देवी बोलीं-हे राजन् ! इस प्रकार आसनपर सम्यक् विराजमान होकर योगसे युक्त चित्तवाले साधकको निष्कपट भक्तिके साथ मुझ ब्रह्मस्वरूपिणी भगवतीका ध्यान करना चाहिये ॥ १ ॥
आविः सन्निहितं गुहाचरं नाम महत्पदम् । अत्रैतत्सर्वमर्पितमेजत्प्राणमिषच्च यत् ॥ २ ॥
जो प्रकाशस्वरूप, सबके अत्यन्त समीप स्थित, हृदयरूपी गुफामें स्थित होनेके कारण 'गुहाचर' नामसे प्रसिद्ध परम तत्त्व है; उसीमें जितने भी चेष्टायुक्त, श्वास लेनेवाले तथा नेत्र खोलने-मूंदनेवाले प्राणी हैं-वे सब उस ब्रह्ममें ही कल्पित हैं ॥ २ ॥
एतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् । यदर्चिमद्यदणुभ्योऽणु च यस्मिंल्लोका निहिता लोकिनश्च ॥ ३ ॥
जो सत्कारणरूप माया तथा असत्कार्यरूप जगत्-इन दोनोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ, प्राणियोंके ज्ञानसे परे अर्थात् उनके ज्ञानका अविषय, सर्वोत्कृष्ट तथा सबको प्रकाशित करनेवाला, अणुसे भी अणु (सूक्ष्म) है और जिसमें सभी लोक तथा उसमें रहनेवाले प्राणी स्थित हैं-उस ब्रह्मको आपलोग जानिये ॥ ३ ॥
तदेतदक्षरं ब्रह्म स प्राणस्तदु वाङ्मनः । तदेतत्सत्यममृतं तद्वेद्धव्यं सौम्य विद्धि ॥ ४ ॥
जो अक्षरब्रह्म है-वही सबका प्राण है, वही वाणी है, वही सबका मन है, वही परम सत्य तथा अमृतस्वरूप है । अतः हे सौम्य [पर्वतराज] ! उस भेदन करनेयोग्य ब्रह्मस्वरूप लक्ष्यका भेदन करो ॥ ४ ॥
हे सौम्य ! उपनिषदरूपी महान् धनुषास्त्र लेकर उसपर उपासनाद्वारा तीक्ष्ण किये गये बाणको स्थापित करो और इसके बाद विषयोंसे विरक्त और भगवद्भावभावित चित्तके द्वारा उस बाणको खींचकर उस अक्षररूप ब्रह्मको लक्ष्य करके वेधन करो ॥ ५ ॥
जिसमें स्वर्ग, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और सम्पूर्ण प्राणों के सहित मन ओतप्रोत है, उसी एकमात्र परब्रह्मको जानो और अन्य बातोंका परित्याग कर दो [भवसागरसे पार होनेके लिये] यही अमृतका सेतु है ॥ ७ ॥
अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः । स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः ॥ ८ ॥
रथके चक्केमें लगे अरोंकी भाँति जिस हृदयमें शरीरकी नाडियाँ एकत्र स्थित हैं-उसी हृदयमें विविध रूपोंमें प्रकट होनेवाला परब्रह्म निरन्तर संचरण करता है ॥ ८ ॥
संसारसमुद्रसे पार होनेके लिये 'ओम्'इस प्रणवमन्त्रके जपसे परमात्माका ध्यान करो । आपका कल्याण हो । वह परमात्मा अन्धकारसे सर्वथा परे ब्रह्मलोकस्वरूप दिव्य आकाश (हृदय)में प्रतिष्ठित है ॥ ९ ॥
वह परब्रह्म मनोमय है और सबके प्राण तथा शरीरका नियमन करता है । वह समस्त प्राणियोंके हृदयमें निहित रहकर अन्नमय स्थूल शरीरमें प्रतिष्ठित है । जो आनन्दस्वरूप तथा अमृतमय परमात्मा सर्वत्र प्रकाशित हो रहा है, उसे विज्ञान (अपरोक्षानुभूति)-के द्वारा बुद्धिमान् पुरुष भलीभाँति दृष्टिगत कर लेते हैं ॥ १० ॥
उस कार्य-कारणरूप परमात्माको देख लेनेपर इस जीवके हृदयकी ग्रन्थिका भेदन हो जाता है अर्थात् अनात्मपदार्थामें स्वरूपाध्यास समाप्त हो जाता है, सभी सन्देह दूर हो जाते हैं और सभी कर्म क्षीण हो जाते हैं ॥ ११ ॥
वह निष्कल (व्यापक) ब्रह्म स्वर्णमय परकोश (आनन्दमयकोश)-में विराजमान है । वह शुभ्र तथा परम प्रकाशित वस्तुओंका भी प्रकाशक है । उसे आत्मज्ञानी पुरुष ही जान पाते हैं ॥ १२ ॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १३ ॥
वहाँ न तो सूर्य प्रकाश फैला सकता है, न चन्द्रमा और ताराओंका समुदाय ही, न ये बिजलियाँ ही वहाँ प्रकाशित हो सकती हैं । फिर यह लौकिक अग्नि कैसे प्रकाशित हो सकती है । उसीके प्रकाशित होनेपर सब प्रकाशित होते हैं । यह सम्पूर्ण जगत् उसीके प्रकाशसे आलोकित होता है ॥ १३ ॥
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद्ब्रह्म पश्चाद्ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्तरेण । अधश्चोर्ध्वं च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वं वरिष्ठम् ॥ १४ ॥
यह अमृतस्वरूप ब्रह्म ही आगे है, यह ब्रह्म ही पीछे है और यह ब्रह्म ही दाहिनी तथा बायीं ओर स्थित है । यह ब्रह्म ही ऊपर तथा नीचे फैला हुआ है । यह समग्र जगत् सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है ॥ १४ ॥
एतादृगनुभवो यस्य स कृतार्थो नरोत्तमः । ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ॥ १५ ॥
जिसका इस प्रकारका अनुभव है, वह श्रेष्ठ मनुष्य कृतार्थ है । ब्रह्मको प्राप्त पुरुष नित्य प्रसन्नचित्त रहता है; वह न शोक करता है और न किसी प्रकारकी आकांक्षा रखता है ॥ १५ ॥
द्वितीयाद्वै भयं राजंस्तदभावाद् बिभेति न । न तद्वियोगो मेऽप्यस्ति मद्वियोगोऽपि तस्य न ॥ १६ ॥
हे राजन् ! भय दूसरेसे हुआ करता है; द्वैतभाव न रहनेपर [संसारसे] भय नहीं होता । उस ज्ञानीसे मेरा कभी वियोग नहीं होता और मुझसे उस ज्ञानीका वियोग कभी नहीं होता ॥ १६ ॥
अहमेव स सोऽहं वै निश्चितं विद्धि पर्वत । मद्दर्शनं तु तत्र स्याद्यत्र ज्ञानी स्थितो मम ॥ १७ ॥
हे पर्वत ! आप यह निश्चित जान लीजिये कि मैं ही वह हूँ और वही मेरा स्वरूप है । जिस किसी भी स्थानमें ज्ञानी रहे, उसको वहीं मेरा दर्शन होता रहता है ॥ १७ ॥
नाहं तीर्थे न कैलासे वैकुण्ठे वा न कर्हिचित् । वसामि किन्तु मज्ज्ञानिहृदयाम्भोजमध्यमे ॥ १८ ॥
मैं कभी भी न तीर्थमें, न कैलासपर और न तो वैकुण्ठमें ही निवास करती हूँ । मैं केवल अपने ज्ञानी भक्तके हृदयकमलमें निवास करती हूँ । मेरे ज्ञानपरायण भक्तकी एक बारकी पूजा मेरी करोड़ों पूजाओंका फल प्रदान करती है ॥ १८ ॥
जिसका चित्त चित्स्वरूप ब्रहामें लीन हो गया, उसका कुल पवित्र हो गया, उसकी जननी कृतकृत्य हो गयी और पृथ्वी उसे धारण करके पुण्यवती हो गयी ॥ १९ ॥
विश्वम्भरा पुण्यवती चिल्लयो यस्य चेतसः । ब्रह्मज्ञानं तु यत्पृष्टं त्वया पर्वतसत्तम ॥ २० ॥ कथितं तन्मया सर्वं नातो वक्तव्यमस्ति हि । इदं ज्येष्ठाय पुत्राय भक्तियुक्ताय शीलिने ॥ २१ ॥ शिष्याय च यथोक्ताय वक्तव्यं नान्यथा क्वचित् । यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ॥ २२ ॥ तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।
हे पर्वत श्रेष्ठ ! आपने जो ब्रह्मज्ञानके सम्बन्धमें पूछा था, वह सब मैंने बता दिया । अब इसके आगे बतानेयोग्य कुछ शेष नहीं है । भक्तिसम्पन्न तथा शीलवान ज्येष्ठ पुत्र तथा इसी प्रकारके गुणवाले शिष्यको इसे बताना चाहिये, किसी दूसरेसे इसे कभी प्रकाशित नहीं करना चाहिये । जिसकी परमदेव परमेश्वरमें परम भक्ति है तथा जिस प्रकार परमेश्वरमें है; उसी प्रकार गुरुमें भी है, उस महात्मा पुरुषके हदयमें ही ये बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं ॥ २०-२२.५ ॥
येनोपदिष्टा विद्येयं स एव परमेश्वरः ॥ २३ ॥ यस्यायं सुकृतं कर्तुमसमर्थस्ततो ऋणी । पित्रोरप्यधिकः प्रोक्तो ब्रह्मजन्मप्रदायकः ॥ २४ ॥ पितृजातं जन्म नष्टं नेत्थं जातं कदाचन ।
जिसके द्वारा इस ब्रह्मविद्याका उपदेश दिया जाता है, वह साक्षात् परमेश्वर ही है । उपदिष्ट विद्याका प्रत्युपकार करनेमें मनुष्य सर्वथा असमर्थ है, इसलिये वह गुरुका सदा ऋणी रहता है । ब्रह्मजन्म प्रदान करनेवाला (ब्रह्म-तत्त्वका साक्षात्कार करानेवाला) गुरु माता-पितासे भी श्रेष्ठ कहा गया है; क्योंकि माता-पितासे प्राप्त जीवन तो नष्ट हो जाता है, किंतु गुरुद्वारा प्राप्त ब्रह्मजन्म कभी नष्ट नहीं होता ॥ २३-२४.५ ॥
तस्मै न द्रुह्येदित्यादि निगमोऽप्यवदन्नग ॥ २५ ॥ तस्माच्छास्त्रस्य सिद्धान्तो ब्रह्मदाता गुरुः परः । शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न शङ्करः ॥ २६ ॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं तोषयेन्नग । कायेन मनसा वाचा सर्वदा तत्परो भवेत् ॥ २७ ॥ अन्यथा तु कृतघ्नः स्यात्कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ।
हे पर्वत !'तस्मै न द्रुह्येत्' अर्थात् उन गुरुसे द्रोह नहीं करना चाहिये । इत्यादि वचन वेदने भी कहे हैं । अतः शास्त्रसिद्धान्त है कि ब्रह्मज्ञानदाता गुरु सबसे श्रेष्ठ होता है । हे नग ! शिवके रुष्ट होनेपर गुरु रक्षा कर सकते हैं, किंतु गुरुके रुष्ट होनेपर शंकर भी रक्षा नहीं कर सकते, अतः पूर्ण प्रयत्नसे गुरुको सन्तुष्ट रखना चाहिये । तन-मन वचनसे सर्वदा गुरुपरायण रहना चाहिये, अन्यथा कृतघ्न होना पड़ता है और कृतघ्न हो जानेपर उद्धार नहीं होता ॥ २५-२७.५ ॥
इन्द्रेणाथर्वणायोक्ता शिरश्छेदप्रतिज्ञया ॥ २८ ॥ अश्विभ्यां कथने तस्य शिरश्छिन्नं च वज्रिणा । अश्वीयं तच्छिरो नष्टं दृष्ट्वा वैद्यौ सुरोत्तमौ ॥ २९ ॥ पुनः संयोजितं स्वीयं ताभ्यां मुनिशिरस्तदा । इति सङ्कटसम्पाद्या ब्रह्मविद्या नगाधिप । लब्धा येन स धन्यः स्यात्कृतकृत्यश्च भूधर ॥ ३० ॥
पूर्व समयकी बात है-अथर्वणमुनिके द्वारा इन्द्रसे ब्रह्मविद्याकी याचना किये जानेपर इन्द्रने अथर्वणमुनिको ब्रह्मविद्या इस शर्तपर बतायी कि किसी अन्यको बतानेपर आपका सिर काट लूँगा । अश्विनीकुमारोंके याचना करनेपर मुनिने उन्हें ब्रह्मविद्याका उपदेश कर दिया और इन्द्रने मुनिका सिर काट लिया । तदनन्तर सुरश्रेष्ठ दोनों वैद्योंने उनके सिरको कटा देखकर घोड़ेका सिर मुनिपर पुनः जोड़ दिया । हे भूधर ! हे पर्वतराज ! इस प्रकार महान् संकटसे सम्पादित होनेवाली ब्रह्मविद्याको जिसने प्राप्त कर लिया, वह धन्य तथा कृतकृत्य है ॥ २८-३० ॥