हे पर्वतराज ! पूर्वमें केवल मैं ही थी और कुछ भी नहीं था । उस समय मेरा रूप चित्, संवित् (ज्ञानस्वरूप) और परब्रह्म नामवाला था । उसके सम्बन्ध में कोई तर्क नहीं किया जा सकता, इदमित्थं रूपसे उसका निर्देश नहीं किया जा सकता, उसकी कोई उपमा नहीं है तथा वह विकाररहित है ॥ २.५ ॥
तस्य काचित्स्वतः सिद्धा शक्तिर्मायेति विश्रुता ॥ ३ ॥ न सती सा नासती सा नोभयात्मा विरोधतः । एतद्विलक्षणा काचिद्वस्तुभूतास्ति सर्वदा ॥ ४ ॥
भगवतीकी कोई स्वत:सिद्ध शक्ति है, जो माया नामसे प्रसिद्ध है । वह शक्ति न सत् है, न असत् है और दोनोंमें विरोध होनेके कारण वह सत्-असत्उभयरूप भी नहीं है । सत्-असत् इन दोनोंसे विलक्षण वह माया कोई अन्य ही वस्तु है ॥ ३-४ ॥
जैसे अग्निमें उसकी उष्णता सदा रहती है, सूर्यमें प्रकाशकी किरण रहती है और चन्द्रमामें उसकी चन्द्रिका विद्यमान रहती है, उसी प्रकार यह माया निश्चितरूपसे सदा मेरी सहचरी है ॥ ५ ॥
जैसे सुषुप्ति अवस्थामें व्यवहार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार प्रलयकालमें समस्त जीव, काल तथा जीवोंके कर्म उन्हीं भगवतीमें अभेदरूपसे विलीन हो जाते हैं ॥ ६ ॥
स्वशक्तेश्च समायोगादहं बीजात्मतां गता । स्वाधारावरणात्तस्या दोषत्वं च समागतम् ॥ ७ ॥
मैं अपनी उसी शक्तिके समायोगसे बीजरूपको प्राप्त हुई अर्थात् मुझमें सृष्टिके कर्तृत्वका उदय हुआ । उस मायाके अपने आधाररूपी आवरणके कारण मुझमें उसका कुछ दोष आ गया अर्थात् चैतन्यादिका तिरोधान हो गया ॥ ७ ॥
चैतन्यस्य समायोगान्निमित्तत्वं च कथ्यते । प्रपञ्चपरिणामाच्च समवायित्वमुच्यते ॥ ८ ॥
चैतन्यके सम्बन्धसे मुझे संसारका निमित्तकारण कहा जाता है और मेरा परिणामरूप यह सृष्टिप्रपंच मुझसे ही उत्पन्न होता है तथा मुझमें ही विलीन होता है, अतः मुझे समवायिकारण कहा जाता है ॥ ८ ॥
केचित्तां तप इत्याहुस्तमः केचिज्जडं परे । ज्ञानं मायां प्रधानं च प्रकृतिं शक्तिमप्यजाम् ॥ ९ ॥ विमर्श इति तां प्राहुः शैवशास्त्रविशारदाः । अविद्यामितरे प्राहुर्वेदतत्त्वार्थचिन्तकाः ॥ १० ॥
कुछ लोग उस शक्तिको तप, कुछ लोग तम तथा दूसरे लोग उसे जड-ऐसा कहते हैं । इसी प्रकार कुछ लोग उसे ज्ञान, माया, प्रधान, प्रकृति, शक्ति तथा अजा कहते हैं और शैवशास्त्रके मनीषी उसे विमर्श भी कहते हैं । वेदतत्त्वार्थको जाननेवाले अन्य पुरुष उसे अविद्या कहते हैं । इस प्रकार वेद आदिमें उस शक्तिके नानाविध नाम प्रतिपादित हैं ॥ ९-१० ॥
एवं नानाविधानि स्युर्नामानि निगमादिषु । तस्या जडत्वं दृश्यत्वाज्ज्ञाननाशात्ततोऽसती ॥ ११ ॥ चैतन्यस्य न दृश्यत्वं दृश्यत्वे जडमेव तत् । स्वप्रकाशं च चैतन्यं न परेण प्रकाशितम् ॥ १२ ॥ अनवस्थादोषसत्त्वान्न स्वेनापि प्रकाशितम् । कर्मकर्त्रीविरोधः स्यात्तस्मात्तद्दीपवत्स्वयम् ॥ १३ ॥ प्रकाशमानमन्येषां भासकं विद्धि पर्वत । अत एव च नित्यत्वं सिद्धसंवित्तनोर्मम ॥ १४ ॥
केवल दिखायी देनेके कारण वह जड है और ज्ञानप्राप्तिसे नष्ट होनेके कारण वह असत है । चैतन्य दिखायी नहीं पड़ता और जो दिखायी पड़ता है, वह जड ही है । चैतन्य स्वयं प्रकाशस्वरूप है, वह दूसरेसे प्रकाशित नहीं होता । वह अपने द्वारा भी प्रकाशित नहीं है क्योंकि इससे अनवस्थाका दोष आ जायगा । कर्मत्व और कर्तत्व-ये दोनों विरुद्ध धर्म एक अधिकरणमें नहीं रह सकते, अत: यह नहीं कहा जा सकता कि वह चैतन्य अपने द्वारा प्रकाशित होता है । प्रत्युत हे पर्वत ! दीपककी भाँति प्रकाशमान उसे सूर्य आदि दूसरोंका प्रकाशक समझिये । अतएव मेरे ज्ञानरूप शरीरका नित्यत्व स्पष्टतः सिद्ध है ॥ ११-१४ ॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यादौ दृश्यस्य व्यभिचारतः । संविदो व्यभिचारश्च नानुभूतोऽस्ति कर्हिचित् ॥ १५ ॥ यदि तस्याप्यनुभवस्तर्ह्ययं येन साक्षिणा । अनुभूतः स एवात्र शिष्टः संविद्वपुः पुरा ॥ १६ ॥ अत एव च नित्यत्वं प्रोक्तं सच्छास्त्रकोविदैः । आनन्दरूपता चास्याः परप्रेमास्पदत्वतः ॥ १७ ॥
जाग्रत, स्वप्न और सुषप्ति आदि अवस्थाओंमें संवित् (ज्ञानस्वरूप स्वयं)-का अभाव प्रतीत न होकर प्रत्युत तीनों अवस्थाओंका अभाव अनुभवमें आता है, इस प्रकार कभी भी संवित्का अभाव अनुभवमें नहीं आता है । अतः संवित्के अभावका अनुभव न होनेके कारण उसका नित्यत्व स्वतः सिद्ध है । यदि किसीको संवितके अभावका अनुभव होता है तो जिस साक्षीके द्वारा उस संविद्रूपके अभावका अनुभव होता है, वही संवित्का स्वरूप होगा । अतः उत्तम शास्त्रोंके ज्ञाता विद्वानोंने उसे नित्य कहा है । वह परम प्रेमास्पद है, अतः उसमें आनन्दरूपता भी है ॥ १५-१७ ॥
मा न भूवं हि भूयासमिति प्रेमात्मनि स्थितम् । सर्वस्यान्यस्य मिथ्यात्वादसङ्गत्वं स्फुटं मम ॥ १८ ॥ अपरिच्छिन्नताप्येवमत एव मता मम । तच्च ज्ञानं नात्मधर्मो धर्मत्वे जडताऽऽत्मनः ॥ १९ ॥ ज्ञानस्य जडशेषत्वं न दृष्टं न च संभवि । चिद्धर्मत्वं तथा नास्ति चितश्चिन्न हि भिद्यते ॥ २० ॥ तस्मादात्मा ज्ञानरूपः सुखरूपश्च सर्वदा । सत्यः पूर्णोऽप्यसङ्गश्च द्वैतजालविवर्जितः ॥ २१ ॥
पूर्वमें मेरा अभाव था, ऐसा नहीं; मैं तब भी थी और प्रेमरूपमें सबकी आत्मामें स्थित थी । अन्य सभी वस्तुओंके मिथ्या होनेके कारण मेरा उन वस्तुओंसे सम्बन्ध न रहना स्वयं स्पष्ट है; अतः यह मेरे रूपकी अपरिच्छिन्नता (व्यापकता) भी कही गयी है । वह ज्ञान आत्माका धर्म नहीं है, अन्यथा धर्मत्व होनेसे उसमें जडता आ सकती है । ज्ञानके किसी भी अंशमें जडता और अनित्यताको न कभी देखा गया और न देखा जा सकता है । ज्ञानरूप चित् आत्मरूप चित्का धर्म नहीं है । क्योंकि आत्मरूप चित् और ज्ञानरूप चित् एक ही हैं और धर्मिधर्मीभाव एकत्र सम्भव नहीं है । अतः आत्मा सर्वदा ज्ञानरूप तथा सुखरूप है । वह सत्य, पूर्ण और असंग है तथा द्वैत-जालसे रहित है ॥ १८-२१ ॥
स पुनः कामकर्मादियुक्तया स्वीयमायया । पूर्वानुभूतसंस्कारात् कालकर्मविपाकतः ॥ २२ ॥ अविवेकाच्च तत्त्वस्य सिसृक्षावान्प्रजायते । अबुद्धिपूर्वः सर्गोऽयं कथितस्ते नगाधिप ॥ २३ ॥
वही आत्मा काम अर्थात् इच्छा तथा कर्म अर्थात् अदृष्ट आदिके साथ युक्त होकर अपनी मायासे पूर्वमें किये गये अनुभवोंके संस्कार, कालके द्वारा किये गये कर्मके परिपाक और तत्त्वोंके अविवेकसे सृष्टि करनेकी इच्छावाला हो जाता है । हे पर्वतराज हिमालय ! मैंने आपसे अबुद्धिपूर्वक (शयनके अनन्तर परमात्माकी जो जागरणरूप अवस्था है वह बुद्धिपूर्वक नहीं है) हुए इस सृष्टिक्रमका वर्णन किया है । २२-२३ ॥
यह मैंने आपसे अपने जिस रूपके विषयमें कहा है; वह अलौकिक, अव्याकृत (प्रारम्भिक), अव्यक्त (सृष्टिका आदिकारण) तथा मायाशवल (मायासे आवृत) भी है ॥ २४ ॥
प्रोच्यते सर्वशास्त्रेषु सर्वकारणकारणम् । तत्त्वानामादिभूतं च सच्चिदानन्दविग्रहम् ॥ २५ ॥
समस्त शास्त्रोंमें इसे सभी कारणोंका कारण; महत, अहंकार आदि तत्त्वोंका आदिकारण तथा सत्चित्-आनन्दमय विग्रहवाला बताया गया है । ॥ २५ ॥
सर्वकर्मघनीभूतमिच्छाज्ञानक्रियाश्रयम् । ह्रीङ्कारमन्त्रवाच्यं तदादितत्त्वं तदुच्यते ॥ २६ ॥
उस रूपको सम्पूर्ण कर्मोका साक्षी, इच्छा-ज्ञान तथा क्रियाशक्तिका अधिष्ठान, ह्रींकार मन्त्रका वाच्य (अर्थ) और आदितत्त्व कहा गया है ॥ २६ ॥
तस्मादाकाश उत्पन्नः शब्दतन्मात्ररूपकः । भवेत्स्पर्शात्मको वायुस्तेजोरूपात्मकं पुनः ॥ २७ ॥ जलं रसात्मकं पश्चात्ततो गन्धात्मिका धरा । शब्दैकगुण आकाशो वायुः स्पर्शरवान्वितः ॥ २८ ॥ शब्दस्पर्शरूपगुणं तेज इत्युच्यते बुधैः । शब्दस्पर्शरूपरसैरापो वेदगुणाः स्मृताः ॥ २९ ॥ शब्दस्पर्शरूपरसगन्धैः पञ्चगुणा धरा ।
उसीसे शब्दतन्मात्रावाला आकाश, स्पर्शतन्मात्रावाला वायु और पुनः रूपतन्मात्रावाला तेज उत्पन्न हुआ । इसके बाद रसात्मक जल तथा पुनः गन्धात्मक पृथ्वीकी [क्रमश:] उत्पत्ति हुई । आकाश शब्द नामक एक गुणसे; वायु शब्द तथा स्पर्श-इन दो गुणोंसे और तेज शब्द, स्पर्श, रूपइन तीन गुणोंसे युक्त हुए-ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं । इसी प्रकार शब्द, स्पर्श, रूप तथा रस-ये चार गुण जलके कहे गये हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-इन पाँच गुणोंसे युक्त पृथ्वी है ॥ २७–२९.५ ॥
तेभ्योऽभवन्महत्सूत्रं यल्लिङ्गं परिचक्षते ॥ ३० ॥ सर्वात्मकं तत्सम्प्रोक्तं सूक्ष्मदेहोऽयमात्मनः । अव्यक्तं कारणो देहः स चोक्तः पूर्वमेव हि ॥ ३१ ॥ यस्मिञ्जगद्बीजरूपं स्थितं लिङ्गोद्भवो यतः ।
उन्हीं पृथ्वी आदि सूक्ष्म भूतोंसे महान् व्यापक सूत्र उत्पन्न हुआ, जिसे लिंग शब्दसे कहा जाता है । वह सर्वात्मक कहा गया है । यही परमात्माका सूक्ष्म शरीर है । जिसमें यह जगत् बीजरूपमें स्थित है और जिससे लिंगदेहकी उत्पत्ति हुई है, वह अव्यक्त कहा जाता है और वह परब्रह्मका कारणशरीर है । उसके विषयमें पहले ही कहा जा चुका है । ३०-३१.५ ॥
तदनन्तर उसी अव्यक्तशरीर (लिंगशरीर)-से पंचीकरणप्रक्रियाके द्वारा पाँच स्थूल भूत उत्पन्न होते हैं । अब उस पंचीकरणप्रक्रियाका वर्णन किया जा रहा है । पूर्व में कहे गये पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश) में प्रत्येक भूतके दो बराबरबराबर भाग करके प्रत्येक भूतके प्रथम आधे भागको पुनः चार भागोंमें विभक्त कर दे । इस प्रकार प्रथम भागके विभक्त चतुर्थांशको अन्य चार भूतोंके अवशिष्ट अधांशमें संयोजित कर दे । इस प्रकार प्रत्येक भूतके अधाशमें तदतिरिक्त चार भूतोंके अंशका योग होनेसे पाँचों स्थूल भूतोंका निर्माण हो जाता है । इस प्रकार पंचीकृतभूतरूपी कारणके द्वारा जो कार्य (सृष्टिप्रपंच) उत्पन्न हुआ, वहीं विराट् शरीर है और वही परमात्माका स्थूल देह है । हे राजेन्द्र ! पंचभूतोंमें स्थित सत्त्वांशोंके परस्पर मिलनेसे श्रोत्र आदि पाँच ज्ञानेन्द्रियों तथा एक अन्त:करणकी उत्पत्ति हुई, जो वृत्तिभेदसे चार प्रकार (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार)का हो जाता है ॥ ३२-३६ ॥
जब उसमें संकल्प-विकल्पवृत्तिका उदय होता है, तब उस अन्त:करणको मन कहा जाता है । जब वह अन्त:करण संशयरहित निश्चयात्मक वृत्तिसे युक्त होता है, तब उसकी बुद्धि संज्ञा होती है । अनुसन्धान (चिन्तन)-वृत्तिके आनेपर वही अन्त:करण चित्त कहा जाता है और अहंकृतिवृत्तिसे संयुक्त होनेपर वह अन्त:करण अहंकारसंज्ञक हो जाता है ॥ ३७-३८ ॥
तदनन्तर उन पाँच भूतोंके राजस अंशोंसे क्रमशः पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुईं । प्रत्येक राजस अंशोंके मिलनेसे पाँच प्रकारके प्राण उत्पन्न हुए । प्राण हृदयमें, अपान गुदामें, समान नाभिमें, उदान कंठमें तथा व्यान सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त हुआ । इस प्रकार पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, प्राण आदि पाँच वायु और बुद्धिसहित मन-इन्हीं सत्रह अवयवोंवाला मेरा सूक्ष्म शरीर है, जिसे लिंग शब्दसे भी कहा जाता है ॥ ३९-४१.५ ॥
तत्र या प्रकृतिः प्रोक्ता सा राजन्द्विविधा स्मृता ॥ ४२ ॥ सत्त्वात्मिका तु माया स्यादविद्या गुणमिश्रिता । स्वाश्रयं या तु संरक्षेत्सा मायेति निगद्यते ॥ ४३ ॥ तस्यां यत्प्रतिबिम्बं स्याद्बिम्बभूतस्य चेशितुः । स ईश्वरः समाख्यातः स्वाश्रयज्ञानवान्परः ॥ ४४ ॥ सर्वज्ञः सर्वकर्ता च सर्वानुग्रहकारकः ।
हे राजन् ! जो प्रकृति कही गयी है, वह भी दो भेदोंवाली बतायी गयी है । शुद्धसत्त्वप्रधान प्रकृति माया है तथा मलिनसत्त्वप्रधान प्रकृति अविद्या है । जो प्रकृति अपने आश्रित रहनेवालेकी रक्षा करती है अर्थात् आवरण या व्यामोह नहीं करती, उसे माया कहा जाता है । उस शुद्ध-सत्त्वप्रधान माया विम्बरूप परमात्माका जो प्रतिबिम्ब होता है, वही ईश्वर कहा गया है । वह ईश्वर अपने आश्रय अर्थात् व्यापक ब्रह्मको जाननेवाला, परात्पर, सर्वज्ञ, सब कुछ करनेवाला तथा समस्त प्राणियोंके ऊपर कृपा करनेवाला है ॥ ४२-४४.५ ॥
हे पर्वतराज हिमालय ! [मलिनसत्त्वप्रधान] अविद्या में जो परमात्माका प्रतिबिम्ब है, वही जीव कहा जाता है और वही जीव अविद्याके द्वारा आनन्दांशका आवरण कर देनेके कारण सभी दुःखोंका आश्रय हो जाता है । माया-अविद्याके कारण ईश्वर और जीव-इन दोनोंके तीन देह तथा देहत्रयके अभिमानके कारण तीन नाम कहे जाते हैं । कारणदेहाभिमानी जीवको प्राज्ञ, सूक्ष्मदेहाभिमानीको तैजस तथा स्थूलदेहाभिमानीको विश्व-इन तीन प्रकारवाला कहा गया है । इसी प्रकार ईश्वर भी ईश, सूत्र तथा विराट् नामोंसे कहा गया है । जीवको व्यष्टिरूप तथा परमेश्वरको समष्टिरूप कहा गया है । वे सर्वेश्वर मेरी मायाशक्तिसे प्रेरित होकर जीवोंपर कृपा करनेकी कामनासे विविध भोगोंसे युक्त विश्वोंकी सृष्टि करते हैं । हे राजन् ! मेरी शक्तिके अधीन होकर वे ईश्वर रज्जुमें सर्पकी भाँति मुझ ब्रह्मरूपिणीमें नित्य कल्पित हैं ॥ ४५-५० ॥