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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
अष्टमः स्कन्धः स्कन्धः
प्रथमोऽध्यायः

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भुवनकोशप्रसङ्गे देव्या मनवे वरदानवर्णनम् -
प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना -


जनमेजय उवाच
सूर्यचन्द्रान्वयोत्थानां नृपाणां सत्कथाश्रितम् ।
चरितं भवता प्रोक्तं श्रुतं तदमृतास्पदम् ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-[हे मुने !] आपने सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशमें उत्पन्न राजाओंका जो उत्तम कथाओंसे अन्वित तथा अमृतमय चरित्र वर्णित किया, उसे मैंने सुना ॥ १ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामि सा देवी जगदम्बिका ।
मन्वन्तरेषु सर्वेषु यद्यद्‌रूपेण पूज्यते ॥ २ ॥
यस्मिन्यस्मिंश्च वै स्थाने येन येन च कर्मणा ।
(शरीरेण च देवेशी पूजनीया फलप्रदा ।
येनैव मन्त्रबीजेन यत्र यत्र च पूज्यते ॥)
देव्या विराट्स्वरूपस्य वर्णनं च यथातथम् ॥ ३ ॥
सम्पूर्ण मन्वन्तरोंमें जिस-जिस स्थानपर तथा जिस-जिस कर्मसे एवं जिस-जिस रूपसे उन देवी जगदम्बाकी पूजा की जाती है, अब उसे मैं सुनना चाहता हूँ । (सभी फल प्रदान करनेवाली वे पूज्या देवीश्वरी जिस बीज-मन्त्रसे, जहाँ-जहाँ तथा जिस रूपमें पूजी जाती हैं, उसे सुनाइये । साथ ही भगवतीके विराट् स्वरूपका वर्णन यथार्थरूपमें सुनना चाहता हूँ ॥ २-३ ॥

येन ध्यानेन तत्सूक्ष्मे स्वरूपे स्यान्मतेर्गतिः ।
तत्सर्वं वद विप्रर्षे येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥ ४ ॥
हे विप्रर्षे ! जिस ध्यानसे उन भगवतीके सूक्ष्म स्वरूपमें बुद्धि स्थिर हो जाय, वह सब मुझे बतलाइये जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ॥ ४ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि देव्याराधनमुत्तमम् ।
यत्कृतेन श्रुतेनापि नरः श्रेयोऽत्र विन्दते ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, अब मैं देवीकी उत्तम आराधनाके विषयमें कह रहा हूँ, जिसे करने अथवा सुननेसे भी मनुष्य इस लोकमें कल्याण प्राप्त कर लेता है ॥ ५ ॥

एवमेतन्नारदेन पृष्टो नारायणः पुरा ।
तस्मै यदुक्तवान्देवो योगचर्याप्रवर्तकः ॥ ६ ॥
इसी प्रकार पूर्वकालमें नारदजीके द्वारा योगचर्याके प्रवर्तक भगवान् नारायणसे पूछे जानेपर उन्होंने नारदजीसे जो कहा था, वही मैं बता रहा हूँ ॥ ६ ॥

एकदा नारदः श्रीमान्पर्यटन्पृथिवीमिमाम् ।
नारायणाश्रमं प्राप्तो गतखेदश्च तस्थिवान् ॥ ७ ॥
तस्मै योगात्मने नत्वा ब्रह्मदेवतनूद्‍भवः ।
पर्यपृच्छदिमं चार्थं यत्पृष्टो भवतानघ ॥ ८ ॥
एक बार श्रीमान् नारद इस पृथ्वीपर विचरण करते हुए नारायणके आश्रमपर पहुंचे और वहाँ निश्चिन्त होकर बैठ गये । हे अनघ ! तत्पश्चात् उन योगात्मा नारायणको प्रणाम करके ब्रह्माजीके पुत्र नारदने उनसे यही प्रश्न पूछा था, जो आपने मुझसे पूछा है ॥ ७-८ ॥

नारद उवाच
देवदेव महादेव पुराणपुरुषोत्तम ।
जगदाधार सर्वज्ञ श्लाघनीयोरुसद्‍गुण ॥ ९ ॥
जगतस्तत्त्वमाद्यं यत्तन्मे वद यथेप्सितम् ।
जायते कुत एवेदं कुतश्चेदं प्रतिष्ठितम् ॥ १० ॥
कुतोऽन्तं प्राप्नुयात्काले कुत्र सर्वफलोदयः ।
केन ज्ञातेन मायैषा मोहभूर्नाशमाप्नुयात् ॥ ११ ॥
नारदजी बोले-हे देवदेव ! हे महादेव ! हे पुराणपुरुषोत्तम ! हे जगदाधार ! हे सर्वज्ञ ! हे श्लाघनीय ! हे विपुल सद्‌गुणोंसे सम्पन्न ! इस जगत्का जो आदितत्त्व है, उसे आप यथेच्छरूपसे मुझे बताइये । यह जगत् किससे उत्पन्न होता है, किससे इसकी रक्षा होती है, किसके द्वारा इसका संहार होता है, किस समय सभी कर्मोका फल उदित होता है तथा किस ज्ञानके हो जानेपर इस मोहमयी मायाका नाश हो जाता है ? ॥ ९-११ ॥

कयार्चया किं जपेन किं ध्यानेनात्महृत्कजे ।
प्रकाशो जायते देव तमस्यर्कोदयो यथा ॥ १२ ॥
हे देव ! किस पूजासे, किस जपसे और किस ध्यानसे अन्धकारमें सूर्योदयकी भाँति अपने हृदयकमलमें प्रकाश उत्पन्न होता है ? ॥ १२ ॥

एतत्प्रश्नोत्तरं देव ब्रूहि सर्वमशेषतः ।
यथा लोकस्तरेदन्धतमसं त्वञ्जसैव हि ॥ १३ ॥
हे देव ! इन सभी प्रश्नोंका उत्तर पूर्णरूपसे बताइये, जिससे इस संसारके प्राणी अज्ञानान्धकारमय जगत्को शीघ्रतासे पार कर लें ॥ १३ ॥

व्यास उवाच
एवं देवर्षिणा पृष्टः प्राचीनो मुनिसत्तमः ।
नारायणो महायोगी प्रतिनन्द्य वचोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] देवर्षि नारदके इस प्रकार पूछनेपर महायोगी, मुनिश्रेष्ठ तथा सनातन पुरुष भगवान् नारायणने साधुवाद देकर यह वचन कहा ॥ १४ ॥

श्रीनारायण उवाच
शृणु देवर्षिवर्यात्र जगतस्तत्त्वमुत्तमम् ।
येन ज्ञातेन मर्त्यो हि जायते न जगद्‍भ्रमे ॥ १५ ॥
श्रीनारायण बोले-हे देवर्षि श्रेष्ठ ! अब आप जगत्का उत्तम तत्त्व सुनिये, जिसे जान लेनेपर मनुष्य सांसारिक भ्रममें नहीं पड़ता ॥ १५ ॥

जगतस्तत्त्वमित्येव देवी प्रोक्ता मयापि हि ।
ऋषिभिर्देवगन्धर्वैरन्यैश्चापि मनीषिभिः ॥ १६ ॥
इस जगत्का एकमात्र तत्त्व भगवती जगदम्बा ही हैं-ऐसा मैं बता चुका हूँ और ऋषियों, देवताओं, गन्धों तथा अन्य मनीषियोंने भी ऐसा ही कहा है ॥ १६ ॥

सा जगत्सृजते देवी तया च प्रतिपाल्यते ।
तया च नाश्यते सर्वमिति प्रोक्तं गुणत्रयात् ॥ १७ ॥
तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम)-से युक्त होनेके कारण वे भगवती ही सम्पूर्ण जगत्की रचना करती हैं, वे ही पालन करती हैं और वे ही संहार करती हैं-ऐसा कहा गया है ॥ १७ ॥

तस्याः स्वरूपं वक्ष्यामि देव्याः सिद्धर्षिपूजितम् ।
स्मरतां सर्वपापघ्नं कामदं मोक्षदं तथा ॥ १८ ॥
अब मैं भगवतीके सिद्ध-ऋषिपूजित स्वरूपका वर्णन करूँगा; जो स्मरण करनेवालोंके सभी पापोंका नाश करनेवाला, उनके मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला तथा उन्हें मोक्ष प्रदान करनेवाला है ॥ १८ ॥

मनुः स्वायम्भुवस्त्वाद्यः पद्मपुत्रः प्रतापवान् ।
शतरूपापतिः श्रीमान्सर्वमन्वन्तराधिपः ॥ १९ ॥
ब्रह्माके पुत्र तथा शतरूपाके पति स्वायम्भुव मनु आदि मनु हैं । उन प्रतापी तथा श्रीमान् मनुको समस्त मन्वन्तरोंका अधिपति कहा जाता है ॥ १९ ॥

स मनुः पितरं देवं प्रजापतिमकल्मषम् ।
भक्त्या पर्यचरत्पूर्वं तमुवाचात्मभूः सुतम् ॥ २० ॥
पुत्र पुत्र त्वया कार्यं देव्याराधनमुत्तमम् ।
तत्प्रसादेन ते तात प्रजासर्गः प्रसिद्ध्यति ॥ २१ ॥
पूर्वकालमें एक बार वे स्वायम्भुव मनु अपने पुण्यात्मा पिता प्रजापति ब्रह्माके पास भक्तिपूर्वक सेवामें संलग्न थे । तब ब्रह्माजीने उन पुत्र मनुसे कहा-हे पुत्र ! हे पुत्र ! तुम्हें भगवतीकी उत्तम आराधना करनी चाहिये । हे तात ! उन्हींके अनुग्रहसे प्रजासृष्टिका तुम्हारा कार्य सिद्ध हो सकेगा ॥ २०-२१ ॥

एवमुक्तः प्रजास्रष्ट्रा मनुः स्वायम्भुवो विराट् ।
जगद्योनिं तदा देवीं तपसातर्पयद्‌ विभुः ॥ २२ ॥
तुष्टाव देवीं देवेशीं समाहितमतिः किल ।
आद्यां मायां सर्वशक्तिं सर्वकारणकारणाम् ॥ २३ ॥
प्रजाओंकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर महान् ऐश्वर्यशाली स्वायम्भुव मनु अपनी तपस्यासे जगत्की योनिरूपा भगवतीको प्रसन्न करनेमें तत्पर हो गये । उन्होंने एकाग्रचित्त होकर मायास्वरूपिणी, सर्वशक्तिमयी, सभी कारणोंकी भी कारण, देवेश्वरी आद्या भगवतीका स्तवन आरम्भ किया ॥ २२-२३ ॥

मनुरुवाच
नमो नमस्ते देवेशि जगत्कारणकारणे ।
शङ्खचक्रगदाहस्ते नारायणहृदाश्रिते ॥ २४ ॥
मनु बोले-जगत्के कारणोंकी भी कारण, नारायणके हदयमें विराजमान तथा हाथोंमें शंखचक्र-गदा धारण करनेवाली हे देवेश्वरि ! आपको बार-बार नमस्कार है । २४ ॥

वेदमूर्त्ते जगन्मातः कारणस्थानरूपिणि ।
वेदत्रयप्रमाणज्ञे सर्वदेवनुते शिवे ॥ २५ ॥
माहेश्वरि महाभागे महामाये महोदये ।
महादेवप्रियावासे महादेवप्रियंकरि ॥ २६ ॥
गोपेन्द्रस्य प्रिये ज्येष्ठे महानन्दे महोत्सवे ।
महामारीभयहरे नमो देवादिपूजिते ॥ २७ ॥
वेदमूर्तिस्वरूपिणी, जगज्जननी, कारणस्थानस्वरूपा, तीनों वेदोंके प्रमाण जाननेवाली, समस्त देवोंद्वारा नमस्कृत, कल्याणमयी, परमेश्वरी, परमभाग्यशालिनी, अनन्त मायासे सम्पन्न, महान् अभ्युदयवाली, महादेवकी प्रिय आवासरूपिणी, महादेवका प्रिय करनेवाली, गोपेन्द्रकी प्रिया, ज्येष्ठा, महान् आनन्दस्वरूपिणी, महोत्सवा, महामारीके भयका नाश करनेवाली तथा देवता आदिके द्वारा पूजित हे भगवति ! आपको नमस्कार है ॥ २५-२७ ॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २८ ॥
सभी मंगलोंका भी मंगल करनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, सभी पुरुषार्थीको सिद्ध करनेवाली, शरणागतजनोंकी रक्षा करनेवाली तथा तीन नेत्रोंवाली हे गौरि ! हे नारायणि ! आपको नमस्कार है ॥ २८ ॥

यतश्चेदं यया विश्वमोतं प्रोतं च सर्वदा ।
चैतन्यमेकमाद्यन्तरहितं तेजसां निधिम् ॥ २९ ॥
यह जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है तथा जिनसे पूर्णतया ओतप्रोत है: उन भगवतीके चैतन्यमय, अद्वितीय आदि-अन्तसे रहित तथा तेजोंके निधानभूत रूपको नमस्कार है ॥ २९ ॥

ब्रह्मा यदीक्षणात्सर्वं करोति च हरिः सदा ।
पालयत्यपि विश्वेशः संहर्ता यदनुग्रहात् ॥ ३० ॥
जिनकी कृपादृष्टिसे ब्रह्मा सम्पूर्ण सृष्टि करते हैं, विष्णु सदा पालन करते हैं और जिनके अनुग्रहसे विश्वेश्वर शिव संहार करते हैं, उन जगदम्बाको नमस्कार है ॥ ३० ॥

मधुकैटभसम्भूतभयार्तः पद्मसम्भवः ।
यस्याः स्तवेन मुमुचे घोरदैत्यभवाम्बुधेः ॥ ३१ ॥
मधु-कैटभके द्वारा उत्पन्न किये गये भयसे व्याकुल ब्रह्माने जिनकी स्तुति करके भयंकर दैत्यरूपी भव-सागरसे मुक्ति प्राप्त की थी, (उन भगवतीको नमस्कार है । ) ॥ ३१ ॥

त्वं ह्रीः कीर्तिः स्मृतिः कान्तिः कमला गिरिजा सती ।
दाक्षायणी वेदगर्भा सिद्धिदात्री सदाभया ॥ ३२ ॥
स्तोष्ये त्वां च नमस्यामि पूजयामि जपामि च ।
ध्यायामि भावये वीक्षे श्रोष्ये देवि प्रसीद मे ॥ ३३ ॥
आप ही, कीर्ति, स्मृति, कान्ति, कमला, गिरिजा, सती, दाक्षायणी, वेदगर्भा, सिद्धिदात्री तथा अभया नामसे सर्वदा प्रसिद्ध हैं । हे देवि ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ, आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी पूजा करता हूँ, आपका जप करता हूँ, आपका ध्यान करता हूँ, आपकी भावना करता हूँ, आपका दर्शन करता हूँ तथा आपका चरित्र सुनता हूँ; आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये ॥ ३२-३३ ॥

ब्रह्मा वेदनिधिः कृष्णो लक्ष्यावासः पुरन्दरः ।
त्रिलोकाधिपतिः पाशी यादसाम्पतिरुत्तमः ॥ ३४ ॥
कुबेरो निधिनाथोऽभूद्यमो जातः परेतराट् ।
नैर्ऋतो रक्षसां नाथः सोमो जातो ह्यपोमयः ॥ ३५ ॥
आपके ही अनुग्रहसे ब्रह्माजी वेदके निधि, श्रीहरि लक्ष्मीके स्वामी, इन्द्र त्रिलोकीके अधिपति, वरुण जलचर जन्तुओंके श्रेष्ठ नायक, कुबेर धनके स्वामी, यमराज प्रेतोंके अधिपति, नैत राक्षसोंके नाथ और चन्द्रमा रसमय बन गये हैं । ३४-३५ ॥

त्रिलोकवन्द्ये लोकेशि महामाङ्गल्यरूपिणि ।
नमस्तेऽस्तु पुनर्भूयो जगन्मातर्नमो नमः ॥ ३६ ॥
हे त्रिलोकवन्द्ये ! हे लोकेश्वरि ! हे महामांगल्यस्वरूपिणि ! आपको नमस्कार है । हे जगन्मातः ! आपको बार-बार प्रणाम है ॥ ३६ ॥

श्रीनारायण उवाच
एवं स्तुता भगवती दुर्गा नारायणी परा ।
प्रसन्ना प्राह देवर्षे ब्रह्मपुत्रमिदं वचः ॥ ३७ ॥
श्रीनारायण बोले-हे देवर्षे ! इस प्रकार स्तुति करनेपर परारूपा नारायणी भगवती दुर्गा प्रसन्न होकर ब्रह्माके पुत्र मनुसे यह वचन कहने लगीं ॥ ३७ ॥

देव्युवाच
वरं वरय राजेन्द्र ब्रह्मपुत्र यदिच्छसि ।
प्रसन्नाहं स्तवेनात्र भक्त्या चाराधनेन च ॥ ३८ ॥
देवी बोलीं-हे राजेन्द्र ! मैं आपके द्वारा भक्तिपूर्वक की गयी इस स्तुति तथा आराधनासे प्रसन्न हूँ । अतः हे ब्रह्मपुत्र ! आप जो वर चाहते हैं, उसे माँग लें ॥ ३८ ॥

मनुरुवाच
यदि देवि प्रसन्नासि भक्त्या कारुणिकोत्तमे ।
तदा निर्विघ्नतः सृष्टिः प्रजायाः स्यात्तवाज्ञया ॥ ३९ ॥
मनु बोले-[भक्तोंपर] महान् अनुकम्पा करनेवाली हे देवि ! यदि आप मेरी भक्तिसे प्रसन्न हैं तो मेरी यही याचना है कि आपकी आज्ञासे प्रजाकी सृष्टि निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्न हो ॥ ३९ ॥

देव्युवाच
प्रजासर्गः प्रभवतु ममानुग्रहतः किल ।
निर्विघ्नेन च राजेन्द्र वृद्धिश्चाप्युत्तरोत्तरम् ॥ ४० ॥
देवी बोलीं-हे राजेन्द्र ! मेरे अनुग्रहसे प्रजासृष्टि अवश्य सम्पन्न होगी और निर्विघ्नतापूर्वक निरन्तर उसकी वृद्धि भी होती रहेगी ॥ ४० ॥

यः कश्चित्पठते स्तोत्रं मद्‍भक्त्या त्वत्कृतं सदा ।
तेषां विद्या प्रजासिद्धिः कीर्तिः कान्त्युदयः खलु ॥ ४१ ॥
जायन्ते धनधान्यानि शक्तिरप्रहता नृणाम् ।
सर्वत्र विजयो राजन् सुखं शत्रुपरिक्षयः ॥ ४२ ॥
जो कोई भी मनुष्य मेरी भक्तिसे युक्त होकर आपके द्वारा की गयी इस स्तुतिका पाठ करेगा; उसकी विद्या, सन्तान-सुख तथा कीर्ति बढ़ेगी तथा कान्तिका उदय होगा और धन-धान्य निरन्तर बढ़ते रहेंगे । हे राजन् ! उन मनुष्योंकी शक्ति कभी निष्फल नहीं होगी, सर्वत्र उनकी विजय होगी, उनके शत्रुओंका नाश होगा और वे सदा सुखी रहेंगे ॥ ४१-४२ ॥

श्रीनारायण उवाच
एवं दत्त्वा वरान् देवी मनवे ब्रह्मसूनवे ।
अन्तर्धानं गता चासीत्पश्यतस्तस्य धीमतः ॥ ४३ ॥
श्रीनारायण बोले-ब्रह्माजीके पुत्र स्वायम्भुव मनुको इस प्रकारके वर देकर उन बुद्धिमान् मनुके देखते-देखते भगवती अन्तर्धान हो गयीं ॥ ४३ ॥

अथ लब्धवरो राजा ब्रह्मपुत्रः प्रतापवान् ।
ब्रह्माणमब्रवीत्तात स्थानं मे दीयतां रहः ॥ ४४ ॥
यत्राहं समधिष्ठाय प्रजाः स्रक्ष्यामि पुष्कलाः ।
यक्ष्यामि यज्ञैर्देवेशं तत्समादिश माचिरम् ॥ ४५ ॥
तत्पश्चात् वर प्राप्त करके महान् प्रतापी ब्रह्मापुत्र राजा स्वायम्भुव मनुने ब्रह्मासे कहा-हे तात ! आप मुझे कोई ऐसा एकान्त स्थान दीजिये, जहाँ रहकर प्रचुर प्रजाओंकी सृष्टि और यज्ञोंके द्वारा देवेश्वरकी उपासना कर सकूँ । अतः अविलम्ब आदेश दीजिये ॥ ४४-४५ ॥

इति पुत्रवचः श्रुत्वा प्रजापतिपतिर्विभुः ।
चिन्तयामास सुचिरं कथं कार्यं भवेदिदम् ॥ ४६ ॥
सृजतो मे गतः कालो विपुलोऽनन्तसंख्यकः ।
धरा वार्भिः स्तुता मग्ना रसं याताखिलाश्रया ॥ ४७ ॥
इदं मच्चिन्तितं कार्यं भगवानादिपूरुषः ।
करिष्यति सहायो मे यदादेशेऽहमाश्रितः ॥ ४८ ॥
अपने पुत्रकी यह बात सुनकर प्रजापतियोंके भी स्वामी ऐश्वर्यशाली ब्रह्मा देरतक सोचने लगे कि यह कार्य कैसे सम्पन्न हो । प्रजाकी सृष्टि करते हुए मेरा अनन्तकालका बहुत समय बीत गया । सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय प्रदान करनेवाली यह पृथ्वी जलके द्वारा आप्लावित हो गयी और जलमय होकर डूब गयी । अतः अब वे भगवान् आदिपुरुष मेरे सहायक बनकर मेरा यह सुचिन्तित कार्य सम्पन्न करेंगे, जिनके आदेशपर मैं आश्रित हूँ ॥ ४६-४८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशप्रसङ्गे
देव्या मनवे वरदानवर्णनं नाम प्रधमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्वयां संहितायामष्टमस्कन्धे भुवनकोशप्रसङ्‌गे देव्या मनवे वरदानवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥


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