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देवीगीतायां भक्तिमहिमावर्णनम् -
भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन -
हिमालय उवाच स्वीयां भक्तिं वदस्वाम्ब येन ज्ञानं सुखेन हि । जायेत मनुजस्यास्य मध्यमस्याविरागिणः ॥ १ ॥
हिमालय बोले-हे अम्ब ! आप मुझे अपनी वह भक्ति बतानेकी कृपा कीजिये, जिस भक्तिके द्वारा अपरिपक्व वैराग्यवाले मध्यम अधिकारीको भी सुगमतापूर्वक ज्ञान हो जाय ॥ १ ॥
देव्युवाच मार्गास्त्रयो मे विख्याता मोक्षप्राप्तौ नगाधिप । कर्मयोगो ज्ञानयोगो भक्तियोगश्च सत्तम ॥ २ ॥ त्रयाणामप्ययं योग्यः कर्तुं शक्योऽस्ति सर्वथा । सुलभत्वान्मानसत्वात्कायचित्ताद्यपीडनात् ॥ ३ ॥
देवी बोलीं-हे पर्वतराज ! हे सत्तम ! मोक्षप्राप्तिके साधनभूत कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग-ये मेरे तीन मार्ग प्रसिद्ध हैं । इन तीनोंमें भी यह भक्तियोग सर्वथा सुलभ होने, [बाहा साधनोंसे निरपेक्ष केवल] मनसे सम्पादित होने और शरीर तथा चित्त आदिको पीड़ा न पहुँचानेके कारण सरलतापूर्वक किया जा सकता है ॥ २-३ ॥
मनुष्योंके गुणभेदके अनुसार वह भक्ति भी तीन प्रकारकी कही गयी है । जो मनुष्य डाह तथा क्रोधसे युक्त होकर दम्भपूर्वक दूसरोंको संतप्त करनेके उद्देश्यसे भक्ति करता है, उसकी वह भक्ति तामसी होती है ॥ ४.५ ॥
परपीडादिरहितः स्वकल्याणार्थमेव च ॥ ५ ॥ नित्यं सकामो हृदयं यशोऽर्थी भोगलोलुपः । तत्तत्फलसमावाप्त्यै मामुपास्तेऽतिभक्तितः ॥ ६ ॥ भेदबुद्ध्या तु मां स्वस्मादन्यां जानाति पामरः । तस्य भक्तिः समाख्याता नगाधिप तु राजसी ॥ ७ ॥
हे पर्वतराज ! सर्वदा हृदयमें कामनाएँ रखनेवाला, यश चाहनेवाला तथा भोगका लोलुप जो मनुष्य परपीडासे रहित होकर मात्र अपने ही कल्याणके लिये उन-उन फलोंकी प्राप्तिके लिये अत्यन्त भक्तिपूर्वक मेरी उपासना करता है, साथ ही वह मन्दमति भेदबुद्धिके कारण मुझ भगवतीको अपनेसे भिन्न समझता है, उसकी वह भक्ति राजसी कही गयी है ॥ ५-७ ॥
परमेशार्पणं कर्म पापसङ्क्षालनाय च । वेदोक्तत्वादवश्यं तत्कर्तव्यं तु मयानिशम् ॥ ८ ॥ इति निश्चितबुद्धिस्तु भेदबुद्धिमुपाश्रितः । करोति प्रीतये कर्म भक्तिः सा नग सत्त्विकी ॥ ९ ॥
हे नग ! जो मनुष्य अपना पाप धो डालनेके लिये अपना कर्म परमेश्वरको अर्पित कर देता है और 'वेदकी आज्ञाके अनुसार मुझे प्रतिदिन वही वेदनिर्दिष्ट कर्म अवश्य करना चाहिये'-ऐसा मनमें निश्चित करके [सेव्य-सेवक]-की भेदबुद्धिका आश्रय लेकर मेरी प्रसन्नताके लिये कर्म करता है; उस मनुष्यकी वह भक्ति सात्त्विकी होती है ॥ ८-९ ॥
परभक्तेः प्रापिकेयं भेदबुद्ध्यवलम्बनात् । पूर्वप्रोक्ते ह्युभे भक्ती न परप्रापिके मते ॥ १० ॥
[सेव्य-सेवककी] भेदबुद्धिका सहारा लेकर की गयी यह सात्त्विकी भक्ति पराभक्तिकी प्राप्ति करानेवाली सिद्ध होती है । पूर्व में कही गयी तामसी और राजसी-दोनों भक्तियाँ पराभक्तिकी प्राप्तिका साधन नहीं मानी गयी हैं ॥ १० ॥
अधुना परभक्तिं तु प्रोच्यमानां निबोध मे । मद्गुणश्रवणं नित्यं मम नामानुकीर्तनम् ॥ ११ ॥ कल्याणगुणरत्नानामाकरायां मयि स्थिरम् । चेतसो वर्तनं चैव तैलधारासमं सदा ॥ १२ ॥ हेतुस्तु तत्र को वापि न कदाचिद्भवेदपि । सामीप्यसार्ष्टिसायुज्यसालोक्यानां न चैषणा ॥ १३ ॥ मत्सेवातोऽधिकं किञ्चिन्नैव जानाति कर्हिचित् । सेव्यसेवकताभावात्तत्र मोक्षं न वाञ्छति ॥ १४ ॥ परानुरक्त्या मामेव चिन्तयेद्यो ह्यतन्द्रितः । स्वाभेदेनैव मां नित्यं जानाति न विभेदतः ॥ १५ ॥ मद्रूपत्वेन जीवानां चिन्तनं कुरुते तु यः । यथा स्वस्यात्मनि प्रीतिस्तथैव च परात्मनि ॥ १६ ॥ चैतन्यस्य समानत्वान्न भेदं कुरुते तु यः । सर्वत्र वर्तमानानां सर्वरूपां च सर्वदा ॥ १७ ॥ नमते यजते चैवाप्याचाण्डालान्तमीश्वर । न कुत्रापि द्रोहबुद्धिं कुरुते भेदवर्जनात् ॥ १८ ॥ मत्स्थानदर्शने श्रद्धा मद्भक्तदर्शने तथा । मच्छास्त्रश्रवणे श्रद्धा मन्त्रतन्त्रादिषु प्रभो ॥ १९ ॥ मायि प्रेमाकुलमती रोमाञ्चिततनुः सदा । प्रेमाश्रुजलपूर्णाक्षः कण्ठगद्गदनिस्वनः ॥ २० ॥ अनन्येनैव भावेन पूजयेद्यो नगाधिप । मामीश्वरीं जगद्योनिं सर्वकारणकारणम् ॥ २१ ॥ व्रतानि मम दिव्यानि नित्यनैमित्तिकान्यपि । नित्यं यः कुरुते भक्त्या वित्तशाठ्यविवर्जितः ॥ २२ ॥ मदुत्सवदिदृक्षा च मदुत्सवकृतिस्तथा । जायते यस्य नियतं स्वभावादेव भूधर ॥ २३ ॥ उच्चैर्गायंश्च नामानि ममैव खलु नृत्यति । अहङ्कारादिरहितो देहतादात्म्यवर्जितः ॥ २४ ॥ प्रारब्धेन यथा यच्च क्रियते तत्तथा भवेत् । न मे चिन्तास्ति तत्रापि देहसंरक्षणादिषु ॥ २५ ॥ इति भक्तिस्तु या प्रोक्ता परभक्तिस्तु सा स्मृता । यस्यां देव्यतिरिक्तं तु न किञ्चिदपि भाव्यते ॥ २६ ॥
अब मैं पराभक्तिका वर्णन कर रही हैं, आप उसे सुनिये-नित्य मेरे गुणोंका श्रवण और मेरे नामका संकीर्तन करना, कल्याण एवं गुणस्वरूप रत्नोंकी भण्डार मुझ भगवतीमें तैलधाराकी भाँति अपना चित्त सर्वदा लगाये रखना, किसी प्रकारकी हेतुभावना कभी नहीं होने देना, सामीप्य; साष्टि; सायुज्य और सालोक्य मुक्तियोंकी कामना न होना-इन गुणोंसे युक्त जो भक्त मेरी सेवासे बढ़कर किसी भी वस्तुको कभी श्रेष्ठ नहीं समझता और सेव्य-सेवककी उत्कृष्ट भावनाके कारण मोक्षकी भी आकांक्षा नहीं रखता, परम भक्तिके साथ सावधान होकर जो मेरा ही ध्यान करता रहता है, मुझमें तथा अपनेमें भेदबुद्धि छोड़कर अभेदबुद्धि रखते हुए मुझे नित्य जानता है, सभी जीवोंमें मेरे ही रूपका चिन्तन करता है, जैसी प्रीति अपने प्रति होती है; वैसी ही दूसरोंमें भी रखता है, चैतन्यपरब्रह्मकी समानरूपसे सर्वत्र व्याप्ति समझकर किसीमें भी भेद नहीं करता, हे राजन् ! सर्वत्र विद्यमान् सभी प्राणियोंमें मुझ सर्वरूपिणीको विराजमान जानकर मेरा नमन तथा पूजन करता है, चाण्डालतकमें मेरी ही भावना करता है और भेदका परित्याग करके किसीसे भी द्रोहभाव नहीं रखता, हे प्रभो ! जो मेरे स्थानोंके दर्शन, मेरे भक्तोंके दर्शन, मेरे शास्त्रोंके श्रवण तथा मेरे तन्त्र-मन्त्रों आदिमें श्रद्धा रखता है, हे पर्वतराज ! जो मेरे प्रति प्रेमसे आकुल चित्तवाला, मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए पुलकित शरीरवाला, प्रेमके आँसुओंसे परिपूर्ण नेत्रोंवाला तथा कंठ गद्गद होनेसे अवरुद्ध वाणीवाला होकर जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा सभी कारणोंकी कारण मुझ परमेश्वरीका अनन्य भावसे पूजन करता है, जो मेरे नित्य तथा नैमित्तिक सभी दिव्य व्रतोंको धनकी कृपणतासे रहित होकर भक्तिपूर्वक नित्य करता है, हे भूधर ! जो स्वभावसे ही मेरा उत्सव देखनेकी अभिलाषा रखता है तथा मेरा उत्सव आयोजित करता है तथा जो अहंकार आदिसे रहित तथा देहभावनासे विहीन होकर ऊँचे स्वरसे मेरे नामोंका ही कीर्तन करते हुए नृत्य करता है और प्रारब्धके द्वारा जैसा जो किया जाता है, वह वैसा ही होता है, इसलिये अपने शरीरकी रक्षा आदि करनेकी भी कोई चिन्ता नहीं करता है, ऐसे पुरुषोंकी जो भक्ति कही गयी, वह पराभक्तिके नामसे विख्यात है, जिसमें देवीको छोड़कर अन्य किसीकी भी भावना नहीं की जाती ॥ ११-२६ ॥
इत्थं जाता परा भक्तिर्यस्य भूधर तत्त्वतः । तदैव तस्य चिन्मात्रे मद्रूपे विलयो भवेत् ॥ २७ ॥
हे भूधर ! इस प्रकारकी पराभक्ति जिसके हृदयमें उत्पन्न हो जाती है, उसका उसी क्षण मेरे चिन्मयरूपमें विलय हो जाता है ॥ २७ ॥
भक्तेस्तु या परा काष्ठा सैव ज्ञानं प्रकीर्तितम् । वैराग्यस्य च सीमा सा ज्ञाने तदुभयं यतः ॥ २८ ॥
भक्तिकी जो पराकाष्ठा है, उसीको ज्ञान कहा गया है और वही वैराग्यकी सीमा भी है; क्योंकि ज्ञान प्राप्त हो जानेपर भक्ति और वैराग्य-ये दोनों ही स्वयं सिद्ध हो जाते हैं ॥ २८ ॥
भक्तौ कृतायां यस्यापि प्रारब्धवशतो नग । न जायते मम ज्ञानं मणिद्वीपं स गच्छति ॥ २९ ॥ तत्र गत्वाखिलान्भोगाननिच्छन्नपि चर्च्छति । तदन्ते मम चिद्रूपज्ञानं सम्यग्भवेन्नग ॥ ३० ॥ तेन मुक्तः सदैव स्याज्ज्ञानान्मुक्तिर्न चान्यथा । इहैव यस्य ज्ञानं स्याद्धृद्गतप्रत्यगात्मनः ॥ ३१ ॥ मम संवित्परतनोस्तस्य प्राणा व्रजन्ति न । ब्रह्मैव संस्तदाप्नोति ब्रह्मैव ब्रह्म वेद यः ॥ ३२ ॥
हे नग ! मेरी भक्ति करनेपर भी जिसे प्रारब्धवश मेरा ज्ञान नहीं हो पाता है, वह मेरे धाम 'मणिद्वीप में जाता है । वहाँ जाकर समस्त प्रकारके भोगोंमें अनासक्त होता हुआ वह अपना समय व्यतीत करता है । हे नग ! अन्तमें उसे मेरे चिन्मयरूपका सम्यक् ज्ञान हो जाता है । उस ज्ञानके प्रभावसे वह सदाके लिये मुक्त हो जाता है; क्योंकि ज्ञानसे ही मुक्ति होती है । इसमें सन्देह नहीं है । इस लोकमें जिस व्यक्तिको हदयमें स्थित प्रत्यगात्माका स्वरूपावबोध हो जाता है, मेरे ज्ञानपरायण उस भक्तके प्राण उत्क्रमण नहीं करते अर्थात् इस शरीरमें ही प्राणोंका लय हो जाता है । जो मनुष्य ब्रह्मको जान लेता है, वह स्वयं ब्रह्मका ही रूप होकर उसी ब्रह्मको ही प्राप्त हो जाता है ॥ २९-३२ ॥
जैसे कंठमें स्थित सोनेका हार भ्रमवश खो गयेके समान प्रतीत होने लगता है, किंतु भ्रमका नाश होते ही वह प्राप्त हो जाता है, जबकि वह मिला हुआ पहलेसे ही था । हे पर्वतश्रेष्ठ ! मेरा स्वरूप ज्ञात और अज्ञातसे विलक्षण है । जैसे दर्पणपर परछाहीं पड़ती है, वैसे ही इस शरीरमें आत्माकी परछाहींका अनुभव होता है । जैसे जलमें प्रतिबिम्ब पड़ता है, वैसे ही पितृलोकमें अनुभव होता है । छाया और प्रकाश जैसे स्पष्टतः भिन्न दीखते हैं, वैसे ही मेरे लोकमें द्वैतभावसे रहित ज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥ ३३-३५ ॥
यदि मनुष्य वैराग्ययुक्त होकर पूर्ण ज्ञानके बिना मृत्युको प्राप्त हो जाय तो एक कल्पतक निरन्तर ब्रह्मलोकमें निवास करता है । उसके बाद पवित्र श्रीमान् पुरुषोंके घरमें उसका जन्म होता है । वहाँपर वह साधना करता है और फिर उसमें ज्ञानका उदय होता है ॥ ३६-३७ ॥
हे राजन् ! एक जन्ममें मनुष्यको ज्ञान नहीं होता, अपितु अनेक जन्मोंमें ज्ञानका आविर्भाव होता है । अतः पूर्ण प्रयत्नके साथ ज्ञानप्राप्तिके लिये उपायका आश्रय लेना चाहिये, अन्यथा महान् अनर्थ होता है; क्योंकि यह मनुष्य-जन्म अत्यन्त दुर्लभ है, उसमें भी ब्राह्मणवर्णमें और उसमें भी वेदज्ञानकी प्राप्ति होना महान् दुर्लभ है । साथ ही शम, दम आदि छ: सम्पदाएँ, योगसिद्धि तथा उत्तम गुरुको प्राप्तियह सब इस लोकमें दुर्लभ है । अनेक जन्मोंके पुण्योंसे इन्द्रियोंमें सदा कार्य करते रहनेकी क्षमता, शरीरका संस्कारसम्पन्न रहना तथा मोक्षकी अभिलाषा उत्पन्न होती है । जो मनुष्य इस प्रकारके सफल साधनसे युक्त रहनेपर भी ज्ञानके लिये प्रयत्न नहीं करता, उसका जन्म निरर्थक है ॥ ३८-४२ ॥
अतएव हे राजन् ! मनुष्यको यथाशक्ति ज्ञानप्राप्तिके लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये । उससे मनुष्य एकएक पदपर अश्वमेधयज्ञका फल निश्चितरूपसे प्राप्त करता है । दूधमें छिपे हुए घृतकी भाँत प्रत्येक प्राणीमें विज्ञान रहता है । उसे मनरूपी मथानीसे निरन्तर मथते रहना चाहिये और इस प्रकार उस विज्ञानको प्राप्त करके कृतार्थ हो जाना चाहिये-ऐसा वेदान्तका डिंडिमघोष है । [हे पर्वतराज हिमालय !] मैंने आपको सब कुछ संक्षेपमें बता दिया, अब आप पुन: क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४३-४५ ॥