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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
सप्तमः स्कन्धः
चत्वारिंशोऽध्यायः

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देवीगीतायां बाह्यपूजाविधिवर्णनम् -
देवीकी पूजा-विधि तथा फलश्रुति -


श्री देव्युवाच
प्रातरुत्थाय शिरसि संस्मरेत्पद्ममुज्ज्वलम् ।
कर्पूराभं स्मरेत्तत्र श्रीगुरुं निजरूपिणम् ॥ १ ॥
सुप्रसन्नं लसद्‌भूषाभूषितं शक्तिसंयुतम् ।
नमस्कृत्य ततो देवीं कुण्डलीं संस्मरेद्बुधः ॥ २ ॥
प्रकाशमानां प्रथमे प्रयाणे
     प्रतिप्रयाणेऽप्यमृतायमानाम् ।
अन्तः पदव्यामनुसञ्चरन्ती-
     मानन्दरूपामबलां प्रपद्ये ॥ ३ ॥
देवी बोलीं-प्रातःकाल उठकर सिरमें प्रतिष्ठित ब्रह्मरन्ध्र (सहस्रार-चक्र)-में कर्पूरके समान आभावाले उज्ज्वल कमलका ध्यान करना चाहिये । उसपर अत्यन्त प्रसन्न, वस्त्र-आभूषणसे सुसज्जित तथा शक्तिसे सम्पन्न अपने ही स्वरूपवाले श्रीगुरु विराजमान हैं-ऐसी भावना करनी चाहिये । उन्हें प्रणाम करनेके अनन्तर विद्वान् साधकको भगवती कुण्डलिनी शक्तिका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये-प्रथम प्रयाणमें अर्थात् ब्रह्मरन्ध्रमें संचरण करनेपर प्रकाश-पुंजरूपवाली, प्रतिप्रयाणमें अर्थात् मूलाधारमें संचरण करनेपर अमृतमयस्वरूपवाली तथा अन्त:पदमें अर्थात् सुषुम्णा नाड़ीमें विराजनेपर आनन्दमयी स्त्रीरूपिणी देवी कुण्डलिनीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ १-३ ॥

ध्यात्वैवं तच्छिखामध्ये सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
मां ध्यायेदथ शौचादिक्रियाः सर्वाः समापयेत् ॥ ४ ॥
इस प्रकार कुण्डलिनी शक्तिका ध्यान करके उसकी शिखाके मध्यमें सच्चिदानन्दरूपिणी मुझ भगवतीका ध्यान करना चाहिये । इसके बाद शौच आदि सभी नित्य क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये ॥ ४ ॥

अग्निहोत्रं ततो हूत्वा मत्प्रीत्यर्थं द्विजोत्तमः ।
होमान्ते स्वासने स्थित्वा पूजासङ्कल्पमाचरेत् ॥ ५ ॥
भूतशुद्धिं पुरा कृत्वा मातृकान्यासमेव च ।
हृल्लेखामातृकान्यासं नित्यमेव समाचरेत् ॥ ६ ॥
मूलाधारे हकारं च हृदये च रकारकम् ।
भ्रूमध्ये तद्वदीकारं ह्रीङ्कारं मस्तके न्यसेत् ॥ ७ ॥
तत्तन्मन्त्रोदितानन्यान्न्यासान्सर्वान्समाचरेत् ।
कल्पयेत्स्वात्मनो देहे पीठं धर्मादिभिः पुनः ॥ ८ ॥
तत्पश्चात् श्रेष्ठ द्विजको चाहिये कि मेरी प्रसन्नताके लिये अग्निहोत्र करे । पुनः होमके अन्तमें अपने आसनपर बैठकर पूजनका संकल्प करना चाहिये । पहले भूतशुद्धि करके मातृकान्यास करे; हल्लेखामातृकान्यास नित्य ही करना चाहिये । मूलाधारमें हकार, हृदयमें रकार, भ्रमध्यमें ईकार तथा मस्तकमें ह्रींकारका न्यास करना चाहिये । तत्-तत् मन्त्रोंके कथनानुसार अन्य सभी न्यासोंको सम्पन्न करना चाहिये । फिर अपने शरीरमें धर्म आदि सभी सत्कर्मोसे परिपूर्ण एक दिव्य पीठकी कल्पना करनी चाहिये ॥ ५-८ ॥

ततो ध्यायेन्महादेवीं प्राणायामैर्विजृम्भिते ।
हृदम्भोजे मम स्थाने पञ्चप्रेतासने बुधः ॥ ९ ॥
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः ।
एते पञ्च महाप्रेताः पादमूले मम स्थिताः ॥ १० ॥
पञ्चभूतात्मका ह्येते पञ्चावस्थात्मका अपि ।
अहं त्वव्यक्तचिद्‌रूपा तदतीतास्ति सर्वथा ॥ ११ ॥
ततो विष्टरतां याताः शक्तितन्त्रेषु सर्वदा ।
ध्यात्वैवं मानसैर्भोगैः पूजयेन्मां जपेदपि ॥ १२ ॥
तदनन्तर विज्ञ पुरुषको प्राणायामके प्रभावसे खिले हुए अपने हदयकमलरूप स्थानमें पंचप्रेतासनके ऊपर महादेवीका ध्यान करना चाहिये । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव-ये पाँचों महाप्रेत मेरे पादमूलमें अवस्थित हैं । ये महाप्रेत पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-इन पाँच भूतों एवं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय तथा अतीत-इन पाँच अवस्थाओंके स्वरूप हैं । चिन्मय तथा अव्यक्त रूपवाली मैं इन सबसे सर्वथा परे हूँ । शक्तितन्त्रोंमें ब्रह्मा आदिका आसनरूपमें परिणत होना सर्वदा प्रसिद्ध है । इस प्रकार ध्यान करके मानसिक भोगसामग्रियोंसे मेरी पूजा करे और मेरा जप भी करे ॥ ९-१२ ॥

जपं समर्प्य श्रीदेव्यै ततोऽर्घ्यस्थापनं चरेत् ।
पात्रासादनकं कृत्वा पूजाद्रव्याणि शोधयेत् ॥ १३ ॥
जलेन तेन मनुना चास्त्रमन्त्रेण देशिकः ।
दिग्बन्धं च पुरा कृत्वा गुरून्नत्वा ततः परम् ॥ १४ ॥
तदनुज्ञां समादाय बाह्यपीठे ततः परम् ।
हृदिस्थां भवितां मूर्तिं मम दिव्यां मनोहराम् ॥ १५ ॥
श्रीदेवीको जप अर्पण करके अर्घ्य-स्थापन करना चाहिये । सर्वप्रथम पूजन-पात्रोंको सामने रखकर साधक अस्त्रमन्त्र (ॐ फट्)-का उच्चारण करके जलसे पूजाद्रव्योंको शुद्ध करे । पुनः इसी मन्त्रसे दिग्बन्ध करके गुरुको प्रणाम करनेके अनन्तर उनकी आज्ञा लेकर साधक अपने हृदयमें भावित मेरी दिव्य मनोहर मूर्तिको बाह्य पीठपर आवाहित करे । इसके बाद प्राणप्रतिष्ठामन्त्रद्वारा पीठपर उस मूर्तिकी प्राणप्रतिष्ठा करे ॥ १३-१५ ॥

आवाहयेत्ततः पीठे प्राणस्थापनविद्यया ।
असनावाहने चार्घ्यं पाद्याद्याचमनं तथा ॥ १६ ॥
स्नानं वासोद्वयं चैव भूषणानि च सर्वशः ।
गन्धपुष्पं यथायोग्यं दत्त्वा देव्यै स्वभक्तितः ॥ १७ ॥
यन्त्रस्थानामावृतीनां पूजनं सम्यगाचरेत् ।
प्रतिवारमशक्तानां शुक्रवारो नियम्यते ॥ १८ ॥
इस प्रकार आसन, आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, दो वस्त्र, हर प्रकारके आभूषण, गन्ध, पुष्प आदि भगवतीको यथोचितरूपसे भक्तिपूर्वक अर्पण करके यन्त्रमें लिखित आवरणदेवताओंकी विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये । प्रतिदिन पूजा करने में असमर्थ लोगोंके लिये देवीकी पूजाहेतु शुक्रवारका दिन निर्धारित है ॥ १६-१८ ॥

मूलदेवीप्रभारूपाः स्मर्तव्या अङ्गदेवताः ।
तत्प्रभापटलव्याप्तं त्रैलोक्यं च विचिन्तयेत् ॥ १९ ॥
पुनरावृत्तिसहितां मूलदेवीं च पूजयेत् ।
गन्धादिभिः सुगन्धैस्तु तथा पुष्पैः सुवासितैः ॥ २० ॥
नैवेद्यैस्तर्पणैश्चैव ताम्बूलैर्दक्षिणादिभिः ।
तोषयेन्मां त्वत्कृतेन नाम्नां साहस्रकेण च ॥ २१ ॥
कवचेन च सूक्तेनाहं रुद्रेभिरिति प्रभो ।
देव्यथर्वशिरोमन्त्रैर्हृल्लेखोपनिषद्‌भवैः ॥ २२ ॥
महाविद्यामहामन्त्रैस्तोषयेन्मां मुहुर्मुहुः ।
मूलदेवीके प्रभास्वरूप आवरणदेवताओंका ध्यान करना चाहिये । उन देवीके प्रभामण्डलमें त्रिलोक व्याप्त है-ऐसा चिन्तन करना चाहिये । इसके बाद सुगन्धित गन्ध आदि द्रव्यों, सुन्दर वाससे युक्त पुष्पों, विभिन्न प्रकारके नैवेद्यों, तर्पणों, ताम्बूलों तथा दक्षिणा आदिसे आवरणदेवताओंसहित मुझ मूलदेवीकी पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् हे राजन् ! आपके द्वारा रचित सहस्रनामके द्वारा मुझे प्रसन्न करना चाहिये; साथ ही देवीकवच, 'अहं रुद्रेभिः' इत्यादि सूक्त, हल्लेखोपनिषद्-सम्बन्धी देव्यथर्वशीर्ष मन्त्रों और महाविद्याके प्रधान मन्त्रोंसे मुझे बार-बार प्रसन्न करना चाहिये ॥ १९-२२.५ ॥

क्षमापयेज्जगद्धात्रीं प्रेमार्द्रहृदयो नरः ॥ २३ ॥
पुलकाङ्‌कितसर्वाङ्गैर्बाष्परुद्धाक्षिनिःस्वनः ।
नृत्यगीतादिघोषेण तोषयेन्मां मुहुर्मुहुः ॥ २४ ॥
वेदपारायणैश्चैव पुराणैः सकलैरपि ।
प्रतिपाद्या यतोऽहं वै तस्मात्तैस्तोषयेत्तु माम् ॥ २५ ॥
निजं सर्वस्वमपि मे सदेहं नित्यशोऽर्पयेत् ।
नित्यहोमं ततः कुर्याद्‌ब्राह्मणांश्च सुवासिनीः ॥ २६ ॥
बटुकान्पामरानन्यान्देवीबुद्ध्या तु भोजयेत् ।
नत्वा पुनः स्वहृदये व्युत्क्रमेण विसर्जयेत् ॥ २७ ॥
तत्पश्चात् पुलकित समस्त अंगोंसे युक्त, अश्रुसे अवरुद्ध नेत्र तथा कण्ठवाला और प्रेमसे आर्द्र हृदयवाला वह साधक मुझ जगद्धात्रीके प्रति क्षमापराधके लिये प्रार्थना करे; साथ ही नृत्य और गीत आदिकी ध्वनिसे मुझे बार-बार प्रसन्न करे । चूँकि मैं सभी वेदों तथा पुराणोंकी मुख्य प्रतिपाद्य विषय हूँ, अतः उनके पाठ-पारायणोंसे मुझे प्रसन्न करना चाहिये । देहसहित अपना सब कुछ मुझे नित्य अर्पित कर देना चाहिये । तदनन्तर नित्य होम करे । ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, बटुकों तथा अन्य दीनलोगोंको देवीका रूप समझकर उन्हें भोजन कराना चाहिये । पुनः नमस्कार करके अपने हृदयमें जिस क्रमसे आवाहन आदि किया हो, ठीक उसके विपरीत क्रमसे विसर्जन करना चाहिये ॥ २३-२७ ॥

सर्वं हृल्लेखया कुर्यात् पूजनं मम सुब्रत ।
हृल्लेखा सर्वमन्त्राणां नायिका परमा स्मृता ॥ २८ ॥
हृल्लेखादर्पणे नित्यमहं तत्प्रतिबिम्बिता ।
तस्माद्‌हृल्लेखया दत्तं सर्वमन्त्रैः समर्पितम् ॥ २९ ॥
गुरुं सम्पूज्य भूषाद्यैः कृतकृत्यत्वमावहेत् ।
हे सुव्रत ! मेरी सम्पूर्ण पूजा हल्लेखा (ह्रीं) मन्त्रसे सम्पन्न करनी चाहिये; क्योंकि यह हल्लेखा सभी मन्त्रोंकी परम नायिका कही गयी है । हल्लेखारूपी दर्पणमें मैं निरन्तर प्रतिबिम्बित होती रहती हूँ; अत: हल्लेखा मन्त्रोंके द्वारा मुझे अर्पित किया गया पदार्थ सभी मन्त्रोंके द्वारा अर्पित किया गया समझा जाता है । भूषण आदि सामग्रियोंसे गुरुकी विधिवत् पूजा करके अपनेको कृतकृत्य समझना चाहिये ॥ २८-२९.५ ॥

य एवं पूजयेद्देवीं श्रीमद्‌भुवनसुन्दरीम् ॥ ३० ॥
न तस्य दुर्लभं किञ्चित्कदाचित्क्वचिदस्ति हि ।
देहान्ते तु मणिद्वीपं मम यात्येव सर्वथा ॥ ३१ ॥
ज्ञेयो देवीस्वरूपोऽसौ देवा नित्यं नमन्ति तम् ।
जो मनुष्य इस प्रकार मुझ श्रीमद्धवनसुन्दरी भगवतीकी पूजा करता है, उसके लिये कोई भी वस्तु किसी भी समयमें कहीं भी दुर्लभ नहीं रह सकती । देहावसान होनेपर वह निश्चित ही मेरे मणिद्वीपमें पहुँच जाता है । उसे देवीका ही स्वरूप समझना चाहिये; देवता उसे नित्य प्रणाम करते हैं ॥ ३०-३१.५ ॥

इति ते कथितं राजन् महादेव्याः प्रपूजनम् ॥ ३२ ॥
विमृश्यैतदशेषेणाप्यधिकारानुरूपतः ।
कुरु मे पूजनं तेन कृतार्थस्त्वं भविष्यसि ॥ ३३ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे महादेवीके पूजनके विषयमें बता दिया । आप इसपर भलीभांति विचार करके अपने अधिकारके अनुरूप मेरा पूजन कीजिये; उससे आप कृतार्थ हो जायेंगे ॥ ३२-३३ ॥

इदं तु गीताशास्त्रं मे नाशिष्याय वदेत् क्वचित् ।
नाभक्ताय प्रदातव्यं न धूर्ताय च दुर्हृदे ॥ ३४ ॥
एतत्प्रकाशनं मातुरुद्‌घाटनमुरोजयोः ।
तस्मादवश्यं यत्‍नेन गोपनीयमिदं सदा ॥ ३५ ॥
जो सत् शिष्य नहीं है, उसे कभी भी मेरे इस गीताशास्त्रको नहीं बताना चाहिये । साथ ही जो भक्त न हो, धूर्त हो तथा दुरात्मा हो, उसे भी इसका उपदेश नहीं देना चाहिये । अनधिकारीके समक्ष इसे प्रकाशित करना अपनी माताके वक्षःस्थलको प्रकट करनेके समान है, अत: इसे सदा प्रयत्नपूर्वक अवश्य गोपनीय रखना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥

देयं भक्ताय शिष्याय ज्येष्ठपुत्राय चैव हि ।
सुशीलाय सुवेषाय देवीभक्तियुताय च ॥ ३६ ॥
भक्तिसम्पन्न शिष्यको तथा सुशील, सुन्दर और देवीभक्तिपरायण ज्येष्ठ पुत्रको ही इसका उपदेश करना चाहिये ॥ ३६ ॥

श्राद्धकाले पठेदेतद्‌ब्राह्मणानाम् समीपतः ।
तृप्तास्तत्पितरः सर्वे प्रयान्ति परमं पदम् ॥ ३७ ॥
श्राद्धके अवसरपर जो मनुष्य ब्राह्मणोंके समीप इसका पाठ करता है, उसके सभी पितर तृप्त होकर परम पदको प्राप्त हो जाते हैं ॥ ३७ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वा सा भगवती तत्रैवान्तरधीयत ।
देवाश्च मुदिताः सर्वे देवीदर्शनतोऽभवन् ॥ ३८ ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] ऐसा कहकर वे भगवती वहींपर अन्तर्धान हो गयीं और देवीके दर्शनसे सभी देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ३८ ॥

ततो हिमालये जज्ञे देवी हैमवती तु सा ।
या गौरीति प्रसिद्धासीद्दत्ता सा शङ्कराय च ॥ ३९ ॥
तदनन्तर वे देवी हैमवती हिमालयके यहाँ उत्पन्न हुई, जो 'गौरी' नामसे प्रसिद्ध हुई । बादमें वे शंकरजीको प्रदान की गयीं । तत्पश्चात् कार्तिकेय उत्पन्न हुए और उन्होंने तारकासुरका संहार किया ॥ ३९ ॥

ततः स्कन्दः समुद्‌भूतस्तारकस्तेन पातितः ।
समुद्रमन्थने पूर्वं रत्‍नान्यासुर्नराधिप ॥ ४० ॥
तत्र देवैः स्तुता देवी लक्ष्मीप्राप्त्यर्थमादरात् ।
तेषामनुग्रहार्थाय निर्गता तु रमा ततः ॥ ४१ ॥
वैकुण्ठाय सुरैर्दत्ता तेन तस्य शमोऽभवत् ।
हे नराधिप ! पूर्व समयमें समुद्रमन्थनसे अनेक रत्न निकले । उस समय लक्ष्मीको प्रकट करनेके लिये देवताओंने आदरपूर्वक भगवतीकी स्तुति की । तब उन देवताओंपर अनुग्रह करनेके लिये वे भगवती ही पुनः रमा (लक्ष्मी) के रूपमें समुद्रसे प्रकट हुईं । देवताओंने उन लक्ष्मीको भगवान् विष्णुको सौंप दिया, इससे उन्हें परम शान्ति प्राप्त हुई । ४०-४१.५ ॥

इति ते कथितं राजन् देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ ४२ ॥
गौरीलक्ष्म्योः समुद्‌भूतिविषयं सर्वकामदम् ।
न वाच्यं त्वेतदन्यस्मै रहस्यं कथितं यतः ॥ ४३ ॥
गीता रहस्यभूतेयं गोपनीया प्रयत्‍नतः ।
सर्वमुक्तं स्मसेन यत्पृष्टं तत्त्वयानघ ।
पवित्रं पावनं दिव्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ४४ ॥
हे राजन् ! मैंने आपसे भगवतीके इस उत्तम माहात्यका वर्णन कर दिया । गौरी तथा लक्ष्मीकी उत्पत्तिसे सम्बन्धित यह प्रसंग सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है । मेरे द्वारा कहे गये इस रहस्यको किसी दूसरेको नहीं बताना चाहिये, क्योंकि रहस्यमयी यह गीता सदा प्रयत्नपूर्वक गोपनीय है । हे अनघ ! आपने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने आपको संक्षेपमें बता दिया । यह दिव्य प्रसंग [स्वयं] पवित्र है तथा दूसरोंको भी पवित्र करनेवाला है । अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ४२-४४ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां सप्तमस्कन्धे देवीगीतायां
बाह्यपूजाविधिवर्णनं नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४० ॥
अध्याय चालीसवाँ समाप्त ॥ ४० ॥
॥ सप्तमः स्कन्धः समाप्तः ॥


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