेदतस्तथा ॥ ७ ॥ जीवेश्वरविभागश्च कल्पितो माययैव तु । घटाकाशमहाकाशविभागः कल्पितो यथा ॥ ८ ॥ तथैव कल्पितो भेदो जीवात्मपरमात्मनोः ।
कुछ अज्ञानी मुझमें बुद्धि इत्यादिके कर्तृत्वका आरोपकर मुझे आत्मा तथा कर्मकी संज्ञा देते हैं, किंतु विज्ञजन ऐसा नहीं करते । जिस प्रकार घटरूप उपाधिके द्वारा महाकाशका घटाकाशसे भेद कल्पित होता है, उसी प्रकार [ईश्वर तथा जीवमें वास्तविक भेद न होनेपर भी] अज्ञानरूप उपाधिके द्वारा ही जीवका ईश्वरसे भेद मायाके द्वारा कल्पित है ॥ ६-८.५ ॥
यथा जीवबहूत्वं च माययैव न च स्वतः ॥ ९ ॥ तथेश्वरबहुत्वं च मायया न स्वभावतः ।
जैसे मायाके प्रभावसे ही जीव अनेक प्रतीत होते हैं; जो वास्तवमें अनेक नहीं हैं, वैसे ही मायाके प्रभावसे ईश्वरकी भी विविधताका भान होता है न कि अपने स्वभाववश ॥ ९.५ ॥
देहेन्द्रियादिसङ्घातवासनाभेदभेदिता ॥ १० ॥ अविद्या जीवभेदस्य हेतुर्नान्यः प्रकीर्तितः । गुणानां वासनाभेदभेदिता या धराधर ॥ ११ ॥ माया सा परभेदस्य हेतुर्नान्यः कदाचन ।
विभिन्न जीवोंके देह तथा इन्द्रियके समूहमें जैसे भेदकी प्रतीति अविद्याके कारण है (वास्तविक नहीं है), उसी प्रकार जीवोंमें भेद अविद्याके कारण है, इसमें दूसरेको हेतु नहीं बताया गया है । हे धराधर ! गुणों (सत्त्व, रज तथा तम)-में उन गुणोंके कार्यरूप वासनाके भेदसे जो भिन्नताकी प्रतीति करनेवाली है, वही माया एक पदार्थसे दूसरे पदार्थमें भेदका हेतु है, कोई अन्य कभी नहीं ॥ १०-११.५ ॥
मयि सर्वमिदं प्रोतमोतं च धरणीधर ॥ १२ ॥ ईश्वरोऽहं च सूत्रात्मा विराडात्माहमस्मि च । ब्रह्माहं विष्णुरुद्रौ च गौरी ब्राह्मी च वैष्णावी ॥ १३ ॥
हे धरणीधर ! यह समग्र जगत् मुझमें ओतप्रोत है । मैं ईश्वर हूँ, मैं सूत्रात्मा हूँ तथा मैं ही विराट आत्मा हूँ । मैं ही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र हूँ । गौरी, ब्राह्मी और वैष्णवी भी मैं ही हूँ ॥ १२-१३ ॥
सूर्योऽहं तारकाश्चाहं तारकेशस्तथास्म्यहम् । पशुपक्षिस्वरूपाहं चाण्डालोऽहं च तस्करः ॥ १४ ॥ व्याधोऽहं क्रूरकर्माहं सत्कर्माहं महाजनः । स्त्रीपुन्नपुंसकाकारोऽप्यहमेव न संशयः ॥ १५ ॥
मैं ही सूर्य हूँ, मैं ही चन्द्रमा हूँ और तारे भी मैं ही हूँ । पशु-पक्षी आदि भी मेरे ही स्वरूप हैं । चाण्डाल, तस्कर, व्याध, क्रूर कर्म करनेवाला, सत्कर्म करनेवाला तथा महान् पुरुष-ये सब मैं ही हूँ । स्त्री, पुरुष तथा नपुंसकके रूपमें मैं ही हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ १४-१५ ॥
यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु दृश्यते श्रूयतेऽपि वा । अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्याहं सर्वदा स्थिता ॥ १६ ॥
जो कुछ भी वस्तु जहाँ कहीं भी देखने या सुनने में आती है-वह चाहे भीतर अथवा बाहर कहीं भी विद्यमान हो, उन सबको व्याप्तकर उनमें सर्वदा मैं ही स्थित रहती हूँ ॥ १६ ॥
न तदस्ति मया त्यक्तं वस्तु किञ्चिच्चराचरम् । यद्यस्ति चेत्तच्छून्यं स्याद्वन्ध्यापुत्रोपमं हि तत् ॥ १७ ॥
चराचर कोई भी वस्तु मुझसे रहित नहीं है । यदि मुझसे शून्य कोई वस्तु मान ली जाय तो वह वन्ध्यापुत्रके समान असम्भव ही है ॥ १७ ॥
रज्जुर्यथा सर्पमालाभेदैरेका विभाति हि । तथैवेशादिरूपेण भाम्यहं नात्र संशयः ॥ १८ ॥ अधिष्ठानातिरेकेण कल्पितं तन्न भासते । तस्मान्मत्सत्तयैवैतत्सत्तावान्नान्यथा भवेत् ॥ १९ ॥
जिस प्रकार एक रस्सी भ्रमवश सर्प अथवा मालाके रूपमें प्रतीत होती है, उसी प्रकार मैं ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि रूपसे प्रतीत होती हैं । इसमें कोई संशय नहीं है । अधिष्ठानकी सत्ताके अतिरिक्त कल्पित वस्तुकी सत्ता नहीं होती । [उसकी प्रतीति अधिष्ठानकी सत्ताके कारण होती है । ] अत: मेरी सत्तासे ही वह जगत् सत्तावान् है, इसके अतिरिक्त दूसरी बात नहीं हो सकती ॥ १८-१९ ॥
हिमालय उवाच यथा वदसि देवेशि समष्ट्याऽऽत्मवपुस्त्विदम् । तथैव द्रष्टुमिच्छामि यदि देवि कृपा मयि ॥ २० ॥
हिमालयने कहा-हे देवेश्वरि ! हे देवि ! यदि मुझपर आपकी कृपा हो तो आपने अपने इस समष्ट्यात्मक विराट् रूपका जैसा वर्णन किया है, आपके उसी रूपको मैं देखना चाहता हूँ ॥ २० ॥
व्यास उवाच इति तस्य वचः श्रुत्वा सर्वे देवाः सविष्णवः । ननन्दुर्मुदितात्मानः पूजयन्तश्च तद्वचः ॥ २१ ॥
व्यासजी बोले-उन हिमालयकी यह बात सुनकर विष्णुसहित सभी देवता प्रसन्नचित्त हो गये और उनकी बातका अनुमोदन करते हुए आनन्दित हो गये ॥ २१ ॥
तदनन्तर देवताओंकी इच्छा जानकर भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाली तथा भक्तोंके लिये कामधेनुतुल्य भगवती शिवाने अपना रूप दिखा दिया । वे देवता महादेवीके उस परात्पर विराटपका दर्शन करने लगे । जिसका मस्तक आकाश है, चन्द्रमा और सूर्य जिसके नेत्र हैं, दिशाएँ कान हैं और वेद वाणी है । वायुको उस रूपका प्राण कहा गया है । विश्व ही उसका हृदय कहा गया है और पृथ्वी उस रूपकी जंघा कही गयी है ॥ २२-२४ ॥
पाताल उस रूपकी नाभि, ज्योतिश्चक्र वक्षःस्थल और महर्लोक ग्रीवा है । जनलोकको उसका मुख कहा गया है । सत्यलोकसे नीचे रहनेवाला तपोलोक उसका ललाट है । इन्द्र आदि उन महेश्वरीके बाहु हैं और शब्द श्रोत्र हैं ॥ २५-२६ ॥
नासत्यदस्रौ नासे स्तो गन्धो घ्राणं स्मृतो बुधैः । मुखमग्निः समाख्यातो दिवारात्री च पक्ष्मणी ॥ २७ ॥ ब्रह्मस्थानं भ्रूविजृम्भोऽप्यापस्तालुः प्र्कीर्तिताः । रसो जिह्वा समाख्याता यमो दंष्ट्राः प्रकीर्तिताः ॥ २८ ॥
नासत्य और दस (दोनों अश्विनीकुमार) उनकी नासिका हैं । विद्वान् लोगोंने गन्धको उनकी घ्राणेन्द्रिय कहा है । अग्निको मुख कहा गया है । दिन और रात उनके पक्ष्म (बरौनी) हैं । ब्रह्मस्थान भौंहोंका विस्तार है । जलको भगवतीका तालु कहा गया है । रस जिहा कही गयी है और यमको उनकी दाढ़ें बताया गया है ॥ २७-२८ ॥
दन्ताः स्नेहकला यस्य हासो माया प्रकीर्तिता । सर्गस्त्वपाङ्गमोक्षः स्याद् व्रीडोर्ध्वोष्ठो महेशितुः ॥ २९ ॥ लोभः स्यादधरोष्ठोऽस्याधर्ममार्गस्तु पृष्ठभूः । प्रजापतिश्च मेढ्रं स्याद्यः स्रष्टा जगतीतले ॥ ३० ॥
स्नेहकी कलाएँ उस रूपके दाँत हैं, मायाको उसका हास कहा गया है । सृष्टि उन महेश्वरीका कटाक्षपात और लज्जा उनका ऊपरी ओष्ठ है । लोभ उनका नीचेका ओष्ठ और अधर्ममार्ग उनका पृष्ठभाग है । जो पृथ्वीलोकमें स्रष्टा कहे जाते हैं, वे प्रजापति ब्रह्मा उस विरापिकी जननेन्द्रिय हैं ॥ २९-३० ॥
समुद्र उन देवी महेश्वरीकी कुक्षि और पर्वत उनकी अस्थियाँ हैं । नदियाँ उनकी नाडियाँ कही गयी हैं और वृक्ष उनके केश बताये गये हैं । कुमार, यौवन और बुढ़ापा-ये अवस्थाएँ उनकी उत्तम गति हैं । मेघ उनके सिरके केश हैं । [प्रातः और सायं] दोनों सन्ध्याएँ उन ऐश्वर्यमयी देवीके दो वस्त्र हैं ॥ ३१-३२ ॥
हे राजन् ! चन्द्रमाको श्रीजगदम्बाका मन कहा गया है । विष्णुको उनकी विज्ञानशक्ति और रुद्रको उनका अन्त:करण बताया गया है । अश्व आदि जातियाँ उन ऐश्वर्यशालिनी भगवतीके कटिप्रदेशमें स्थित हैं और अतलसे लेकर पातालतकके सभी महान लोक उनके कटिप्रदेशके नीचेके भाग हैं ॥ ३३-३४ ॥
श्रेष्ठ देवताओंने हजारों प्रकारकी ज्वालाओंसे युक्त, जीभसे बार-बार ओठ चाटते हुए, दाँत कटकटाकर चीखनेकी ध्वनि करते हुए, आँखोंसे अग्नि उगलते हुए, अनेक प्रकारके आयुध धारण किये हुए, पराक्रमी, ब्राह्मण-क्षत्रिय ओदनरूप, हजार मस्तक, हजार नेत्र और हजार चरणोंसे सम्पन्न, करोड़ों सूर्योके समान तेजयुक्त तथा करोड़ों बिजलियोंके समान प्रभासे प्रदीप्त, भयंकर, महाभीषण तथा हृदय और नेत्रोंके लिये सन्त्रासकारक ऐसे विराटपका दर्शन किया । जब उन देवताओंने इसे देखा तब वे हाहाकार करने लगे, उनके हृदय काँप उठे, उन्हें घोर मूर्छा आ गयी और उनकी यह स्मृति भी समाप्त हो गयी कि यही भगवती जगदम्बा हैं ॥ ३५-३९ ॥
अथ ते ये स्थिता वेदाश्चतुर्दिक्षु महाविभोः । बोधयामासुरत्युग्रं मूर्छातो मूर्च्छितान्सुरान् ॥ ४० ॥ अथ ते धैर्यमालम्ब्य लब्ध्वा च श्रुतिमुत्तमाम् । प्रेमाश्रुपूर्णनयना रुद्धकण्ठास्तु निर्जराः ॥ ४१ ॥
उन महाविभुकी चारों दिशाओंमें जो वेद विराजमान थे, उन्होंने मूच्छित देवताओंको अत्यन्त घोर मच्छसेि चेतना प्रदान की । इसके बाद धैर्य धारणकर वे देवताश्रेष्ठ श्रुति प्राप्त करके प्रेमाश्रुओंसे परिपूर्ण नेत्रों तथा रुंधे हुए कंठसे गद्गद वाणीमें उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४०-४१ ॥
देवता बोले-हे अम्ब ! हमारे अपराधोंको क्षमा कीजिये और अपने दीन सन्तानोंकी रक्षा कीजिये । हे देवेश्वरि ! आप अपना क्रोध शान्त कर लीजिये; क्योंकि हमलोग यह रूप देखकर भयभीत हो गये हैं । हम मन्दबुद्धि देवता यहाँ आपकी कौनसी स्तुति कर सकते हैं ? आपका अपना जितना तथा जैसा पराक्रम है, उसे आप स्वयं भी नहीं जानतीं, तो फिर वह बादमें प्रादुर्भूत होनेवाले हम देवताओंके ज्ञानका विषय कैसे हो सकता है ? ॥ ४२-४४ ॥
हे भुवनेश्वरि ! आपको नमस्कार है । हे प्रणवात्मिके ! आपको नमस्कार है । समस्त वेदान्तोंसे प्रमाणित तथा ह्रींकाररूप धारण करनेवाली हे भगवति ! आपको नमस्कार है ॥ ४५ ॥